सामग्री पर जाएँ

गो-दान/२९

विकिस्रोत से
गो-दान
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २९४ से – ३०४ तक

 

२९

नोहरी उन औरतों में न थी, जो नेकी करके दरिया में डाल देती है। उसने नेकी की है, तो उसका खूब ढिढोरा पीटगी और उससे जितना यश मिल सकता है, उससे कुछ ज्यादा ही पाने के लिए हाथ-पाँव मारेगी। ऐसे आदमी को यश के बदले अपयश और वदनामी ही मिलती है। नेकी न करना बदनामी की बात नहीं। अपनी इच्छा नहीं है, या सामर्थ्य नहीं है। इसके लिए कोई हमें बुरा नहीं कह सकता। मगर जब हम नेकी करके उसका एहसान जताने लगते हैं, तो वही जिसके साथ हमने नेकी की थी, हमारा शत्रु हो जाता है, और हमारे एहसान को मिटा देना चाहता है। वही नेकी अगर करनेवालों के दिल में रहे, तो नेकी है, वाहर निकल आये तो वदी है। नोहरी चारों ओर कहती फिरती थी--बेचारा होरी बड़ी मुसीबत में था, बेटी के व्याह के लिए जमीन रेहन रख रहा था। मैंने उनकी यह दशा देखी, तो मुझे दया आयी। धनिया से तो जी जलता था, वह राँड़ तो मारे घमण्ड के धरती पर पाँव ही नहीं रखती। बेचारा होरी चिन्ता से घुला जाता था। मैंने सोचा, इस संकट में इसकी कुछ मदद कर दें। आखिर आदमी ही तो आदमी के काम आता है। और होरी तो अब कोई गैर नहीं है, मानो चाहे न मानो, वह तुम्हारे नातेदार हो चुके। रुपए निकालकर दे दिये; नहीं, लड़की अब तक बैठी होती।

धनिया भला यह ज़ीट कब सुनने लगी थी। रुपए खैरात दिये थे? बड़ी देनेवाली ! सूद महाजन भी लेगा, तुम भी लोगी। एहसान काहे का! दूसरों को देती, सूद की जगह मूल भी ग़ायब हो जाता; हमने लिया है, तो हाथ में रुपए आते ही नाक पर रख देंगे। हमीं थे कि तुम्हारे घर का बिस उठाके पी गये, और कभी मुंँह पर नहीं लाये। कोई यहाँ द्वार पर नहीं खड़ा होने देता था। हमने तुम्हारा मरजाद बना दिया, तुम्हारे मुंँह की लाली रख ली।

रात के दस बज गये थे। सावन की अँधेरी घटा छायी थी। सारे गाँव में अन्धकार था। होरी ने भोजन करके तमाखू पिया और सोने जा रहा था कि भोला आकर खड़ा हो गया।

होरी ने पूछा--कैसे चले भोला महतो! जब इसी गाँव में रहना है, तो क्यों अलग छोटा-सा घर नहीं बना लेते ? गाँव में लोग कैसी-कैसी कुत्सा उड़ाया करते हैं, क्या यह तुम्हें अच्छा लगता है ? बुरा न मानना, तुमसे सम्बन्ध हो गया है, इसलिए तुम्हारी बदनामी नहीं सुनी जाती, नहीं मुझे क्या करना था।

धनिया उसी समय लोटे में पानी लेकर होरी के सिरहाने रखने आयी। सुनकर बोली--दूसरा मर्द होता, तो ऐसी औरत का सिर काट लेता।

होरी ने डाँटा--क्यों बे-बात की बात करती है। पानी रख दे और जा सो। आज तू ही कुराह चलने लगे, तो मैं तेरा सिर काट लूंँगा? काटने देगी ?

धनिया उसे पानी का एक छींटा मारकर बोली--कुराह चले तुम्हारी बहन, मैं क्यों कुराह चलने लगी। मैं तो दुनिया की बात कहती हूँ, तुम मुझे गालियाँ देने लगे। अब मुंँह मीठा हो गया होगा। औरत चाहे जिस रास्ते जाय, मर्द टुकुर-टुकुर देखता रहे। ऐसे मर्द को मैं मर्द नहीं कहती।

होरी दिल में कटा जाता था। भोला उससे अपना दुख-दर्द कहने आया होगा। वह उलटे उसी पर टूट पड़ी। ज़रा गर्म होकर बोला--तू जो सारे दिन अपने ही मन की किया करती है, तो मैं तेरा क्या बिगाड़ लेता हूँ। कुछ कहता हूँ तो काटने दौड़ती है। यही सोच।

धनिया ने लल्लो-चप्पो करना न सीखा था, बोली--औरत घी का घड़ा लुढ़का दे, घर में आग लगा दे, मर्द सह लेगा; लेकिन उसका कुराह चलना कोई मर्द न सहेगा।

भोला दुखित स्वर में बोला--तू बहुत ठीक कहती है धनिया ! बेसक मुझे उसका सिर काट लेना चाहिए था, लेकिन अब उतना पौरुख तो नहीं रहा। तू चलकर समझा दे, मैं सब कुछ करके हार गया।

