गो-दान/८

विकिस्रोत से
गो-दान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १०५ ]

जब से होरी के घर में गाय आ गयी है, घर की श्री ही कुछ और हो गयी है। धनिया का घमण्ड तो उसके संभाल से बाहर हो-हो जाता है। जब देखो गाय की चर्चा।

भूसा छिज गया था। ऊख में थोड़ी-सी चरी वो दी गयी थी। उसी की कुट्टी काटकर जानवरों को खिलाना पड़ता था। आंखें आकाश की ओर लगी रहती थीं कि कब पानी बरसे और घास निकले। आधा आसाढ़ बीत गया और वर्षा न हुई।

सहसा एक दिन बादल उठे और आसाढ़ का पहला दौगड़ा गिरा। किसान खरीफ़ बोने के लिए हल ले-लेकर निकले कि राय साहब के कारकुन ने कहला भेजा, जब तक बाकी न चुक जायगी किसी को खेत में हल न ले जाने दिया जायगा। किसानों पर जैसे वज्रपात हो गया। और कभी तो इतनी कड़ाई न होती थी, अबकी यह कैसा हुक्म। कोई गाँव छोड़कर भागा थोड़ा ही जाता है। अगर खेती में हल न चले, तो रुपए कहाँ से आ जायेंगे। निकालेंगे तो खेत ही से। सब मिलकर कारकुन के पास जाकर रोये। कारकुन का नाम था पण्डित नोखेराम। आदमी बुरे न थे; मगर मालिक का हुक्म था। उसे कैसे टालें। अभी उस दिन राय साहब ने होरी से कैसी दया और धर्म की बातें की थीं और आज [ १०६ ]आसामियों पर यह जुल्म। होरी मालिक के पास जाने को तैयार हुआ; लेकिन फिर सोचा, उन्होंने कारकुन को एक बार जो हुक्म दे दिया, उसे क्यों टालने लगे। वह अगुवा बनकर क्यों बुरा बने। जब और कोई कुछ नहीं बोलता, तो वही आग में क्यों कूदे। जो सब के सिर पड़ेगी, वह भी झेल लेगा।

किसानों में खलबली मची हुई थी। सभी गाँव के महाजनों के पास रुपए के लिए दौड़े। गाँव में मँगरू साह की आजकल चढ़ी हुई थी। इस साल सन में उसे अच्छा फ़ायदा हुआ था। गेहूँ और अलसी में भी उसने कुछ कम नहीं कमाया था। पण्डित दातादीन और दुलारी सहुआइन भी लेन-देन करती थीं। सबसे बड़े महाजन थे झिंगुरीसिंह। वह शहर के एक बड़े महाजन के एजेण्ट थे। उनके नीचे कई आदमी और थे, जो आस-पास के देहातों में घूम-घूमकर लेन-देन करते थे। इनके उपरान्त और भी कई छोटे-मोटे महाजन थे, जो दो आने रुपये ब्याज पर बिना लिखा-पढ़ी के रुपए देते थे। गाँववालों को लेन-देन का कुछ ऐसा शौक़ था कि जिसके पास दस-बीस रुपए जमा हो जाते, वही महाजन बन बैठता था। एक समय होरी ने भी महाजनी की थी। उसी का यह प्रभाव था कि लोग अभी तक यही समझते थे कि होरी के पास दबे हुए रुपए हैं। आखिर वह धन गया कहाँ। बॅटवारे में निकला नहीं, होरी ने कोई तीर्थ, व्रत, भोज किया नहीं; गया तो कहाँ गया। जूते जाने पर भी उसके घट्टे बने रहते हैं।

