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गो-दान/२४

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गो-दान
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २५६ से – २६४ तक

 

भी खूब लगी हुई थी। विवाह के लिए गल्ला तो मौजूद था; दो सौ रुपए भी हाथ आ जायें, तो कन्या-ऋण से उसका उद्धार हो जाय। अगर गोबर सौ रुपए की मदद कर दे, तो बाक़ी सौ रुपए होरी को आसानी से मिल जायेंगे। झिंगुरीसिंह और मँगरू साह दोनों ही अब कुछ नर्म पड़ गये थे। जब गोबर परदेश में कमा रहा है, तो उनके रुपए मारे न पड़ सकते थे।

एक दिन होरी ने गोबर के पास दो-तीन दिन के लिए जाने का प्रस्ताव किया।

मगर धनिया अभी तक गोबर के वह कठोर शब्द न भूली थी। वह गोबर से एक पैसा भी न लेना चाहती थी, किसी तरह नहीं!

होरी ने झुंझलाकर कहा––लेकिन काम कैसे चलेगा, यह बता।

धनिया सिर हिलाकर बोली––मान लो, गोबर परदेश न गया होता, तब तुम क्या करते? वही अब करो।

होरी की जबान बन्द हो गयी। एक क्षण बाद बोला––मैं तो तुझसे पूछता हूँ।

धनिया ने जान बचाई––यह सोचना मरदों का काम है।

होरी के पास जवाब तैयार था––मान ले, मैं न होता, तू ही अकेली रहती, तब तू क्या करती। वह कर।

धनिया ने तिरस्कार भरी आँखो से देखा––तब मैं कुश-कन्या भी दे देती तो कोई हँसनेवाला न था।

कुश-कन्या होरी भी दे सकता था। इसी में उसका मंगल भी था; लेकिन कुलमर्यादा कैसे छोड़ दे? उसकी बहनों के विवाह में तीन-तीन सौ बराती द्वार पर आये थे। दहेज भी अच्छा ही दिया गया था। नाच-तमाशा, बाजा, गाजा, हाथी-घोड़े, सभी आये थे। आज भी विरादरी में उसका नाम है। दस गाँव के आदमियों से उसका हेल-मेल है। कुश-कन्या देकर वह किसे मुंह दिखायेगा? इससे तो मर जाना अच्छा है। और वह क्यों कुश-कन्या दे? पेड़-पालों हैं, जमीन है और थोड़ी-सी साख भी है; अगर वह एक बीघा भी बेंच दे, तो सौ मिल जायँ; लेकिन किसान के लिए जमीन जान से भी प्यारी है, कुल-मर्यादा से भी प्यारी है। और कुल तीन ही वीघे तो उसके पास हैं; अगर एक बीघा बेंच दे, तो फिर खेती कैसे करेगा?

कई दिन इसी हैस-बैस में गुजरे। होरी कुछ फैसला न कर सका।

दशहरे की छुट्टियों के दिन थे। झिंगुरी,पंटश्वरी और नोखेराम तीनों ही सज्जनों के लड़के छुट्टियों में घर आये थे। तीनों अंग्रेजी पढ़ते थे और यद्यपि तीनों बीस-बीस साल के हो गये थे, पर अभी तक यूनिवर्सिटी में जाने का नाम न लेते थे। एक-एक क्लास में दो-दो, तीन-तीन साल पड़े रहते। तीनों की शादियाँ हो चुकी थीं। पटेश्वरी के सपूत विन्देसरी तो एक पुत्र के पिता भी हो चुके थे। तीनों दिन भर ताश खेलते, भंग पीते और छैला बने घूमते। वे दिन में कई-कई बार होरी के द्वार की ओर ताकते हुए निकलते और कुछ ऐसा संयोग था कि जिस वक्त वे निकलते, उसी वक्त सोना भी किसी-न-किसी काम से द्वार पर आ खड़ी होती। इन दिनों वह वही साड़ी पहनती थी, जो गोबर उसके लिए लाया था। यह सब तमाशा देख-देखकर होरी का खून सूखता जाता था, मानो उसकी खेती चौपट करने के लिए आकाश में ओलेवाले पीले बादल उठे चले आते हों!