जब औरत को बस में रखने का बूता न था, तो सगाई क्यों की थी? इसी छीछालेदर के लिए ? क्या सोचते थे, वह आकर तुम्हारे पाँव दबायेगी, तुम्हें चिलम भर-भर पिलायेगी और जब तुम बीमार पड़ोगे तो तुम्हारी सेवा करेगी? तो ऐसा वही औरत कर सकती है, जिसने तुम्हारे साथ जवानी का सुख उठाया हो। मेरी समझ में यही नहीं आता कि तुम उसे देखकर लटू कैसे हो गये। कुछ देख-भाल तो कर लिया होता कि किस स्वभाव की है, किस रंग-ढंग की है। तुम तो भूखे सियार की तरह टूट पड़े। अब तो तुम्हारा धरम यही है कि गॅडासे से उसका सिर काट लो। फाँसी ही तो पाओग। फाँसी इस छीछालेदर से अच्छी।

भोला के खून में कुछ स्फूर्ति आयी। बोला--तो तुम्हारी यही सलाह है ?

धनिया बोली--हाँ, मेरी यही सलाह है। अब सौ पचास बरस तो जीओगे नहीं। समझ लेना इतनी ही उमिर थी।

होरी ने अब की ज़ोर से फ़टकारा--चुप रह, बड़ी आयी है वहाँ से सतवन्ती बनके। जबरदस्ती चिड़िया तक तो पिंजड़े में रहती नहीं, आदमी क्या रहेगा। तुम उसे छोड़ दो भोला और समझ लो, मर गयी और जाकर अपने बाल-बच्चों में आराम से रहो। दो रोटी खाओ और राम का नाम लो। जवानी के सुख अब गये। वह औरत चंचल है, बदनामी और जलन के सिवा तुम उससे कोई सुख न पाओगे।

भोला नोहरी को छोड़ दे, असम्भव ! नोहरी इस समय भी उसकी ओर रोष-भरी आँखों से तरेरती हुई जान पड़ती थी, लेकिन नहीं, भोला अव उसे छोड़ ही देगा। जैसा कर रही है, उसका फल भोगे।

आँखों में आँसू आ गये। बोला--होरी भैया, इस औरत के पीछे मेरी जितनी सांँसत हो रही है, मैं ही जानता हूँ। इसी के पीछे कामता से मेरी लड़ाई हुई। बुढ़ापे में यह दाग़ भी लगना था, वह लग गया। मुझे रोज़ ताना देती है कि तुम्हारी तो लड़की निकल गयी। मेरी लड़की निकल गयी, चाहे भाग गयी; लेकिन अपने आदमी के साथ पड़ी तो है, उसके सुख-दुख की साथिन तो है। उसकी तरह तो मैंने औरत ही नहीं देखी। दूसरों के साथ तो हँसती है, मुझे देखा तो कुप्पे-सा मुंँह फुला लिया। मैं गरीब आदमी ठहरा, तीन-चार आने रोज़ की मजूरी करता हूँ। दूध-दही, माँस-मछली, रवड़ी-मलाई कहाँ से लाऊँ !

भोला यहाँ से प्रतिज्ञा करके अपने घर गये। अब वेटों के साथ रहेंगे, बहुत धक्के खा चुके; लेकिन दूसरे दिन प्रातःकाल होरी ने देखा, तो भोला दुलारी सहुआइन की दुकान से तमाखू लिए चले जा रहे थे।

होरी ने पुकारना उचित न समझा। आसक्ति में आदमी अपने बस में नहीं रहता। वहाँ से आकर धनिया से बोला--भोला तो अभी वहीं है। नोहरी ने सचमुच इन पर कोई जादू कर दिया है।

धनिया ने नाक सिकोड़कर कहा--जैसी बेहया वह है, वैसा ही बेहया यह है। ऐसे मर्द को तो चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए। अब वह सेखी न जाने कहाँ गयी। झुनिया यहाँ आयी, तो उसके पीछे डण्डा लिए फिर रहे थे। इज्जत बिगड़ी जाती थी। अब इज्जत नही बिगड़ती !

होरी को भोला पर दया आ रही थी। बेचारा इस कुलटा के फेर में पड़कर अपनी ज़िन्दगी बरबाद किये डालता है। छोड़कर जाय भी, तो कैसे? स्त्री को इस तरह छोड़कर जाना क्या सहज है ? यह चुडै़ल उसे वहाँ भी तो चैन से न बैठने देगी ! कहीं पंचायत करेगी, कहीं रोटी-कपड़े का दावा करेगी। अभी तो गाँव ही के लोग जानते हैं। किसी को कुछ कहते संकोच होता है। कनफुसकियाँ करके ही रह जाते हैं। तब तो दुनिया भी भोला ही को बुरा कहेगी। लोग यही तो कहेंगे, कि जब मर्द ने छोड़ दिया, तो बेचारी अबला क्या करे ? मर्द बुरा हो, तो औरत की गर्दन काट लेगा। औरत बुरी हो, तो मर्द के मुंँह में कालिख लगा देगी।

