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गो-दान/३

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गो-दान
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २० से – ३० तक

 

{Gap}}होरी अपने गांव के समीप पहुंचा,तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रही थी,वगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दिया हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों है? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए है? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्लाकर वोला-आता क्यों नहीं गोवर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गया,कुछ सूझता है कि नहीं?

उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा ली और उसके साथ हो लिये। गोबर सांवला,लम्बा,एकहरा युवक था, जिसे इस काम से रुचि न मालम होती थी। प्रसन्नता की जगह मुख पर असंतोप और विद्रोह था। वह इसलिए काम में लगा हुआ था कि वह दिग्वाना चाहता था, उसे खाने-पीने की कोई फिक्र नहीं है। बड़ी लड़की सोना लज्जाशील कुमारी थी, साँवली, मुडौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल साड़ी जिसे वह घुटनों से मोड़कर कमर में बाँधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई सी थी,और उसे प्रौढ़ता की गरिमा दे रही थी। छोटी रूपा पाँच-छ:साल की छोकरी थी मैली,सिर पर वालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक लॅगोटी कमर में वाँधे,बहुत ही ढीठ और रोनी।

रूपा ने होरी की टाँगों में लिपटकर कहा--काका! देखो, मैने एक ढेला भी नहीं छोड़ा। बहन कहती है, जा पेड़ तले बैठ। ढेले न तोड़े जायेंगे काका,तो मिट्टी कैसे वरावर होगी।

होरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते हुए कहा-तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल घर चलें। कुछ देर अपने विद्रोह को दबाये रहने के बाद गोबर बोला--यह तुम रोज़-रोज़ मालिकों की खुशामद करने क्यों जाते हो? बाकी न चुके तो प्यादा आकर गालियाँ सुनाता है,बेगार देनी ही पड़ती है,नजर-नज़राना सब तो हमसे भराया जाता है। फिर किसी की क्यों सलामी करो!

इस समय यही भाव होरी के मन में भी आ रहे थे; लेकिन लड़के के इस विद्रोहभाव को दबाना ज़रूरी था। बोला--सलामी करने न जायँ, तो रहें कहाँ। भगवान ने जब गुलाम बना दिया है,तो अपना क्या बस है। यह इसी सलामी की बरकत है 
कि द्वार पर मईया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा। घरे ने द्वार पर खूटा गाड़ा था, जिस पर कारिन्दों ने दो रुपए डाँड़ ले लिये थे। तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदी, कारिन्दा ने कुछ नहीं कहा। दूसरा खोदे तो नजर देनी पड़े। अपने मतलव के लिए सलामी करने जाता हूँ, पाँव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है। घण्टों खड़े रहो,तव जाके मालिक को खबर होती है। कभी बाहर निकलते हैं. कभी कहला देते हैं कि फुरसत नहीं है।

गोबर ने कटाक्ष किया-बड़े आदमियों की हॉ-में-हाँ मिलाने में कुछ-न-कुछ आनन्द तो मिलता ही है। नहीं लोग मेम्बरी के लिए क्यों खड़े हो?

'जब सिर पर पड़ेगी तब मालूम होगा बेटा,अभी जो चाहे कह लो। पहले मैं भी यही सब वातें सोचा करता था; पर अब मालूम हुआ कि हमारी गरदन दूसरों के पैगे के नीचे दबी हुई है, अकड़ कर निबाह नहीं हो सकता।'

पिता पर अपना क्रोध उतारकर गोबर कुछ शान्त हो गया और चुपचाप चलने लगा। सोना ने देखा, रूपा वाप की गोद में चढ़ी बैठी है तो ईर्ष्या हुई। उसे डाँटकर बोली--अब गोद से उतरकर पाँव-पाँव क्यों नही चलती, क्या पांव टूट गये है? .

