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गो-दान/२२

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गो-दान
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २३० से – २४५ तक

 

२२

इधर कुछ दिनों से राय साहब की कन्या के विवाह की बातचीत हो रही थी। उसके साथ ही एलेक्शन भी सिर पर आ पहुंँचा था;मगर इन सबों से आवश्यक उन्हें दीवानी में एक मुक़दमा दायर करना था जिसकी कोर्ट-फीस ही पचास हजार होती थी,ऊपर के खर्च अलग। राय साहब के साले जो अपनी रियासत के एकमात्र स्वामी थे,ऐन जवानी में मोटर लड़ जाने के कारण गत हो गये थे,और राय साहब अपने कुमार पुत्र की ओर से उस रियासत पर अधिकार पाने के लिए कानून की शरण लेना चाहते थे। उनके चचेरे सालों ने रियासत पर कब्जा जमा लिया था और राय साहब को उसमें से कोई हिस्सा देने पर तैयार न थे। राय साहब ने बहुत चाहा कि आपस में समझौता हो जाय और उनके चचेरे साले माकूल गुजारा लेकर हट जायें,यहाँ तक कि वह उस रियासत की आधी आमदनी छोड़ने पर तैयार थे;मगर सालों ने किसी तरह का समझौता स्वीकार न किया,और केवल लाठी के जोर से रियासत में तहसील-बसूल शुरू कर दी। राय साहब को अदालत की शरण जाने के सिवा कोई मार्ग न रहा। मुक़दमे में लाखों का खर्च था; मगर रियासत भी बीस लाख से कम की जायदाद न थी। वकीलों ने निश्चय रूप से कह दिया था कि आपकी शर्तिया डिग्री होगी। ऐसा मौक़ा कौन छोड़ सकता था? मुश्किल यही था कि यह तीनों काम एक साथ आ पड़े थे और उन्हें किसी तरह टाला न जा सकता था। कन्या की अवस्था १८ वर्ष की हो गयी थी और केवल हाथ में रुपए न रहने के कारण अब तक उसका विवाह टलता जाता था। खर्च का अनुमान एक लाख का था। जिसके पास जाते, वही बड़ा-सा मुँह खोलता; मगर हाल में एक बड़ा अच्छा अवसर हाथ आ गया था। कुँवर दिग्विजयसिंह की पत्नी यक्ष्मा की भेंट हो चुकी थी, और कुँवर साहब अपने उजड़े घर को जल्द से जल्द वसा लेना चाहते थ। सौदा भी वारे से तय हो गया और कहीं शिकार हाथ से निकल न जाय, इसलिए इसी लग्न में विवाह होना परमावश्यक था। कुँवर साहब दुर्वासनाओं के भण्डार थे। शराव, गाँजा, अफीम, मदक, चरस, ऐसा कोई नशा न था, जो वह न करते हों। और ऐयाशी तो रईस की शोभा है। वह रईस ही क्या, जो ऐयाश न हो। धन का उपभोग और किया ही कैसे जाय? मगर इन सव दुर्गुणों के होते हुए भी वह ऐसे प्रतिभावान् थे कि अच्छे-अच्छे विद्वान् उनका लोहा मानते थे।

संगीत, नाट्यकला, हस्तरेखा, ज्योतिष, योग, लाठी, कुश्ती, निशानेबाजी आदि कलाओं में अपना जोड़ न रखते थे। इसके साथ ही बड़े दबंग और निर्भीक थे। राष्ट्रीय आन्दोलन में दिल खोलकर सहयोग देते थे; हाँ, गुप्त रूप से। अधिकारियों से यह बात छिपी न थी, फिर भी उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी और साल में एक-दो बार गवर्नर साहब भी उनके मेहमान हो जाते थे। और अभी अवस्था तीस-बत्तीस से अधिक न थी और स्वास्थ्य तो ऐसा था कि अकेले एक बकरा खाकर हजम कर डालते थे। राय साहब ने समझा, बिल्ली के भागों छींका टूटा। अभी कुँवर साहव षोड़शी से निवृत्त भी न हुए थे कि राय साहब ने बातचीत शुरू कर दी। कुँवर साहब के लिए विवाह केवल अपना प्रभाव और शक्ति बढ़ाने का साधन था। राय साहब कौंसिल के मेम्बर थे ही; यों भी प्रभावशाली थे। राष्ट्रीय संग्राम में अपने त्याग का परिचय देकर श्रद्धा के पात्र भी बन चुके थे। शादी तय होने में कोई बाधा न हो सकती थी। और वह तय हो गयी।

रहा एलेक्शन। यह सोने की हँसिया थी, जिसे न उगलते बनता था, न निगलते। अब तक वह दो बार निर्वाचित हो चुके थे और दोनों ही बार उन पर एक-एक लाख की चपत पड़ी थी; मगर अबकी एक राजा साहब उसी इलाके से खड़े हो गये थे और डंके की चोट ऐलान कर दिया था कि चाहे हर एक वोटर को एक-एक हज़ार ही क्यों न देना पड़े, चाहे पचास लाख की रियासत मिट्टी में मिल जाय; मगर राय अमरपालसिंह को कौंसिल में न जाने दूँगा। और उन्हें अधिकारियों ने अपनी सहायता का आश्वासन भी दे दिया था। राय साहब विचारशील थे, चतुर थे, अपना नफानुक़सान समझते थे; मगर राजपूत थे। और पोतड़ों के रईस थे। वह चुनौती पाकर मैदान से कैसे हट जायँ? यों उनसे राजा सूर्यप्रतापसिंह ने आकर कहा होता, भाई साहब, आप तो दो बार कौंसिल में जा चुके, अबकी मुझे जाने दीजिए, तो शायद राय साहब ने उनका स्वागत किया होता। कौसिल का मोह अब उन्हें न था; लेकिन इस चुनौती के सामने ताल ठोंकने के सिवा और कोई राह ही न थी। एक मसलहत और भी थी। मिस्टर तंखा ने उन्हें विश्वास दिलाया था कि आप खड़े हो जायें, पीछे राजा साहब से एक लाख की थैली लेकर बैठ जाइएगा। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि राजा साहब बड़ी खुशी से एक लाख दे देंगे;मेरी उनसे बातचीत हो चुकी है; पर अब मालूम हुआ, राजा साहब राय साहब को परास्त करने का गौरव नहीं छोड़ना चाहते और इसका मुख्य कारण था, राय साहब की लड़की की शादी कुँवर साहब से ठीक होना। दो प्रभावशाली घरानों का संयोग वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए हानिकारक समझते थे। उधर राय साहब को ससुराली जायदाद मिलने की भी आशा थी। राजा साहब के पहलू में यह काँटा भी बुरी तरह खटक रहा था। कहीं वह जायदाद इन्हें मिल गयी––और कानून राय साहब के पक्ष में था ही––तब तो राजा साहब का एक प्रतिद्वन्दी खड़ा हो जायगा; इसलिए उनका धर्म था कि राय साहब को कुचल डालें और उनकी प्रतिष्ठा धूल में मिला दें।