इसके दो महीने बाद एक दिन गाँव में यह खबर फैली कि नोहरी ने मारे जूतों के भोला की चाँद गंजी कर दी।

वर्षा समाप्त हो गयी थी और रबी बोने की तैयारियांँ हो रही थीं। होरी की ऊख तो नीलाम हो गयी थी। ऊख के बीज के लिए उसे रुपए न मिले और ऊख न बोई गयी। उधर दाहिना बैल भी बैठाऊँ हो गया था और एक नये बैल के बिना काम न चल सकता था। पुनिया का एक बैल नाले में गिरकर मर गया था, तब से और भी अड़चन पड़ गयी थी। एक दिन पुनिया के खेत में हल जाता, एक दिन होरी के खेत में। खेतों की जुताई जैसी होनी चाहिए, वैसी न हो पाती थी।

होरी हल लेकर खेत में गया; मगर भोला की चिन्ता बनी हुई थी। उसने अपने जीवन में कभी यह न सुना था कि किसी स्त्री ने अपने पति को जूते से मारा हो। जूतों से क्या थप्पड़ या घूसे से मारने की भी कोई घटना उसे याद न आती थी; और आज नोहरी ने भोला को जूतों से पीटा और सब लोग तमाशा देखते रहे। इस औरत से कैसे उस अभागे का गला छुटे ! अब तो भोला को कहीं डूब ही मरना चाहिए। जब ज़िन्दगी में बदनामी और दुर्दसा के सिवा और कुछ न हो, तो आदमी का मर जाना ही अच्छा। कौन भोला के नाम को रोनेवाला बैठा है। बेटे चाहे क्रिया-करम कर दे; लेकिन लोकलाज के बस, ऑमू किसी की आंँख में न आयेगा। तिरसना के बस में पड़कर आदमी इस तरह अपनी ज़िन्दगी चौपट करता है। जब कोई रोनेवाला ही नहीं, तो फिर ज़िन्दगी का क्या मोह और मरने से क्या डरना!

एक यह नोहरी है और एक यह चमारिन है सिलिया! देखने-सुनने में उससे लाख दरजे अच्छी। चाहे तो दो को खिलाकर खाये और राधिका बनी घूमे; लेकिन मजूरी करती है, भूखों मरती है और मनई के नाम पर बैठी है, और वह निर्दयी बात भी नहीं पूछता। कौन जाने, धनिया मर गयी होती, तो आज होरी की भी यही दसा होती। उसकी मौत की कल्पना ही से होरी को रोमांच हो उठा। धनिया की मूर्ति मानमिक नेत्रों के मामने आकर खड़ी हो गयी--सेवा और त्याग की देवी; जवान को तेज़, पर मोम जैसा हृदय ; पैसे-पैसे के पीछे प्राण देनेवाली, पर मर्यादा-रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम कर देने को तैयार। जवानी में वह कम रूपवती न थी। नोहरी उसके सामने क्या है। चलती थी, तो रानी-सी लगती थी। जो देखता था, देखता ही रह जाता था। यह पटेश्वरी और झिगुरी तब जवान थे। दोनों धनिया को देखकर छाती पर हाथ रख लेते थे। द्वार के सौ-सौ चक्कर लगाते थे। होरी उनकी ताक में रहता था; मगर छेड़ने का कोई बहाना न पाता था। उन दिनों घर में खाने-पीने की बड़ी तंगी थी। पाला पड़ गया था और खेतों में भूसा तक न हुआ था। लोग झड़बरियाँ खा-खाकर दिन काटते थे। होरी को क़हत के कैम्प में काम करने जाना पड़ता था। छ: पैसे रोज़ मिलते थे। धनिया घर में अकेली ही रहती थी। लेकिन कभी किसी ने उसे किसी छैला की ओर ताकते नहीं देखा। पटेश्वरी ने एक बार कुछ छेड़ की थी। उसका ऐसा मुंँहतोड़ जवाब दिया कि अब तक नहीं भूले।

सहसा उसने मातादीन को अपनी ओर आते देखा। कसाई कहीं का, कैसा तिलक लगाये हुए है, मानो भगवान का असली भगत है। रँगा हुआ सियार ! ऐसे वाह्मन को पालागन कौन करे।

मातादीन ने समीपं आकर कहा--तुम्हारा दाहिना तो बूढ़ा हो गया होरी, अबकी सिंचाई में न ठहरेगा। कोई पाँच साल हुए होंगे इसे लाये ?

होरी ने दायें बैल की पीठ पर हाथ रखकर कहा--कैसा पाँचवाँ, यह आठवाँ चल रहा है भाई ! जी तो चाहता है, इसे पिसिन दे दूंँ; लेकिन किसान और किसान के बैल इनको जमराज ही पिसिन दें, तो मिले। इमकी गर्दन पर जुआ रखते मेरा मन कचोटता है। बेचारा सोचता होगा, अब भी छुट्टी नहीं, अब क्या मेरा हाड़ जोतेगा क्या? लेकिन अपना कोई काबू नहीं। तुम कैसे चले ? अब तो जी अच्छा है ?