रूपा ने बाप की गरदन में हाथ डालकर ढिठाई से कहा--न उतरेंगे जाओ। काका, बहन हमको रोज़ चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मै सोना हूँ। मेग नाम कुछ और रख दो।

होरी ने सोना को बनावटी रोप मे देखकर कहा--तू इसे क्यों चिढ़ाती है सोनिया? सोना तो देखने को है। निवाह तो रूपा से होता है। रूपा न हो,तो रुपए कहाँ से बनें,बता।

सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया--सोना न हो तो मोहन कैसे बने,नथुनियाँ कहाँ से आयें,कण्ठा कैसे बने?

गोवर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया। रूपा से वोला-तू कह दे कि सोना तो सूवी पत्ती की तरह पीला होता है, रूपा तो उजला होता है जैसे मूरज।

सोना बोली-शादी-व्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है, उजली साड़ी कोई नही पहनता।

रूपा इस दलील से परास्त हो गयी। गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी। उसने क्षुब्ध आँखों से होरी को देखा।

होरी को एक नयी युक्ति सूझ गयी। बोला--सोना वड़े आदमियों के लिए है। हम गरीबों के लिए तो रूपा ही है। जैसे जौ को राजा कहते हैं, गेहूँ को चमार; इसलिए न कि गेहूँ बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं।

सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था। परास्त होकर बोली-तुम सब जने एक ओर हो गये,नहीं रुपिया को रुलाकर छोड़ती।

रूपा ने उँगली मटकाकर कहा-ए राम,सोना चमार-ए राम, सोना चमार।

इस विजय का उसे इतना आनन्द हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी। ज़मीन
पर कूद पड़ी और उछल-उछलकर यही रट लगाने लगी-रूपा राजा,सोना चमार-- रूपा राजा,सोना चमार!

ये लोग घर पहुँचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी। रुष्ट होकर बोली-आज इतनी देर क्यों की गोवर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है।

फिर पति से गर्म होकर कहा--तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे तो खेत में पहुंच गये। खेत कहीं भागा जाता था!

द्वार पर कुआँ था। होरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर उँडेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गये। जौ की रोटियाँ थीं; पर गेहूँ-जैसी सुफ़ेद और चिकनी। अरहर की दाल थी जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे। रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईर्ष्या-भरी आँखों से देखा,मानो कह रही थी,वाह रे दुलार!

धनिया ने पूछा--मालिक से क्या बात-चीत हुई?

होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा-यही तहसील-वसूल की बात थी और क्या। हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे; लेकिन सच पूछो, तो वह हमसे भी ज्यादा दुःखी हैं। हमें अपने पेट ही की चिन्ता है,उन्हें हजारों चिन्ताएं घेरे रहती है।

राय साहब ने और क्या-क्या कहा था, वह कुछ होरी को याद न था। उस सारे कथन का खुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका हुआ रह गया था।

गोबर ने व्यंग्य किया--तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते!हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं। करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है,निरी मोटमरदी। जिसे दुःख होता है,वह दरजनों मोटरें नहीं रखता,महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच-रंग में लिप्त रहता है। मजे से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दुखी हैं!

होरी ने झुंझलाकर कहा-अब तुमसे बहस कौन करे भाई! जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे। हमी को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफरी की मजूरी भी तो नहीं पड़ती। जो दस रुपए महीने का भी नौकर है, वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है; लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता। खेती छोड़ दें, तो और करें क्या? नौकरी कहीं मिलती है? फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है वह नौकरी में तो नहीं है। इसी तरह जमींदारों का हाल भी समझ लो! उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद पहुँचाओ, उनकी सलामी करो, अमलों को खुश करो। तारीख पर मालगुजारी न चुका दें, तो हवालात हो जाय, कुड़की आ जाय। हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता। दो-चार गालियाँघुड़कियाँ ही तो मिलकर रह जाती हैं।

गोबर ने प्रतिवाद किया-यह सब कहने की बातें हैं। हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं,देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है,तब भी गुजर नहीं होता। उन्हें क्या,मजे से गद्दी-मसनद लगाये बैठे हैं,सैकड़ों नौकर-चाकर 
हैं, हज़ारों आदमियों पर हुकूमत है। रुपए न जमा होते हों; पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं। धन लेकर आदमी और क्या करता है?

'तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैं?'

'भगवान ने तो सबको बराबर ही बनाया है।'

'यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भगवान के घर से बनकर आते हैं। सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किये हैं, उनका आनन्द भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या?

'यह सब मन को समझाने की बातें हैं। भगवान सबको बराबर बनाते है। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है,वह गरीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता है।'

'यह तुम्हारा भरम है। मालिक आज भी चार घण्टे रोज़ भगवान का भजन करते है।'

'किसके बल पर यह भजन-भाव और दान-धर्म होता है ?'

'अपने बल पर।'

'नहीं, किसानों के बल पर और मजदूरों के बल पर। यह पाप का धन पचे कैसे? इसीलिए दान-धर्म करना पड़ता है, भगवान का भजन भी इसीलिए होता है,भूखेनंगे रहकर भगवान का भजन करें,तो हम भी देखें। हमें कोई दोनों जून खाने को दे तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भक्ति भूल जाय।'

{{Gapहोरी ने हार कर कहा--अब तुम्हारे मुंह कौन लगे भाई, तुम तो भगवान की लीला में भी टाँग अड़ाते हो।

तीसरे पहर गोबर कुदाल लेकर चला, तो होरी ने कहा-ज़रा ठहर जाओ देगा, हम भी चलते हैं। तब तक थोड़ा-सा भूसा निकालकर रख दो। मैने भोला को देने को कहा है। बेचारा आजकल बहुत तंग है।

गोबर ने अवज्ञा-भरी आँखों से देखकर कहा-हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है।

'बेचता नहीं हूँ भाई, यों ही दे रहा हूँ। वह संकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।'

'हमें तो उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी।'

'दे तो रहा था; पर हमने ली ही नहीं।'

धनिया मटककर बोली-गाय नहीं वह दे रहा था। इन्हें गाय दे देगा! आँख में अंजन लगाने को कभी चिल्लू-भर दूध तो भेजा नहीं, गाय देगा!

होरी ने कसम खायी-नहीं,जवानी क़सम, अपनी पछाईं गाय दे रहे थे। हाथ तंग है,भूसा-चारा नहीं रख सके। अब एक गाय बेचकर भूसा लेना चाहते हैं। मैंने सोचा,संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँगा। थोड़ा-सा भूसा दिये देता हूँ, कुछ रुपए हाथ आ जायँगे तो गाय ले लूंगा। थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूंगा। अस्सी रुपए की है; मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे।

गोबर ने आड़े हाथों लिया-तुम्हारा यही धर्मात्मापन तो तुम्हारी दुर्गत कर रहा
है। साफ-साफ तो वात है। अस्सी रुपए की गाय है, हमसे वीस रुपए का भूगा ले लें और गाय हमे दे दे। साठ रुपए रह जायेंगे,वह हम धीरे-धीरे दे देंगे।

होरी रहस्यमय ढंग से मुस्कराया--मैने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत-मेंत में हाथ आ जाय। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है, बस। दो-नार मन भसा तो खाली अपना रंग जमाने को देता हूँ।

गोवर ने निरस्कार किया--तो तुम अब सब की सगाई ठीक करते फिरोगे?

धनिया ने तीखी आँखों से देखा-अब यही एक उद्यम तो रह गया है। न देनाह है हमें भूमा किसी को। यहाँ भोली-भाला किसी का करज़ नही खाया है।

होरी ने अपनी सफाई दी-अगर मेरे जतन से किसी का घर वस जाय,तो इसमें कौन-सी बुराई है?