किसी ने किसी देवता को सीधा किया, किसी ने किसी को। किसी ने आना रुपया ब्याज देना स्वीकार किया, किसी ने दो आना। होरी में आत्म-सम्मान का सर्वथा लोप न हुआ था। जिन लोगों के रुपए उस पर बाकी थे, उनके पास कौन मुंह लेकर जाय। झिंगुरीसिंह के सिवा उसे और कोई न सूझा, वह पक्का काग़ज़ लिखाते थे, नज़राना अलग लेते थे, दस्तूरी अलग, स्टाम्प की लिखाई अलग। उस पर एक साल का ब्याज पेशगी काटकर रुपया देते थे। पचीस रुपए का काग़ज़ लिखा, तो मुश्किल से सत्रह रुपए हाथ लगते थे; मगर इस गाढ़े समय में और क्या किया जाय? राय साहब की ज़बरदस्ती है, नहीं इस समय किसी के सामने क्यों हाथ फैलाना पड़ता।

झिंगुरीसिंह बैठे दतून कर रहे थे। नाटे, मोटे, खल्वाट, काले, लम्बी नाक और बड़ी-बड़ी मूछोंवाले आदमी थे, बिलकुल विदूषक-जैसे। और थे भी बड़े हँसोड़। इस गाँव को अपनी सरासुल बनाकर मर्दों से साले या ससुर और औरतों से साली या सलहज का नाता जोड़ लिया था। रास्ते में लड़के उन्हें चिढ़ाते––पण्डितजी पाल्लगी! और झिंगुरीसिंह उन्हें चटपट आशीर्वाद देते––तुम्हारी आँखें फूटे, घुटना टुटे, मिर्गी आये, घर में आग लग जाय आदि। लड़के इस आशीर्वाद से कभी न अघाते थे; मगर लेन-देन में बड़े कठोर थे। सूद की एक पाई न छोड़ते थे और वादे पर बिना रुपए लिये द्वार से न टलने थे।

होरी ने सलाम करके अपनी विपत्ति-कथा सुनायी।

झिंगुरीसिंह ने मुस्कराकर कहा––वह सब पुराना रुपया क्या कर डाला? [ १०८ ]और बिना उसे खिलाये कौर मुंह में न डालती थी। गाय कितने प्यार से उसका हाथ चाटती थी, कितनी स्नेहभरी आँखों से उसे देखती थी। उसका बछड़ा कितना सुन्दर होगा। अभी से उसका नाम-करण हो गया था––मटरू। वह उसे अपने साथ लेकर सोयेगी। इस गाय के पीछे दोनों बहनों में कई बार लड़ाइयाँ हो चुकी थीं। सोना कहती, मुझे ज्यादा चाहती है, रूपा कहती, मुझे। इसका निर्णय अभी तक न हो सका था। और दोनों दावे क़ायम थे।

मगर होरी ने आगा-पीछा सुझाकर आखिर धनिया को किसी तरह राजी़ कर लिया। एक मित्र से गाय उधार लेकर बेच देना भी बहुत ही वैसी बात है; लेकिन विपत में तो आदमी का धरम तक चला जाता है, यह कौन-सी बड़ी बात है। ऐसा न हो, तो लोग विपत से इतना डरे क्यों। गोबर ने भी विशेष आपत्ति न की। वह आजकल दूसरी ही धुन में मस्त था। यह तै किया गया कि जब दोनों लड़कियाँ रात को सो जाये, तो गाय झिंगुरीमिह के पास पहुँचा दी जाय।

दिन किसी तरह कट गया। साँझ हुई। दोनों लड़कियाँ आठ बजते-बजते खा-पीकर सो गयी। गोबर इस करण दृश्य से भागकर कहीं चला गया था। वह गाय को जाने कैसे देख सकेगा? अपने आंसुओं को कैसे रोक सकेगा? होरी भी ऊपर ही में कठोर बना हुआ था। मन उसका चंचल था। ऐसा कोई माई का लाल नही, जो इस वक्त उसे पचीस रुपए उधार दे-दे, चाहे फिर पचास रूपए ही ले-ले। वह गाय के सामने जाकर बड़ा हुआ तो उसे ऐसा जान पड़ा कि उसकी काली-काली सजीव आँखों में आंसू भरे हुए है और वह कह रही है––क्या चार दिन में ही तुम्हारा मन मुझसे भर गया? तुमने तो वचन दिया था कि जीते-जी इसे न बेचूंगा। यही वचन था तुम्हारा! मैंने तो तुममे कभी किसी बात का गिला नहीं किया। जो कुछ रूखा-सूखा तुमने दिया, वही खाकर सन्तुष्ट हो गयी। बोलो।

