गो-दान/३४

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गो-दान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
[ ३४३ ]

३४

सिलिया का बालक अब दो साल का हो रहा था और सारे गाँव में दौड़ लगाता था। अपने साथ एक विचित्र भाषा लाया था, और उसी में बोलता था, चाहे कोई समझे या न समझे। उसकी भाषा में त, ल और घ की कसरत थी और स, र आदि वर्ण ग़ायब थे। उस भाषा में रोटी का नाम था ओटी, दूध का तूत, साग का छाग और कौड़ी का तौली। जानवरों की बोलियों की ऐसी नक़ल करता है कि हँसते-हँसते लोगों के पेट में वल पड़ जाता है। किसी ने पूछा--रामू, कुत्ता कैसे बोलता है ? रामू गम्भीर भाव से कहता--भों-भों, और काटने दौड़ता। बिल्ली कैसे बोले ? और रामू म्याँव-म्याँव करके आँखें निकालकर ताकता और पंजों से नोचता। बड़ा मस्त लड़का था। जब देखो खेलने में मगन रहता, न खाने की सुधि थी, न पीने की। गोद से उसे चिढ़ थी। उसके सबसे सुखी क्षण वह होते, जब वह द्वार के नीम के नीचे मनों धूल बटोर कर उसमें लोटता, सिर पर चढ़ाता, उसकी ढेरियाँ लगाता, घरौंदे बनाता। अपनी उम्र के लड़कों से उसकी एक क्षण न पटती। शायद उन्हें अपने साथ खेलाने के योग्य ही न समझता था।

कोई पूछता--तुम्हारा क्या नाम है ?

चटपट कहता--लामू।

'तुम्हारे बाप का क्या नाम है ?'

'मातादीन।'

'और तुम्हारी माँ का?'

'छिलिया।'

'और दातादीन कौन है?'

'वह अमाला छाला है।'

न जाने किसने दातादीन मे उसका यह नाता बता दिया था।

रामू और रूपा में खूब पटती थी। वह रूपा का खिलौना था। उसे उबटन मलती, काजल लगाती, नहलाती, बाल सँवारती, अपने हाथों कौर-कौर बनाकर खिलाती, और कभी-कभी उसे गोद में लिये रात को सो जाती। धनिया डाँटती, तू सब कुछ छुआछून किये देती है; मगर वह किसी की न सुनती। चीथड़े की गुड़िया ने उसे माता बनना सिखाया था। वह मातृ-भावना जीता-जागता बालक पाकर अब गुड़ियों से सन्तुष्ट न हो सकती थी।

उसी के घर के पिछवाड़े जहाँ किसी ज़माने में उसकी बरदौर थी, होरी के खंँडहर में सिलिया अपना एक फूस का झोपड़ा डालकर रहने लगी थी। होरी के घर में उम्र तो नहीं कट सकती थी।

मातादीन को कई सौ रुपए खर्च करने के बाद अन्त में काशी के पंडितों ने फिर से ब्राह्मण बना दिया। उस दिन बड़ा भारी हवन हुआ, बहुत-से ब्राह्मणों ने भोजन [ ३४४ ]किया और बहुत से मन्त्र और श्लोक पढ़े गये। मातादीन को शुद्ध गोबर और गोमूत्र खाना-पीना पड़ा। गोबर से उसका मन पवित्र हो गया। मूत्र से उसकी आत्मा में अशुचिता के कीटाणु मर गये।

लेकिन एक तरह से इस प्रायश्चित्त ने उसे सचमुच पवित्र कर दिया। हवन के प्रचण्ड अग्नि-कुण्ड में उसकी मानवता निखर गयी और हवन की ज्वाला के प्रकाश से उसने धर्म-स्तम्भों को अच्छी तरह परख लिया। उस दिन से उसे धर्म के नाम से चिढ़ हो गयी। उसने जनेऊ उतार फेंका और पुरोहिती को गंगा में डुबा दिया। अब वह पक्का खेतिहर था। उसने यह भी देखा कि यद्यपि विद्वानों ने उसका ब्राह्मणत्व स्वीकार कर लिया; लेकिन जनता अब भी उसके हाथ का पानी नहीं पीती, उससे मुहूर्त पूछती है, साइत और लग्न का विचार करवाती है, उसे पर्व के दिन दान भी दे देती है; पर उसमे अपने वरतन नहीं छुलाती।

जिस दिन सिलिया के बालक का जन्म हुआ, उसने दूनी मात्रा में भंग पी, और गर्व से जैसे उसकी छाती तन गयी, और उँगलियाँ बार-बार मूंँछों पर पड़ने लगीं। बच्चा कैसा होगा? उसी के जैसा ? कैसे देखे ? उसका मन मसोसकर रह गया।

तीसरे दिन रूपा खेत में उससे मिली। उसने पूछा--रुपिया, तूने सिलिया का लड़का देखा?

