चन्द्रकांता सन्तति २/६.४

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चंद्रकांता संतति भाग 2  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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अब तो मौसम में फर्क पड़ गया। ठंडी-ठंडी हवा जो कलेजे को दहला देती थी और बदन में कँपकँपी पैदा करती थी अब भली मालूम पड़ती है। वह धूप भी, जिसे देख चित्त प्रसन्न होता था और जो बदन में लग कर रग-रग से सर्दी निकाल देती थी, अब बुरी मालूम होती है। यद्यपि अभी आसमान पर बादल के टुकड़े दिखाई नहीं देते तथापि संध्या के समय मैदान, बाग और तराई की ठंडी-ठंडी और शीतल तथा मन्द-मन्द वायु सेवन करने को जी चाहता है। वहाँ से हिलते हुए पेड़ों की कोमल-कोमल पत्तियों की बहार आँखों की राह घुस कर अन्दर से दिल को अपनी तरफ खींच लेती है तथा टकटकी बँधी हुई आँखों को दूसरी तरफ देखने का यकायक मौका नहीं मिलता। यद्यपि सूर्य अस्त हुआ ही चाहता है और आसमान पर उड़ने वाले परिन्दों के उतार और जमीन की तरफ झुके हुए एक ही तरफ उड़े जाने से मालूम होता है कि बात की बात में चारों तरफ अँधेरा छा जायगा तथापि हम अपने पाठकों को किसी पहाड़ की तराई में ले चलकर एक अनूठा रहस्य दिखाया चाहते हैं।

तीन तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और बीच में कोसों तक का मैदान रमणीक तो है परन्तु रात की अवाई और सन्नाटे ने उसे भयानक बना दिया है। सूर्य अस्त होने में अभी विलम्ब है परन्तु ऊँचे-ऊँचे पहाड़ सूर्य की आखिरी लालिमा को इस मैदान में पहुँचने नहीं देते। चारों तरफ सन्नाटा है, जहाँ तक निगाह काम करती है इस मैदान में आदमी की सूरत दिखाई नहीं पड़ती, हाँ पश्चिम तरफ वाले पहाड़ के नीचे एक छोटा चमड़े का खेमा दिखाई पड़ता है। इस समय हमें इसी खेमे से मतलब है और इसी के दरवाजे पर पहुँच कर अपना काम निकाला चाहते हैं।

इस खेमे के दरवाजे पर केवल एक आदमी कमर में खंजर लगाए टहल रहा है। [ ८९ ]यद्यपि इसकी जवानी ने इसका साथ छोड़ दिया है और फिक्र ने इसे दुर्बल कर दिया है मगर फुर्ती, मजबूती और दिलेरी ने अभी तक इसके साथ दुश्मनी नहीं की और वे इस गई, गुजरी हालत में भी इसका साथ दिए जाती हैं। इस आदमी की सूरत-शक्ल के बारे में हमें कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारे पाठक इसे पहचानते हैं और जानते हैं कि इसका नाम 'भूतनाथ' है।

भूतनाथ को खेमे के दरवाजे पर टहलते हुए देर हो गई। वह न मालूम किस सोच में डूबा हुआ था कि सिर नीचा किए हुए सिवाय टहलने के इधर-उधर देखने की उसे बिल्कुल फुरसत न थी, हाँ कभी-कभी वह सिर उठाता और एक लम्बी साँस लेकर केवल उत्तर की तरफ देखता और सिर नीचा कर फिर उसी तरह टहलने लगता। अब सूर्य ने अपना मुँह अच्छी तरह जमीन के पर्दे में छिपा लिया और भूतनाथ ने कुछ बेचैन होकर उत्तर की तरफ देख धीरे से कहा, "अब तो बहुत ही विलम्ब हो गया, क्या बेमौके जान आफत में फँसी है।"

यकायक तेजी के साथ घोड़ा दौड़ाता हुआ एक सवार उत्तर की तरफ से आता हुआ दिखाई पड़ा। कुछ और पास आने से मालूम हो गया कि वह औरत है मगर सिपाहियाना ठाठ में, ढाल-तलवार के सिवाय उसके पास कोई हरबा न था। इस औरत की उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। सूरत-शक्ल से मालूम होता था कि किसी समय में यह बहुत ही हसीन और दिल लुभाने वाली रही होगी। बात की बात में यह औरत खेमे के पास आ पहुँची और घोड़े से उतर कर उसकी लगाम खेमे की एक डोरी से अटका देने के बाद भूतनाथ के पास आकर बोली, "शाबाश भूतनाथ, बेशक तुम वादे के सच्चे हो।"

भूतनाथ––मगर अभी तक मेरी समझ में यह न आया कि तुम मुझसे दुश्मनी रखती हो या दोस्ती।

औरत––(हँस कर) अगर तुम ऐसे ही समझदार होते तो जीते-जागते और निरोग रहने पर भी मुर्दो में क्यों गिने जाते?

भूतनाथ––(कुछ सोचकर) खैर जो हुआ सो हुआ, अब मुझसे क्या चाहती हो?

औरत––तुमसे एक काम कराया चाहती हूँ

भूतनाथ––वह कौन काम है जिसे तुम स्वयं नहीं कर सकती?

