चन्द्रकांता सन्तति २/८.२

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चंद्रकांता संतति भाग 2  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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2

कैदखाने का हाल हम ऊपर लिख चुके हैं, पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। उस कैदखाने में कई कोठरियाँ थीं जिनमें से आठ कोठरियों में तो हमारे बहादर लोग कैद थे और बाकी कोठरियाँ खाली थीं। कोई आश्चर्य नहीं, यदि हमारे पाठक महाशय उन बहादुरों के नाम भूल गये हों जो इस समय मायारानी के कैदखाने में बेबस पड़े हैं अस्तु एक दफे पुनः याद दिला देते हैं। उस कैदखाने में कुंअर इन्द्रजीतसिंह, अर आनन्दसिंह, तारासिंह, भैरोंसिंह, देवीसिंह और शेरसिंह के अतिरिक्त एक कुमारी भी थी जिसके मुख की सुन्दर आभा ने उस कैदखाने में उजाला कर रखा था। पाठक [ १७६ ]समझ ही गये होंगे कि हमारा इशारा कामिनी की तरफ है। यद्यपि वह ऐसी कोठरी में बन्द थी जिसके अन्दर मर्दो की निगाह नहीं जा सकती थी तथापि कुँअर आनन्दसिंह को इस बात पर ढाढ़स थी कि उनकी प्यारी कामिनी उनसे दूर नहीं है, मगर कुँअर इन्द्रजीतसिंह के रंज का कोई ठिकाना न था। वे कुछ भी नहीं जानते थे कि उनकी प्यारी किशोरी कहाँ और किस अवस्था में है।

इस कैदखाने में छत के सहारे शीशे की एक कन्दील लटक रही थी। उसी में मायारानी का एक आदमी रोज जाकर रोशनी ठीक कर देता था। ठीक कर देना हम इसलिए कहते हैं, कि उस कैदखाने में अँधेरा रहने के कारण दिन-रात बत्ती जला करती थी और ठीक समय पर आदमी जाकर उसे दुरुस्त कर दिया करता था। खाने-पीने का सामान आठ पहर में एक दफे कैदियों को दिया जाता था। कैदखाने की भयानक अवस्था लिखने में हम विशेष समय नष्ट करना नहीं चाहते, क्योंकि हमें किस्सा बहुत लिखना है और जगह कम है।

अब हम उस संध्या का हाल लिखते हैं जिस दिन मायारानी से और चण्डूल से बातचीत हुई थी, या जब कमलिनी से लाड़िली मिली थी। यों तो तहखाने के अन्दर दिन-रात समान था और कैदियों को इस बात का ज्ञान बिल्कुल नहीं हो सकता था कि सूर्य कब उदय और कब अस्त हुआ, तथापि बाहरी हिसाब से हमें समय लिखना ही पड़ता है।

संध्या होने के बाद एक आदमी कैदखाने में आया और कैदियों की तरफ देखकर बोला, "मायारानी की तरफ से इस समय मैं आप लोगों के पास यह कहने के लिए आया हूँ कि कल पहर दिन चढ़ने के पहले ही आप लोग इस दुनिया से उठा दिए जायेंगे। इसके अतिरिक्त अपनी तरफ से अफसोस के साथ आपको इत्तिला देता हूँ कि राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकान्ता को भी हमारी मायारानी ने गिरफ्तार कर लिया है। उन्हीं के सामने आप लोग मारे जायेंगे, और इसके बाद उन दोनों की भी जान ली जायगी।"

इस आदमी के आने के पहले कैदी लोग सुस्त और उदास बैठे हुए थे, मगर जब इस आदमी ने आकर ऊपर लिखी बातें कहीं तो सभी की अवस्था बदल गई। क्रोध से सभी का चेहरा लाल हो गया और बदन काँपने लगा, लेकिन उस आदमी की बात का जवाब किसी ने भी कुछ न दिया।