एक दिन तीनों उसी कुएँ पर नहाने जा पहुंचे, जहाँ होरी ऊख सींचने के लिए पुर चला रहा था। सोना मोट ले रही थी। होरी का खून आज खौल उठा।

उसी साँझ को वह दुलारी सहुआइन के पास गया।

सोचा, औरतों में दया होती है शायद इसका दिल पसीज जाय और कम सद पर रुपए दे दे। मगर दलारी अपना ही रोना ले बैठी। गाँव में ऐसा कोई घर न था जिस पर उसके कुछ रुपए न आते हों, यहाँ तक कि झिंगुरीसिंह पर भी उसके बीस रुपए आते थे; लेकिन कोई देने का नाम न लेता था। बेचारी कहाँ से रुपए लाये?

होरी ने गिड़गिड़ा कर कह––भाभी, बड़ा पुन्न होगा। तुम रुपए न दोगी, मेरे गले की फाँसी खोल दोगी। झिंगुरी और पटेसरी मेरे खेतों पर दाँत लगाये हुए हैं। मैं सोचता हूँ, बाप-दादा की यही तो निसानी है, यह निकल गयी, तो जाऊँगा कहाँ? एक सपूत वह होता है कि घर की सम्पत बढ़ाता है, मैं ऐसा कपूत हो जाऊँ कि बाप-दादों की कमाई पर झाड़ फेर दूं।

दुलारी ने कसम खाई-होरी, मैं ठाकुर जी के चरन छूकर कहती हूँ कि इस समय मेरे पास कुछ नहीं है। जिसने लिया, वह देता नहीं,तो मैं क्या करूँ? तुम कोई गैर तो नहीं हो। सोना भी मेरी ही लड़की है; लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ? तुम्हारा ही भाई हीरा है। बैल के लिए पचास रुपए लिये। उसका तो कहीं पता-ठिकाना नहीं, उसकी घरवाली से मांगो तो लड़ने को तैयार। शोभा भी देखने में बड़ा सीधा-सादा है; लेकिन पैसा देने नहीं जानता। और असल बात तो यह है कि किसी के पास है ही नहीं, दें कहाँ से। सबकी दशा देखती हूँ, इसी मारे सबर कर जाती हूँ। लोग किसी तरह पेट पाल रहे हैं, और क्या। खेत-बारी बेचने की मैं सलाह न दूंगी। कुछ नहीं है, मरजाद तो है।

फिर कनफुसकियों में बोली––पटेसरी लाला का लौंडा तुम्हारे घर की ओर बहुत चक्कर लगाया करता है। तीनों का वही हाल है। इनसे चौकस रहना। यह सहरी हो गये, गाँव का भाई-चारा क्या समझें। लड़के गाँव में भी हैं; मगर उनमें कुछ लिहाज है, कुछ अदब है, कुछ डर है। ये सब तो छूटे साँड़ हैं। मेरी कौसल्या ससुराल से आयी थी, मैंने सबों के ढंग देखकर उसके ससुर को बुला कर बिदा कर दिया। कोई कहाँ तक पहरा दे।

होरी को मुस्कराते देखकर उसने सरस ताड़ना के भाव से कहा––हँसोगे होरी तो मैं भी कुछ कह दूंगी। तुम क्या किसी से कम नटखट थे। दिन में पचोसों बार किसी-न-किसी बहाने मेरी दुकान पर आया करते थे; मगर मैंने कभी ताका तक नहीं।

होरी ने मीठे प्रतिवाद के साथ कहा––यह तो तुम झूठ बोलती हो भाभी! बिना कुछ रस पाये थोड़े ही आता था। चिड़िया एक बार परच जाती है, तभी दूसरी बार आँगन में आती है।

'चल झूठे।'

'आँखों से न ताकती रही हो, लेकिन तुम्हारा मन तो ताकता ही था; बल्कि बुलाता था।'