गोवर ने चिलम उठाई और आग लेने चला गया। उगे यह झमेला बिल्कुल नहीं भाता था।

धनिया ने सिर हिला कर कहा--जो उनका घर बसायेगा,वह अम्सी रुपए की गाय लेकर चुप न होगा।एक थैली गिनवायेगा।

होरी ने पुचाग दिया--यह मै जानता है;लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो देखो। मुझसे जब मिलता है,तेरा बखान ही करता है--ऐसी लक्ष्मी है, ऐसी सलीकेदार है।

धनिया के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी। मनभाय मुड़िया हिलाये वाले भाव से वोली--मै उनके बखान की भूखी नहीं हूँ,अपना बखान धरे रहें।

होरी ने स्नेह-भरी मुस्कान के साथ कहा-मैने तो कह दिया,भैया,वह नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती,गालियों से बात करती है। लेकिन वह यही कहे जाय कि वहऔरत नहीं, लक्ष्मी है। बात यह है कि उसकी घरवाली जवान की बड़ी तेज थी। वेचारा उसके डर के मारे भागा-भागा फिरता था। कहता था, जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह सवेरे देख लेता हूँ,उम दिन कुछ-न-कुछ जरूर हाथ लगता है। मैने कहा-- तुम्हारे हाथ लगता होगा, यहाँ तो रोज देखते है,कभी पैसे से भेंट नहीं होती।

'तुम्हारे भाग ही खोटे हैं, तो मैं क्या करूं।'

'लगा अपनी घरवाली की बुराई करने-भिखारी को भीख तक नहीं देती थी, झाड़ लेकर मारने दौड़ती थी,लालचिन ऐसी थी कि नमक तक दूसरों के घर से माँग लाती थी!'

‘मरने पर किसी की क्या बुराई करूं। मुझे देखकर जल उठती थी।'

भोला वड़ा गमखोर था कि उसके साथ निबाह कर दिया। दूसरा होता तो जहर खाके मर जाता। मुझसे दस साल बड़े होंगे भोला; पर राम-राम पहले ही करते हैं।'

'तो क्या कहते थे कि जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुंह देख लेता हूँ, तो क्या होता है?"

'उस दिन भगवान कहीं-न-कहीं से कुछ भेज देते हैं।' 'बहुएँ भी तो वैसी ही चटोरिन आयी हैं। अबकी सबों ने दो रुपए के खरबूजे उधार खा डाले। उधार मिल जाय, फिर उन्हें चिन्ता नहीं होती कि देना पड़ेगा या नहीं।'

'और भोला रोते काहे को हैं?'

गोबर आकर बोला-भोला दादा आ पहुँचे। मन-दो मन भूसा है, वह उन्हें दे फिर उनकी सगाई ढूंढ़ने निकलो।

धनिया ने समझाया--आदमी द्वार पर बैठा है,उसके लिए खाट-वाट तो डाल ही दी,ऊपर से लगे भुनभुनाने। कुछ तो भलमंसी सीखो। कलसा ले जाओ,पानी नरकर रख दो,हाथ-मुंह धोयें,कुछ रस-पानी पिला दो। मुसीबत में ही आदमी दूसरों के सामने हाथ फैलाता है।

होरी बोला--रस-वस का काम नहीं है,कौन कोई पाहुने हैं।

धनिया बिगड़ी-पाहुने और कैसे होते हैं! रोज़-रोज़ तो तुम्हारे द्वार पर नही आते? इतनी दूर से धूप-घाम में आये हैं, प्यास लगी ही होगी। रुपिया, देख डब्बे में तमाखू है कि नहीं, गोबर के मारे काहे को बची होगी। दौड़कर एक पैसे का तमाख सहुआइन की दुकान से ले ले।

भोला की आज जितनी खातिर हुई,और कभी न हुई होगी। गोबर ने खाट डाल दी,सोना रस घोल लायी,रूपा तमाखू भर लायी। धनिया द्वार पर किवाड़ की आड़ में खड़ी अपने कानों से अपना बखान मुनने के लिए अधीर हो रही थी।

भोला ने चिलम हाथ में लेकर कहा-अच्छी घरनी घर में आ जाय, तो समझ लो लक्ष्मी आ गयी। वही जानती है छोटे-बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना चाहिए।