औरत––केवल यही एक काम!

भूतनाथ––(आश्चर्य की रीति से गर्दन हिलाकर) खैर कहो तो सही, करने लायक होगा तो करूँगा।

औरत––मैं खूब जानती हूँ कि तुम उस काम को सहज ही में कर सकते हो।

भूतनाथ––तब कहने में देर क्यों करती हो?

औरत––अच्छा सुनो, यह तो जानते ही हो कि कमलिनी को ईश्वर ने अद्भुत बल दे रक्खा है।

भूतनाथ––हाँ बेशक! उसमें कोई देवी शक्ति है, वह जो कुछ चाहे, सो कर [ ९० ]सकती है। जो कोई उसे जानता है वहीं कहेगा कि कमलिनी को कोई जीत नहीं सकता।

औरत––हाँ ठीक है परन्तु मैं खूब जानती हूँ कि तुम कमलिनी से ज्यादा ताकत रखते हो।

भूतनाथ––(चौंक और काँप कर) इसका क्या मतलब?

औरत––मतलब यही कि तुम अगर चाहो तो उसे मार सकते हो।

भूतनाथ––मगर मैं ऐसा क्यों करने लगा?

औरत––केवल मेरी आज्ञा से।

इतना सुनते ही भूतनाथ के चेहरे पर मुर्दनी छा गई, उसका कलेजा काँपने लगा और सिर कमजोर होकर चक्कर खाने लगा, यहाँ तक कि वह अपने को सँभाल न सका और जमीन पर बैठ गया। मालूम होता था कि उस औरत की आखिरी बात ने उसका खून निचोड़ लिया है। न मालूम क्या सबब था कि निडर होकर भी एक साधारण और अकेली औरत की बातों का जवाब नहीं दे सकता और उसकी सूरत से मजबूरी और लाचारी झलक रही है।

भूतनाथ की ऐसी अवस्था देखकर उस औरत को किसी तरह का रंज नहीं हुआ बल्कि वह मुस्कुराई और उसी जगह घास पर बैठ कर न मालूम क्या सोचने लगी। थोड़ी देर बाद जब भूतनाथ का जी ठिकाने हआ तो उसने उस औरत की तरफ देखा और हाथ जोड़कर कहा, "क्या सचमुच मुझे ऐसा हुक्म लगाया जाता है?"

औरत––हाँ, कमलिनी का सिर लेकर मेरे पास हाजिर होना पड़ेगा और यह काम सिवाय तेरे और कोई भी नहीं कर सकता, क्योंकि वह तुझ पर विश्वास रखती है।

भूतनाथ––(कुछ सोचकर) नहीं-नहीं, मेरे किए यह काम न होगा। जो कुछ कर चुका हूँ उसी के प्रायश्चित से आज तक छुट्टी नहीं मिलती।

औरत––क्या तू मेरा हुक्म टाल सकता है? क्या तुझमें इतनी ताकत है?

यह सुन भूतनाथ बहुत बेचैन हुआ। वह उठ खड़ा हुआ और सिर नीचा किए इधर-उधर टहलने और नीचे लिखी बातें धीरे-धीरे बोलने लगा––

"आह मुझ-सा बदनसीब भी दुनिया में कोई न होगा। मुद्दत तक मुर्दो में अपनी गिनती कराई, अब ऐसा संयोग हो गया कि अपने को जीता-जागता साबित करूँ, मगर अफसोस, करी-कराई मेहनत मिट्टी हुआ चाहती है। हाय, उस आदमी के साथ जिसमें नेकी कूट-कूटकर भरी है, मैं बदी करने के लिए मजबूर किया जा रहा हूँ। क्या उसके साथ बदी करने वाला कभी सुख भोग सकता है? नहीं-नहीं, कभी नहीं, फिर मैं ऐसा क्यों करूँ? मगर मेरी जान क्योंकर बच सकती है इसका हुक्म न मानना मेरी कुदरत के बाहर है। हाय, एक दफे की भूल जन्म-भर के लिए दुःखदाई हो जाती है। शेरसिंह सच कहता था, इन्हीं बातों को सोचकर उसने मेरा नाम 'काल' रख दिया था और उसे मेरी सुरत से घृणा हो गई थी। (कुछ देर तक चुप रहकर) ओफ, मैं भी व्यर्थ के विचार में पड़ा है, आखिर जान तो जायेगी ही, इसका हुक्म मानूँगा तो भी मारा जाऊँगा और यदि न मानूँगा तो भी मौत की तकलीफ उठाऊँगा और तमाम दुनिया में मेरी बुराई [ ९१ ]फैलेगी। (चौंक कर) राम-राम, मुझे क्या हो गया जो...

भूतनाथ––(उस औरत की तरफ देख के) अच्छा मैं कमलिनी को मारने के लिए तैयार हूँ, मगर इसके बदले में मुझे इनाम क्या मिलेगा?

औरत––(हँस कर) तू इस लायक नहीं है कि तुझे इनाम दिया जाये।

भूत––क्या मैं इस दर्जे को पहुँच गया?