धनिया ने कहा––लड़कियाँ तो सो गयीं। अब इसे ले क्यों नहीं जाते। जब बेचना ही है, तो अभी बेच दो।

होरी ने काँपते हुए स्वर मे कहा––मेरा तो हाथ नहीं उठता धनिया! उसका मुंह नही देखती? रहने दो, रुपए सूद पर ले लूंगा। भगवान् ने चाहा तो सब अदा हो जायेंगे। तीन-चार सौ होते ही क्या है। एक बार ऊख लग जाय।

धनिया ने गर्व-भरे प्रेम से उसकी ओर देखा––और क्या! इतनी तपस्या के बाद तो घर में गऊ आयी। उमे भी बेच दो। ले लो कल रुपए। जैसे और सब चुकाये जायेंगे वैसे इसे भी चुका देंगे।

भीतर बड़ी उमस हो रही थी। हवा बन्द थी। एक पत्ती न हिलती थी। बादल छाये हुए थे; पर वर्षा के लक्षण न थे। होरी ने गाय को बाहर बाँध दिया। धनिया ने टोका भी, कहां लिये जाते हो? पर होरी ने सुना नहीं, बोला––बाहर हवा में बाँधे देता हूँ। आराम से रहेगी। उसके भी तो जान है। गाय बाँधकर वह अपने मंझले भाई शोभा को देखने गया। शोभा को इधर कई महीने से दमे का आरजा हो गया था। दवा-दारू की जुगत नहीं। खाने-पीने का प्रवन्ध नहीं, और काम करना पड़ता था जी तोड़कर; [ १०९ ]इसलिए उसकी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती थी। शोभा सहनशील आदमी था, लड़ाई-झगड़े से कोसों भागनेवाला। किसी से मतलब नहीं। अपने काम से काम। होरी उसे चाहता था। और वह भी होरी का अदब करता था। दोनों में रुपए-पैसे की बातें होने लगीं। राय साहब का यह नया फ़रमान आलोचनाओं का केन्द्र बना हुआ था।

कोई ग्यारह बजते-बजते होरी लौटा और भीतर जा रहा था कि उसे भास हुआ, जैसे गाय के पास कोई आदमी खड़ा है। पूछा––कौन खड़ा है वहाँ ?

हीरा बोला––मैं हूँ दादा, तुम्हारे कौड़े में आग लेने आया था।

हीरा उसके कौड़े में आग लेने आया है, इस ज़रा-सी बात में होरी को भाई की आत्मीयता का परिचय मिला। गांव में और भी तो कौड़े हैं। कहीं से भी आग मिल सकती थी। हीरा उसके कौड़े सें आग ले रहा है, तो अपना ही समझकर तो। सारा गाँव इस कौड़े में आग लेने आता था। गाँव में सबसे सम्पन्न यही कौड़ा था; मगर हीरा का आना दूसरी बात थी। और उस दिन की लड़ाई के बाद! हीरा के मन में कपट नहीं रहता। गुस्सैल है; लेकिन दिल का साफ़।

उसने स्नेह भरे स्वर में पूछा––तमाखू है कि ला दूं?

'नहीं, तमाखू तो है दादा!'