कैदियों को सन्देशा देने के बाद मायारानी का आदमी उस कोठरी में गया, जिसमें हथकड़ी और बेड़ी से बेबस बेचारी कामिनी कैद थी। थोड़ी ही देर बाद कामिनी को साथ लिए हुए वह आदमी बाहर निकला। उस समय सभी की निगाह उस बेचारी पर पड़ी। देखा कि रंज, गम और दुःख के मारे वह सूखकर काँटा हो गई है। मालूम होता है मानो वर्षों से बीमार है। सिर के बाल खुले और फैले हुए हैं, साड़ी मैली और खराब हो गई है, मगर भोलापन, खूबसूरती और नजाकत ने इस अवस्था में भी उसका साथ नहीं छोड़ा है। उसके दोनों हाथ बँधे थे, और वह बेड़ी के सबब से अच्छी तरह कदम नहीं उठा सकती थी। [ १७७ ]सभी को देखते-देखते कामिनी को साथ लिए हुए मायारानी का आदमी कैदखाने के बाहर चला गया और कैदखाने का दरवाजा फिर बन्द हो गया। ताली भरने की आवाज भी बहादुर कैदियों के कानों में पड़ी। यों तो वहाँ जितने कैदी थे, सभी क्रोध के मारे काँप रहे थे, मगर हमारे आनन्दसिंह की अवस्था कुछ और ही थी। एक तो अपने मां-बाप का हाल सुनकर जोश में आ ही चुके थे, दूसरे कामिनी को जो इस बेबसी के साथ कैदखाने के बाहर जाते देखा, और भी उबल पड़े, क्रोध सम्हाल न सके, उठके खड़े हो गए और जंगले वाली कोठरी में जिसमें कैद थे टहलने लगे। जिस जंगले वाली कोठरी में कुँअर इन्द्रजीतसिंह थे, वह आनन्दसिंह के ठीक सामने थी और ऐयार लोग भी उन्हें अच्छी तरह देख सकते थे। टहलने के साथ आनन्दसिंह के पैर की जंजीर बोली, जिससे सभी का ध्यान उनकी तरफ जा रहा।

इन्द्रजीतसिंह––आनन्द!

आनन्दसिंह––आज्ञा!

इन्द्रजीतसिंह––क्या बेबसी हम लोगों का साथ न छोड़ेगी?

आनन्दसिंह––बेशक छोड़ेगी, अब हम लोग इस अवस्था में कदापि नहीं रह सकते। हम लोग जंगली शेर नहीं हैं जो जंगले के अन्दर बन्द पड़े रहें।

इन्द्रजीतसिंह––(खड़े होकर) हाँ, ऐसा ही है, यह लोहे की तार अब हमें रोक नहीं सकती!

इतना कह के इन्द्रजीतसिंह ने इष्टदेव का ध्यान कर अपनी कलाई उमेठी, और जोर करके हथकड़ी तोड़ डाली। बड़े भाई की देखादेखी आनन्दसिंह ने भी वैसा ही किया। हथकड़ी तोड़ने के बाद दोनों ने अपने पैरों की बेड़ियाँ खोली, और तब जंगले के बाहर निकलने का उद्योग करने लगे। दोनों हाथों से लोहे का छड़ जो जंगले में लगा हुआ था पकड़ के और लात अड़ा के खींचने लगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि दोनों कुमार बड़े बहादुर और ताकतवर। छड़ टेढ़े हो-हो कर छेदों से बाहर निकलने लगे और बात-की-बात में दोनों शेर जंगले वाली कोठरी के बाहर निकल के खड़े हो गये दोनों गले मिले, और इसके बाद हर एक जंगले के छड़ों को निकालकर दोनों भाइयों ने अपने ऐयारों को भी छुड़ाया, और जोश में आकर बोले, "उद्योग से बढ़ के दुनिया में कोई पदार्थ नहीं!"

आनन्दसिंह––ईश्वर चाहेगा तो अब थोड़ी देर में हम लोग इस कैदखाने के बाहर भी निकल जायँगे।

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, अब हम लोगों को इसके लिए भी उद्योग करना चाहिए।

भैरोंसिंह––हम लोग जोर करके तहखाने का दरवाजा उखाड़ डालेंगे, और इसी समय कम्बख्त मायारानी के सामने जा खड़े होंगे।

