सामग्री पर जाएँ

चन्द्रकांता सन्तति २/५.१३

विकिस्रोत से
चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ५७ से – ६१ तक

 

13

तहखाने में बैठी हुई कामिनी को जब किसी के आने की आहट मालूम हुई तब वह सीढ़ी की तरफ देखने लगी मगर आने वाले अभी छत ही पर थे। उसने समझा कि कमला या शेरसिंह आते होंगे, मगर जब उसे कई आदमियों के पैरों की धमधमाहट मालूम हुई तब वह घबराई। उसका खयाल दुश्मनों की तरफ गया और वह अपने बचाव का ढंग करने लगी।

ऊपर के कमरे से तहखाने में उतरने के लिए जो सीढ़ियाँ थीं, उनके नीचे एक छोटी कोठरी बनी हुई थी। इसी कोठरी में शेरसिंह का असबाब रहा करता था और इस समय भी उनका असबाव इसी के अन्दर था। इसके अन्दर जाने के लिए एक छोटा सा दरवाजा था और लोहे का मजबूत मगर हलका पल्ला लगा हुआ था। दरवाजा बन्द करने के लिए बाहर की तरफ कोई जंजीर या कुण्डी न थी, मगर भीतर की तरफ एक अड़ानी लगी हुई थी जो दरवाज़ा बन्द करने के लिए काफी थी। दरवाजे के पल्ले में एक सूराख था जिस पर गौर करने से मालूम होता था कि वह ताली लगाने की जगह है।

कामिनी ने तुरन्त चिराग बुझा दिया और अपने बिछावन को बगल में दबा कर उसी कोठरी के अन्दर चले जाने के बाद भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया। यह काम कामिनी ने बड़ी जल्दी और दबे-पैर किया। थोड़ी ही देर में कामिनी को मालूम हुआ कि आने वाले अब सीढ़ी उतर रहे हैं और साथ ही इसके ताली लगाने वाले छेद में से मशाल की रोशनी भी उस कोठरी के अन्दर पहुँची जिसमें कामिनी छिपी हुई थी। वह छेद में आँख लगाकर देखने लगी कि कौन आया है और क्या करता है।

सिपाहियाना ठाठ के पाँच आदमी ढाल-तलवार लगाये हुए दिखाई पड़े। एक के हाथ में मशाल थी और चार आदमी एक सन्दूक को उठा कर लाये थे। जमीन पर सन्दूक रख देने के बाद पाँचों आदमी बैठ कर दम लेने और आपस में यों बातचीत करने लगे––

मशालची––जहन्नुम में जाय ऐसी नौकरी, दौड़ते-दौड़ते हैरान हो गये, ओफ!

दूसरा––खैर, दौड़ना और हैरान होना भी सुफल होता अगर कोई नेक काम हम लोगों के सुपुर्द होता।

तीसरा––भाई, चाहे जो हो, मगर बेगुनाहों का खून नाहक मुझसे तो नहीं किया जाता!

चौथा––मुश्किल तो यह है कि हम लोग इनकार भी नहीं कर सकते और भाग भी नहीं सकते। पाँचवाँ––परसों जो हुक्म हुआ है सो तुमने सुना या नहीं!

मशालची––हाँ, मुझे मालूम है।

तीसरा––मैंने नहीं सुना, क्योंकि मैं नानक का पता लगाने गया था।

पाँचवाँ––परसों यह हुक्म दिया गया है कि जो कोई कामिनी को पकड़ लायेगा या पता लगा देगा उसे मुँहमाँगी चीज इनाम में दी जायगी।

तीसरा––हम लोगों की ऐसी किस्मत कहाँ कि कामिनी हाथ लगे!

दूसरा––(चौंक कर) चुप रहो, देखो, किसी की आवाज आ रही है!

किशोरी से बात करते-करते जब किसी के आने की आहट मालूम हुई तो कामिनी चुप हो गई थी। किशोरी को ताज्जुब मालूम हुआ कि यकायक कामिनी चुप क्यों हो गई? थोड़ी देर तक राह देखती रही कि शायद अब बोले, मगर जब देर हो गई तो उसने खुद पुकारा और कहा, "क्यों बहिन, चुप क्यों हो गई?" यही आवाज उन पाँचों आदमियों ने सुनी थी। उन लोगों ने बातें करना छोड़ दिया और आवाज की तरफ ध्यान लगाया। फिर आवाज आई––"बहिन कामिनी, कुछ कहो तो सही, तुम चुप क्यों हो गईं? क्या ऐसे समय में तुमने भी मुझे छोड़ दिया! बात करना भी बुरा मालूम होता है!"

किशोरी की बातें सुनकर पाँचों आदमी ताज्जुब में आ गये और उन लोगों को एक प्रकार की खुशी हुई।

एक––उसी किशोरी की आवाज है, मगर वह कामिनी को क्यों पुकार रही है? क्या कामिनी उसके पास पहुँच गई?