'सोभा तो आज बहुत बेहाल है।'

'कोई दवाई नहीं खाता, तो क्या किया जाय। उसके लेखे तो मारे वैद, डाक्टर, हकीम अनाड़ी हैं। भगवान के पास जितनी अक्कल थी, वह उसके और उसकी घरवाली के हिस्से पड़ गयी।'

होरी ने चिन्ता से कहा––यही तो बुराई है उसमें। अपने सामने किसी को गिनता ही नहीं। और चिढ़ने तो बिमारी में सभी हो जाते हैं। तुम्हें याद है कि नहीं, जब तुम्हें इफ़िजा हो गया था, तो दवाई उठाकर फेंक देते थे। मैं तुम्हारे दोनों हाथ पकड़ता था, तब तुम्हारी भाभी तुम्हारे मुंह में दवाई डालती थीं। उस पर तुम उसे हजारों गालियां देते थे।

'हाँ दादा, भला वह बात भूल सकता हूँ। तुमने इतना न किया होता, तो तुमसे लड़ने के लिए कैसे बचा रहता।'

होरी को ऐसा मालूम हुआ कि हीरा का स्वर भारी हो गया है। उसका गला भी भर आया।

'बेटा, लड़ाई-झगड़ा तो जिन्दगी का धरम है। इससे जो अपने हैं, वह पराये थोड़े ही हो जाते हैं। जब घर में चार आदमी रहते हैं, तभी तो लड़ाई-झगड़े भी होते हैं। जिसके कोई है ही नहीं, उसके कौन लड़ाई करेगा।'

दोनों ने साथ चिलम पी। तब हीरा अपने घर गया, होरी अन्दर भोजन करने चला।

धनिया रोष से बोली––देखी अपने सपूत की लीला? इतनी रात हो गयी और अभी उसे अपने सैल से छुट्टी नहीं मिली। मैं सब जानती हूँ। मुझको सारा पता मिल [ ११० ]गया है। भोला की वह राँड़ लड़की नहीं है, झुनिया। उसी के फेर में पड़ा रहता है।

होरी के कानों में भी इस बात की भनक पड़ी थी, पर उसे विश्वास न आया था। गोबर बेचारा इन बातों को क्या जाने।

बोला––किसने कहा तुझसे?

धनिया प्रचण्ड हो गयी––तुमसे छिपी होगी, और तो सभी जगह चर्चा चल रही है। यह भुग्गा, वह बहत्तर घाट का पानी पिये हुए। इसे उँगलियों पर नचा रही है, और यह समझता है, वह इस पर जान देती है। तुम उसे समझा दो नहीं कोई ऐसी-वैसी बात हो गयी, तो कहीं के न रहोगे।

होरी का दिल उमंग पर था। चुहल की सूझी––झुनिया देखने-सुनने में तो बुरी नहीं है। उसी से कर ले सगाई। ऐसी सस्ती मेहरिया और कहाँ मिली जाती है।

धनिया को यह चुहल तीर-सा लगा––झुनिया इस घर में आये, तो मुंह झुलस दूँ राँड़ का। गोबर की चहेती है, तो उसे लेकर जहाँ चाहे रहे।

'और जो गोबर इसी घर में लाये?'

'तो यह दोनों लड़कियाँ किसके गले बांधोगे? फिर बिरादरी में तुम्हें कौन पूछेगा, कोई द्वार पर खड़ा तक तो होगा नहीं।'

'उसे इसकी क्या परवाह।'

'इस तरह नहीं छोड़ँगी लाला को। मर-मर के पाला है और झुनिया आकर राज करेगी। मुंँह में आग लगा दूंँगी राँड़ के।'

सहसा गोबर आकर घबड़ाई हुई आवाज़ में बोला––दादा,सुन्दरिया को क्या हो गया? क्या काले नाग ने छू लिया? वह तो पड़ी तड़प रही है।

होरी चौके में जा चुका था। थाली सामने छोड़कर बाहर निकल आया और बोला––क्या असगुन मुंह से निकालते हो। अभी तो मैं देखे आ रहा हूँ। लेटी थी।