औरत––बेशक।

भूत––नहीं, कभी नहीं! जा, मैं तेरा हुक्म नहीं मानता। देखूँ तू मेरा क्या कर लेती है!

औरत––भूतनाथ, देख खूब सोचकर कोई बात मुँह से निकाल, ऐसा न हो कि अन्त में पछताना पड़े।

भूत––जा जा, जो करते बने कर ले।

भूतनाथ की आखिरी बात सुनकर वह औरत क्रोध में आकर काँपने लगी। उसके होंठ काँप रहे थे मगर कुछ कहना मुश्किल हो रहा था।

इस समय चारों तरफ अँधेरा छा चुका था अर्थात् रात बखूबी हो चुकी थी। थोड़ी देर के लिए दोनों आदमी चुप हो गये, यकायक घोड़ों की टापों की आवाज (जो बहुत दूर से आ रही थी) भूतनाथ के कान में पड़ी और साथ ही इसके वह औरत भी बोल उठी, "अच्छा देख, मैं तेरी ढिठाई का कैसा मजा चखाती हूँ।"

भूतनाथ पहले तो कुछ घबड़ाया मगर उसने तुरन्त ही अपने को सँभाला और कमर से खंजर निकाल कर उस औरत के सामने खड़ा हो गया। वह खंजर वही था जो कमलिनी ने उसे दिया था। कब्जा दबाते ही खंजर में से बिजली की चमक पैदा हुई जिसके सबब से उस औरत की आँखें बन्द हो गई और वह बावली-सी हो गई तथा उस समय तो उसे तन-बदन की सुध भी न रही जब भूतनाथ ने खंजर उसके बदन से छुआ दिया।

भूतनाथ ने बड़ी होशियारी से उस बेहोश औरत को उसके घोड़े पर लादा और आप भी उसी पर सवार हो तेजी के साथ मैदान का रास्ता लिया। थोड़ी दूर जाकर भूतनाथ ने बेहोशी की तेज दवा उसे सुँघाई, जिससे वह औरत बहुत देर के लिए मुर्दे की-सी हो गई। हमको इससे कोई मतलब नहीं कि वे सवार जिनके घोड़ों के टापों की आवाज भूतनाथ के कान में पड़ी थी कौन थे और उन्होंने वहाँ पहुँच कर क्या किया जहाँ से भूतनाथ उस औरत को ले भागा था, हम केवल भूतनाथ के साथ चलते हैं, जिसमें उस औरत का और भूतनाथ का हाल मालूम हो।

यद्यपि रात अँ‌धेरी और रास्ता पथरीला था तथापि भूतनाथ ने चलने में कसर न की। थोड़ी-थोड़ी दूर पर घोड़ा ठोकर खाता था जिससे भूतनाथ को तकलीफ होती थी और वह बड़ी मुश्किल से उस बेहोश औरत को सँभाले लिए जाता था मगर यह तकलीफ ज्यादा देर के लिए न थी क्योंकि पहर भर के बाद ही आसमान पर कुदरती माहताबी जलने लगी और उसकी (चन्द्रमा की) रोशनी ने चारों तरफ ठंडक और खूबसूरती के साथ उजाला कर दिया। ऐसी अवस्था में भूतनाथ ने रुकना उचित न समझा [ ९२ ]और सवेरा होने तक तेजी के साथ बराबर चलता गया। जिस समय आसमान पर सुबह की सफेदी फैल रही थी, घोड़े ने यहाँ तक हिम्मत हार दी कि दस कदम भी चलना उसके लिए कठिन हो गया। लाचार भूतनाथ घोड़े के नीचे उतरा और उस औरत की भी उतार लिया। घोड़ा उसी समय जमीन पर गिर पड़ा, मगर भूतनाथ ने उसकी कुछ परवाह न की।

कमर से चादर खोल उसने औरत की गठरी बाँधी और पीठ पर लाद आगे का रास्ता लिया।

पहर भर चलते जाने बाद भूतनाथ एक ऐसी पहाड़ी के नीचे पहुँचा जिसकी ऊँचाई बहुत ज्यादा न थी मगर खुशनुमा और सायेदार दरख्त पहाड़ी के ऊपर तथा उसकी तराई में बहुत थे। पहाड़ी की चोटी पर सलई का एक ऊँचा पेड़ था और उसके ऊपर लम्बी काँड़ी में लगा हुआ एक लाल फरहरा (ध्वजा) दूर से दिखाई दे रहा था। यह निशान कमलिनी का लगाया हुआ था। भूतनाथ, तारा और नानक से मिलने के लिए कमलिनी ने एक यह जगह भी मुकर्रर की थी और निश्चय कर रखा था कि जब इन चारों में किसी को किसी से मिलने की आवश्यकता पड़े तो वह इसी जगह आवे और यदि किसी से मुलाकात न हो, इस झंडे को झुका हुआ देखे तो तुरन्त इस पहाड़ी के नीचे आवे और नियत स्थान पर अपने साथी को ढूँढ़े। यह फरहरा बहुत दूर से दिखाई देता था और यह पहाड़ी रोहतासगढ़ और गयाजी के बीच में पड़ती थी।