ऐयारों को साथ लिए हुए दोनों भाई सदर दरवाजे के पास गये जो बाहर से बन्द था। यह दरवाजा चार अंगुल मोटे लोहे का बना था और इसकी मजबूत चूल भी जमीन में बहुत गहरी घुसी हुई थी। इसलिए पूरे दो घण्टे तक मेहनत करने पर भी कोई नतीजा न निकला। क्रोध में आकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने लोहे का छड़, जो [ १७८ ]जंगले में से निकला था उठा लिया, और बाईं तरफ की दीवार जो चूना और ईंटों से बनी हुई थी, तोड़ने लगे। उस समय ऐयारों ने दोनों भाइयों के हाथ से छड़ ले लिया, और दीवार तोड़ना शुरू किया।

पहर भर की मेहनत से दीवार में इतना बड़ा छेद हो गया कि आदमी उसकी राह बखूबी निकल जाय। भैरोंसिंह ने झाँककर देखा, उस तरफ बिल्कुल अँधेरा था और इस बात का ज्ञान जरा-भी नहीं हो सकता था कि दीवार के दूसरी तरफ क्या है। हम ऊपर लिख आए हैं कि इस कैदखाने में छत के सहारे शीशे की एक कन्दील लटकती थी। इस समय ऐयारों ने उसी कन्दील की रोशनी से काम लेना चाहा। तारासिंह ने भैरोंसिंह के कन्धे पर चढ़कर कन्दील उतार ली और उसे हाथ में लिए हए उस सूराख की राह दूसरी तरफ निकल गये। इनके पीछे दोनों कुमार और ऐयार लोग भी गए। अब मालूम हुआ कि यह कोठरी है जो लगभग तीस हाथ के लम्बी और पन्द्रह हाथ से कम चौड़ी है। कुमार तथा ऐयार लोग अगर बिना रोशनी के इस कोठरी में आते तो जरूर दुःख भोगते, क्योंकि यहाँ जमीन बराबर न थी, बीचोंबीच में एक कुआँ था और उसके चारों तरफ जमीन में चार दरवाजे बने हुए थे, जिनके देखने से मालूम होता था कि यहाँ कई तहखाने हैं, और ये दरवाजे नहीं, तहखानों के रास्ते हैं। इस समय उन दरवाजों के पल्ले जो लकड़ी के थे। अच्छी तरह देखने से मालूम हुआ कि नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, और उस कुएँ में भी लोहे की एक जंजीर लटक रही थी। इसके अतिरिक्त चारों तरफ की दीवारें बराबर थीं, अर्थात् किसी तरफ कोई दरवाजा न था, जिसे खोलकर ये लोग बाहर जाने की इच्छा करते।

इन्द्रजीतसिंह––मालूम होता है कि यहाँ आने या यहाँ से जाने के लिए इन तहखानों के सिवाय कोई राह नहीं है।

आनन्दसिंह––मैं भी यही समझता हूँ।

देवीसिंह––इन तहखानों में उतरे बिना काम न चलेगा।

तारासिंह––आज्ञा हो तो मैं रोशनी लेकर एक तहखाने में उतरूँ और देखूँ कि क्या है।

इन्द्रजीतसिंह––खैर, जाओ, कोई हर्ज नहीं।

आज्ञा पाकर तारासिंह एक तहखाने के मुँह पर गये, मगर जब नीचे उतरने लगे तो कुछ देखकर रुक गये। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने रुकने का सबब पूछा। जिसके जवाब में तारासिंह ने कहा, "इस तहखाने में रोशनी मालूम होती है और धीरे-धीरे वह रोशनी तेज होती जाती है। मालूम होता है कि सुरंग है, और कोई आदमी हाथ में बत्ती लिये इसी तरफ आ रहा है।"

दोनों कुमार और ऐयार लोग भी वहाँ गये और झाँककर देखने लगे। थोड़ी देर में दो कमसिन औरतें नजर पड़ीं, जो सीढ़ी के पास आकर ऊपर चढ़ने का इरादा कर रही थीं। एक के हाथ में मोमबत्ती थी, जिसे देखते ही कुमार ने पहचान लिया कि यह कमलिनी है, साथ में लाड़िली भी थी, मगर उसे वे पहचानते न थे। हाँ, जब कैदी बनकर मायारानी के दरबार में लाए गये थे, तो मायारानी की बगल में बैठे हुए [ १७९ ]उसे देखा था और समझते थे कि वह भी हम लोगों की दुश्मन है। इस समय कमलिनी के साथ उसे देखकर कुमार को शक मालूम हुआ, क्योंकि इन्द्रजीतसिंह कमलिनी को दोस्त समझते थे और दोस्त के साथ दुश्मन का होना बेशक खटके की बात है।

कमलिनी जब सीढ़ी के पास पहुँची तो ऊपर रोशनी देखकर रुक गई। साथ ही कुमार ने पुकार कर कहा, "डरो मत, ऊपर चली आओ, मैं हूँ इन्द्रजीतसिंह!"