तीनों बाहर गये। चिराग़ लेकर देखा। सुन्दरिया के मुंह से फिचकुर निकल रहा था। आँखें पथरा गयी थीं, पेट फूल गया था और चारों पाँव फैल गये थे। धनिया सिर पीटने लगी। होरी पंडित दातादीन के पास दौड़ा। गाँव में पशु-चिकित्सा के वही आचार्य थे। पण्डितजी सोने जा रहे थे। दौड़े हुए आये। दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो गया। गाय को किसी ने कुछ खिला दिया। लक्षण स्पष्ट थे। साफ़ विष दिया गया है। लेकिन गाँव में कौन ऐसा मुद्दई है, जिसने विष दिया हो; ऐसी वारदात तो इस गाँव में कभी हुई नहीं; लेकिन बाहर का कौन आदमी गाँव में आया। होरी की किसी से दुश्मनी भी न थी कि उस पर सन्देह किया जाय। हीरा से कुछ कहा-सुनी हुई थी; मगर वह भाईभाई का झगड़ा था। सबसे ज्यादा दुखी तो हीरा ही था। धमकियाँ दे रहा था कि जिसने यह हत्यारों का काम किया है, उसे पाय तो खून पी जाय। वह लाख गुस्सैल हो; पर इतना नीच काम नहीं कर सकता।

आधी रात तक जमघट रहा। सभी होरी के दुःख में दुखी थे और वधिक को गालियाँ देते थे। वह इस समय पकड़ा जा सकता, तो उसके प्राणों की कुशल न थी। जब यह हाल [ १११ ]है तो कोई जानवरों को बाहर कैसे बाँधेगा। अभी तक रात-बिरात सभी जानवर बाहर पड़े रहते थे। किसी तरह की चिन्ता न थी, लेकिन अब तो एक नयी विपत्ति आ खड़ी हुई थी। क्या गाय थी कि बस देखता रहे। पूजने जोग। पाँच सेर से दूध कम न था। सौ-सौ का एक-एक बाछा होता। आते देर न हुई और यह वज्र गिर पड़ा।

जब सब लोग अपने-अपने घर चले गये, तो धनिया होरी को कोसने लगी––तुम्हें कोई लाख समझाये, करोगे अपने मन की। तुम गाय खोलकर आँगन से चले, तब तक मैं जुझती रही कि बाहर न ले जाओ। हमारे दिन पतले हैं, न जाने कब क्या हो जाय; लेकिन नहीं, उसे गर्मी लग रही है। अब तो खूब ठण्डी हो गयी और तुम्हारा कलेजा भी ठण्डा हो गया। ठाकुर माँगते थे; दे दिया होता, तो एक बोझ सिर से उतर जाता और निहोरा का निहोरा होता; मगर यह तमाचा कैसे पड़ता। कोई बुरी बात होनेवाली होती है तो मति पहले ही हर जाती है। इतने दिन मजे से घर में बँधती रही; न गर्मी लगी, न जूड़ी आयी। इतनी जल्दी सबको पहचान गयी थी कि मालूम ही न होता था कि बाहर से आयी है। बच्चे उसके सींगों से खेलते रहते थे। सिर तक न हिलाती थी। जो कुछ नाँद में डाल दो, चाट-पोंछकर साफ़ कर देती थी। लच्छमी थी, अभागों के घर क्या रहती। सोना और रूपा भी यह हलचल सुनकर जाग गयी थीं और बिलख-बिलखकर रो रही थीं। उसकी सेवा का भार अधिकतर उन्हीं दोनों पर था। उनकी संगिनी हो गयी थी। दोनों खाकर उठतीं, तो एक-एक टुकड़ा रोटी उसे अपने हाथों से खिलातीं। कैसा जीभ निकालकर खा लेती थी, और जब तक उनके हाथ का कौर न पा लेती, खड़ी ताकती रहती। भाग्य फूट गये!

सोना और गोबर और दोनों लड़कियाँ रो-धोकर सो गयी थीं। होरी भी लेटा। धनिया उसके सिरहाने पानी का लोटा रखने आयी तो होरी ने धीरे से कहा--तेरे पेट में बात पचती नहीं; कुछ सुन पायेगी, तो गाँव भर में ढिंढोरा पीटती फिरेगी।

धनिया ने आपत्ति की––भला सुनूँ; मैंने कौन-सी बात पीट दी कि यों ही नाम बदनाम कर दिया।

'अच्छा तेरा सन्देह किसी पर होता है।'

'मेरा सन्देह तो किसी पर नहीं है। कोई बाहरी आदमी था।'

'किसी से कहेगी तो नहीं?'