मातादीन इधर एक महीने से मलेरिया ज्वर में पड़ा रहा था। एक दिन तो उसकी नाड़ी छूट गयी थी। चारपाई से नीचे उतार दिया गया था। तब से उसके मन में यह प्रेरणा हुई थी कि सिलिया के साथ अत्याचार करने का उसे यह दण्ड मिला है। जब उसने सिलिया को घर से निकाला, तब वह गर्भवती थी। उसे तनिक भी दया न आयी। पूरा गर्भ लेकर भी वह मजूरी करती रही। अगर धनिया ने उस पर दया न की होती तो मर गयी होती। कैसी-कैसी मुसीबतें झेलकर जी रही है। मजूरी भी तो इम दशा में नहीं कर सकती। अब लज्जित और द्रवित होकर वह सिलिया को होरी के हस्ते दो रुपये देने आया है। अगर होरी उसे वह रुपए दे दे, तो वह उसका बहुत उपकार मानेगा।

होरी ने कहा--तुम्हीं जाकर क्यों नहीं दे देते ?

मातादीन ने दीन-भाव से कहा--मुझे उसके पास मत भेजो होरी महतो ! कौन-सा मुँह लेकर जाऊँ ? डर भी लग रहा है कि मुझे देखकर कहीं फटकार न सुनाने लगे। तुम मुझ पर इतनी दया करो। अभी मुझसे चला नहीं जाता; लेकिन इसी रुपए के लिए एक जजमान के पास कोस-भर दौड़ा गया था। अपनी करनी का फल बहुत भोग चुका। इस बम्हनई का बोझ अब नहीं उठाये उठता। लुक-छिपकर चाहे जितना कुकर्म करो, कोई नहीं बोलता। परतच्छ कुछ नहीं कर सकते, नहीं कुल में कलंक लग जायगा। तुम उसे समझा देना, दादा, कि मेरा अपराध क्षमा कर दे। यह धरम का बन्धन बड़ा कड़ा होता है। जिस समाज में जन्मे और पले, उसकी मर्यादा का पालन तो करना ही पड़ता है। और किसी जाति का धरम बिगड़ जाय, उसे कोई बिसेस हानि नहीं होती; बाम्हन का धरम बिगड़ जाय, तो वह कहीं का नहीं रहता। उसका धरम ही उसके पूर्वजों की कमाई है। उसी की वह रोटी खाता है। इस परासचित के पीछे हमारे तीन सौ बिगड़ गये। तो जब बेधरम होकर ही रहना है, तो फिर जो कुछ करना है परतच्छ करूँगा। समाज के नाते आदमी का अगर कुछ धरम है, तो मनुष्य के नाते भी तो उसका कुछ धरम है। समाज-धरम पालने से समाज आदर करता है; मगर मनुष्य-धरम पालने से तो ईश्वर प्रसन्न होता है।)

सन्ध्या-समय जब होरी ने सिलिया को डरते-डरते रुपए दिये, तो वह जैसे अपनी तपस्या का वरदान पा गयी। दुःख का भार तो वह अकेली उठा सकती थी। सुख का भार तो अकेले नहीं उठता। किसे यह खुशखबरी मुनाये ? धनिया से वह अपने दिल की बातें नहीं कह सकती। गाँव में और कोई प्राणी नहीं, जिससे उसकी घनिष्ठता हो। उसके पेट में चूहे दौड़ रहे थे। मोना ही उसकी सहेली थी। सिलिया उससे मिलने के लिए आतुर हो गयी। रात-भर कैसे सब करे ? मन में एक आँधी-सी उठ रही थी। अब वह अनाथ नही है। मातादीन ने उसकी वाँह फिर पकड़ ली। जीवन-पथ में उसके सामने अब अँधेरी, विकराल मुग्ववाली खाई नहीं है; लहलहाता हुआ हरा-भरा मैदान है, जिसमें झरने गा रहे हैं और हिरन कुलेलें कर रहे हैं। उसका रूठा हुआ स्नेह आज उन्मत्त हो गया है। मातादीन को उसने मन में कितना पानी पी-पीकर कोसा था। अब वह उनसे क्षमादान माँगेगी। उससे सचमुच बड़ी भूल हुई कि उसने उनको सारे गाँव के सामने अपमानित किया। वह तो चमारिन है, जात की हेठी, उसका क्या बिगड़ा ? आज दस-बीस लगाकर विरादरी को रोटी दे दे, फिर बिरादरी में ले ली जायगी। उन बेचारे का तो सदा के लिए धरम नास हो गया। वह मरज़ाद अब उन्हें फिर नहीं मिल सकता। वह क्रोध में कितनी अन्धी हो गयी थी कि सबसे उनके प्रेम का ढिंढोरा पीटती फिरी। उनका तो धरम भिरप्ट हो गया था, उन्हें तो क्रोध था ही, उसके सिर पर क्यों भूत सवार हो गया ? वह अपने ही घर चली जाती, तो कौन बुराई हो जाती। घर में उसे कोई बाँध तो न लेना। देश मातादीन की पूजा इसीलिए तो करता है कि वह नेम-धरम से रहते हैं। वही धरम नष्ट हो गया, तो वह क्यों न उसके खून के प्यासे हो जाते ?