बेचारे राय साहब बड़े संकट में पड़ गये थे। उन्हें यह सन्देह होने लगा था कि केवल अपना मतलब निकालने के लिए मिस्टर तंखा ने उन्हें धोखा दिया। यह खबर मिली थी कि अब राजा साहब के पैरोकार हो गये हैं। यह राय साहब के घाव पर नमक था। उन्होंने कई बार तंखा को बुलाया था; मगर वह या तो घर पर मिलते ही न थे, या आने का वादा करके भूल जाते थे। आखिर आज खुद उनसे मिलने का इरादा करके वह उनके पास जा पहुँचे। संयोग से मिस्टर तंखा घर पर मिल गये; मगर राय साहब को पूरे घंटे-भर उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी। यह वही मिस्टर तंखा हैं,जो राय साहब के द्वार पर एक बार रोज़ हाज़िरी दिया करते थे। आज इतना मिज़ाज हो गया है। जले बैठे थे। ज्योंही मिस्टर तंखा सजे-सजाये, मुँह में सिगार दबाये कमरे में आये और हाथ बढ़ाया कि राय साहब ने बमगोला छोड़ दिया––मैं घण्टे-भर से यहाँ बैठा हुआ हूँ और आप निकलते-निकलते अब निकले हैं। मैं इसे अपनी तौहीन समझता हूँ!

मिस्टर तंखा ने एक सोफे पर बैठकर निश्चित भाव से धुआँ उड़ाते हुए कहा––मुझे इसका खेद है। मैं एक ज़रूरी काम में लगा था। आपको फ़ोन करके मुझसे समय ठीक कर लेना चाहिए था।

आग में घी पड़ गया; मगर राय साहब ने क्रोध को दबाया। वह लड़ने न आये थे। इस अपमान को पी जाने का ही अवसर था। बोले––हाँ, यह गलती हुई। आजकल आपको बहुत कम फुरसत रहती है, शायद।

'जी हाँ, बहुत कम, वरना मैं अवश्य आता।'

'मै उसी मुआमले के बारे में आप से पूछने आया था। समझौता की तो कोई आशा नहीं मालूम होती। उधर तो जंग की तैयारियाँ बड़े जोरों से हो रही हैं।' 'राजा साहब को तो आप जानते ही हैं, झक्कड़ आदमी हैं, पूरे सनकी। कोई न कोई धुन उन पर सवार रहती है। आजकल यही धुन है कि राय साहब को नीचा दिखाकर रहेंगे। और उन्हें जब एक धुन सवार हो जाती है, तो फिर किसी की नहीं सुनते, चाहे कितना ही नुकसान उठाना पड़े। कोई चालीस लाख का बोझ सिर पर है, फिर भी वही दम-खम है, वही अलल्ले-तलल्ले खर्च हैं। पैसे को तो कुछ समझते ही नहीं। नौकरों का वेतन छ:-छ: महीने से बाक़ी पड़ा हुआ है। मगर हीरा-महल बन रहा है। संगमरमर का तो फर्श है। पच्चीकारी ऐसी हो रही है कि आँखें नहीं ठहरतीं। अफसरों के पास रोज डालियाँ जाती रहती हैं। सुना है, कोई अंग्रेज़ मैनेजर रखने वाले हैं।'

'फिर आपने कैसे कह दिया था कि आप कोई समझौता करा देंगे।'

'मुझसे जो कुछ हो सकता था वह मैंने किया। इसके सिवा मैं और क्या कर सकता था। अगर कोई व्यक्ति अपने दो-चार लाख रुपए फूंकने ही पर तुला हुआ हो, तो मेरा क्या बस!'

राय साहब अब क्रोध न सँभाल सके––खासकर जब उन दो-चार लाख रुपए में से दस-बीस हजार आपके हत्थे चढ़ने की भी आशा हो।

मिस्टर तंखा क्यों दबते। बोले––राय साहब, अब साफ़-साफ़ न कहलवाइए। यहाँ न मैं संन्यासी हूँ, न आप। हम सभी कुछ न कुछ कमाने ही निकले हैं। आँख के अन्धों और गाँठ के पूरों की तलाश आपको भी उतनी ही है, जितनी मुझको। आपसे मैंने खड़े होने का प्रस्ताव किया। आप एक लाख के लोभ से खड़े हो गये; अगर गोटी लाल हो जाती, तो आज आप एक लाख के स्वामी होते और बिना एक पाई कर्ज लिये कुँवर साहब से सम्बन्ध भी हो जाता और मुक़दमा भी दायर हो जाता; मगर आपके दुर्भाग्य से वह चाल पट पड़ गयी। जब आप ही ठाठ पर रह गये, तो मुझे क्या मिलता। आखिर मैंने झक मारकर उनकी पूंछ पकड़ी। किसी न किसी तरह यह वैतरणी तो पार करनी ही है।

राय साहब को ऐसा आवेश आ रहा था कि इस दुष्ट को गोली मार दें। इसी बदमाश ने सब्ज बाग दिखाकर उन्हें खड़ा किया और अब अपनी सफाई दे रहा है, पीठ में धूल भी नहीं लगने देता, लेकिन परिस्थिति ज़बान बन्द किये हुए थी।

'तो अब आपके किये कुछ नहीं हो सकता?'

'ऐसा ही समझिए।'

'मैं पचास हजार पर भी समझौता करने को तैयार हूँ।'

'राजा साहब किसी तरह न मानेंगे।'

'पच्चीस हज़ार पर तो मान जायँगे?'

'कोई आशा नहीं। वह साफ़ कह चुके हैं।'

'वह कह चुके हैं या आप कह रहे हैं?'

'आप मुझे झूठा समझते हैं?' राय साहब ने विनम्र स्वर में कहा––मैं आपको झूठा नहीं समझता; लेकिन इतना जरूर समझता हूँ कि आप चाहते, तो मुआमला हो जाता।'

'तो आप का ख्याल है, मैंने समझौता नहीं होने दिया?'