उस औरत को पीठ पर लादे हुए भूतनाथ पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगा। लगभग दो सौ कदम जाने के बाद रास्ता छोड़कर दाहिनी तरफ घूमा जिधर छोटे-छोटे जंगली पेड़ों की गुंजान झाड़ी दूर तक चली गई थी। उस झाड़ी में आदमी बखूबी छिप सकता था अर्थात् उस झाड़ी के पेड़ यद्यपि छोटे थे परन्तु आदमी की ऊँचाई से उन पेड़ों की ऊँचाई कुछ ज्यादा थी। भूतनाथ दोनों हाथ से पेड़ों को हटाता हुआ कुछ दूर तक चला गया। आखिर उसे एक गुफा मिली जिसका मुँह जंगली लताओं ने अच्छी तरह ढाँक रखा था। भूतनाथ उस गुफा के अन्दर चला गया और अपना बोझ अर्थात् उस औरत को गुफा के अन्दर छोड़ बाहर निकल आया। इसके बाद पहाड़ी की चोटी पर चढ़ गया और सलई पेड़ पर चढ़कर लाल फरहरे (झण्डे) को झुकाने का इरादा किया परन्तु उसी समय सलई के पेड़ पर चढ़ी हुई कमलिनी उसे दिखाई पड़ी जो फरहरा झुकाने का उद्योग कर रही थी। इस समय भी कमलिनी उसी राक्षसी के भेष में थी जैसा कि ऊपर के बयानों में लिख आए हैं। भूतनाथ ने कमलिनी को पहचाना और उसने भी भूतनाथ को देखा। कमलिनी पेड़ के नीचे उतर आई और बोली––

कमलिनी––खूब पहुँचे, मैं तुमसे मिला चाहती थी, इसीलिए झण्डा झुकाने का उद्योग कर रही थी।

भूतनाथ––मैं खुद तुमसे मिलना चाहता था, इसीलिए यहाँ तक आया हूँ। यदि इस समय तुम न मिलती तो मैं इस पेड़ पर चढ़कर फरहरा झुकाता।

कमलिनी––कहो, क्या बात है और कौन-सी जरूरत आ पड़ी?

भूतनाथ––पहले तुम कहो कि मुझसे मिलने की क्या आवश्यकता थी? [ ९३ ]कमलिनी––नहीं-नहीं, पहले तुम्हारा हाल सुन लूँगी तब कुछ कहूँगी, क्योंकि तुम्हारे चेहरे पर घबराहट और उदासी हद से ज्यादा पाई जाती है।

भूतनाथ––बेशक ऐसा ही है और मैं तुमसे आखिरी मुलाकात करने आया हूँ, क्योंकि अब जीने की उम्मीद नहीं रही और खुली बदनामी बल्कि कलंक मंजूर नहीं

कमलिनी––क्यों क्यों, ऐसी क्या आफत आ गई, कुछ कहो तो सही!

भूतनाथ––मेरे साथ पहाड़ी के नीचे चलो। मैं एक औरत को बेहोश करके लाद लाया हूँ, जो उसी खोह के अन्दर है, पहले उसे देख लो तब मेरी सुनो।

कमलिनी––खैर ऐसा ही सही, चलो।

भूतनाथ के साथ-ही-साथ कमलिनी पहाड़ी के नीचे उतरी और उस खोह के मुहाने पर आकर बैठ गई जिसके अन्दर भूतनाथ ने उस औरत को रखा था। भूतनाथ उस बेहोश औरत को खोह के बाहर निकाल लाया। कमलिनी उस औरत को देखते ही चौंकी और उठ खड़ी हुई।

भूतनाथ––इसी के मारे मेरी जिन्दगी जवाल हो रही है, मगर तुम इसे देखकर चौंकी क्यों? क्या इस औरत को पहचानती हो?

कमलिनी––हाँ, मैं इसे पहचानती। यह वह काली नागिन है कि जिसके डँसने का मन्त्र ही नहीं! जिसे इसने काटा वह पानी तक नहीं माँगता, तुमने इसके साथ दुश्मनी की सो अच्छा नहीं किया।

भूतनाथ––मैंने जान-बूझकर इसके साथ दुश्मनी नहीं की। तुम खुद जानती हो कि मैं इसके काबू में हूँ किसी तरह इसका हुक्म टाल नहीं सकता, मगर कल इसने जो कुछ काम करने के लिए मुझे कहा वह मैं किसी तरह नहीं कर सकता था और इनकार की भी हिम्मत न थी, लाचार इसी खंजर की मदद से गिरफ्तार कर लाया हूँ। अब कोई ऐसी तरकीब निकालो जिसमें जान बचे और मैं वीरेन्द्रसिंह को मुँह दिखाने लायक हो जाऊँ।

कमलिनी––मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कह रहे हो! मुझे कुछ भी नहीं मालूम कि तुम इसके कब्जे में क्योंकर फँसे हो, न तुमने इसके बारे में कभी मुझसे कुछ कहा ही।

भूतनाथ––बेशक मैं इसका हाल तुमसे कह चुका हूँ और यह भी कह चुका हूँ कि इसी की बदौलत मुझे मरना पड़ा, बल्कि तुमने वादा किया था कि इसके हाथ से तुम्हें छुट्टी दिला दूँगी।

कमलिनी––हाँ, वह बात मुझे याद है, मगर तुमने तो श्यामा का नाम लिया था!