ज़रा देर पहले तक उसकी नज़र में सारा दोष मातादीन का था। और अब सारा दोष अपना था। सहृदयता ने सहृदयता पैदा की। उसने बच्चे को छाती से लगाकर खूब प्यार किया। अब उसे देखकर लज्जा और ग्लानि नहीं होती। वह अब केवल उसकी दया का पात्र नहीं। वह अब उसके सम्पूर्ण मातृ-स्नेह और गर्व का अधिकारी है।

कार्तिक की रुपहली चाँदनी प्रकृति पर मधुर संगीत की भाँति छाई हुई थी। सिलिया घर से निकली। वह सोना के पास जाकर यह सुख-संवाद मुनायेगी। अब उससे नहीं रहा जाता। अभी तो साँझ हुई है। डोंगी मिल जायगी। वह क़दम बढ़ाती हुई चली। नदी पर आकर देखा, तो डोंगी उस पार थी। और माँझी का कहीं पता नहीं। चाँद घुलकर जैसे नदी में बहा जा रहा था। वह एक क्षण खड़ी सोचती रही। फिर नदी में घुस पड़ी। नदी में कुछ ऐसा ज्यादा पानी तो क्या होगा। उस उल्लास के सागर के सामने वह नदी क्या चीज़ थी ? पानी पहले तो घुटनों तक था, फिर कमर तक आया और अन्त में गर्दन तक पहुँच गया। सिलिया डरी, कहीं डूब न जाय। कहीं कोई गढ़ा न पड़ जाय, पर उसने जान पर खेलकर पाँव आगे बढ़ाया। अब वह मझधार में है। मौत उसके सामने नाच रही है, मगर वह घबड़ाई नहीं है। उसे तैरना आता है। लड़कपन में इसी नदी में वह कितनी बार तर चुकी है। खड़े-खड़े नदी को पार भी कर चुकी है। फिर भी उसका कलेजा धक-धक् कर रहा है। मगर पानी कम होने लगा। अब कोई भय नहीं। उसने जल्दी-जल्दी नदी पार की और किनारे पहुँचकर अपने कपड़े का पानी निचोड़ा और शीत से काँपती आगे बढ़ी। चारों ओर सन्नाटा था। गीदड़ों की आवाज़ भी न मुनायी पड़ती थी; और सोना से मिलने की मधुर कल्पना उसे उड़ाये लिये जाती थी।

मगर उस गाँव में पहुँचकर उसे सोना के घर जाते हुए संकोच होने लगा। मथुरा क्या कहेगा? उसके घरवाले क्या कहेंगे ? सोना भी बिगड़ेगी कि इतनी रात गये तू क्यों आयी। देहातों में दिन-भर के थके-माँदे किसान सरेशाम ही से सो जाते हैं। सारे गाँव में सोता पड़ गया था। मथुरा के घर के द्वार बन्द थे। सिलिया किवाड़ न खुलवा सकी। लोग उसे इस भेस में देखकर क्या कहेंगे? वहीं द्वार पर अलाव में अभी आग चमक रही थी। सिलिया अपने कपड़े सेंकने लगी। सहसा किवाड़ खुला और मथुरा ने बाहर निकलकर पुकारा--अरे ! कौन बैटा है अलाव के पास ?

मिलिया ने जल्दी से अंचल सिर पर खींच लिया और समीप आकर बोली--मैं हूँ, सिलिया।

'सिलिया ! इतनी रात गये कैसे आयी। वहाँ तो सब कुशल है ?'

'हाँ, सब कुशल है। जी घवड़ा रहा था। सोचा, चलूँ, सबसे भेंट करती आऊँ। दिन को तो छुट्टी ही नहीं मिलती।'

'तो क्या नदी थहाकर आयी है ?'