'अच्छा रहने दो, बड़े आये अन्तरजामी बन के। तुम्हें बार-बार मँडराते देख के मुझे दया आ जाती थी, नहीं तुम ऐसे कोई बाँके जवान न थे।'

हुसेनी एक पैसे का नमक लेने आ गया और यह परिहास बन्द हो गया। हुसेनी नमक लेकर चला गया, तो दुलारी ने फिर कहा––गोबर के पास क्यों नहीं चले जाते। देखते भी आओगे और साइत कुछ मिल भी जाय।

होरी निराश मन से बोला––वह कुछ न देगा। लड़के चार पैसे कमाने लगते हैं, तो उनकी आँखें फिर जाती हैं। मैं तो बेहयाई करने को तैयार था; लेकिन धनिया नहीं मानती। उसकी मरजी बिना चला जाऊँ तो घर में रहना अपाढ़ कर दे। उसका सुभाव तो जानती हो।

दुलारी ने कटाक्ष करके कहा––तुम तो मेहरिया के जैसे गुलाम हो गये!

'तुमने पूछा ही नहीं तो क्या करता।'

'मेरी गुलामी करने को कहते तो मैंने लिखा लिया होता, सच!'

'तो अब से क्या बिगड़ा है, लिखा लो न। दो सौ में लिखता हूँ, इन दामों महँगा नहीं हूँ।'

'तब धनिया से तो न बोलोगे?'

'नहीं, कहो कसम खाऊँ।'

'और जो बोले?'

'तो मेरी जीभ काट लेना।'

'अच्छा तो जाओ, घर ठीक-ठाक करो, मैं रुपए दे दूंँगी।'

होरी ने सजल नेत्रों से दुलारी के पाँव पकड़ लिये। भावावेश से मुंह बन्द हो गया।

सहुआइन ने पाँव खींचकर कहा––अब यही सरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं साल-भर के भीतर अपने रुपए सूद-समेत कान पकड़कर लूंगी। तुम तो व्यवहार के ऐसे सच्चे नहीं हो; लेकिन धनिया पर मुझे विश्वास है। सुना पंडित तुमसे बहुत बिगड़े हुए हैं। कहते हैं, इसे गाँव से निकालकर नहीं छोड़ा तो बाह्मन नहीं। तुम सिलिया को निकाल बाहर क्यों नहीं करते? बैठे-बैठाये झगड़ा मोल ले लिया।

'धनिया उसे रखे हुए है, मैं क्या करूँ।'

'सुना है, पंडित कासी गये थे। वहाँ एक बड़ा नामी विद्वान् पण्डित है। वह पांच सौ माँगता है। तब परासचित करायेगा। भला, पूछो ऐसा अन्धेर कहीं हुआ है। जब धरम नष्ट हो गया, तो एक नहीं हजार परासचित करो, इससे क्या होता है। तुम्हारे हाथ का छुआ पानी कोई न पियेगा, चाहे जितना परासचित करो।' होरी यहाँ से घर चला, तो उसका दिल उछल रहा था। जीवन में ऐसा सुखद अनुभव उसे न हुआ था। रास्ते में शोभा के घर गया और सगाई लेकर चलने के लिए नेवता दे आया। फिर दोनों दातादीन के पास सगाई की सायत पूछने गये। वहाँ से आकर द्वार पर सगाई की तैयारियों की सलाह करने लगे।

धनिया ने बाहर निकलकर कहा––पहर रात गयी, अभी रोटी खाने की बेला नहीं आयी? खाकर बैठो। गपड़चौथ करने को तो सारी रात पड़ी है।

होरी ने उसे भी परामर्श में शरीक होने का अनुरोध करते हुए कहा––इसी सहालग में लगन ठीक हुआ है। बता, क्या-क्या सामान लाना चाहिए। मुझे तो कुछ मालूम नहीं।

'जब कुछ मालूम ही नहीं, तो सलाह करने क्या बैठे हो। रुपए-पैसे का डौल भी हुआ कि मन की मिठाई खा रहे हो।'

होरी ने गर्व से कहा––तुझे इससे क्या मतलब। तू इतना बता दे क्या-क्या सामान लाना होगा?