'नहीं, यह मेरा मतलब नहीं है। मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि आप चाहते तो काम हो जाता और मैं इस झमेले में न पड़ता।'

मिस्टर तंखा ने घड़ी की तरफ़ देखकर कहा––तो राय साहब, अगर आप साफ़ कहलाना चाहते हैं, तो सुनिए––अगर आपने दस हजार का चेक मेरे हाथ में रख दिया होता, तो आज निश्चय एक लाख के स्वामी होते। आप शायद चाहते होंगे, जब आपको राजा साहब से रुपए मिल जाते, तो आप मुझे हज़ार-दो-हजार दे देते। तो मैं ऐसी कच्ची गोली नहीं खेलता। आप राजा साहब से रुपए लेकर तिजोरी में रखते और मुझे अँगूठा दिखा देते। फिर मैं आपका क्या बना लेता? बतलाइए? कहीं नालिश-फ़रियाद भी तो नहीं कर सकता था।

राय साहब ने आहत नेत्रों से देखा––आप मुझे इतना बेईमान समझते हैं?

तंखा ने कुरसी से उठते हुए कहा––इसे बेईमानी कौन समझता है। आजकल यही चतुराई है। कैसे दूसरों को उल्लू बनाया जा सके, यही सफल नीति है; और आप इसके आचार्य हैं।

राय साहब ने मुट्ठी बाँधकर कहा––मैं?

'जी हाँ, आप! पहले चुनाव में मैंने जी-जान से आपकी पैरवी की। आपने बड़ी मुश्किल से रो धो कर पाँच सौ रुपए दिये, दूसरे चुनाव में आपने एक सड़ी-सी टूटी-फूटी कार देकर अपना गला छुड़ाया। दूध का जला छाँछ भी फूंक-फूंलककर पीता है।'

वह कमरे से निकल गये और कार लाने का हुक्म दिया।

राय साहब का खून खौल रहा था। इस अशिष्टता की भी कोई हद है। एक तो घंटे-भर इन्तज़ार कराया और अब इतनी बेमुरौवती से पेश आकर उन्हें जबरदस्ती घर से निकाल रहा है। अगर उन्हें विश्वास होता कि वह मिस्टर तंखा को पटकनी दे सकते हैं, तो कभी न चूकते; मगर तंखा डील-डौल में उनसे सवाये थे। जब मिस्टर तंखा ने हार्न बजाया, तो वह भी आकर अपनी कार पर बैठे और सीधे मिस्टर खन्ना के पास पहुंँचे।

नौ बज रहे थे; मगर खन्ना साहब अभी तक मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे। वह दो बजे रात के पहले कभी न सोते थे और नौ बजे तक सोना स्वाभाविक ही था। यहाँ भी राय साहब को आधा घंटा बैठना पड़ा; इसलिए जब कोई साढ़े नौ बजे मिस्टर खन्ना मुस्कराते हुए निकले तो राय साहब ने डाँट बताई––अच्छा! अब सरकार की नींद खुली है, साढ़े नौ बजे। रुपए जमा कर लिये हैं न, जभी यह बेफ़िक्री है। मेरी तरह ताल्लुकेदार होते, तो अब तक आप भी किसी द्वार पर खड़े होते। बैठे-बैठे सिर में चक्कर आ जाता।

मिस्टर खन्ना ने सिगरेट-केस उनकी तरफ़ बढ़ाते हुए प्रसन्न मुख से कहा––रात सोने में बड़ी देर हो गयी। इस वक्त किधर से आ रहे हैं? राय साहब ने थोड़े से शब्दों में अपनी सारी कठिनाइयाँ बयान कर दीं। दिल में खन्ना को गालियाँ देते थे, जो उनका सहपाठी होकर भी सदैव उन्हें ठगने की फ़िक किया करता था; मगर मुँह पर उसकी खुशामद करते थे।

खन्ना ने ऐसा भाव बनाया, मानो उन्हें बड़ी चिन्ता हो गयी है, बोले––मेरी तो सलाह है; आप एलेक्शन को गोली मारें, और अपने सालों पर मुकदमा दायर कर दें। रही शादी, वह तो तीन दिन का तमाशा है। उसके पीछे जेरबार होना मुनासिब नहीं। कुँवर साहब मेरे दोस्त हैं, लेन-देन का कोई सवाल न उठने पायेगा।

राय साहब ने व्यंग करके कहा––आप यह भूल जाते हैं मिस्टर खन्ना कि मैं बैकर नहीं, ताल्लुकेदार हूँ। कुँवर साहब दहेज नहीं माँगते, उन्हें ईश्वर ने सब कुछ दिया है, लेकिन आप जानते है, यह मेरी अकेली लड़की है और उसकी माँ मर चुकी है। वह आज जिन्दा होती तो शायद सारा घर लुटाकर भी उसे संतोष न होता। तब शायद मै उसे हाथ रोककर खर्च करने का आदेश देता; लेकिन अब तो मैं उसकी माँ भी हूँ बाप भी हूँ। अगर मुझे अपने हृदय का रक्त निकालकर भी देना पड़े, तो मैं खुशी से दे दूँगा। इस विधुर-जीवन में मैंने सन्तान-प्रेम में ही अपनी आत्मा की प्यास बुझाई है। दोनों बच्चों के प्यार में ही अपने पत्नी-व्रत का पालन किया है। मेरे लिए यह असम्भव है कि इस शुभ अवसर पर अपने दिल के अरमान न निकालूँ। मैं अपने मन को तो समझा सकता हूँ पर जिसे मैं पत्नी का आदेश समझता हूँ, उसे नहीं समझाया जा सकता। और एलेक्शन के मैदान मे भागना भी मेरे लिए सम्भव नहीं है। मैं जानता हूँ, मैं हारूँगा। राजा साहब से मेरा कोई मुकाबला नहीं; लेकिन राजा साहब को इतना जरूर दिखा देना चाहता हूँ कि अमरपालसिंह नर्म चारा नहीं है।

'और मुक़दमा दायर करना तो आवश्यक ही है?'

'उसी पर तो सारा दारोमदार है। अब आप बतलाइए, आप मेरी क्या मदद कर सकते हैं?'

'मेरे डाइरेक्टरों का इस विषय में जो हुक्म है, वह आप जानते ही हैं। और राजा साहब भी हमारे डाइरेक्टर हैं, यह भी आपको मालूम है। पिछला वसूल करने के लिए बार-बार ताकीद हो रही है। कोई नया मुआमला तो शायद ही हो सके।'

राय साहब ने मुँह लटकाकर कहा––आप तो मेरा डोंगा ही डुबाये देते हैं मिस्टर खन्ना!

'मेरे पास जो कुछ निज का है, वह आपका है; लेकिन बैक के मुआमले में तो मुझे अपने स्वामियों के आदेशों को मानना ही पड़ेगा।'

'अगर यह जायदाद हाथ आ गयी, और मुझे इसकी पूरी आशा है, तो पाई-पाई अदा कर दूंँगा।'

'आप बतला सकते हैं, इस वक्त आप कितने पानी में हैं?'