कमलिनी ने कुमार की आवाज पहचान ली और लाड़िली को साथ लिये ऊपर चली आई, मगर दोनों कुमारों और उनके ऐयारों को वहाँ देखकर ताज्जुब करने लगी।

कमलिनी––आप लोग यहाँ कैसे आये?

इन्द्रजीतसिंह––यही बात मैं तुमसे पूछने वाला था!

कमलिनी––मैं तो आपको छुड़ाने के लिए आई हूँ, मगर मालूम होता है कि मेरे आने के पहले ही, किसी ने पहुँचकर आप लोगों को छुड़ा दिया।

देवीसिंह––कोई दूसरा नहीं आया, दोनों कुमारों ने स्वयं अपनी-अपनी हथकड़ी तोड़ डाली, जंगलों के सींखचे खींचकर बाहर निकल आये और हम लोगों को भी कैद। से छुड़ाया, इसके बाद दीवार तोड़ कर हम लोग अभी थोड़ी देर हुई इधर आये हैं!

कमलिनी––(हँसकर) बहादुर हैं, यह न ऐसा करेंगे तो दूसरा कौन करेगा!

इन्द्रजीतसिंह––हम एक बात तुमसे और पूछना चाहते हैं।

कमलिनी––आपका मतलब मैं समझ गई। (लाड़िली की तरफ देखकर) शायद इसके बारे में आप कुछ पूछेंगे!

इन्द्रजीतसिंह––हाँ ठीक है, क्योंकि इन्हें हमने उसके पास बैठा देखा था, जिसके फरेब ने हमारी यह दशा की है, और लोगों की बातों से यह भी मालूम हुआ कि उसका नाम मायारानी है।

कमलिनी––बहुत दिनों तक साथ रहने पर भी आपको मेरा भेद कुछ भी मालूम नहीं हुआ, मगर इस समय मैं इतना कह देना उचित समझती हूँ कि यह मेरी छोटी बहन है और मायारानी बड़ी बहिन है। हम तीनों बहिनें हैं। लेकिन अनबन होने के कारण मैं उससे अलग हो गई और आज इसने भी उसका साथ छोड दिया। आज से पहले वह मेरी ही दुश्मन थी, मगर आज से इसकी भी जिसका नाम लाड़िली है, जान की प्यासी हो गयी, मगर इतना सुनने पर भी मैं समझती हूँ कि आप मुझे अपना दुश्मन न समझते होंगे।

इन्द्रजीतसिंह––नहीं-नहीं, कदापि नहीं। मैं तुम्हें अपना हमदर्द समझता हूँ, तुमने मेरे साथ बहुत-कुछ नेकी की है।

कमलिनी––आप लोगों को छुड़ाने के लिए तेजसिंह भी यहाँ आये थे, मगर गिरफ्तार हो गये!

इन्द्रजीतसिंह––क्या तेजसिंह भी गिरफ्तार हो गये? लेकिन वे उस कैदखाने में नहीं लाये गये जहाँ हम लोग थे।

कमलिनी––वह दूसरी जगह रखे गये थे। मैंने उन्हें भी कैद से छुड़ाया है, अब थोड़ी ही देर में आप उनसे मिलना चाहते हैं। [ १८० ]आनन्दसिंह चुपचाप इन दोनों की बातें सुन रहे थे, और छिपी निगाहों से लाड़िली के रूप की अलौकिक छटा का भी आनन्द ले रहे थे। लाड़िली भी प्रेम की निगाहों से उन्हें देख रही थी। इस बात को कमलिनी ने भी जान लिया, मगर वह तरह दे गई। जब आनन्दसिंह ने तेजसिंह का हाल सुना तब चौंके और कमलिनी की तरफ देखकर बोले––

आनन्दसिंह––सुना है कि हमारे माता-पिता भी...