धनिया के हृदय में उल्लास का कम्पन हो रहा था। चिन्ता और निराशा और अभाव से आहत आत्मा इन शब्दों में एक कोमल शीतल स्पर्श का अनुभव कर रही थी।

होरी जब भोला का खाँचा उठाकर भूसा लाने अन्दर चला, तो धनिया भी पीछेपीछे चली। होरी ने कहा-जाने कहाँ से इतना बड़ा खाँचा मिल गया। किसी भड़भूजे से माँग लिया होगा। मन-भर से कम में न भरेगा। दो खाँचे भी दिये,तो दो मन निकल जायँगे।

धनिया फूली हुई थी। मलामत की आँखों से देखती हुई बोली--या तो किसी को नेवता न दो,और दो तो भरपेट खिलाओ। तुम्हारे पास फूल-पत्र लेने थोड़े ही आये है कि चेंगेरी लेकर चलते। देते ही हो,तो तीन खाँचे दे दो। भला आदमी लड़कों को क्यों नहीं लाया। अकेले कहाँ तक ढोयेगा। जान निकल जायगी।

'तीन खाँचे तो मेरे दिये न दिये जायेंगे?'

'तब क्या एक खाँचा देकर टालोगे? गोबर से कह दो, अपना खाँचा भरकर उनके साथ चला जाय।'

'गोबर ऊख गोड़ने जा रहा है।'

'एक दिन न गोड़ने से ऊख न सूख जायगी।' 'यह तो उनका काम था कि किसी को अपने साथ ले लेते। भगवान के दिये दोदो बेटे हैं।'

'न होंगे घर पर। दूध लेकर बाजार गये होंगे।'

'यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना माल भी दो और उसे घर तक पहुँचा भी दो। लाद दे, लदा दे, लादनेवाला साथ कर दे।'

'अच्छा भाई, कोई मत जाय। मैं पहुँचा दूंगी। बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं है।'

'और तीन खाँचे उन्हें दे दूं,तो अपन वैल क्या खायेंगे?'

'यह सब तो नेवता देने के पहले ही सोच लेना था। न हो, तुम और गोबर दोनों जने चले जाओ।

'मुरौवत मुरौवत की तरह की जाती है, अपना घर उठाकर नहीं दे दिया जाता!'

'अभी ज़मींदार का प्यादा आ जाय,तो अपने सिर पर भूसा लादकर पहुंचाओगे तुम,तुम्हारा लड़का,लड़की सब। और वहाँ साइत मन-दो-मन लकड़ी भी फाड़नी पड़े।'

'ज़मींदार की बात और है।'

साँचा:GaP'हाँ,वह डंडे के ज़ोर से काम लेता है न।'

'उसके खेत नहीं जोतते?'

'खेत जोतते हैं,तो लगान नहीं देते?'

'अच्छा भाई,जान न खा,हम दोनों चले जायेंगे। कहाँ-से-कहाँ मैंने इन्हें मूसा देने को कह दिया। या तो चलेगी नहीं,या चलेगी तो दौड़ने लगेगी।'

तीनों खाँचे भूसे से भर दिये गये। गोवर कुढ़ रहा था। उसे अपने बाप के व्यवहारों में ज़रा भी विश्वास न था। वह समझता था, यह जहाँ जाते हैं, वहीं कुछन-कुछ घर से खो आते है। धनिया प्रसन्न थी। रहा होरी, वह धर्म और स्वार्थ के बीच में डूब-उतरा रहा था।

होरी और गोबर मिलकर एक खाँचा बाहर लाये। भोला ने तुरन्त अपने अंगौछे का वीड़ बनाकर सिर पर रखते हुए कहा--मैं इसे रखकर अभी भागा आता हूँ। एक खाँचा और लूंगा।

होरी वोला-एक नहीं, अभी दो और भरे धरे हैं। और तुम्हें न आना पड़ेगा। मै और गोबर एक-एक खाँचा लेकर तुम्हारे साथ ही चलते हैं।

भोला स्तम्भित हो गया। होरी उसे अपना भाई बल्कि उससे भी निकट जान पड़ा। उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का अनुभव हुआ, जिसने मानो उसके संपूर्ण जीवन को हरा कर दिया।

तीनों भूसा लेकर चले,तो राह में बातें होने लगीं।

भोला ने पूछा-दशहरा आ रहा है,मालिकों के द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगी?