राय साहब ने हिचकते हुए कहा––पाँच-छ:लाख समझिए। कुछ कम ही होंगे। खन्ना ने अविश्वास के भाव से कहा––या तो आपको याद नहीं है, या आप छिपा रहे हैं।

राय साहब ने जोर देकर कहा––जी नहीं, मैं न भूला हूँ, और न छिपा रहा हूँ। मेरी जायदाद इस वक्त कम से कम पचास लाख की है और ससुराल की जायदाद भी इससे कम नही है। इतनी जायदाद पर दस-पाँच लाख का बोझ कुछ नहीं के बराबर है।

'लेकिन यह आप कैसे कह सकते हैं कि ससुराली जायदाद पर भी कर्ज नही है।'

'जहाँ तक मुझे मालूम है,वह जायदाद बे-दाग़ है।'

'और मुझे यह सूचना मिली है कि उस जायदाद पर दस लाख से कम का भार नहीं है। उस जायदाद पर तो अब कुछ मिलने से रहा, और आपकी जायदाद पर भी मेरे खयाल में दस लाख से कम देना नहीं है। और वह जायदाद अब पचास लाख की नहीं मुश्किल से पचीस लाख की है। इस दशा में कोई बैंक आपको कर्ज़ नहीं दे सकता। यों समझ लीजिए कि आप ज्वालामुखी के मुख पर खड़े हैं। एक हल्की सी ठोकर आपको पाताल में पहुँचा सकती है। आपको इस मौके पर बहुत सँभलकर चलना चाहिए।'

राय साहब ने उनका हाथ अपनी तरफ़ खींचकर कहा––यह सब मैं खूब समझता हूँ, मित्रवर! लेकिन जीवन की ट्रेजेडी और इसके सिवा क्या है कि आपकी आत्मा जो काम करना नहीं चाहती, वही आपको करना पड़े। आपको इस मौके पर मेरे लिए कम से कम दो लाख का इन्तजाम करना पड़ेगा।

खन्ना ने लम्बी साँस लेकर कहा––माई गाड! दो लाख। असम्भव, बिलकुल असम्भव!

'मैं तुम्हारे द्वार पर सर पटककर प्राण दे दूँगा, खन्ना इतना समझ लो। मैंने तुम्हारे ही भरोसे यह सारे प्रोग्राम बाँधे हैं। अगर तुमने निराश कर दिया, तो शायद मुझे जहर खा लेना पड़े। मैं सूर्यप्रतापसिंह के सामने घुटने नहीं टेक सकता। कन्या का विवाह अभी दो चार महीने टल सकता है। मुक़दमा दायर करने के लिए अभी काफ़ी वक्त है; लेकिन यह एलेक्शन सिर पर आ गया है, और मुझे सबसे बड़ी फिक्र यही है।'

खन्ना ने चकित होकर कहा––तो आप एलेक्शन में दो लाख लगा देंगे?

'एलेक्शन का सवाल नहीं है भाई, यह इज्जत का सवाल है। क्या आपकी राय में मेरी इज्जत दो लाख की भी नहीं। मेरी सारी रियासत बिक जाय, ग़म नहीं; मगर सूर्यप्रतापसिंह को मैं आसानी से विजय न पाने दूँगा।'

खन्ना ने एक मिनट तक धुआँ निकालने के बाद कहा––बैंक की जो स्थिति है वह मैंने आपके सामने रख दी। बैंक ने एक तरह से लेन-देन का काम बन्द कर दिया है। मैं कोशिश करूँगा कि आपके साथ खास रिआयत की जाय; लेकिन Business is Business यह आप जानते हैं। पर मेरा कमीशन क्या रहेगा? मुझे आपके लिए खास तौर पर सिफ़ारिश करनी पड़ेगी; राजा साहब का अन्य डाइरेक्टरों पर कितना प्रभाव है, यह भी आप जानते हैं। मुझे उनके खिलाफ़ गुट-बन्दी करनी पड़ेगी। यों समझ लीजिए कि मेरी ज़िम्मेदारी पर ही मुआमला होगा।

राय साहब का मुँह गिर गया। खन्ना उनके अन्तरंग मित्रों में थे। साथ के पढ़े हुए, साथ के बैठनेवाले। और यह उनसे कमीशन की आशा रखते हैं, इतने बेमुरव्वती? आखिर वह जो इतने दिनों से खन्ना की खुशामद करते हैं, वह किस दिन के लिए? बाग में फल निकले, शाक-भाजी पैदा हो, सब से पहले खन्ना के पास डाली भेजते हैं। कोई उत्सव हो, कोई जलसा हो, सबसे पहले खन्ना को निमन्त्रण देते हैं। उसका यह जवाब हो। उदास मन से बोले––आपकी जो इच्छा हो; लेकिन मैं आपको अपना भाई समझता था।

खन्ना ने कृतज्ञता के भाव से कहा––यह आपकी कृपा है। मैंने भी सदैव आपको अपना बड़ा भाई समझा है और अब भी समझता हूँ। कभी आपसे कोई पर्दा नहीं रखा, लेकिन व्यापार एक दूसरा क्षेत्र है। यहाँ कोई किसी का दोस्त नहीं कोई किसी का भाई नहीं। जिस तरह मैं भाई के नाते आपसे यह नहीं कह सकता कि मुझे दूसरों से ज्यादा कमीशन दीजिए, उसी तरह आपको भी मेरे कमीशन में रियायत के लिए आग्रह न करना चाहिए। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, कि मैं जितनी रिआयत आप के साथ कर सकता हूँ, उतना करूंगा। कल आप दफ्तर के वक्त आयें और लिखा-पढ़ी कर लें। बस, विजनेस खत्म। आपने कुछ और सुना! मेहता साहब आजकल मालती पर बे-तरह रीझे हुए हैं। सारी फिलासफ़ी निकल गयी। दिन में एकदो बार ज़रूर हाज़िरी दे आते हैं, और शाम को अक्सर दोनों साथ-साथ सैर करने निकलते हैं। यह तो मेरी ही शान थी कि कभी मालती के द्वार पर सलामी करने न गया। शायद अब उसी की कसर निकाल रही है। कहाँ तो यह हाल था कि जो कुछ हैं, मिस्टर खन्ना हैं। कोई काम होता, तो खन्ना के पास दौड़ी आती। जब रुपयों की ज़रूरत पड़ती तो खन्ना के नाम पुरज़ा आता। और कहाँ अब मुझे देखकर मुँह फेर लेती हैं। मैंने खास उन्हीं के लिए फ्राँस से एक घड़ी मँगवाई थी। बड़े शौक से लेकर गया; मगर नहीं ली। अभी कल मेवों की डाली भेजी थी––काश्मीर से मँगवाये थे वापस कर दी। मुझे तो आश्चर्य होता है कि आदमी इतनी जल्द कैसे इतना बदल जाता है।