'कहूँगी नहीं, तो गाँववाले मुझे गहने कैसे गढ़वा देंगे।'

'अगर किसी से कहा, तो मार ही डालूंगा।'

'मुझे मारकर सुखी न रहोगे। अब दूसरी मेहरिया नहीं मिली जाती। जब तक हूँ, तुम्हारा घर सँभाले हुए हूँ। जिस दिन मर जाऊँगी, सिर पर हाथ धरकर रोओगे। अभी मुझमें सारी बुराइयाँ ही बुराइयाँ हैं, तब आँखों से आँसू निकलेंगे।'

'मेरा सन्देह हीरा पर होता है।'

'झूठ,बिलकुल झूठ! हीरा इतना नीच नहीं है। वह मुंह का ही खराब है।'

'मैंने अपनी आँखों देखा। सच, तेरे सिर की सौंह।' [ ११२ ]'तुमने अपनी आँखों देखा! कब?'

'वही,मैं सोभा को देखकर आया;तो वह सुन्दरिया की नाँद के पास खड़ा था। मैंने पूछा---कौन है,तो बोला,मैं हूँ हीरा,कौड़े में से आग लेने आया था। थोड़ी देर मुझसे बातें करता रहा। मुझे चिलम पिलायी। वह उधर गया,मैं भीतर आया और वही गोबर ने पुकार मचायी। मालूम होता है,मैं गाय बाँधकर सोभा के घर गया हूँ,और इसने इधर आकर कुछ ग्विला दिया है। साइत फिर यह देखने आया था कि मरी या नहीं।

धनिया ने लम्बी साँस लेकर कहा--इस तरह के होते है भाई,जिन्हें भाई का गला काटने में भी हिचक नहीं होती। उपफोह। हीरा मन का इतना काला है!और दाढ़ीजार को मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया।

'अच्छा जा सो रह,मगर किसी मे भूलकर भी जिकर न करना।'

'कौन,सबेरा होते ही लाला को थाने न पहुंँचाऊँ,तो अपने अमल वाप की नहीं। यह हत्यारा भाई कहने जोग है! यही भाई का काम है! वह बैगे है,पवका बैरी और बैरी को मारने में पाप नही,छोड़ने में पाप है।'

होरी ने धमकी दी--मैं कहे देता हूँ धनिया,अनर्थ हो जायगा।

धनिया आवेश में बोली--अनर्थ नहीं,अनर्थ का बाप हो जाय। मैं बिना लाला को बड़े घर भिजवाये मानूंँगी नहीं। तीन साल चक्की पिसवाऊंँगी,तीन माल। वहाँ से छूटेंगे,तो हत्या लगेगी। तीरथ करना पड़ेगा। भोज देना पड़ेगा। इम धोखे में न रहें लाला! और गवाही दिलाऊँगी तुमगे,बेटे के सिर पर हाथ रखकर।

उसने भीतर जाकर किवाड़ बन्द कर लिये और होरी बाहर अपने को कोमता पड़ा रहा। जब स्वयं उसके पेट में बात न पची,तो धनिया के पेट में क्या पचेगी। अब यह चुडै़ल माननेवाली नहीं! ज़िद पर आ जाती है,तो किमी की मुनती ही नहीं। आज उमने अपने जीवन में सबसे बड़ी भूल की।

चारों ओर नीरव अन्धकार छाया हुआ था। दोनों बैलों के गले की घण्टियाँ कभी-कभी बज उठती थीं। दस कदम पर मृतक गाय पड़ी हुई थी और होरी घोर पश्चाताप में करवटें वदल रहा था। अन्धकार में प्रकाश की रेखा कहीं नजर न आती थी।