'तो मैं ऐसी मन की मिठाई नहीं खाती।'

'तू इतना बता दे कि हमारी बहनों के ब्याह में क्या-क्या सामान आया था।'

'पहले यह बता दो, रुपए मिल गये?'

'हाँ, मिल गये, और नहीं क्या भंग खायी है।'

'तो पहले चलकर खा लो। फिर सलाह करेंगे।'

मगर जब उसने मुना कि दुलारी से बातचीत हुई है, तो नाक सिकोड़ कर बोली––उससे रुपए लेकर आज तक कोई उरिन हुआ है? चुडै़ल कितना कसकर सूद लेती है!

'लेकिन करता क्या? दूसरा देता कौन है।'

'यह क्यों नहीं कहते कि इसी बहाने दो गाल हँसने-बोलने गया था। बूढ़े हो गये, पर यह बान न गयी।'

'तू तो धनिया, कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती है। मेरे-जैसे फटेहालों से वह हँस-बोलेगी? सीधे मुंह बात तो करती नहीं।'

'तुम-जैसों को छोड़कर उसके पास और जायगा ही कौन?' .

'उसके द्वार पर अच्छे-अच्छे नाक रगड़ते हैं धनिया, तू क्या जाने। उसके पास लच्छमी है।

'उसने जरा-सी हामी भर दी, तुम चारों ओर खुशखबरी लेकर दौड़े।'

'हामी नहीं भर दी, पक्का वादा किया है।'

होरी रोटी खाने गया और शोभा अपने घर चला गया, तो सोना सिलिया के साथ बाहर निकली। वह द्वार पर खड़ी सारी बातें सुन रही थी। उसकी सगाई के लिए दो सौ रुपए दुलारी से उधार लिये जा रहे हैं, यह बात उसके पेट में इस तरह खलबली मचा रही थी, जैसे ताजा चूना पानी में पड़ गया हो। द्वार पर एक कुप्पी जल रही थी, जिससे ताक के ऊपर की दीवार काली हो गयी थी। दोनों बैल नाँद में सानी खा रहे थे और कुत्ता ज़मीन पर टुकड़े के इन्तजार में बैठा हुआ था। दोनों युवतियां बैलों की चरनी के पास आकर खड़ी हो गयीं।

सोना बोली––तूने कुछ सुना? दादा सहुआइन से मेरी सगाई के लिए दो सौ रुपए उधार ले रहे हैं।

सिलिया घर का रत्ती-रत्ती हाल जानती थी। बोली-घर में पैसा नहीं है, तो क्या करें?

सोना ने सामने के काले वृक्षों की ओर ताकते हुए कहा––मैं ऐसा नहीं करना चाहती, जिसमें मां-बाप को कर्जा लेना पड़े। कहाँ से देंगे बेचारे, बता! पहले ही कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। दो सौ और ले लेंगे, तो बोझा और भारी होगा कि नहीं?

'बिना दान-दहेज के बड़े आदमियों का कहीं ब्याह होता है पगली? बिना दहेज के तो कोई बूढ़ा-ठेला ही मिलेगा। जायगी बूढ़े के साथ?'

'बूढ़े के साथ क्यों जाऊँ? भैया बूढ़े थे जो झुनिया को ले आये। उन्हें किसने के पैसे दहेज में दिये थे?'

'उसमें बाप-दादा का नाम डूबता है।'

'मैं तो सोनारीवालों से कह दूंगी, अगर तुमने एक पैसा भी दहेज लिया, तो मैं तुमसे ब्याह न करूंगी।'

सोना का विवाह सोनारी के एक धनी किसान के लड़के से ठीक हुआ था।

'और जो वह कह दें, कि मैं क्या करूँ, तुम्हारे बाप देते हैं, मेरे बाप लेते हैं, इसमें मेरा क्या अख्तियार है?'