रुपिया बोली--देखा क्यों नहीं। लाल-लाल है, खूब मोटा, बड़ी-बड़ी आँखें हैं, सिर में झबराले बाल हैं, टुकुर-टुकुर ताकता है।

मातादीन के हृदय में जैसे वह बालक आ बैठा था, और हाथ-पाँव फेंक रहा था। उसकी आँखों में नशा-सा छा गया। उसने उस किशोरी रूपा को गोद में उठा लिया, फिर कन्धे पर बिठा लिया, फिर उतारकर उसके कपोलों को चूम लिया।

रूपा बाल सँभालती हुई ढीठ होकर बोली--चलो, मैं तुमको दूर से दिखा दूंँ। ओसारे में ही तो है। सिलिया बहन न जाने क्यों हरदम रोती रहती है।

मातादीन ने मुंँह फेर लिया। उसकी आँखें सजल हो आयी थीं, और ओठ काँप रहे थे।

उस रात को जब सारा गाँव सो गया और पेड़ अन्धकार में डूब गये, तो वह सिलिया के द्वार पर आया और सम्पूर्ण प्राणों से बालक का रोना सुना, जिसमें सारी दुनिया का संगीत, आनन्द और माधुर्य भरा हुआ था।

सिलिया बच्चे को होरी के घर में खटोले पर मुलाकर मजूरी करने चली जाती। मातादीन किसी-न-किसी बहाने से होरी के घर आता और कनखियों से बच्चे को देखकर अपना कलेजा और आँखें और प्राण शीतल करता।

धनिया मुस्करा कर कहती--लजाते क्यों हो, गोद में ले लो, प्यार करो, कैसा काठ का कलेजा है तुम्हारा। बिलकुल तुमको पड़ा है।

मातादीन एक-दो रुपए सिलिया के लिए फेंककर बाहर निकल आता। बालक के साथ उसकी आत्मा भी बढ़ रही थी, खिल रही थी, चमक रही थी। अब उसके [ ३४५ ]जीवन का भी उद्दश्य था, एक व्रत था। उसमें संयम आ गया, गम्भीरता आ गयी, दायित्व आ गया।

एक दिन रामू खटोले पर लेटा हुआ था। धनिया कहीं गयी थी। रूपा भी लड़कों का शोर सुनकर खेलने चली गयी। घर अकेला था। उसी वक्त मातादीन पहुँचा। बालक नीले आकाश की ओर देख-देख हाथ-पाँव फेंक रहा था, हुमक रहा था, जीवन के उस उल्लास के साथ जो अभी उसमें ताज़ा था। मातादीन को देखकर वह हँस पड़ा। मातादीन स्नेह-विह्वल हो गया। उसने बालक को उठाकर छाती से लगा लिया। उसकी सारी देह और हृदय और प्राण रोमांचित हो उठे, मानो पानी की लहरों में प्रकाश की रेखाएँ काँप रही हों। बच्चे की गहरी, निर्मल, अथाह, मोद-भरी आँखों में जैसे उसके जीवन का सत्य मिल गया। उसे एक प्रकार का भय-सा लगा, मानो वह दृष्टि उसके हृदय में चुभी जाती हो--वह कितना अपवित्र है, ईश्वर का वह प्रसाद कैसे छू सकता है। उसने बालक को सशंक मन के साथ फिर लिटा दिया। उसी वक्त रूपा बाहर से आ गयी और वह बाहर निकल गया।

एक दिन खूब ओले गिरे। सिलिया घास लेकर बाज़ार गयी हुई थी। रूपा अपने खल में मग्न थी। रामू अब बैठने लगा था। कुछ-कुछ बकवाँ चलने भी लगा था। उसने जो आँगन में बिनौले बिछे देखे, तो समझा, बतासे फैले हुए हैं। कई उठाकर खाये और आँगन में खूब खेला। रात को उसे ज्वर आ गया। दूसरे दिन निमोनिया हो गया। तीसरे दिन संध्या समय सिलिया की गोद में ही बालक के प्राण निकल गये।