दूसरा––क्या पागलपन की बातें कर रहे हो? कामिनी अगर किशोरी के पास पहुँच जाती तो वह पुकारती क्यों? धीरे-धीरे आपस में बात करती या इस तरह उसे लानत देती?

तीसरा––अजी, यह तो वही है, मैं समझता हूँ कि कामिनी इस कोठरी में जरूर आई थी।

दूसरा––आई थी तो गई कहाँ?

चौथा––हम लोगों के आने के पहले ही कहीं चली गई होगी।

दूसरा––(हँस कर) क्या खूब! अजी किशोरी का यह कहना––"क्यों बहिन, चुप क्यों हो गईं!" इस बात को साबित करता है कि वह अभी-अभी इस कोठरी में मौजूद थी।

पाँचवाँ––तुम्हारा कहना ठीक है मगर यहाँ तो कामिनी की बू तक नहीं आती।

दूसरा––(चारों तरफ देख और उस कोठरी की तरफ इशारा करके) इसी में होगी।

पाँचों ही यह कहने लगे कि 'कामिनी जरूर इसी कोठरी में होगी, हम लोगों के आने की आहट पाकर छिप गई है।' आखिर सब उस कोठरी के पास गए, एक ने दरवाजे में धक्का मारा और किवाड़ बन्द पाकर कहा, "है––है, जरूर इसी में है!"

कोठरी के अन्दर छिपकर बैठी बेचारी कामिनी सब बातें सुन रही थी और ताली के छेद में से सभी को देख भी रही थी। ऊपर लिखी बातों ने उसका कलेजा दहला दिया, यहाँ तक कि वह अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो गई और उसे निश्चय हो गया कि अब ये लोग मुझे गिरफ्तार कर लेंगे।

पाँचों आदमी इस फिक्र में लगे कि किस तरह दरवाजा खुले और कामिनी को गिरफ्तार कर लें। एक ने कहा, "दरवाजा तोड़ दो!" दूसरे ने हँस कर जवाब दिया, "शायद यह तुम्हारे किए हो सकेगा।"

उन पाँचों ने बहुत कुछ जोर कामिनी को पुकारा, दिलासा दिया, धमकी दी, जान बचा देने का वादा किया और समझाया मगर कुछ काम न चला। कामिनी बोली तक नहीं। आखिर उनमें से एक ने जो सबसे चालाक और होशियार था कहा, "अगर इस दरवाजे को हम पहले कभी बन्द देखते तो जरूर समझते कि किसी जानकार ने बाहर ताला लगाकर बन्द किया है, मगर अभी थोड़े ही दिन हुए इस कोठरी को मैंने खुला देखा था, इसमें किसी का असबाब पड़ा हुआ था। जो हो यह तो निश्चय हो गया कि कामिनी इस कोठरी के अन्दर घुस कर बैठी है, अब बाबाजी आवें तो इस कोठरी का दरवाजा खुले। (कुछ सोचकर) अब तो यही मुनासिब है कि हम लोगों में से एक आदमी जाय और बाकी चार आदमी बारी-बारी से यहाँ पहरा दें, जिससे कामिनी निकलकर भाग न जाय। आखिर इस कोठरी में कब तक छिप कर बैठी रहेगी या अपनी भूख-प्यास का क्या बन्दोबस्त करेगी?"

सभी ने इस राय को पसन्द किया। एक आदमी अपने मालिक को खबर करने चला गया, एक तहखाने में उसी जगह बैठा रहा और तीन आदमी बाहर खँडहर में निकल आए और इधर-उधर टहलने लगे। सवेरा हो गया और पूरब तरफ सूर्य की लालिमा दिखाई देने लगी।

बेचारी कामिनी की जान आफत में फँस गई, देखना चाहिए क्या होता है, मगर उसने निश्चय कर लिया कि भूख और प्यास से चाहे जान निकल जाय, मगर कोठरी के बाहर न निकलूँगी।

उस बेचारी को कोठरी के अन्दर घुस कर बैठे तीन दिन हो गए। भूख और प्यास से उस बेचारी की क्या अवस्था हो गई होगी, यह पाठक स्वयं समझ सकते हैं। लिखने की कोई आवश्यकता नहीं।

हम ऊपर लिख आए हैं कि उन पाँचों में से एक आदमी अपने मालिक को खबर करने चला गया और बाकी चार इसलिए रह गए कि बारी-बारी से पहरा दें, जिससे कामिनी निकलकर भाग न जाय।

तीसरे दिन इनमें से तीन आदमी आपस में बातें करते और घूमते-फिरते खँडहर के बाहर निकले और फाटक पर खड़े होकर बातें करने लगे।

एक––इसमें कोई शक नहीं कि हम लोगों का नसीब जाग गया।

दूसरा––नसीब जागा तो हम नहीं कह सकते, हाँ इतनी बात है कि रकम गहरी हाथ लगेगी।

तीसरा––मुँहमाँगा इनाम क्या हम नहीं पा सकते? दूसरा––नहीं।

तीसरा––सो क्यों?