'हाँ,तम्बू सामियाना गड़ गया है। अब की लीला में मैं भी काम करूंगा। राय साहब ने कहा है,तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।' 'मालिक तुमसे बहुत खुश हैं।'

'उनकी दया है।'

एक क्षण के बाद भोला ने फिर पूछा-सगुन करने के लिए रुपए का कुछ जुगाड़ कर लिया है? माली बन जाने से तो गला न छूटेगा।

होरी ने मुंह का पसीना पोंछकर कहा-उसी की चिन्ता तो मारे डालती है दादा!अनाज तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया। ज़मींदार ने अपना लिया,महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैने रातोंरात ढोकर छिपा दिया था,नहीं तिनका भी न बचता। जमींदार तो एक ही है। मगर महाजन तीनतीन हैं,सहुआइन अलग,मॅगरू अलग और दातादीन पण्डित अलग। किसी का व्याज भी पूरा न चुका। जमींदार के भी आधे रुपए बाकी पड़ गये। सहुआइन से फिर रुपए उधार लिये तो काम चला। सब तरह किफायत कर के देख लिया भैया,कुछ नहीं होता। हमारा जनम इसी लिए हुआ है कि अपना रक्त वहायें और वड़ों का घर भरें। मूलका दुगना सूद भर चुका;पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है। लोग कहते हैं, सर्दी-गर्मी में, तीरथ-बरत में हाथ बाँधकर खरच करो। मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता। राय साहब ने बेटे के व्याह में बीस हजार लुटा दिये। उनसे कोई कुछ नहीं कहता। मंगरू ने अपने वाप के क्रिया-करम में पाँच हजार लगाये। उनसे कोई कुछ नहीं पूछता। वैसा ही मरजाद तो सबका है।

भोला ने करुण भाव से कहा-बड़े आदमियों की वरावरी तुम कैसे कर सकते हो भाई?

'आदमी तो हम भी है।'

'कौन कहता है कि हम तुम आदमी है। हममें आदमियत कहाँ?आदमी वह हैं,जिनके पास धन है,अख्तियार है, इलम है,हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उसपर एक दूसरे को देख नहीं सकता। एका का नाम नहीं। एक किमान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जाफा कैसे करे,प्रेम तो संसार से उठ गया।'

बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दुःखों और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता। दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते रहे। भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाये, होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएँ पर बोझ रखकर पानी पीने के लिए बैठ गये। गोवर ने बनिये से लोटा माँगा और पानी खींचने लगा।

भोला ने सहृदयता से पूछा-अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा। भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था।

होरी आर्द्र कण्ठ से बोला-कुछ न पूछो दादा,यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब मरूँ। मेरे जीते जी सब कुछ हो गया। जिनके पीछे अपनी जवानी धूल में मिला दी वही मेरे मुद्दई हो गये और झगड़े की जड़ क्या थी?यही कि मेरी घरवाली हार में काम करने क्यों नहीं जाती। पूछो,घर देखनेवाला भी कोई चाहिए कि नहीं। लेना-देना,
धरना-उठाना,सँभालना-सहेजना,यह कौन करे। फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाड़-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देख-भाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था? जब से अलगौझा हुआ है,दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है। नहीं सब को दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खायें चार दफ़े, तो देखू। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुर्गती हुई है, वह मै ही जानता हूँ। बेचारी अपनी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहनकर दिन काटती थी,खुद भूखी सो रही होगी;लेकिन बहुओं के लिए जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपनी देह पर गहने के नाम कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दोदो चार-चार गहने बनवा दिये। सोने के न सही चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गये। मेरे सिर से बला टली।