सोना ने जिस अस्त्र को रामबाण समझा था, अब मालूम हुआ कि वह बाँस की कैन है। हताश होकर बोली––मैं एक बार उससे कह के देख लेना चाहती हूँ; अगर उसने कह दिया, मेरा कोई अख्तियार नहीं है, तो क्या गोमती यहाँ से बहुत दूर है। डूब मरूँगी। माँ-बाप ने मर-मरके पाला-पोसा। उसका बदला क्या यही है कि उनके घर से जाने लगूं, तो उन्हें कर्जे से और लादती जाऊँ? मां-बाप को भगवान् ने दिया हो, तो खुशी से जितना चाहें लड़की को दें, मैं मना नहीं करती; लेकिन जब वह पैसे–पैसे को तंग हो रहे हैं, आज महाजन नालिश करके लिल्लाम करा ले, तो कल मजूरी करनी पड़ेगी, तो कन्या का धरम यही है कि डूब मरे। घर की जमीन-जैजात तो बच जायगी, रोटी का सहारा तो रह जायगा। माँ-बाप चार दिन मेरे नाम को रोकर संतोष कर लेंगे। यह तो न होगा कि मेरा ब्याह करके उन्हें जन्म भर रोना पड़े। तीन-चार साल में दो सौ के दूने हो जायेंगे, दादा कहाँ से लाकर देंगे।

सिलिया को जान पड़ा, जैसे उसकी आँख में नयी ज्योति आ गयी है। आवेश में सोना को छाती से लगाकर बोली––तूने इतनी अक्कल कहाँ से सीख ली सोना? देखने में तो तू बड़ी भोली-भाली है।

'इसमें अक्कल की कौन बात है चुडै़ल। क्या मेरे आँखें नहीं हैं कि मैं पागल हूँ। दो सौ मेरे ब्याह में लें। तीन-चार साल में वह दूना हो जाय। तब रुपिया के ब्याह में दो सौ और लें। जो कुछ खेती-बारी है, सब लिलाम-तिलाम हो जाये, और
द्वार-द्वार भीख माँगते फिरें। यही न? इससे तो कहीं अच्छा है कि मैं अपनी ही जान दे दूं। मुंह अँधेरे सोनारी चली जाना और उसे बुला लाना;मगर नहीं,बुलाने का काम नहीं। मुझे उससे बोलते लाज आयेगी। तू ही मेरा यह संदेशा कह देना। देख क्या जवाब देते हैं। कौन दूर है? नदी के उस पार ही तो है। कभी-कभी ढोर लेकर इधर आ जाता है। एक बार उसकी भैंस मेरे खेत में पड़ गयी थी,तो मैंने उसे बहुत गालियाँ दी थीं। हाथ जोड़ने लगा। हाँ,यह तो बता,इधर मतई से तेरी भेंट नहीं हुई! सुना,बाह्मन लोग उन्हें बिरादरी में नहीं ले रहे हैं।

सिलिया ने हिकारत के साथ कहा-बिरादरी में क्यों न लेंगे;हाँ,बूढ़ा रुपए नहीं खरच करना चाहता। इसको पैसा मिल जाय,तो झूठी गंगा उठा ले। लड़का आजकल बाहर ओसारे में टिक्कड़ लगाता है।

'तू इसे छोड़ क्यों नहीं देती? अपनी बिरादरी में किसी के साथ बैठ जा और आराम से रह। वह तेरा अपमान तो न करेगा।'

'हाँ रे,क्यों नहीं,मेरे पीछे उस बेचारे की इतनी दुरदशा हुई,अब मैं उसे छोड़ दूं। अब वह चाहे पंडित बन जाय चाहे देवता बन जाय,मेरे लिए तो वही मतई है,जो मेरे पैरों पर सिर रगड़ा करता था;और बाह्मन भी हो जाय और बाह्मनी से ब्याह भी कर ले,फिर भी जितनी उसकी सेवा मैंने की है,वह कोई बाह्मनी क्या करेगी। अभी मान-मरजाद के मोह में वह चाहे मुझे छोड़ दे;लेकिन देख लेना,फिर दौड़ा आयेगा।'

'आ चुका अब। तुझे पा जाय तो कच्चा ही खा जाय।'

'तो उसे बुलाने ही कौन जाता है। अपना-अपना धरम अपने-अपने साथ है। वह अपना धरम तोड़ रहा है,तो मैं अपना धरम क्यों तोड़ें।'