कमलिनी––हाँ, उन दोनों को भी कम्बख्त मायारानी ने फँसा लिया है! हाय, मैंने सुना है कि वे दोनों बेचारे बड़े संकट में हैं और सहज ही में उन दोनों का छूटना मुश्किल है, तथापि उद्योग में बिलम्ब न करना चाहिए। अब आप कोई सवाल न कीजिये और यहाँ से जल्द निकल चलिये।

राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकान्ता का हाल सुनकर सब के सब घबरा गये और आगे कुछ सवाल करने की हिम्मत न पड़ी। कुमार कमलिनी के साथ चलने के लिए तैयार हो गये और सभी को साथ लिए हए कमलिनी फिर उसी तहखाने में उतर गई, जहाँ से आई थी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह किशोरी का और आनन्दसिंह किशोरी का हाल पूछने के लिए बेचैन थे, मगर मौका न समझकर चुप रह गये।

नीचे जाने पर मालूम हुआ कि वह एक सुरंग का रास्ता था, मगर यह सुरंग साधारण न थी। इसकी चौड़ाई केवल इतनी थी कि दो आदमी बराबर मिलकर जा सकते थे। ऊँचाई की यह अवस्था थी कि हर एक मर्द हाथ ऊँचा करके उसकी छत छू सकता था। दोनों तरफ की दीवार स्याह पत्थर की थी, जिस पर तरह-तरह की खूबसूरत, भयानक और कहीं-कहीं आश्चर्यजनक तस्वीरें मुसौवरों की कारीगरी का नमूना दिखा रही थीं, अर्थात् रंगों से बनी थीं। पत्थर गढ़ कर नहीं बनाई गई थीं, परन्तु उन तस्वीरों के रंग की भी यह अवस्था थी कि अभी दो-चार दिन की बनी मालूम होती थीं जिन्हें देख हमारे कुमारों और ऐयारों को बहुत ही ताज्जुब मालूम हो रहा था।

कमलिनी––(इन्द्रजीतसिंह से) आप चाहते होंगे कि इन विचित्र तस्वीरों को अच्छी तरह देखें!

इन्द्रजीतसिंह––बेशक ऐसा ही है, किंतु इस दौडादौड़ में ऐसी उत्तन तस्वीरों के देखने का आनन्द कुछ भी नहीं मिल सकता और यहाँ की एक-एक तस्वीर ध्यान देकर देखने योग्य है, परन्तु क्या किया जाय, जबसे अपने माता-पिता का हाल तुम्हारी जुबानी सुना है, जी बेचैन हो रहा है, यही इच्छा होती है कि जहाँ तक जल्द हो सके, उनके पास पहुँचे और उन्हें कैद से छुड़ावें। तुम स्वयं कह चुकी हो कि वह बड़े संकट में पड़े हैं, परन्तु यह न जाना गया कि उन्हें किस प्रकार का संकट है!

कमलिनी––आपका कहना बहुत ठीक है, इन तस्वीरों को देखने के लिए बहुत समय चाहिए बल्कि इनका हाल और मतलब जानने के लिए कई दिन चाहिए, और यह समय यहाँ अटकने का नहीं है, मगर साथ ही इसके यह भी याद रखिये कि आप दो चार या दस घण्टे के अन्दर ठिकाने पहुँचकर भी अपने माता-पिता को नहीं छुड़ा सकते। मुझे ठीक-ठीक मालूम नहीं कि वह किस कैदखाने में कैद हैं, पहले तो इसी बात का पता

च॰ स॰-2-11

[ १८१ ]लगाने के लिए कई दिन नहीं तो कई पहर चाहिए।

इन्द्रजीतसिंह––तो क्या तुमने उन्हें अपनी आँखों से नहीं देखा?

कमलिनी––नहीं, मगर इतना जानती हूँ कि इस बाग के चौथे दर्जे में किसी ठिकाने वे कैद हैं।

इन्द्रजीतसिंह––क्या इस बाग के कई दर्जे हैं, जिसमें मायारानी रहती है और जहाँ हम लोग बेबस करके लाये गये थे?