'और कैसे आती। पानी कम न था।'

मथुरा उसे अन्दर ले गया। बरोठे में अँधेरा था। उसने सिलिया का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा। सिलिया ने झटके से हाथ छुड़ा लिया और रोब से बोली--देखो मथुरा, छेड़ोगे तो मैं सोना से कह दूँगी। तुम मेरे छोटे बहनोई हो, यह समझ लो ! मालूम होता है, सोना से मन नहीं पटता।

मथुरा ने उसकी कमर में हाथ डालकर कहा--तुम बहुत निठुर हो सिल्लो ? इस बखत कौन देखता है।

'क्या मैं सोना से सुन्दर हूँ। अपने भाग नहीं बखानते हो कि ऐसी इन्दर की परी पा गये। अब भौंरा बनने का मन चला है। उससे कह दूंँ तो तुम्हारा मुँह न देखे।'

मथुरा लम्पट नहीं था। सोना से उसे प्रेम भी था। इस वक्त अँधेरा और एकान्त और सिलिया का यौवन देखकर उसका मन चंचल हो उठा था। यह तम्बीह पाकर होश में आ गया। सिलिया को छोड़ता हुआ बोला--तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ सिल्लो, उससे न कहना। अभी जो सजा चाहो, दे लो।

सिल्लो को उस पर दया आ गयी। धीरे से उसके मुंँह पर चपत जमाकर बोली--इसकी सजा यही है कि फिर मुझसे सरारत न करना, न और किसी से करना, नहीं सोना तुम्हारे हाथ से निकल जायगी।

'मैं कसम खाता हूँ सिल्लो, अब कभी ऐसा न होगा।'

उसकी आवाज़ में याचना थी। सिल्लो का मन आन्दोलित होने लगा। उसकी दया सरस होने लगी।

'और जो करो ?'

'तो तुम जो चाहना करना।'

सिल्लो का मुंँह उसके मुंँह के पास आ गया था, और दोनों की साँस और आवाज़ और देह में कम्पन हो रहा था। सहसा सोना ने पुकारा--किससे बातें करते हो वहाँ ?

सिल्लो पीछे हट गयी। मथुरा आगे बढ़कर आँगन में आ गया और बोला--सिल्लो तुम्हारे गाँव से आयी है।

सिल्लो भी पीछे-पीछे आकर आँगन में खड़ी हो गयी। उसने देखा, सोना यहाँ कितने आराम से रहती है। ओसारी में खाट है। उस पर सुजनी का नर्म विस्तर विछा हुआ है; बिलकुल वैसा ही, जैसा मातादीन की चारपाई पर बिछा रहता था। तकिया भी है, लिहाफ भी है। खाट के नीचे लोटे में पानी रखा हुआ है। आँगन में ज्योत्स्ना ने आईना-सा विछा रखा है। एक कोने में तुलसी का चबूतरा है, दूसरी ओर जुआर के ठेठों के कई बोझ दीवार से लगाकर रखे हैं। बीच में पुआलों के गड्ढे हैं। समीप ही ओखल है, जिसके पास कूटा हुआ धान पड़ा हुआ है। खपरैल पर लौकी की बेल चढ़ी हुई है और कई लौकियाँ ऊपर चमक रही हैं। दूसरी ओर की ओसारी में एक गाय वॅधी हुई है। इस खण्ड में मथुरा और सोना सोते हैं। और लोग दूसरे खण्ड में होगे। सिलिया ने सोचा, सोना का जीवन कितना सुखी है। सोना उठकर आँगन में आ गयी थी; मगर सिल्लो से टूटकर गले नहीं मिली। सिल्लो ने समझा, शायद मथुरा के बड़े रहने के कारण सोना संकोच कर रही है। या कौन जाने उसे अब अभिमान हो गया हो-- सिल्लो चमारिन से गले मिलने में अपना अपमान समझती हो। उसका सारा उत्माह ठण्डा पड़ गया। इस मिलन से हर्ष के बदले उसे ईर्ष्या हुई। सोना का रंग कितना खुल गया है, और देह कैसी कंचन की तरह निखर आयी है। गठन भी सुडौल हो गया है। मुख पर गृहिणीत्व की गरिमा के साथ युवती की सहास छवि भी है। सिल्लो एक क्षण के लिए जैसे मन्त्र-मुग्ध-सी खड़ी ताकती रह गयी। यह वही सोना है, जो मूखी-सी देह लिये, झोंटे खोले इधर-उधर दौड़ा करती थी। महीनों सिर में तेल न पड़ता था। फटे चिथड़े लपेटे फिरती थी। आज अपने घर की रानी है। गले में हँसुली और हुमेल है, कानों में करनफूल और सोने की बालियाँ, हाथों में चाँदी के चूड़े और कंगन। आँखों में काजल है, माँग में सेंदुर। सिलिया के जीवन का स्वर्ग यहीं था, और सोना को वहाँ देखकर वह प्रसन्न न हुई। इसे कितना घमण्ड हो गया है। कहाँ सिलिया के गले में वाँहें डाले घास छीलने जाती थी, और आज सीधे ताकती भी नहीं। उसने सोचा था, सोना उसके गले लिपटकर ज़रा-सा रोयेगी, उसे आदर से बैठायेगी, उसे खाना खिलायेगी; और गाँव और घर की सैकड़ों बातें पूछेगी और अपने नये जीवन के अनुभव बयान करेगी--सोहाग-रात और मधुर मिलन की बातें होंगी। और सोना के मुंँह में दही जमा हुआ है। वह यहाँ आकर पछतायी।

आखिर सोना ने रूखे स्वर में पूछा--इतनी रात को कैसे चली, सिल्लो ?