प्रातःकाल सिलिया सोनारी की ओर चली;लेकिन होरी ने रोक लिया। धनिया के सिर में दर्द था। उसकी जगह क्यारियों को बराना था। सिलिया इनकार न कर सकी। यहाँ से जब दोपहर को छुट्टी मिली तो वह सोनारी चली।

इधर तीसरे पहर होरी फिर कुएँ पर चला तो सिलिया का पता न था। बिगड़कर बोला-सिलिया कहाँ उड़ गई? रहती है, रहती है,न जाने किधर चल देती है,जैसे किसी काम में जी ही नहीं लगता। तू जानती है सोना,कहाँ गयी है?

सोना ने बहाना किया--मुझे तो कुछ मालूम नहीं। कहती थी,धोबिन के घर कपड़े लेने जाना है,वहीं चली गयी होगी।

धनिया ने खाट से उठकर कहा-चलो,मैं क्यारी बराये देती हूँ। कौन उसे मजूरी देते हो जो उसे बिगड़ रहे हो।

'हमारे घर में रहती नहीं है? उसके पीछे सारे गाँव में बदनाम नहीं हो रहे हैं?'

'अच्छा,रहने दो,एक कोने में पड़ी हुई है,तो उससे किराया लोगे?'

'एक कोने में नहीं पड़ी हुई है,एक पूरी कोठरी लिये हुए है।'

'तो उस कोठरी का किराया होगा कोई पचास रुपए महीना!' "उसका किराया एक पैसा सही। हमारे घर में रहती है,जहाँ जाय पूछकर जाय। आज आती है तो खबर लेता हूँ।'

पुर चलने लगा। धनिया को होरी ने न आने दिया। रूपा क्यारी बराती थी। और सोना मोट ले रही थी। रूपा गोली मिट्टी के चूल्हे और बरतन बना रही थी,और सोना सशंक आँखों से सोनारी की ओर ताक रही थी। शंका भी थी,आशा भी थी, शंका अधिक थी,आशा कम। सोचती थी,उन लोगों को रुपए मिल रहे हैं,तो क्यों छोड़ने लगे। जिनके पास पैसे हैं,वे तो पैसे पर और भी जान देते हैं। और गौरी महतो तो एक ही लालची हैं। मथुरा में दया है,धरम है;लेकिन वाप की इच्छा जो होगी, वही उसे माननी पड़ेगी;मगर सोना भी बचा को ऐसा फटकारेगी कि याद करेंगे। वह साफ कहेगी,जाकर किसी धनी की लड़की से ब्याह कर,तुझ-जैसे पुरुष के साथ मेरा निबाह न होगा। कहीं गौरी महतो मान गये,तो वह उनके चरन धो-धोकर पियेगी। उनकी ऐसी सेवा करेगी कि अपने बाप की भी न की होगी। और सिलिया को भर-गेट मिठाई खिलायेगी। गोवर ने उसे जो रुपया दिया था उसे वह अभी तक संचे हुए थी। इस मृदु कल्पना से उसकी आँखें चमक उठी और कपोलों पर हलकी-सी लाली दौड़ गई।

मगर सिलिया अभी तक आयी क्यों नहीं? कौन बड़ी दूर है। न आने दिया होगा उन लोगों ने। अहा! वह आ रही है। लेकिन बहुत धीरे-धीरे आती है। सोना का दिल बैठ गया। अभागे नहीं माने माइत,नहीं सिलिया दौड़ती आती। तो सोना से हो चुका ब्याह। मुंह धो रखो।

सिलिया आयी ज़रूर पर कुएँ पर न आकर खेत में क्यारी बराने लगी। डर रही थी,होरी पूछेगे कहाँ थी अब तक, तो क्या जवाब देगी। सोना ने यह दो घण्टे का समय बड़ी मुश्किल से काटा। पुर छूटते ही वह भागी हुई सिलिया के पास पहुंची।

'वहाँ जाकर तू मर गयी थी क्या? ताकते-ताकते आँखें फूट गयीं।'