भूतनाथ––ठीक है, वह यही श्यामा है।

कमलिनी––(हँस कर) इसका नाम श्यामा नहीं है मनोरमा है। मैं इसकी सात पुश्तों को जानती हूँ। वेशक इसने अपने नाम में भी तुमको धोखा दिया। खैर, अब मालूम हुआ कि तुम्हें इसी ने सता रखा है, तुम्हारे हाथ की लिखी हुई दस्तावेज इसी के कब्जे में है और इस सबब से तुम इसे जान से मार भी नहीं सकते। इसने मुझे भी कई [ ९४ ]दफे धोखा देना चाहा था मगर मैं कब इसके पंजे में आने वाली हूँ। हाँ, यह तो कहो कि इसने क्या काम करने के लिए कहा था?

भूतनाथ––इसने कहा था कि तू कमलिनी का सिर काट कर मेरे पास ले आ, यह काम तुझसे बखूबी हो सकेगा क्योंकि वह तुझ पर विश्वास करती है।

कमलिनी––(कुछ देर तक सोचकर) खैर, कोई हर्ज नहीं। पहले तो मुझे इसकी कोई विशेष फिक्र न थी, परन्तु अब इसके साथ चाल चले बिना काम नहीं निकलता। देखो तो, मैं इसे कैसा दुरुस्त करती हूँ और तुम्हारे कागजात भी इसके कब्जे से कैसे निकालती हूँ।

भूतनाथ––मगर इस काम में देर न करनी चाहिए।

कमलिनी––नहीं-नहीं, देर न होगी, क्योंकि कुँअर इन्द्रजीतसिंह को छुड़ाने के लिए भी मुझे इसी के मकान पर जाना पड़ेगा। बस, दोनों काम एक साथ ही निकल जायेंगे।

भूतनाथ––अच्छा, तो अब क्या करना चाहिए?

कमलिनी––(हाथ का इशारा करके) तुम इस झाड़ी में छिपे रहो, मैं इसे होश में लाकर कुछ बातचीत करूँगी। आज यह मुझे किसी तरह नहीं पहचान सकती।

भूतनाथ झाड़ी के अन्दर छिपा रहा। कमलिनी ने अपने बटुए में से लखलखे की डिबिया निकाली और सुँघाकर उस औरत को होश में लाई। मनोरमा जब होश में आई, उसने अपने सामने एक भयानक रूपवाली औरत को देखा। वह घबरा कर उठ बैठी और बोली––

मनोरमा––तुम कौन हो और मैं यहाँ क्योंकर आई?

कमलिनी––मैं जंगल की रहने वाली भिल्लिनी हूं। तुम्हें एक लम्बे कद का आदमी पीठ पर लादे लिये जाता था। मैं इस पहाड़ी के नीचे सूअर का शिकार कर रही थी। जब वह मेरे पास पहुँचा मैंने उसे ललकारा और पूछा कि पीठ पर क्या लादे लिये जाता है? जब उसने कुछ न बताया तो लाचार (नेजा दिखा कर) इसी जहरीले नेजे से उसे जख्मी किया। जब वह बेहोश होकर गिर पड़ा तब मैंने गठरी खोली, जब तुम्हारी सूरत नजर आई तो हाल जानने की इच्छा हुई। लाचार इस जगह उठा लाई और होश में लाने का उद्योग करने लगी। अब तुम्हीं बताओ कि वह आदमी कौन था और तुम्हें इस तरह क्यों लिये जाता था?

मनोरमा––मैं अपना हाल तुमसे जरूर कहूँगी, मगर पहले यह बताओ कि वह आदमी तुम्हारे इस जहरीले नेजे के असर से मर गया या जीता है?

कमलिनी––वह मर गया और मेरे साथी लोग उसे जला देने के लिए ले गए।

मनोरमा––(ऊँची साँस लेकर) अफसोस, यद्यपि उसने मेरे साथ बहुत बुरा बर्ताव किया तथापि उसकी मुहब्बत मेरे दिल से किसी तरह नहीं जा सकती, क्योंकि वह मेरा प्यारा पति था। अफसोस अफसोस, तुमने उसके हाथ से मुझे व्यर्थ छुड़ाया।

पाठक, झाड़ी के अन्दर छिपा हुआ भूतनाथ भी मनोरमा की बातें सुन रहा था। मनोरमा ने जो कुछ कमलिनी से कहा, न मालूम उसमें क्या तासीर थी कि सुनने के [ ९५ ]साथ ही भूतनाथ का कलेजा काँपने लगा और उसे चक्कर-सा आ गया। बहुत मुश्किल से उसने अपने को सम्हाला और कान लगाकर फिर दोनों की बातें सुनने लगा।

कमलिनी––(कुछ सोचकर) मैं केसे विश्वास करूँ कि तुमने जो कुछ कहा वह सच है?

मनोरमा––पहले यह सोचो कि मैं तुमसे झूठ क्यों बोलूँगी?