दूसरा––हम लोग कामिनी को अगर पकड़ ले जाते तो मुँहमाँगा इनाम पाते, सो तो हुआ नहीं, कामिनी कोठरी के अन्दर घुस बैठी और हम लोग दरवाजा खोलकर उसे निकाल न सके, लाचार हो बाबाजी को बुलाना पड़ा, ऐसी अवस्था में जो कुछ इनाम मिल जाय वही बहुत है।

पहिला––इतना तो कहला भेजा कि हम लोगों ने कामिनी को इस तहखाने में फँसा रखा है।

दूसरा––खैर जो होगा, देखा जायगा, इस समय तो हम लोगों की जीत-ही-जीत मालूम होती है। कामिनी और किशोरी दोनों को ही हमारे मालिक की किस्मत ने इस तहखाने में कैद कर रखा है।

तीसरा––(चौंककर) जरा इधर तो देखो ये लोग कौन हैं, मालूम होता है कि इन लोगों ने हमारी बातें लीं।

खँडहर के बाहर बाएँ तरफ कुछ हट कर एक नीम का पेड़ था और उस पेड़ के नीचे एक कुआँ था। इस समय दो साधु उस कुएँ पर बैठे इन तीनों की बातें सुन रहे थे। जब उन तीनों को यह बात मालूम हुई तो डरे और उन साधुओं के पास जाकर बातचीत करने लगे––

एक आदमी––तुम दोनों यहाँ क्यों बैठे हो?

एक साधु––हमारी खुशी!

एक आदमी––अच्छा, अब हम कहते हैं कि उठो और यहाँ से चले जाओ।

एक साधु––तू है कौन, जो तेरी बात मानें?

एक आदमी––(तलवार खींचकर) यह न जानना कि साधु समझ के छोड़ दूँगा, नाहक गुस्सा मत दिलाओ।

साधु––(हँसकर) वाह रे बन्दर-घुड़की! अबे, क्या तू हम लोगों को साधु समझ रहा है?

इतना सुनते ही तीनों आदमियों ने गौर करके साधुओं को देखा और यकायक यह कहते हुए कि 'हाय, गजब हो गया, यहाँ से भागो, यहाँ से भागो' वहाँ से भागे। जहाँ तक हो सका, उन लोगों ने भागने में कसर न की। दोनों साधुओं ने उन लोगों को रोकना मुनासिब न समझा, और भागने दिया।

अब वे दोनों साधु वहाँ से उठे, और बातें करते हुए खँडहर के अन्दर घुसे। घूमते-फिरते दालान में पहुँचे और दरवाजा खोलते हुए उस तहखाने में उतर गए जिसमें कामिनी थी। इस तहखाने और दरवाजे का हाल हम ऊपर लिख आए हैं, पुनः लिखने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती। हाँ, इतना जरूर कहेंगे कि रंग-ढंग से मालूम होता था कि ये दोनों साधु तहखाने और उसके रास्ते को बखूबी जानते हैं, नहीं तो ऐसा आदमी, जो दरवाजे का भेद न जानता हो, उस तहखाने में किसी तरह नहीं पहुँच सकता था। जब दोनों साधु तहखाने में पहुँचे तो वहाँ एक सिपाही को पाया और सन्दूक पर भी नजर पड़ी। एक मोमबत्ती आले पर जल रही थी। वह सिपाही इन दोनों को देख चौंका, और तलवार खींचकर सामना करने पर मुस्तैद हुआ। एक साधु ने झपटकर उसकी कलाई पकड़ ली, और दूसरे ने उसकी गर्दन में एक ऐसा घूँसा जमाया कि वह चक्कर खाकर गिर पड़ा। उसकी तलवार छीन ली गई और बेहोश कर चादर से, जो कमर में लपेटी हुई थी, उसकी मुश्कें बाँध दी गई। इसके बाद दोनों साधु उस सन्दूक की तरफ बढ़े। सन्दूक में ताला लगा हुआ न था, बल्कि एक रस्सी उसके चारों तरफ लपेटी हुई थी। रस्सी खोली गई और उस सन्दूक का पल्ला उठाया गया, एक साधु ने मोमबत्ती हाथ में ली और झाँक कर सन्दूक के अन्दर देखा, देखते ही "हाय!" कह कर जमीन पर गिर पड़ा। इसके बाद दूसरे ने देखा, और उसकी भी यही अवस्था हुई।