सिलिया को बुरा लगा--तो क्या मैं वहाँ सोती थी। इस तरह की बातचीत राह चलते थोड़े ही हो जाती है। अवमर देखना पड़ता है। मथुरा नदी की ओर ढोर चराने गये थे। खोजती-खोजती उसके पास गयी और तेरा सन्देसा कहा। ऐसा परसन हुआ कि तुझसे क्या कहूँ। मेरे पाँव पर गिर पड़ा और बोला--सिल्लो,मैंने तो जब से सुना है कि सोना मेरे घर में आ रही है,तब से आँखों की नींद हर गयी है। उसकी वह गालियाँ मुझे फल गयीं;लेकिन काका को क्या करूँ। वह किसी की नहीं सुनते।

सोना ने टोका--तो न सुनें। सोना भी जिद्दिन है। जो कहा है वह कर दिखायेगी। फिर हाथ मलते रह जायेंगे।

'बस उसी छन ढोरों को वहीं छोड़,मुझे लिये हुए गौरी महतो के पास गया। महतो के चार पुर चलते हैं। कुआँ भी उन्हीं का है। दस बीघे ऊख है। महतो को देख के मुझे हँसी आ गयी। जैसे कोई घसियारा हो। हाँ,भाग का बली है। बाप-बेटे में खूब कहा-सुनी हुई। गौरी महतो कहते थे,तुझसे क्या मतलब,मैं चाहे कुछ लूं या न लूं;तू कौन होता है बोलनेवाला। गथुरा कहता था,तुमको लेना-देना है,तो मेरा
ब्याह मत करो,मैं अपना ब्याह जैसे चाहूँगा कर लूंगा। बात बढ़ गयी और गौरी महतो ने पनहियाँ उतारकर मथुरा को खूब पीटा। कोई दूसरा लड़का इतनी मार खाकर बिगड़ खड़ा होता। मथुरा एक धूसा भी जमा देता,तो महतो फिर न उठते;मगर बेचारा पचासों जूते खाकर भी कुछ न बोला। आँखों में आँसू भरे,मेरी ओर गरीबों की तरह ताकता हुआ चला गया। तब महतो मुझ पर बिगड़ने लगे। सैकड़ों गालियाँ दीं;मगर मैं क्यों सुनने लगी थी। मुझे उनका क्या डर था? मैंने सफा कह दिया-महतो, दो-तीन सौ कोई भारी रकम नहीं है,और होरी महतो,इतने में विक न जायँगे,न तुम्हीं धनवान हो जाओगे,वह सब धन नाच-तमासे में ही उड़ जायगा,हाँ,ऐसी बहू न पाओगे।

साँचा:GAPसोना ने सजल आँखों से पूछा--महतो इतनी ही बात पर उन्हें मारने लगे?

साँचा:GAPसिलिया ने यह बात छिपा रक्खी थी। ऐसी अपमान की बात सोना के कानों में न डालना चाहती थी;पर यह प्रश्न सुनकर संयम न रख सकी। बोली--वही गोवर भयावाली बात थी। महतो ने कहा-आदमी जूठा तभी खाता है जब मीठा हो। कलंक चाँदी से ही धुलता है। इस पर मथुरा बोला--काका कौन घर कलंक से बचा हुआ है। हाँ,किसी का खुल गया,किसी का छिपा हुआ है। गौरी महतो भी पहले एक चमारिन से फंसे थे। उससे दो लड़के भी हैं। मथुरा के मुंह से इतना निकलना था कि डोकरे पर जैसे भत सवार हो गया। जितना लालची है,उतना ही क्रोधी भी है। विना लिये न मानेगा।

साँचा:GAPदोनों घर चलीं। सोना के सिर पर चरसा,रस्सा और जुए का भारी वोझ था;पर इस समय वह उसे फूल से भी हल्का लग रहा था। उसके अन्तस्तल में जैसे आनन्द और स्फूर्ति का सोता खुल गया हो। मथुरा की वह वीर मूर्ति सामने खड़ी थी, और वह जैसे उसे अपने हृदय में बैठाकर उसके चरण आँसुओं से पखार रही थी। जैसे आकाश की देवियाँ उसे गोद में उठाये आकाश में छाई हुई लालिमा में लिये चली जा रही हों।