लेकिन बालक मरकर भी सिलिया के जीवन का केन्द्र बना रहा। उसकी छाती में दूध का उबाल-सा आता और आँचल भीग जाता। उसी क्षण आँखों से आँसू भी निकल पड़ते। पहले सब कामों से छुट्टी पाकर रात को जब वह रामू को हिये से लगाकर स्तन उसके मुंँह में दे देती तो मानो उसके प्राणों में बालक की स्फूर्ति भर जाती। तब वह प्यारे-प्यारे गीत गाती, मीठे-मीठे स्वप्न देखती और नये-नये संसार रचती, जिसका राजा राम होता। अब सब कामों से छुट्टी पाकर वह अपनी सूनी झोपड़ी में रोती थी और उसके प्राण तड़पते थे, उड़ जाने के लिए, उस लोक में जहाँ उसका लाल इस समय भी खेल रहा होगा। सारा गाँव उसके दुःख में शरीक था। रामू कितना चोंचाल था, जो कोई बुलाता, उसी की गोद में चला जाता। मरकर और पहुँच से बाहर होकर वह और भी प्रिय हो गया था, उसकी छाया उससे कहीं सुन्दर, कहीं चोंचाल, कहीं लुभावनी थी।

मातादीन उस दिन खुल पड़ा। परदा होता है हवा के लिए। आँधी में परदे उठाके रख दिये जाते हैं कि आँधी के साथ उड़ न जायें। उसने शव को दोनों हथेलियों पर उठा लिया और अकेला नदी के किनारे तक ले गया, जो एक मील का पाट छोड़कर पतली-सी धार में समा गयी थी। आठ दिन तक उसके हाथ सीधे न हो सके। उस दिन वह ज़रा भी नहीं लजाया, ज़रा भी नहीं झिझका। [ ३४६ ]

और किसी ने कुछ कहा भी नहीं; बल्कि सभी ने उसके साहस और दृढ़ता की. तारीफ़ की।

होरी ने कहा--यही मरद का घरम है। जिसकी बाँह पकड़ी, उसे क्या छोड़ना !

धनिया ने आँखें नचाकर कहा--मत बखान करो, जी जलता है। यह मरद है ? मैं ऐसे मरद को नामरद कहती हूँ। जब बाँह पकड़ी थी, तब क्या दूध पीता था कि सिलिया ब्राह्मणी हो गयी थी?

एक महीना बीत गया। सिलिया फिर मजूरी करने लगी थी। संध्या हो गयी थी। पूर्णमासी का चाँद विहँसता-सा निकल आया था। सिलिया ने कटे हुए खेत में से गिरे हुए जौ के बाल चुनकर टोकरी में रख लिये थे और घर जाना चाहती थी कि चाँद पर निगाह पड़ गयी और दर्दभरी स्मृतियों का मानो स्रोत खुल गया। अंचल दूध से भीग गया और मुख आँसुओं से। उसने सिर लटका लिया और जैसे रुदन का आनन्द लेने लगी।

सहसा किसी की आहट पाकर वह चौंक पड़ी। मातादीन पीछे से आकर सामने खड़ा हो गया और बोला--कब तक रोये जायगी सिलिया ! रोने से वह फिर तो न आ जायगा। और यह कहते-कहते वह खुद रो पड़ा।

सिलिया के कण्ठ में आये हुए भर्त्सना के शब्द पिघल गये। आवाज़ सँभालकर बोली--तुम आज इधर कैसे आ गये?

मातादीन कातर होकर बोला--इधर से जा रहा था। तुझे बैठा देखा, चला आया।

'तुम तो उसे खेला भी न पाये।'

'नहीं सिलिया, एक दिन खेलाया था।'

'सच?'

'सच!'

'मैं कहाँ थी?'

'तू बाजार गयी थी।

'तुम्हारी गोद में रोया नहीं ?'

'नहीं सिलिया, हँसता था।

'सच?'

'सच!'

'बस एक ही दिन खेलाया?'

