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चन्द्रकांता सन्तति २/५.१

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चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ५ से – ७ तक

 

पाँचवाँ भाग

1

बेचारी किशोरी को चिता पर बैठाकर जिस समय दुष्टा धनपति ने आग लगाई, उसी समय बहुत-से आदमी, जो उसी जंगल में किसी जगह छिपे हुए थे, हाथों में नंगी तलवारें लिये 'मारो! मारो!' कहते हुए उन लोगों पर आ टूटे। उन लोगों ने सबसे पहले किशोरी को चिता पर से खींच लिया और इसके बाद धनपति के साथियों को पकड़ने लगे।

पाठक समझते होंगे कि ऐसे समय में इन लोगों के आ पहुँचने और जान बचने से किशोरी खुश हुई होगी और इन्द्रजीतसिंह से मिलने की कुछ उम्मीद भी उसे हो गई होगी। मगर नहीं, अपने बचानेवालों को देखते ही किशोरी चिल्ला उठी और उसके दिल का दर्द पहले से भी ज्यादा बढ़ गया। किशोरी ने आसमान की तरफ देखकर कहा, "मुझे तो विश्वास हो गया था कि इस चिता में जलकर ठंडे-ठंडे बैकुण्ठ चली जाऊँगी, क्योंकि इसकी आँच कुँअर इन्द्रजीतसिंह की जुदाई की आँच से ज्यादा गर्म न होगी, मगर हाय, इस बात का गुमान भी न था कि यह दुष्ट आ पहुँचेगा और मैं एक सचमुच की तपती हुई भट्ठी में झोंक दी जाऊँगी। मौत, तू कहाँ है? तू कोई वस्तु है भी या नहीं, मुझे तो इसी में शक है!"

वह आदमी, जिसने ऐसे समय में पहुँचकर किशोरी को बचाया, माधवी का दीवान अग्निदत्त था, जिसके चंगुल में फँसकर किशोरी ने राजगृह में बहुत दुःख उठाया था और कामिनी की मदद से, जिसका नाम कुछ दिनों तक किन्नरी था, छुट्टी मिली थी। किशोरी को अपने मरने की कुछ भी परवाह न थी और वह अग्निदत्त की सूरत देखने की बनिस्बत मौत को लाख दर्जे उत्तम समझती थी, यही सबब था कि इस समय उसे अपनी जान बचने का रंज हुआ।

अग्निदत्त और उसके आदमियों ने किशोरी को तो बचा लिया, मगर जब उसके दुश्मनों को, अर्थात् धनपति और उसके साथियों को, पकड़ने का इरादा किया तो लड़ाई गहरी हो पड़ी। मौका पाकर धनपति भाग गई और गहन वन में किसी झाड़ी के अन्दर छिपकर उसने अपनी जान बचाई। उसके साथियों में से एक भी न बचा, सब मारे गये। अग्निदत्त के भी केवल दो ही आदमी जीवित बचे। उस संगदिल ने रोती और चिल्लाती हुई बेचारी किशोरी को जबर्दस्ती उठा लिया और एक तरफ का रास्ता लिया।

पाठक आश्चर्य करते होंगे कि अग्निदत्त को तो राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने राजगृह में गिरफ्तार करके चुनार भेज दिया था, वह यकायक यहाँ कैसे आ पहुँचा? इसलिए अग्निदत्त का थोड़ा-सा हाल इस जगह लिख देना हम मुनासिब समझते हैं।

राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने दीवान अग्निदत्त को गिरफ्तार करके अपने बीस सवारों के पहरे में चुनारगढ़ रवाना कर दिया और एक चिट्ठी भी सब हाल की महाराज सुरेन्द्रसिंह को लिखकर उन्हीं लोगों की मार्फत भेजी। अग्निदत्त को हथकड़ी डाल घोड़े पर सवार कराया गया और उसके पैर रस्सी से घोड़े की जीन के साथ बाँध दिये गए। घोड़े की लम्बी बागडोर दोनों तरफ से दो सवारों ने पकड़ ली और सफर शुरू किया। तीसरे दिन जब वे लोग सोन नदी के पास पहुँचे, अर्थात् जब वह नदी दो कोस दूर रह गई, तब उन लोगों पर डाका पड़ा। पचास आदमियों ने चारों तरफ से घेर लिया। घण्टे भर की लड़ाई में राजा वीरेन्द्रसिंह के सब आदमी मारे गये। खबर पहुँचाने के लिए भी एक आदमी न बचा और अग्निदत्त को उन लोगों के हाथों से छुट्टी मिली। वे डाकू सब अग्निदत्त के तरफदार और उन लोगों में से थे जो गयाजी में फसाद मचाया करते और उन लोगों की जानें लेते और घर लूटते थे जो दीवान अग्निदत्त के विरुद्ध जाने जाते। इस तरह अग्निदत्त को छुट्टी मिली और बहुत दिन तक इस डाके की खबर राजा वीरेन्द्रसिंह या उनके आदमियों को न मिली।

यद्यपि दीवान अग्निदत्त के हाथ से गया की दीवानी जाती रही और वह एक साधारण आदमी की तरह मारा-मारा फिरने लगा, तथापि वह अपने साथी डाकुओं में मालदार गिना जाता था क्योंकि उसके पास जुल्म की कमाई हुई दौलत बहुत थी और वह उस दौलत को राजगृह से थोड़ी दूर पर एक मढ़ी में, जो पहाड़ी के ऊपर थी, रखता था। इस मढ़ी का हाल दस-बारह आदमियों के सिवाय और किसी को भी मालूम न था। उस दौलत को निकालने में अग्निदत्त ने विलम्ब न किया और उसे अपने कब्जे में लेकर साथी डाकुओं के साथ अपनी धुन में चारों तरफ घूमने तथा इस बात की टोह लेने लगा कि राजा वीरेन्द्रसिंह की तरफ क्या होता है।