उसी रात को सोना को बड़े जोर का ज्वर चढ़ आया।

तीसरे दिन गौरी महतो ने नाई के हाथ यह पत्र भेजा-

'स्वस्ती श्री सर्वोपमा जोग श्री होरी महतो को गौरीराम का राम-राम बाँचना। आगे जो हम लोगों में दहेज की बातचीत हुई थी,उस पर हमने सान्त मन से बिचार किया,समझ में आया कि लेन-देन से वर और कन्या दोनों ही के घरवाले जेरवार होते हैं। जब हमारा-तुम्हारा सम्बन्ध हो गया,तो हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि किसी को न अखरे। तुम दान-दहेज की कोई फिकर मत करना,हम तुमको सौगन्ध देते हैं। जो कुछ मोटा-महीन जुरे बरातियों को खिला देना। हम वह भी न माँगेंगे। रसद का इन्तजाम हमने कर लिया है। हाँ,तुम खुसी-खुर्रमी से हमारी जो खातिर करोगे वह सिर झुकाकर स्वीकार करेंगे।'
होरी ने पत्र पढ़ा और दौड़े हुए भीतर जाकर धनिया को सुनाया। हर्ष के मारे उछला पड़ता था;मगर धनिया किसी विचार में डूबी बैठी रही। एक क्षण के बाद बोली-यह गौरी महतो की भलमनसी है;लेकिन हमें भी तो अपने मरजाद का निवाह करना है। संसार क्या कहेगा! रुपया हाथ का मैल है। उसके लिए कुल-मरजाद नहीं छोड़ा जाता। जो कुछ हमसे हो सकेगा,देंगे और गौरी महतो को लेना पड़ेगा। तुम यही जवाब लिख दो। माँ-बाप की कमाई में क्या लड़की का कोई हक नहीं है? नहीं,लिखना क्या है,चलो,मैं नाई से संदेसा कहलाये देती हूँ।

होरी हतबुद्धि-सा आँगन में खड़ा था और धनिया उस उदारता की प्रतिक्रिया में जो गौरी महतो की सज्जनता ने जगा दी थी,सन्देशा कह रही थी। फिर उसने नाई को रस पिलाया और विदाई देकर बिदा किया।

वह चला गया तो होरी ने कहा-यह तूने क्या कर डाला धनिया? तेरा मिजाज आज तक मेरी समझ में न आया। तू आगे भी चलती है,पीछे भी चलती है। पहले तो इस बात पर लड़ रही थी कि किसी से एक पैसा करज मत लो,कुछ देने-दिलाने का काम नहीं है,और जव भगवान ने गौरी के भीतर पैठकर यह पत्र लिखवाया तो तूने कुल-मरजाद का राग छेड़ दिया। तेरा मरम भगवान ही जाने।

धनिया बोली-मुंह देखकर बीड़ा दिया जाता है,जानते हो कि नहीं। तब गौरी अपनी सान दिखाते थे,अब वह भलमनसी दिखा रहे है। ईट का जवाब चाहे पत्थर हो;लेकिन सलाम का जवाब तो गाली नही है।

होरी ने नाक सिकोड़कर कहा--तो दिखा अपनी भलमनसी। देखें,कहाँ से रुपए लाती है।

धनिया आँखें चमकाकर बोली-रुपए लाना मेरा काम नहीं है,तुम्हारा काम

'मैं तो दुलारी से ही लूंगा।'

'ले लो उसी से। सूद तो सभी लेंगे। जब डूबना ही है,तो क्या तालाब और क्या गंगा।'

होरी बाहर जाकर चिलेम पीने लगा। कितने मजे से गला छूटा जाता था;लेकिन धनिया जब जान छोड़े तब तो। जव देखो उल्टी ही चलती है। इसे जैसे कोई भूत सवार हो जाता है। घर की दशा देखकर भी इसकी आँखें नहीं खुलतीं।