सिल्लो ने आँसुओं को रोकने की चेष्टा करके कहा--तुमसे मिलने को बहुत जी चाहता था। इतने दिन हो गये, भेंट करने चली आयी।

सोना का स्वर और कठोर हुआ-- लेकिन आदमी किसी के घर जाता है, तो दिन को कि इतनी रात गये ?

वास्तव में सोना को उसका आना बुरा लग रहा था। वह समय उसकी प्रेम-क्रीड़ा और हास-विलास का था, सिल्लो ने उसमें बाधक होकर जैसे उसके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली थी।

सिल्लो निःसंज्ञ-सी भूमि की ओर ताक रही थी। धरती क्यों नहीं फट जाती कि वह उसमें समा जाय। इतना अपमान ! उसने अपने इतने ही जीवन में बहुत अपमान सहा था, बहुत दुर्दशा देखी थी, लेकिन आज यह फाँस जिस तरह उसके अन्तःकरण में चुभ गयी, वैसी कभी कोई बात न त्रुभी थी। गुड़ घर के अन्दर मटकों में बन्द रखा हो, तो कितना ही मूसलाधार पानी बरसे, कोई हानि नहीं होती; पर जिस वक्त वह धूप में सूखने के लिए बाहर फैलाया गया हो, उस वक्त तो पानी का एक छीटा भी उसका सर्वनाश कर देगा। सिलिया के अन्तःकरण की सारी कोमल भावनाएँ इम वक्त मुँह खोले बैठी हुई थीं कि आकाश से अमृत-वर्षा होगी। बरसा क्या, अमृत के बदले विप, और सिलिया के रोम-रोम में दौड़ गया। सर्प-दंश के समान लहरें आयी। घर में उपवास करके सो रहना और बात है; लेकिन पंगत से उठा दिया जाना तो डूब मरने ही की बात है। सिलिया को यहाँ एक क्षण ठहरना भी असह्य हो गया, जैसे कोई उसका गला दबाये हुए हो। वह कुछ न पूछ सकी। सोना के मन में क्या है, यह वह भाँप रही थी। वह वाँबी में बैठा हुआ साँप कहीं बाहर न निकल आये, इसके पहिले ही वह वहाँ से भाग जाना चाहती थी। कैसे भागे, क्या बहाना करे ? उसके प्राण क्यों नहीं निकल जाते !

मथुरा ने भण्डारे की कुंजी उठा ली थी कि सिलिया के जलपान के लिए कुछ निकाल लाये; कर्त्तव्यविमूढ़-सा खड़ा था। इधर सिल्लो की साँस टॅगी हुई थी, मानों सिर पर तलवार लटक रही हो।

सोना की दृष्टि में सबसे बड़ा पाप किसी पुरुष का पर-स्त्री और स्त्री का पर-पुरुष की ओर ताकना था। इस अपराध के लिए उसके यहाँ कोई क्षमा न थी। चोरी, हत्या, जाल, कोई अपराध इतना भीषण न था। हँसी-दिल्लगी को वह बुरा न समझती थी, अगर खुले हुए रूप में हो, लुके-छिपे की हँसी-दिल्लगी को भी वह हेय समझती थी। छुटपन से ही वह बहुत-सी रीति की बातें जानने और समझने लगी थी। होरी को जब कभी हाट से घर आने में देर हो जाती थी और धनिया को पता लग जाता था कि वह दुलारी सहुआइन की दुकान पर गया था, चाहे तम्बाखू लेने ही क्यों न गया हो, तो वह कईकई दिन तक होरी से बोलती न थी और न घर का काम करती थी। एक बार इसी बात पर वह अपने नैहर भाग गयी थी। यह भावना सोना में और तीव्र हो गयी थी। जब तक उसका विवाह न हुआ था, यह भावना उतनी बलवान न थी; पर विवाह हो जाने के बाद तो उसने व्रत का रूप धारण कर लिया था। ऐसे स्त्री-पुरुषों की अगर खाल भी खींच ली जाती, तो उसे दया न आती। प्रेम के लिए दाम्पत्य के बाहर उसकी दृष्टि में कोई स्थान न था। स्त्री-पुरुष का एक दूसरे के साथ जो कर्तव्य है, इसी को वह प्रेम समझती थी। फिर सिल्लो से उसका बहन का नाता था। सिल्लो को वह प्यार करती थी, उस पर विश्वास करती थी। वही सिल्लो आज उससे विश्वासघात कर रही है। मथुरा और सिल्लो में अवश्य ही पहले से साँठ-गाँठ होगी। मथुरा उससे नदी के किनारे या खेतों में मिलता होगा। और आज वह इतनी रात गये नदी पार करके इसीलिए आयी है। अगर उसने इन दोनों की बातें सुन न ली होती, तो उसे खबर तक न होती। मथुरा ने प्रेम-मिलन के लिए यही अवसर सबसे अच्छा समझा होगा। घर में सन्नाटा जो है। उसका हृदय सब कुछ जानने के लिए विकल हो रहा था। वह सारा रहस्य जान लेना चाहती थी, जिसमें अपनी रक्षा के लिए कोई विधान सोच सके। और यह मथुरा यहाँ क्यों खड़ा है ? क्या वह उसे कुछ बोलने भी न देगा ?