भोला ने एक लोटा पानी चढाकर कहा-यही हाल घर-घर है भैया! भाइयों की बात ही क्या,यहाँ तो लड़कों से भी नहीं पटती और पटती इसीलिए नहीं कि मैं किसी की कुचाल देखकर मुंह नहीं बन्द कर सकता। तुम जुआ खेलोगे, चरस पीओगे, गाँजे के दम लगाओगे, मगर आये किसके घर से? खरचा करना चाहते हो तो कमाओ;मगर कमाई तो किसी से न होगी। खरच दिल खोलकर करेंगे। जेठा कामता सौदा लेकर वाजार जायगा, तो आधे पैसे गायब। पूछो तो कोई जवाब नहीं। छोटा जंगी है,वह संगत के पीछे मतवाला रहता है। साँझ हुई और ढोल-मजीरा लेकर बैठ गये। संगत को मैं बरा नहीं कहता। गाना-बजाना ऐब नही; लेकिन यह सब काम फरसत के है। यह नहीं कि घर का तो कोई काम न करो,आठों पहर उसी धुन में पड़े रहो। जाती है मेरे सिर;सानी-पानी मैं करूँ,गाय-भैस मै दुहूँ, दूध लेकर बाजार मै जाऊँ। यह गृहस्थी जी का जंजाल है,सोने की हँसिया,जिसे न उगलते बनता है,न निगलते। लड़की है,झुनिया,वह भी नसीब की खोटी। तुम तो उसकी सगाई में आये थे। कितना अच्छा घरवर था। उसका आदमी बम्बई में दूध की दूकान करता था। उन दिनों वहाँ हिन्दूमुसलमानों में दंगा हुआ, तो किसी ने उसके पेट में छूरा भोंक दिया। घर ही चौपट हो गया। वहाँ अब उसका निवाह नहीं। जाकर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर दूंगा; मगर वह राजी ही नहीं होती। और दोनों भावजें हैं कि रात-दिन उसे जलाती रहती है। घर में महाभारत मचा रहता है। विपत की मारी यहाँ आई, यहाँ भी चैन नही।

इन्ही दुखड़ों मे रास्ता कट गया। भोला का पुरवा था तो छोटा; मगर बहुत गुलजार। अधिकतर अहीर ही वसते थे।और किसानों के देखते इनकी दशा बहुत बुरी न थी। भोला गाँव का मुखिया था। द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी जिस पर दस-बारह गाय-भैसें खड़ी सानी खा रही थी। ओसारे में एक बड़ा-सा तख्त पड़ा था जो शायद दस आदमियों से भी न उठता। किसी खूटी पर ढोलक लटक रही थी किसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी हुई थी, जो शायद रामायण हो। दोनों बहुएँ सामने बैठी गोबर पाथ रही थीं और झुनिया चौखट पर खड़ी थी। उसकी आँखें
लाल थीं और नाक के सिरे पर भी सुीं थी। मालूम होता था,अभी रोकर उठी है।उसके मांसल,स्वस्थ,सुगठित अंगों में मानो यौवन लहरें मार रहा था। मुंह बड़ा और गोल था,कपोल फूले हुए,आँखें छोटी और भीतर घुसी हुई,माथा पतला;पर वक्ष का उभार और गात का वही गुदगुदापन आँखों को खींचता था। उस पर छपी हुई गुलाबी साड़ी उसे और भी शोभा प्रदान कर रही थी।

भोला को देखते ही उसने लपककर उनके सिर से खाँचा उतरवाया। भोला ने गोवर और होरी के खाँचे उतरवाये और झुनिया से बोले-पहले एक चिलम भर ला, फिर थोड़ा-सा रस बना ले। पानी न हो तो गगरा ला,मैं खींच दूं। होरी महतो को पहचानती है न?