राय साहब मन में तो उनकी बेक़द्री पर खुश हुए; पर सहानुभूति दिखाकर बोले––अगर यह भी मान लें कि मेहता से उसका प्रेम हो गया है, तो भी व्यवहार तोड़ने का कोई कारण नहीं है।

खन्ना व्यथित स्वर में बोले––यही तो रंज है भाई साहब! यह तो मैं शुरू से जानता था वह मेरे हाथ नहीं आ सकती! मैं आप से सत्य कहता हूँ, मैं कभी इस धोखे में नहीं पड़ा कि मालती को मुझसे प्रेम है। प्रेम-जैसी चीज़ उनसे मिल सकती है, इसकी मैंने कभी आशा ही नहीं की। मैं तो केवल उनके रूप का पुजारी था।
साँप में विष है,यह जानते हुए भी हम उसे दूध पिलाते हैं। तोते से ज्यादा निठुर जीव और कौन होगा;लेकिन केवल उसके रूप और वाणी पर मुग्ध होकर लोग उसे पालते हैं और सोने के पिंजरे में रखते हैं। मेरे लिए भी मालती उसी तोते के समान थी। अफ़सोस यही है कि मैं पहले क्यों न चेत गया। इसके पीछे मैंने अपने हज़ारों रुपए बरबाद कर दिये भाई साहब! जब उसका रुक्का पहुँचा,मैंने तुरन्त रुपए भेजे। मेरी कार आज भी उसकी सवारी में है। उसके पीछे मैंने अपना घर चौपट कर दिया भाई साहब! हृदय में जितना रस था,वह ऊसर की ओर इतने वेग से दौड़ा कि दूसरी तरफ़ का उद्यान बिलकुल सूखा रह गया। बरसों हो गये,मैंने गोविन्दी से दिल खोलकर बात भी नहीं की। उसकी सेवा और स्नेह और त्याग से मुझे उसी तरह अरुचि हो गयी थी,जैसे अजीर्ण के रोगी को मोहनभोग से हो जाती है। मालती मुझे उसी तरह नचाती थी,जैसे मदारी बन्दर को नचाता है ) और मैं खुशी से नाचता था। वह मेरा अपमान करती थी और मैं खुशी से हँसता था। वह मुझ पर शासन करती थी और मैं सिर झुकाता था। उसने मुझे कभी मुंह नहीं लगाया,यह मैं स्वीकार करता हूँ। उसने मुझे कभी प्रोत्साहन नहीं दिया,यह भी सत्य है,फिर भी मैं पतंग की भाँति उसके मुख-दीप पर प्राण देता था। और अब वह मुझसे शिष्टाचार का व्यवहार भी नहीं कर सकती! लेकिन भाई साहब! मैं कहे देता हूँ कि खन्ना चुप बैठनेवाला आदमी नहीं है। उसके पुरजे मेरे पास सुरक्षित हैं;मैं उससे एक-एक पाई वसूल कर लूंगा,और डाक्टर मेहता को तो मैं लखनऊ से निकालकर दम लंगा। उनका रहना यहाँ असम्भव कर दूंगा......

उसी वक्त हार्न की आवाज आयी और एक क्षण में मिस्टर मेहता आकर खड़े हो गये। गोरा चिट्टा रंग,स्वास्थ्य की लालिमा गालों पर चमकती हुई,नीची अचकन,चूड़ीदार पाजामा, सुनहली ऐनक। सौम्यता के देवता-से लगते थे।

खन्ना ने उठकर हाथ मिलाया-आइए मिस्टर मेहता, आप ही का ज़िक्र हो रहा था।

मेहता ने दोनों सज्जनों से हाथ मिलाकर कहा-बड़ी अच्छी साइत में घर से चला था कि आप दोनों साहबों से एक ही जगह भेंट हो गयी। आपने शायद पत्रों में देखा होगा,यहाँ महिलाओं के लिए एक व्यायामशाला का आयोजन हो रहा है। मिस मालती उस कमेटी की सभानेत्री हैं। अनुमान किया गया है कि शाला में दो लाख रुपए लगेंगे। नगर में उसकी कितनी ज़रूरत है,यह आप लोग मुझसे ज्यादा जानते हैं। मैं चाहता हूँ आप दोनों साहबों का नाम सबसे ऊपर हो। मिस मालती खुद आनेवाली थीं;पर आज उनके फ़ादर की तबियत अच्छी नहीं है,इसलिए न आ सकीं।

उन्होंने चन्दे की सूची राय साहब के हाथ में रख दी। पहला नाम राजा सूर्यप्रतापसिंह का था जिसके सामने पाँच हजार रुपए की रक़म थी। उसके बाद कुँवर दिग्विजयसिंह के तीन हजार रुपए थे। इसके बाद और कई रकमें इतनी या इससे कुछ कम थीं। मालती ने पाँच सौ रुपये दिये थे और डाक्टर मेहता ने एक हजार रुपए। राय साहब ने अप्रतिभ होकर कहा––कोई चालीस हज़ार तो आप लोगों ने फटकार लिये।

मेहता ने गर्व से कहा––यह सब आप लोगों की दया है। और यह केवल तीन घंटों का परिश्रम है। राजा सूर्यप्रतापसिंह ने शायद ही किसी सार्वजनिक कार्य में भाग लिया हो; पर आज तो उन्होंने बे-कहे-सुने चेक लिख दिया! देश में जागृति है। जनता किसी भी शुभ काम में सहयोग देने को तैयार है। केवल उसे विश्वास होना चाहिए कि उसके दान का सद्व्यय होगा। आपसे तो मुझे बड़ी आशा है, मिस्टर खन्ना!

खन्ना ने उपेक्षा-भाव से कहा––मैं ऐसे फ़जूल के कामों में नहीं पड़ता। न जाने आप लोग पच्छिम की गुलामी में कहाँ तक जायेंगे। यों ही महिलाओं को घर से अरुचि हो रही है। व्यायाम की धुन सवार हो गयी, तो वह कहीं की न रहेंगी। जो औरत घर का काम करती है, उसके लिए किसी व्यायाम की ज़रूरत नहीं। और जो घर का कोई काम नहीं करती और केवल भोग-विलास में रत है, उसके व्यायाम के लिए चन्दा देना मैं अधर्म समझता हूँ।

मेहता ज़रा भी निरुत्साह न हुए––ऐसी दशा में मैं आपसे कुछ माँगूंगा भी नहीं। जिस आयोजन में हमें विश्वास न हो उसमें किसी तरह की मदद देना वास्तव में अधर्म है। आप तो मिस्टर खन्ना से सहमत नहीं हैं राय साहब!