'हाँ एक ही दिन; मगर देखने रोज़ आता था। उसे खटोले पर खेलते देखता था और दिल थामकर चला जाता था।'

'तुम्हीं को पड़ा था।

'मुझे तो पछतावा होता है कि नाहक उस दिन उसे गोद में लिया। यह मेरे पापों का दंड है।'

सिलिया की आँखों में क्षमा झलक रही थी। उसने टोकरी सिर पर रख ली और घर चली। मातादीन भी उसके साथ-साथ चला। [ ३४७ ]

सिलिया ने कहा--मैं तो अब घनिया काकी के बरौठे में सोती हूँ। अपने घर में अच्छा नहीं लगता।

“धनिया मुझे बराबर समझाती रहती थी।'

  • सच ?'

"हाँ सच। जव मिलती थी समझाने लगती थी।'

गाँव के समीप आकर सिलिया ने कहा--अच्छा, अब इधर से अपने घर चले जाओ। कहीं पण्डित देख न लें।

मातादीन ने गर्दन उठाकर कहा--मैं अब किसी से नहीं डरता।

'घर से निकाल देंगे तो कहाँ जाओगे?'

'मैंने अपना घर बना लिया है।'

'सच?'

'हाँ, सच।'

'कहाँ, मैंने तो नहीं देखा।

'चल तो दिखाता है।'

दोनों और आगे बढ़े। मातादीन आगे था। सिलिया पीछे। होरी का घर आ गया। मातादीन उसके पिछवाड़े जाकर सिलिया की झोपड़ी के द्वार पर खड़ा हो गया और बोला--यही हमारा घर है।

सिलिया ने अविश्वास, क्षमा, व्यंग और दुःख भरे स्वर में कहा--यह तो सिलिया चमारिन का घर है।

मातादीन ने द्वार की टाटी खोलते हुए कहा--यह मेरी देवी का मंदिर है।

सिलिया की आँखें चमकने लगीं। बोली--मन्दिर है तो एक लोटा पानी उँडे़लकर चले जाओगे।

मातादीन ने उसके सिर की टोकरी उतारते हुए कम्पित स्वर में कहा--नहीं सिलिया, जब तक प्राण है, तेरी शरण में रहूँगा। तेरी ही पूजा करूंँगा।

'झूठ कहते हो।'

'नहीं, तेरे चरण छूकर कहता हूँ। सुना, पटवारी का लौडा भुनेसरी तेरे पीछे बहुत पड़ा था। तूने उसे खूब डाँटा।'

'तुमसे किसने कहा ?'

'भुनेमरी आप ही कहता था।'

'सच ?'

'हाँ, सच।'

सिलिया ने दियासलाई से कुप्पी जलाई। एक किनारे मिट्टी का घड़ा था, दूसरी ओर चूल्हा था, जहाँ दो-तीन पीतल और लोहे के बासन मँजे-धुले रखे थे। बीच में पुआल बिछा था। वही सिलिया का बिस्तर था। इस बिस्तर के सिरहाने की ओर रामू की छोटी खटोली जैसे गे रही थी और उसी के ग टोनीन टी के नाशी पोटे [ ३४८ ]अंग-भंग दशा में पड़े हुए थे। जब स्वामी ही न रहा तो कौन उनकी देख-भाल करता। मातादीन पुआल पर बैठ गया। कलेजे में हूक-सी उठ रही थी; जी चाहता था, खूब रोये।

सिलिया ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर पूछा--तुम्हें कभी मेरी याद आती थी?

मातादीन ने उसका हाथ पकड़कर हृदय से लगाकर कहा--तू हरदम मेरी आँखों के सामने फिरती रहती थी। तू भी कभी मुझे याद करती थी?

'मेरा तो तुमसे जी जलता था।'

'और दया नहीं आती थी?'

'कभी नहीं।'

'तो भुनेसरी...'

'अच्छा, गाली मत दो। मैं डर रही हूँ, गाँववाले क्या कहेंगे।'

'जो भले आदमी हैं, वह कहेंगे यही इसका धरम था। जो बुरे हैं उनकी मैं परवा नहीं करता।'

'और तुम्हारा खाना कौन पकायेगा।'

'मेरी रानी, सिलिया।'

'तो ब्राह्मन कैसे रहोगे?'

'मैं ब्राह्मन नहीं, चमार ही रहना चाहता हूँ। जो अपना धरम पाले वही ब्राह्मन है, जो धरम से मुंँह मोड़े वही चमार है।'

सिलिया ने उसके गले में बाहें डाल दीं।