उसने रोष से कहा--तुम बाहर क्यों नहीं जाते, या यहीं पहरा देते रहोगे ?

मथुरा बिना कुछ कहे बाहर चला गया। उसके प्राण मूखे जाते थे कि कहीं सिल्लो सब कुछ कह न डाले।

और सिल्लो के प्राण सूखे जाते थे कि अब वह लटकती हुई तलवार सिर पर गिरा चाहती है।

तब सोना ने बड़े गम्भीर स्वर में सिल्लो से पूछा--देखो सिल्लो, मुझसे साफ-साफ बता दो, नहीं मैं तुम्हारे सामने, यहीं, अपनी गर्दन पर गंँडासा मार लूंँगी। फिर तुम मेरी सौत बन कर राज करना। देखो, गँडासा वह सामने पड़ा है। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं।

उसने लपककर सामने आँगन में से गॅडा़सा उठा लिया और उसे हाथ में लिये, फिर बोली--यह मत समझना कि मैं खाली धमकी दे रही हूँ। क्रोध में मैं क्या कर बैठूँ, नहीं कह सकती। साफ-साफ बता दे।

सिलिया काँप उठी। एक-एक शब्द उसके मुंँह से निकल पड़ा, मानो ग्रामोफोन में भरी हुई आवाज़ हो। वह एक शब्द भी न छिपा सकी, सोना के चेहरे पर भीषण संकल्प खेल रहा था, मानो खून सवार हो।

सोना ने उसकी ओर बरछी की-सी चुभनेवाली आँखों से देखा और मानों कटार का आघात करती हुई बोली--ठीक-ठीक कहती हो?

'बिलकुल ठीक। अपने बच्चे की कसम।'

'कुछ छिपाया तो नहीं ?'

'अगर मैंने रत्ती-भर छिपाया हो तो मेरी आँखें फूट जायँ।'

'तुमने उस पापी को लात क्यों नहीं मारी ? उसे दाँत क्यों नहीं काट लिया ? उसका खून क्यों नहीं पी लिया, चिल्लायी क्यों नहीं ?'

सिल्लो क्या जवाब दे !

सोना ने उन्मादिनी की भाँति अंगारे की-सी आँखें निकालकर कहा--बोलती क्यों नहीं ? क्यों तूने उसकी नाक दाँतों से नहीं काट ली ? क्यों नहीं दोनों हाथों से उसका गला दबा दिया। तब मैं तेरे चरणों पर सिर झुकाती। अब तो तुम मेरी आँखों में हरजाई हो, निरी बेसवा; अगर यही करना था, तो मातादीन का नाम क्यों कलंकित कर रही है; क्यों किसी को लेकर बैठ नहीं जाती; क्यों अपने घर नहीं चली गयी ? यही तो तेरे घरवाले चाहते थे। तू उपले और घास लेकर बाजार जाती, वहाँ से रुपए लाती और तेरा बाप बैठा, उसी रुपए की ताड़ी पीता, फिर क्यों उस ब्राह्मन का अपमान कराया ? क्यों उसकी आबरू में बट्टा लगाया ? क्यों सतवन्ती बनी बैठी हो? जब अकेले नहीं रहा जाता, तो किसी से मगाई क्यों नहीं कर लेती; क्यों नदी-तालाब में डूब नहीं मरती ? क्यों दूसरों के जीवन में विष घोलती है ? आज मैं तुझसे कह देती हूँ कि अगर इस तरह की वात फिर हुई और मुझे पता लगा, तो हम तीनों में से एक भी जीते न रहेंगे। बस, अब मुंँह में कालिख लगाकर जाओ। आज से मेरे और तुम्हारे बीच में कोई नाता नहीं रहा।

सिल्लो धीरे से उठी और सँभलकर खड़ी हुई। जान पड़ा, उसकी कमर टूट गयी है। एक क्षण साहस बटोरती रही, किन्तु अपनी सफाई में कुछ मुझ न पड़ा। आँखों के सामने अँधेरा था, सिर में चक्कर, कण्ठ सूख रहा था। और सारी देह मुन्न हो गयी थी, मानो रोम-छिद्रों से प्राण उड़े जा रहे हों। एक-एक पग इस तरह रखती हुई, मानो सामने गड्ढा है, वह बाहर आयी और नदी की ओर चली।

द्वार पर मथुरा खड़ा था। बोला--इस वक्त कहाँ जाती हो सिल्लो ?

सिल्लो ने कोई जवाब न दिया। मथुरा ने भी फिर कुछ न पूछा।

वही रुपहली चाँदनी अव भी छाई हुई थी। नदी की लहरें अब भी चाँद की किरणों में नहा रही थीं। और सिल्लो विक्षिप्त-सी स्वप्न-छाया की भाँति नदी में चली जा रही थी।