राय साहब गहरी चिन्ता में डूबे हुए थे। सूर्यप्रताप के पाँच हजार उन्हें हतोत्साह किये डालते थे। चौककर बोले––आपने मुझसे कुछ कहा?

'मैंने कहा, आप तो इस आयोजन में सहयोग देना अधर्म नहीं समझते?'

'जिस काम में आप शरीक हैं, वह धर्म है या अधर्म, इसकी मैं परवाह नहीं करता।'

'मैं चाहता हूँ, आप खुद विचार करें। और अगर आप इस आयोजन को समाज के लिए उपयोगी समझें, तो उसमें सहयोग दें। मिस्टर खन्ना की नीति मुझे बहुत पसन्द आयी।

खन्ना बोले––मैं तो साफ़ कहता हूँ और इसीलिए बदनाम हूँ।

राय साहब ने दुर्बल मुस्कान के साथ कहा––मुझ में तो विचार करने की शक्ति ही नहीं। सज्जनों के पीछे चलना ही मैं अपना धर्म समझता हूँ।

'तो लिखिए कोई अच्छी रकम।'

'जो कहिए, वह लिख दूँ।'

'जो आप की इच्छा।'

'आप जो कहिए,वह लिख दूँ।'

'तो दो हजार से कम क्या लिखिएगा।'

राय साहब ने आहत स्वर में कहा––आपकी निगाह में मेरी यही हैसियत है?

उन्होंने क़लम उठाया और अपना नाम लिखकर उसके सामने पाँच हजार लिख दिये। मेहता ने सूची उनके हाथ से ले ली; मगर उन्हें इतनी ग्लानि हुई कि राय
साहब को धन्यवाद देना भी भूल गये। राय साहब को चन्दे की सूची दिखाकर उन्होंने बड़ा अनर्थ किया,यह शूल उन्हें व्यथित करने लगा।।

मिस्टर खन्ना ने राय साहब को दया और उपहास की दृष्टि से देखा,मानो कह रहे हों,कितने बड़े गधे हो तुम!

सहसा मेहता राय साहब के गले लिपट गये और उन्मुक्त कंठ से बोले-Thrce checrs for Rai Sahib, Hip Hip Hurrah!

खन्ना ने खिसियाकर कहा-यह लोग राजे-महराजे ठहरे, यह इन कामों में दान न दें,तो कौन दे।

मेहता बोले- मैं तो आपको राजाओं का राजा समझता हूँ। आप उन पर शासन करते हैं। उनकी कोठी आपके हाथ में है।

राय साहब प्रसन्न हो गये---यह आपने बड़े मार्के की वात कही मेहता जी! हम नाम के राजा हैं। असली राजा तो हमारे बैंकर है।

मेहता ने खन्ना की खुशामद का पहल अख्तियार किया-मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है खन्नाजी! आप अभी इस काम में नहीं गरीक होना चाहते,न सही,लेकिन कभी न कभी आप ज़रूर आयेंगे। लक्ष्मीपतियों की बदौलत ही हमारी बड़ी-बड़ी संस्थाएं चलती हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन को दो-तीन साल तक किसने इतनी धूम-धाम से चलाया! इतनी धर्मशालायें और पाठशालायें कौन बनवा रहा है? आज संसार का शासन-सूत्र बैंकरों के हाथ में है। सरकार उनके हाथ का खिलौना है। मैं भी आपसे निराश नहीं हूँ। जो व्यक्ति राष्ट्र के लिए जेल जा सकता है,उसके लिए दो-चार हज़ार खर्च कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। हमने तय किया है,इस शाला का बुनियादी पत्थर गोविन्दी देवी के हाथों रखा जाय। हम दोनों शीघ्र ही गवर्नर साहब से भी मिलेंगे और मुझे विश्वास है,हमें उनकी सहायता मिल जायगी। लेडी विलसन को महिला-आन्दोलन से कितना प्रेम है,आप जानते ही हैं। राजा साहब की और अन्य सज्जनों की भी राय थी कि लेडी विलसन से ही बुनियाद रखवाई जाय;लेकिन अन्त में यही निश्चय हुआ कि यह शुभ कार्य किसी अपनी बहन के हाथों होना चाहिए। आप कम-से-कम इस अवसर पर आयेंगे तो ज़रूर ?

खन्ना ने उपहास किया--हाँ,जब लार्ड विलसन आयेंगे तो मेरा पहुँचना ज़रूरी ही है। इस तरह आप बहुत-से रईसों को फाँस लेंगे। आप लोगों को लटके खूब सूझते हैं। और हमारे रईस हैं भी इस लायक़। उन्हें उल्लू बनाकर ही मूंडा जा सकता है।

'जब धन ज़रूरत से ज्यादा हो जाता है,तो अपने लिए निकास का मार्ग खोजता है। यों न निकल पायगा तो जुए में जायगा,घुड़दौड़ में जायगा,ईट-पत्थर में जायगा,या ऐयाशी में जायगा।'

ग्यारह का अमल था। खन्ना साहब के दफ्तर का समय आ गया। मेहता चले गये। राय साहब भी उठे कि खन्ना ने उनका हाथ पकड़कर बैठा लिया-नहीं,आप जरा बैठिए। आप देख रहे हैं,मेहता ने मुझे इस बुरी तरह फाँसा है कि निकलने का
कोई रास्ता ही नहीं रहा। गोविन्दी से बुनियाद का पत्थर रखवायेंगे! ऐसी दशा में मेरा अलग रहना हास्यास्पद है या नहीं। गोविन्दी कैसे राजी हो गयी,मेरी समझ में नहीं आता और मालती ने कैसे उसे सहन कर लिया,यह समझना और भी कठिन है। आपका क्या खयाल है,इसमें कोई रहस्य है या नहीं?

राय साहब ने आत्मीयता जताई-ऐसे मुआमले में स्त्री को हमेशा पुरुष से सलाह ले लेनी चाहिए!