फिर होरी से बोला-घरनी के बिना घर नहीं रहता भैया। पुरानी कहावत है-- नाटन खेती वहुरियन घर। नाटे बैल क्या खेती करेंगे और बहुएँ क्या घर सँभालेंगी। जव से इसकी माँ मरी है, जैसे घर की बरकत ही उठ गयी। बहुएँ आटा पाथ लेती है। पर गृहस्थी चलाना क्या जानें। हाँ, मुँह चलाना खूब जानती हैं। लौंडे कहीं फड़ पर जमे होंगे। सब-के-सब आलसी हैं,कामचोर। जब तक जीता हूँ, इनके पीछे मरता हूँ। मर जाऊँगा,तो आप सिर पर हाथ धरकर रोयेंगे। लड़की भी वैसी ही है। छोटा-सा अढ़ौना भी करेगी,तो भुन-भुनाकर। मैं तो सह लेता हूँ,खसम थोड़े ही सहेगा।

झुनिया एक हाथ में भरी हुई चिलम, दूसरे में लोटे का रस लिये बड़ी फुर्ती से आ पहुँची। फिर रस्सी और कलसा लेकर पानी भरने चली। गोबर ने उसके हाथ से कलसा लेने के लिए हाथ बढ़ाकर झेंपते हुए कहा--तुम रहने दो,मैं भरे लाता हूँ।

झुनिया ने कलसा न दिया। कुएँ के जगत पर जाकर मुस्कराती हुई बोली--तुम हमारे मेहमान हो। कहोगे एक लोटा पानी भी किसी ने न दिया।

'मेहमान काहे से हो गया। तुम्हारा पड़ोसी ही तो हूँ।'

'पड़ोसी साल-भर में एक बार भी सूरत न दिखाये, तो मेहमान ही है।'

'रोज-रोज आने से मरजाद भी तो नहीं रहती।'

झुनिया हँसकर तिरछी नजरों से देखती हुई बोली--वही मरजाद तो दे रही हूँ। महीने में एक बेर आओगे,ठण्डा पानी दूंगी। पन्द्रहवें दिन आओगे, चिलम पाओगे। सातवें दिन आओगे, खाली बैठने को माची दूंगी। रोज-रोज आओगे,कुछ न पाओगे।

'दरसन तो दोगी?'

'दरसन के लिए पूजा करनी पड़ेगी।'

यह कहते-कहते जैसे उसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी। उसका मुंह उदास हो गया। वह विधवा है। उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका पति रक्षक बना बैठा रहता था। वह निश्चिन्त थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था,इसलिए वह उस द्वार को सदैव बन्द रखती है। कभी-कभी घर के सूनेपन से उकताकर वह द्वार खोलती है;पर किसी को आते देखकर भयभीत होकर दोनों पट भेड़ लेती है। गोबर ने कलसा भरकर निकाला। सबों ने रस पिया और एक चिलम तमाखू और पीकर लौटे। भोला ने कहा--कल तुम आकर गाय ले जाना गोबर,इस बखत तो सानी खा रही है।

गोवर की आँखें उसी गाय पर लगी हुई थीं और मन-ही-मन वह मुग्ध हुआ जाता था। गाय इतनी सुन्दर और मुडौल है,इसकी उसने कल्पना भी न की थी।

होरी ने लोभ को रोककर कहा--मंगवा लूंगा, जल्दी क्या है?

'तुम्हें जल्दी न हो,हमें तो जल्दी है। उसे द्वार पर देखकर तुम्हें वह वात याद रहेगी।'

'उमकी मुझे बड़ी फिकर है दादा!'

'तो कल गोबर को भेज देना।'

दोनों ने अपने-अपने खाँचे सिर पर रखे और आगे बढ़े। दोनों इतने प्रसन्न थे मानो व्याह करके लौटे हों। होरी को तो अपनी चिर संचित अभिलापा के पूरे होने का हर्ष था,और विना पैसे के। गोवर को इससे भी बहुमूल्य वस्तु मिल गयी थी। उसके मन में अभिलापा जाग उठी थी।

अवसर पाकर उमने पीछे की तरफ देखा। झुनिया द्वार पर खड़ी थी,मत्त आशा की भाँति अधीर, चंचल।