कमलिनी––इसके कई सबब हो सकते हैं। सब से भारी सबब यह है कि तुम्हारा भेद एक गैर के सामने खुल जायेगा जिससे तुम्हें कोई मतलब नहीं। मगर मुझे विश्वास नहीं होता कि जो आदमी तुम्हें इतना कष्ट दे और बेहोश करके गठरी में बाँध कर कहीं ले जाने का इरादा रक्खे, उसे तुम प्यार करो और अपना पति कहकर सम्बोधित करो।

मनोरमा––नहीं-नहीं, यों तो शक की कोई दवा नहीं। परन्तु मैं इतना अवश्य कहूँगी कि उस आदमी के बारे में मैंने जो कुछ कहा, वह सच है।

कमलिनी––खैर, ऐसा ही होगा, मुझे इससे कोई मतलब नहीं चाहे वह आदमी तुम्हारा पति हो अथवा नहीं, अब तो वह मर चुका, किसी तरह जी नहीं सकता। लेकिन यह बताओ कि अब तुम क्या करना चाहती हो और कहाँ जाने की इच्छा रखती हो?

मनोरमा––मुझे गयाजी का रास्ता बता दो। मेरे माँ-बाप उसी शहर में रहते हैं। अब मैं उन्हीं के पास जाऊँगी।

कमलिनी––अच्छा, पहाड़ी के नीचे चलो, मैं तुम्हें गयाजी का रास्ता बता देती हूँ। हाँ, मैं तुम्हारा नाम पूछना तो भूल ही गई।

मनोरमा––मेरा नाम इमामन है।

कमलिनी––(जोर से हँस कर) क्या ठगने के लिए मैं ही थी?

मनोरमा––(चौंक कर और कमलिनी को सिर से पैर तक खूब अच्छी तरह देख कर) मुझे तुम पर शक होता है।

कमलिनी––यह कोई ताज्जुब की बात नहीं, मगर शक होने ही से क्या हो सकता है? आज तक तुमने मुझे कभी नहीं देखा और न फिर देखोगी।

मनोरमा––तब मैं अवश्य ही कह सकती हूँ कि तुम कमलिनी हो!

कमलिनी––नहीं-नहीं, मैं कमलिनी नहीं हो सकती, हाँ कमलिनी को पहचानती जरूर हूँ, क्योंकि वह वीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान की दोस्त है, इसलिए मेरी दुश्मन!

मनोरमा––अब मैं तुम्हारी बातों का विश्वास नहीं कर सकती।

कमलिनी––तो इसमें मेरा कोई भी हर्ज नहीं। (आहट पाकर और दाहिनी तरफ देख कर) लो देखो, अब तो मैं सच्ची हुई? वह कमलिनी आ रही है!

संयोग से उसी समय तारा भी आ पहुँची जो कमलिनी की सूरत में उसके कहे मुताबिक सब काम किया करती थी। कमलिनी ने गुप्त रीति से तारा को कुछ इशारा किया जिससे वह कमलिनी का मतलब समझ गई। कमलिनी रूपी तारा लपक कर उन [ ९६ ]दोनों के पास पहुँची और कमर से खंजर निकाल कर और उसे चमका कर बोली, "इस समय तुम दोनों भले मौके पर मुझे मिल गई हो, आज मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ। अब मैं तुम दोनों से बिना बदला लिये टलने वाली नहीं।"

तारा की यह बात सुन कमलिनी जान-बूझकर काँपने लगी। मालूम होता था कि वह डर से काँप रही है। मनोरमा भी यकायक कमलिनी को मौजूद देख कर घबरा गई, इसके अतिरिक्त उस चमकते हुए खंजर को देखकर उसे विश्वास हो गया कि अब किसी तरह जान नहीं बचती, क्योंकि इसी तरह का खंजर भूतनाथ के हाथ में चुकी थी और उसके प्रबल प्रताप का नमूना उसे मालूम हो चुका था, साथ ही उसे इस बात का भी विश्वास हो गया कि राक्षसी (कमलिनी), जिसने उसे भूतनाथ के हाथ से छुड़ाया, सच्ची और उसकी खैरख्वाह है।

कमलिनी ने तारा को फिर इशारा किया जिसे मनोरमा ने नहीं जाना। पर तारा ने वह खंजर मनोरमा के बदन से लगा दिया और वह बात-की-बात में बेहोश होकर जमीन पर गिर गई। झाड़ी में छिपा हुआ भूतनाथ भी निकल आया और कमलिनी से बोला––

भूतनाथ––जो हो, मगर मेरा काम कुछ भी न हुआ।

कमलिनी––इसमें कोई शक नहीं कि तुम बड़े बुद्धिमान हो, परन्तु कभी-कभी तुम्हारी अक्ल भी हवा खाने चली जाती है। तुम इस बात को नहीं जानते कि तुम्हारा काम पूरा-पूरा हो गया। यकायक तारा के पहुँच जाने से मालूम हुआ कि तुम्हारी किस्मत तेज है, नहीं तो मुझे बहुत-कुछ बखेड़ा करना पड़ता।

भूतनाथ––सो क्या, मुझे साफ समझा दो तो जी ठिकाने हो।

कमलिनी––मेरे पास बैठ जाओ, मैं अच्छी तरह समझा देती हूँ। (तारा की तरफ देख कर) कहो, तुम्हारा आना क्योंकर हुआ?