खन्ना ने राय साहब को धन्यवाद की आँखों से देखा-इन्हीं बातों पर गोविन्दी से मेरा जी जलता है,और उस पर मुझी को लोग बुरा कहते हैं। आप ही सोचिए,मुझे इन झगड़ों से क्या मतलब। इनमें तो वह पड़े,जिसके पास फालतू रुपए हों, फालतू समय हो और नाम की हवस हो। होना यही है कि दो-चार महाशय सेक्रेटरी और अण्डर सेक्रेटरी और प्रधान और उपप्रधान बनकर अफ़सरों को दावतें देंगे,उनके कृपापात्र बनेंगे और यूनिवर्सिटी की छोकरियों को जमा करके बिहार करेंगे। व्यायाम तो केवल दिखाने के दांत हैं। ऐसी संस्था में हमेशा यही होता है और यही होगा और उल्लू बनेंगे हम,और हमारे भाई, जो धनी कहलाते हैं और यह सब गोविन्दी के कारण।

वह एक बार कुरसी से उठे,फिर बैठ गये। गोविन्दी के प्रति उनका क्रोध प्रचण्ड होता जाता था। उन्होंने दोनों हाथ से सिर को संभालकर कहा-मैं नहीं समझता,मुझे क्या करना चाहिए।

राय साहब ने ठकुर-सोहाती की-कुछ नहीं,आप गोविन्दी देवी से साफ़ कह दें,तुम मेहता को इनकारी खत लिख दो,छुट्टी हुई। मैं तो लाग-डाँट में फंस गया। आप क्यों फंसें?

खन्ना ने एक क्षण इस प्रस्ताव पर विचार करके कहा–लेकिन सोचिए,कितना मुश्किल काम है। लेडी विलसन से इसका ज़िक्र आ चुका होगा,सारे शहर में खबर फैल गयी होगी और शायद आज पत्रों में भी निकल जाय। यह सब मालती की शरारत है। उसीने मुझे ज़िच करने का यह ढंग निकाला है।

'हाँ,मालूम तो यही होता है।'

'वह मुझे ज़लील करना चाहती है।'

'आप शिलान्यास के एक दिन पहले बाहर चले जाइएगा।'

'मुश्किल है राय साहब! कहीं मुंह दिखाने की जगह न रहेगी। उस दिन तो मुझे हैज़ा भी हो जाय तो वहाँ जाना पड़ेगा।'

राय साहब आशा बाँधे हुए कल आने का वादा करके ज्यों ही निकले कि खन्ना ने अन्दर जा कर गोविन्दी को आड़े हाथों लिया-तुमने इस व्यायामशाला की नींव रखना क्यों स्वीकार किया?

गोविन्दी कैसे कहे कि यह सम्मान पाकर वह मन में कितनी प्रसन्न हो रही थी,उस अवसर के लिए कितने मनोनियोग से अपना भाषण लिख रही थी और कितनी ओजभरी कविता रची थी। उसने दिल में समझा था,यह प्रस्ताव स्वीकार करके वह
खन्ना को प्रसन्न कर देगी। उसका सम्मान तो उसके पति ही का सम्मान है। खन्ना को इसमें कोई आपत्ति हो सकती है,इसकी उसने कल्पना भी न की थी। इधर कई दिन से पति को कुछ सदय देखकर उसका मन बढ़ने लगा था। वह अपने भाषण से, और अपनी कविता से लोगों को मुग्ध कर देने का स्वप्न देख रही थी।

यह प्रश्न सुना और खन्ना की मुद्रा देखी,तो उसकी छाती धक-धक् करने लगी। अपराधी की भाँति बोली-डाक्टर मेहता ने आग्रह किया,तो मैंने स्वीकार कर लिया।

'डाक्टर मेहता तुम्हें कुएँ में गिरने को कहें,तो शायद इतनी खुशी से न तैयार होगी।'

गोविन्दी की ज़बान बन्द।

'तुम्हें जब ईश्वर ने बुद्धि नहीं दी, तो क्यों मुझसे नहीं पूछ लिया? मेहता और मालती,दोनों यह चाल चलकर मुझसे दो-चार हज़ार ऐंठने की फ्रिक में हैं। और मैंने ठान लिया है कि कौड़ी भी न दूंगा। तुम आज ही मेहता को इनकारी खत लिख दो।'

गोविन्दी ने एक क्षण सोचकर कहा-तो तुम्हीं लिख दो न।

'मैं क्यों लिखू? बात की तुमने,लिखू मैं!'

'डाक्टर साहब कारण पूछेगे,तो क्या बताऊँगी?'

'बताना अपना सिर और क्या। मैं इस व्यभिचारशाला को एक धेली भी नहीं देना चाहता।'

'तो तुम्हें देने को कौन कहता है?'

खन्ना ने होंठ चबाकर कहा-कैसी बेसमझी की-सी बातें करती हो? तुम वहाँ नींव रखोगी और कुछ दोगी नहीं,तो संसार क्या कहेगा?

गोविन्दी ने जैसे संगीन की नोक पर कहा-अच्छी बात है,लिख दूंगी।

'आज ही लिखना होगा।'

'कह तो दिया लिखूगी।'

खन्ना बाहर आये और डाक देखने लगे। उन्हें दफ्तर जाने में देर हो जाती थी तो चपरासी घर पर ही डाक दे जाता था। शक्कर तेज़ हो गयी। खन्ना का चेहरा खिल उठा। दूसरी चिट्ठी खोली। ऊख की दर नियत करने के लिए जो कमेटी बैठी थी, उसने तय कर लिया कि ऐसा नियंत्रण नहीं किया जा सकता। धत् तेरी की! वह पहले यही बात कह रहे थे;पर इस अग्निहोत्री ने गुल मचाकर जबरदस्ती कमेटी बैठाई। आखिर बचा के मुंह पर थप्पड़ लगा। यह मिलवालों और किसानों के बीच का मुआमला है। सरकार इसमें दखल देनेवाली कौन?

सहसा मिस मालती कार से उतरी। कमल की भाँति खिली,दीपक की भाँति दमकती,स्फूर्ति और उल्लास की प्रतिमा-सी-निश्शंक,निर्द्वन्द्व मानों उसे विश्वास है कि संसार में उसके लिए आदर और सुख का द्वार खुला हुआ है। खन्ना ने बरामदे में आकर अभिवादन किया।

मालती ने पूछा-क्या यहाँ मेहता आये थे? 'हाँ,आये तो थे।'

'कुछ कहा,कहाँ जा रहे हैं?'

'यह तो कुछ नहीं कहा।'

'जाने कहाँ डुबकी लगा गये। मैं चारों तरफ घूम आयी। आपने व्यायामशाला के लिए कितना दिया?'