थोड़े ही दिन बाद मौका समझकर वह रोहतासगढ़ के चारों तरफ घूमने लगा और जिस तरह किशोरी से मिला, उसका हाल आप ऊपर पढ़ चुके हैं।

जिस जगह अग्निदत्त किशोरी से मिला था, उससे थोड़ी ही दूर पर एक पहाड़ी थी जिसमें कई खोह और गार थे। वह किशोरी को उठाकर उसी पहाड़ी पर ले गया। रोते और चिल्लाते-चिल्लाते किशोरी बेहोश हो गई थी। अग्निदत्त ने उसे खोह के अन्दर ले जाकर लिटा दिया और आप बाहर चला आया।

पहर रात जाते-जाते जब किशोरी होश में आई, तो उसने अपने को अजब हालत में पाया। ऊपर-नीचे चारों तरफ पत्थर देखकर वह समझ गई कि मैं किसी खोह में हूँ। एक तरफ चिराग जल रहा था‌। गुलाब की फूल-सी नाजुक किशोरी की अवस्था इस समय बहुत ही नाजुक थी। अग्निदत्त की याद से उसे घड़ी-घड़ी में रोमांच होता था। उसके धड़कते हुए कलेजे में अजब तरह का दर्द था। और इस सोच ने उसे बिल्कुल ही निकम्मा कर रखा था कि देखें चाण्डाल अग्निदत्त के पहुँचने पर मेरी क्या दुर्दशा होती है। घण्टों की मेहनत में बड़ी कोशिश करके उसने अपने होश-हवास दुरुस्त किए और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। उसने इस इरादे को तो पक्का कर ही लिया था कि अगर अग्निदत्त मेरे पास आवेगा, तो पत्थर पर सिर पटक कर अपनी जान दे दूँगी, मगर यह भी सोचती थी कि पत्थर पर सिर पटकने से जान नहीं जा सकती, किसी तरह खोह के बाहर निकल कर ऐसा मौका ढूँढ़ना चाहिए कि अपने को इस पहाड़ के नीचे गिराकर बखेड़ा खत्म कर दिया जाय, जिसमें हमेशा के लिए इस खिंचाखिंची से छुट्टी मिले।

किशोरी चिराग बुझाने के लिए उठी ही थी कि सामने से किसी के पैरों की चाप मालूम हुई। वह डर कर उसी तरफ देखने लगी कि यकायक अग्निदत्त पर नजर पड़ी। देखते ही वह काँप गई, ऐसा मालूम हुआ कि रगों में खून की जगह पारा भर गया। वह अपने को किसी तरह सम्हाल न सकी और जमीन पर बैठ कर रोने लगी। अग्निदत्त सामने आकर खड़ा हो गया और बोला––

अग्निदत्त––तुमने मुझको बड़ा ही धोखा दिया। अपने साथ मेरी लड़की को भी मुझसे जुदा कर दिया। अभी तक मुझे इस बात का पता न लगा कि मेरी स्त्री पर क्या बीती और वीरेन्द्रसिंह ने उसके साथ क्या सलूक किया, और यह सब तुम्हारी बदौलत हुआ।

किशोरी––फिर भी मैं कहती हूँ कि यदि मुझे छोड़ दोगे, तो मैं राजा वीरेन्द्रसिंह से कहकर तुम्हारा कसूर माफ करा दूँगी और तुम्हारी जीविका-निर्वाह के लिए भी बन्दोबस्त हो जायगा। नहीं तो याद रखना, तुम्हारी स्त्री भी...

अग्निदत्त––जो तुम कहोगी, सो मैं समझ गया। मेरी स्त्री पर चाहे जो बीते इसकी परवाह नहीं, न मुझे वीरेन्द्रसिंह का डर है। मुझे दुनिया में तुमसे बढ़कर कोई चीज नहीं दिखाई देती। देखो, तुम्हारे लिए मैंने कितना दुख भोगा और भोगने को तैयार हूँ, क्या अब भी तुमको मुझ पर तरस नहीं आता! मैं कसम खाकर कहता हूँ कि तुम्हें अपनी जान से ज्यादा प्यार करूँगा, यदि मेरी होकर रहोगी।

किशोरी––अरे दुष्ट चाण्डाल, खबरदार, फिर ऐसी बात मुँह से न निकालना!

अग्निदत्त––चाहे जो हो, मैं तुम्हें किसी तरह नहीं छोड़ सकता!

किशोरी––जान जाय तो जाय, मगर तेरी हवा अपने बदन से नहीं लगने दूँगी।

अग्निदत्त––(हँस कर) देखूँ, तू अपने को मुझसे कैसे बचाती है!

इतना कहकर अग्निदत्त किशोरी को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा। किशोरी घबराकर उठ खड़ी हुई और दूर हट गई। थोड़ी देर तक तो इस तंग जगह में दौड़-धूप कर किशोरी ने अपने को बचाया, मगर कहाँ तक? आखिर मर्द के सामने औरत की क्या पेश आ सकती थी! अग्निदत्त को क्रोध आ गया। उसने किशोरी को पकड़ लिया और जमीन पर पटक दिया।