तारा––मुझे एक ऐसा काम आ पड़ा कि बिना तुमसे मिले कठिनता दूर होने की आशा न रही, लाचार झण्डी टेढ़ी करके तुमसे मिलने की उम्मीद में यहाँ आयी थी।

कमलिनी––अच्छा हुआ कि तुम आईं, इस समय तुम्हारे आने से बड़ा ही काम चला। अच्छा, बैठ जाओ और जो कुछ मैं कहती हूँ, उसे सुनो।

इसके बाद कमलिनी, तारा और भूतनाथ में देर तक बातचीत होती रही जिसे यहाँ पर लिखना हम मुनासिब नहीं समझते, क्योंकि इन लोगों ने जो कुछ करना विचारा है, वह आगे के बयान में स्वयं खुल जायेगा। जब बातचीत से छुट्टी मिली तो मनोरमा को उठा तीनों आदमी पहाड़ी के नीचे उतरे। मनोरमा एक पेड़ के साथ बाँध दी गई। इस काम से छुट्टी पाकर तारा और भूतनाथ वहाँ से अलग हो गए और किसी झाड़ी में छिप कर दूर से इन दोनों को देखते रहे। थोड़ी ही देर बाद मनोरमा होश में आई और अपने को बेबस पाकर चारों तरफ देखने लगी। पास ही में पेड़ से बँधी हुई कमलिनी पर भी उसकी निगाह पड़ी और वह अफसोस के साथ कमलिनी की तरफ देख कर बोली–– [ ९७ ]मनोरमा––बेशक तुम सच्ची हो। मेरी भूल थी जो तुम पर शक करती थी।

कमलिनी––खैर, इस समय तो तुम्हारे ही सबब से मुझे भी कष्ट भोगना पड़ा।

मनोरमा––इसमें कोई सन्देह नहीं।

कमलिनी––तुम्हारा छूटना तो मुश्किल है मगर मैं किसी-न-किसी तरह धोखा देकर छूट ही जाऊँगी और तब कमलिनी से समझूँगी। अब बिना उसकी जान लिए मुझे चैन कहाँ?

मनोरमा––तुम्हारी भी तो वह दुश्मन है, फिर तुम्हें क्योंकर छोड़ देगी?

कमलिनी––मेरी-उसकी दुश्मनी भीतर-ही-भीतर की है, इसके अतिरिक्त एक और सबब ऐसा है कि जिससे मैं अवश्य छूट जाऊँगी। तब तुम्हारे छुड़ाने का भी उद्योग करूँगी।

मनोरमा––वह कौन-सा सबब है?

कमलिनी––सो मैं अभी नहीं कह सकती। तुम्हें वह स्वयं मालूम हो जायगा। (चारों तरफ देख कर) न मालूम वह कम्बख्त कहाँ गई!

मनोरमा––क्या तुम्हें भी नहीं मालूम?

कमलिनी––नहीं, मुझे जब होश आया मैंने अपने को इसी तरह बेबस पाया।

मनोरमा––खैर, कहीं भी हो, आवेगी ही। हाँ तुम्हें यदि अपने छूटने की उम्मीद है तो कब तक?

कमलिनी––उसके आने पर दो-चार बातें करने से ही मुझे छुट्टी मिल जायगी और मैं तुम्हें भी अवश्य छुड़ाऊँगी। हाँ, अकेली होने के कारण विलम्ब जो कुछ हो। यदि तुम्हारा कोई मददगार हो तो बताओ, ताकि छुट्टी मिलने पर मैं तुम्हारे हाल की उसे खबर दूँ।

मनोरमा––(कुछ सोचकर) यदि कष्ट उठाकर तुम मेरे घर तक जाओ और मेरी सखी को मेरा हाल कह सको, तो वह सहज ही में मुझे छुड़ा लेगी।

कमलिनी––इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि मैं अवश्य छूट जाऊँगी। तुम अपने घर का पता और अपनी सखी का नाम बताओ। मैं जरूर उससे मिलकर तुम्हारा हाल कहूँगी और स्वयं भी जहाँ तक हो सकेगा, तुम्हें छुड़ाने के लिए उसका साथ दूँगी।

मनोरमा––यदि ऐसा करो तो मैं जन्म-भर तुम्हारा अहसान मानूँगी। जब उसके कान तक मेरा हाल पहुँच जायगा तो तुम्हारी मदद की आवश्यकता न रहेगी।

कमलिनी––खैर, अब पता और नाम बताने में विलम्ब न करो। कहीं ऐसा न हो कि कमलिनी आ जाय, तब कुछ न हो सकेगा।

मनोरमा––हाँ ठीक है-काशीजी में त्रिलोचनेश्वर महादेव के पास लाल रंग का मकान एक छोटे से बाग के अन्दर है। मछली के निशान की स्याह रंग की झण्डी दूर से ही दिखाई पड़ेगी। मेरी सखी का नाम 'नागर' है, समझ गईं?