खन्ना ने अपराधी-स्वर में कहा-मैंने इस मुआमले को समझा ही नहीं।

मालती ने बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें तरेरा,मानों सोच रही हो कि उन पर दया करे या रोष।

'इसमें समझने की क्या बात थी,और समझ लेते आगे-पीछे,इस वक्त तो कुछ देने की बात थी। मैंने मेहता को ठेलकर यहाँ भेजा था। बेचारे डर रहे थे कि आप न जाने क्या जवाब दें। आपकी इस कंजूसी का क्या फल होगा,आप जानते हैं? यहाँ के व्यापारी समाज से कुछ न मिलेगा। आपने शायद मुझे अपमानित करने का निश्चय कर लिया है। सवकी सलाह थी कि लेडी विलसन बुनियाद रखें। मैंने गोविन्दी देवी का पक्ष लिया और लड़कर सब को राजी किया और अब आप फ़रमाते हैं,आपने इस मुआमले को समझा ही नहीं। आप बैंकिंग की गुत्थियाँ समझते हैं। पर इतनी मोटी वात आप की समझ में न आयी। इसका अर्थ इसके सिवा और कुछ नहीं है,कि तुम मुझे लज्जित करना चाहते हो। अच्छी बात है,यही सही?'

मालती का मुख लाल हो गया था। खन्ना घबराये, हेकड़ी जाती रही;पर इसके साथ ही उन्हें यह भी मालूम हुआ कि अगर वह काँटों में फंस गये हैं,तो मालती दलदल में फंस गयी है;अगर उनकी थैलियों पर संकट आ पड़ा है,तो मालती की प्रतिष्ठा पर संकट आ पड़ा है,जो थैलियों से ज्यादा मूल्यवान है। तब उनका मन मालती की दुरवस्था का आनन्द क्यों न उठाये? उन्होंने मालती को अरदव में डाल दिया था। और यद्यपि वह उमे रुष्ट कर देने का साहम खो चुके थे;पर दो-चार खरी-खरी बातें कह सुनाने का अवसर पाकर छोड़ना न चाहते थे। यह भी दिखा देना चाहते थे कि मैं निरा भोंदू नहीं हूँ। उसका रास्ता रोककर बोले--तुम मुझपर इतनी कृपालु हो गयी हो,इस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है मालती!

मालती ने भवें सिकोड़कर कहा-मैं इसका आशय नहीं समझी।

'क्या अव मेरे साथ तुम्हारा वही बर्ताव है,जो कुछ दिन पहले था?'

'मैं तो उसमें कोई अन्तर नहीं देखती।'

'लेकिन मैं तो आकाश-पाताल का अन्तर देखता हूँ।'

'अच्छा मान लो,तुम्हारा अनुमान ठीक है,तो फिर? मैं तुससे एक शुभ-कार्य में सहायता माँगने आयी हूँ,अपने व्यवहार की परीक्षा देने नहीं आयी हूँ। और अगर तुम समझते हो,कुछ चन्दा देकर तुम यश और धन्यवाद के सिवा कुछ और पा सकते हो,तो तुम भ्रम में हो।'

खन्ना परास्त हो गये। वह ऐसे सकरे कोने में फंस गये थे,जहाँ इधर-उधर हिलने
का भी स्थान न था। क्या वह उससे यह कहने का साहस रखते हैं कि मैंने अब तक तुम्हारे ऊपर हज़ारों रुपए लुटा दिये, क्या उसका यही पुरस्कार है? लज्जा से उनका मुँह छोटा-सा निकल आया,जैसे सिकुड़ गया हो! झेंपते हुए बोले-मेरा आशय यह न था मालती,तुम बिलकुल ग़लत समझीं।

मालती ने परिहास के स्वर में कहा-खुदा करे,मैंने ग़लत समझा हो,क्योंकि अगर मैं उसे सच समझ लूंगी,तो तुम्हारे साये से भी भागेंगी। मैं रूपवती हूँ। तुम भी मेरे अनेक चाहनेवालों में से एक हो। वह मेरी कृपा थी कि जहाँ मैं औरों के उपहार लौटा देती थी,तुम्हारी सामान्य-से-सामान्य चीजें भी धन्यवाद के साथ स्वीकार कर लेती थी,और जरूरत पड़ने पर तुमसे रुपए भी माँग लेती थी,अगर तुमने अपने धनोन्माद में इसका कोई दूसरा अर्थ निकाल लिया,तो मैं तुम्हें क्षमा करूँगी। यह पुरुष-प्रकृति का अपवाद नहीं;मगर यह समझ लो कि धन ने आज तक किसी नारी के हृदय पर विजय नहीं पायी,और न कभी पायेगा।

खन्ना एक-एक शब्द पर मानो गज़-गज़ भर नीचे धंसते जाते थे। अब और ज्यादा चोट सहने का उनमें जीवट न था। लज्जित होकर बोले--मालती,तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ, अव और जलील न करो। और न सही तो मित्र-भाव तो बना रहने दो।

यह कहते हुए उन्होंने दराज़ से चेकबुक निकाला और एक हजार लिखकर डरतेडरते मालती की तरफ बढ़ाया।

मालती ने चेक लेकर निर्दय व्यंग किया-यह मेरे व्यवहार का मूल्य है या व्यायामशाला का चन्दा?

खन्ना सजल आँखों से बोले--अब मेरी जान बख्शो मालती, क्यों मेरे मुंह में कालिख पोत रही हो।

मालती ने ज़ोर से कहक़हा मारा-देखो,डाँट भी बताई और एक हजार रुपए भी वसूल किये। अब तो तुम कभी ऐसी शरारत न करोगे?

'कभी नहीं,जीते जी कभी नहीं।'

‘कान पकड़ो।'

'कान पकड़ता हूँ;मगर अब तुम दया करके जाओ और मुझे एकान्त में बैठकर सोचने और रोने दो। तुमने आज मेरे जीवन का सारा आनन्द....।'

मालती और ज़ोर से हँसी-देखो खन्ना,तुम मेरा बहुत अपमान कर रहे हो और तुम जानते हो,रूप अपमान नहीं सह सकता।) मैंने तो तुम्हारे साथ भलाई की और तुम उसे बुराई समझते हो।

खन्ना विद्रोह भरी आँखों से देखकर बोले-तुमने मेरे साथ भलाई की है या उलटी छूरी से मेरा गला रेता है?

'क्यों,मैं तुम्हें लूट-लूटकर अपना घर भर रही थी। तुम उस लूट से बच गये।'

'क्यों घाव पर नमक छिड़क रही हो मालती! मैं भी आदमी हूँ।' मालती ने इस तरह खन्ना की ओर देखा, मानो निश्चय करना चाहती थी कि वह आदमी है या नहीं।

'अभी तो मुझे इसका कोई लक्षण नहीं दिखाई देता।'

'तुम बिलकुल पहेली हो, आज यह साबित हो गया।'

'हाँ तुम्हारे लिए पहेली हूँ और पहेली रहूँगी।'

यह कहती हुई वह पक्षी की भाँति फुर्र से उड़ गयी और खन्ना सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे, यह लीला है,या इसका सच्चा रूप।