कमलिनी––मैं खूब समझ गई, मगर उसे मेरी बात का विश्वास कैसे होगा?

मनोरमा––इसमें विश्वास की कोई जरूरत नहीं है। वह मुझ पर आफत आने का हाल सुनते ही बेचैन हो जायगी और किसी तरह न रुकेगी। [ ९८ ]कमलिनी––तथापि मुझे हर तरह से दुरुस्त रहना चाहिए। शायद वह समझे कि यह मुझे धोखा देने आई है और चाहती है कि मैं घर के बाहर जाऊँ तो कोई मतलब निकाले।

मनोरमा––(कुछ सोचकर) हाँ, ऐसा हो सकता है। अच्छा, मैं तुम्हें एक परिचय बताती हूँ। जब वह बात उसके कान में कहोगी, तब वह तुम्हारा पूरा विश्वास कर लेगी। परन्तु उस परिचय को बड़ी होशियारी से अपने दिल में रखना, खबरदार! दूसरा न जानने पावे, नहीं तो मुश्किल होगी और मेरी जान किसी तरह न बचेगी।

कमलिनी––तुम विश्वास रक्खो कि वह शब्द सिवाय एक दफे के जब मैं तुम्हारी सखी के कान में कहूँगी, दूसरी दफे मेरे मुँह से न निकलेगा। (इधर-उधर देख कर) जन्दी कहो, अब देर न करो।

मनोरमा––(कमलिनी की तरफ झुक कर धीरे से) 'विकट' शब्द कहना। बस, सन्देह न करेगी और तुम्हें मेरा विश्वासपात्र समझेगी।

कमलिनी––ठीक है, अब जहाँ तक जल्द हो सकेगा, मैं तुम्हारी सखी के पास पहुँचूंगी और अपना मतलब निकालूँगी।

मनोरमा––पहले तो मुझे यह देखना है कि कमलिनी तुम्हें क्योंकर छोड़ती है! जब तुम छूट जाओगी तब कहीं जाकर मुझे अपने छूटने की कुछ उम्मीद होगी।

कमलिनी––(हँस कर) मैं उतनी ही देर में छूट जाऊँगी जितनी देर में तुम एक से लेकर निन्यानवै तक गिन सको।

इतना कह कर कमलिनी ने सीटी बजाई। सीटी की आवाज सुनते ही तारा और भूतनाथ जो वहाँ से थोड़ी दूर पर एक झाड़ी के अन्दर छिपे हुए थे, कमलिनी के पास आ पहुँचे। कमलिनी ने मुस्कुराते हुए उनकी तरफ देखा और कहा, "मुझे छोड़ दो।"

भूतनाथ ने कमलिनी को, जो पेड़ से बँधी हुई थी, खोल दिया। कमलिनी उठ कर मनोरमा के पास आई और बोली, "क्यों, मैं अपने कहे मुताबिक छूट गयी या नहीं!"

कमलिनी की चालाकी के साथ ही भूतनाथ की सूरत देखकर मनोरमा सन्न हो गई और ताज्जुब के साथ उन तीनों की तरफ देखने लगी। इस समय भूतनाथ के चेहरे पर उदासी के बदले खुशी की निशानी पाई जाती थी। भूतनाथ ने हँस कर मनोरमा की तरफ देखा और कहा, "क्या अब भी भूतनाथ तेरे कब्जे में है? अगर हो तो कह, इसी समय कमलिनी का सिर काट कर तेरे आगे रख दूँ, क्योंकि वह यहाँ मौजूद है।"

मनोरगा ने क्रोध के मारे दाँत पीसे और सिर नीचा कर लिया। थोड़ी देर बाद बोली, "अफसोस, मैं धोखा खा गई!"

कमलिनी––(तारा से) अब समय नष्ट करना ठीक नहीं। इस हरामजादी को तुम ले जाओ और लोहे वाले तहखाने में बन्द करो, फिर देखा जायगा। (अपने हाथ का नेजा देकर) इस नेजे को अपने पास रखो और वह खंजर मुझे दे दो। अब नेजे के बदले खंजर रखना ही मैं उत्तम समझती हूँ। यद्यपि एक खंजर मेरे पास है परन्तु वह कुँअर इन्द्रजीतसिंह के लिए है। [ ९९ ]तारा––मैं भी यही कहना चाहती थी, क्योंकि खंजर और नेजे में गुण तो एक ही है फिर बोझ लेकर घूमने से क्या फायदा। यह लो खंजर, अपने पास रखो।

कमलिनी––(भूतनाथ से) तुम भी तारा के साथ जाओ और इस हरामजादी को हमारे घर पहुँचाकर बहुत जल्द लौट जाओ, तब तक मैं इसी जगह रहूँगी और तुम्हारे आते ही तुम्हें साथ लेकर काशीजी जाऊँगी। पहले तुम्हारा काम करके कुँअर इन्द्रजीतसिंह से मिलूँगी और मायारानी की मण्डली को, जिसने दुनिया में अन्धेर मचा रखा है, जहन्नुम में भेजूँगी।

भूतनाथ––(सिर झुकाकर) जो हुक्म!