कमलिनी––हाँ, इस बाग के चार दर्जे हैं। पहले में तो सिपाहियों और नौकरों के ठहरने का ठिकाना है, दूसरे दर्जे में स्वयं मायारानी रहती है, तीसरे और चौथे दर्जे में कोई नहीं रहता। हाँ, यदि कोई ऐसा कैदी हो जिसे बहुत ही गुप्त रखना मंजूर हो तो वहाँ भेज दिया जाता है। तीसरे और चौथे दर्जे को तिलिस्म कहना चाहिए, बल्कि चौथा दर्जा तो (काँपकर) ओफ, बड़ी-बड़ी भयानक चीजों से भरा हुआ है।

इन्द्रजीतसिंह––तो उसी चौथे दर्जे में हमारे माता-पिता कैद हैं?

कमलिनी––जी हाँ।

आनन्दसिंह––शायद तुम्हारी छोटी बहिन कुछ जानती हों जो तुम्हारे साथ हैं?

कमलिनी––नहीं-नहीं, यह बेचारी तीसरे और चौथे दर्जे का हाल कुछ भी नहीं जानती।

लाड़िली––बल्कि तीसरे और चौथे दर्जे का पूरा-पूरा हाल मायारानी को भी नहीं मालूम। कमलिनी बहिन को मालूम न था, मगर दो ही चार महीनों में ना मालूम क्योंकर वहाँ का विचित्र हाल इन्हें मालूम हो गया। देखिये, इसी सुरंग को जिसने हमें लोग जा रहे हैं, मायारानी भी नहीं जानती और मुझे तो इसका कुछ गुमान भी न था।

यहाँ पर कमलिनी के हाथ की वह मोमबत्ती जल कर पूरी हो गयी और कमलिनी ने उसे जमीन पर फेंक दिया। अब इस सुरंग में केवल उस कन्दील को रोशनी रह गई, जो ये लोग कैदखाने में से लाये थे और इस समय तारासिंह उसे अपने हाथ में लटकाये सभी के पीछे-पीछे आ रहे,थे। कमलिनी के कहे मुताबिक तारासिंह अब कन्दील लिए हुए आगे-आगे चलने लगे। लगभग बीस कदम जाने के बाद एक चौमुहानी मिली, अर्थात् वहाँ से चारों तरफ सुरंगें गई हुई थीं। कमलिनी ने रुककर इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखा और कहा, "अब यहाँ से अगर हम लोग चाहें तो इस तिलिस्मी मकान के बाहर निकल जा सकते हैं।"

इन्द्रजीतसिंह––यह सामने वाला रास्ता कहाँ गया है?

कमलिनी––बाग के तीसरे और चौथे दर्जे में जाने के लिए यही रास्ता है और बायीं तरफ वाली सुरंग उस दूसरे दर्जे में गई है, जिसमें मायारानी रहती है।

आनन्दसिंह और दाहिनी तरफ जाने से हम लोग कहाँ पहुँचेंगे?

कमलिनी––इस तिलिस्मी मकान या बाग से बाहर जाने के लिए वही राह है।

इन्द्रजीतसिंह––तो अब तुम हम लोगों को कहाँ ले जाना चाहती हो?

कमलिनी––जहाँ आप कहिए।

आनन्दसिंह––अगर मायारानी के बाग में ले चलो तो हम उसे इसी समय [ १८२ ]गिरफ्तार कर लें, इसके बाद सब काम सहज ही में हो जायगा।

कमलिनी––यह काम सहज नहीं है और इसके सिवाय जहाँ तक मैं समझती हूँ, मायारानी इस समय अपने कमरे में न होगी या यदि होगी भी तो हर तरह से होशियार होगी। केवल इतना ही नहीं वहाँ जाने से और भी कई प्रकार का धोखा है। एक तो उस बाग की चहारदीवारी के बाहर कूदकर या कमन्द लगाकर निकल जाना असंभव है, दूसरे उस बाग की हिफाजत के लिए पाँच सौ सिपाही मुकर्रर हैं जो हमेशा मुस्तैद और सहज ही मायारानी के पास पहुँच जाने के लिए तैयार रहते हैं। मायारानी को गिरफ्तार करके बाग के वाहर ले जाना कठिन है। मेरी समझ में तो आपको एक दफे यहाँ से बाहर निकल जाना चाहिए।

इन्द्रजीतसिंह––मगर मैं कुछ और ही चाहता हूँ।

कमलिनी––वह क्या?

इन्द्रजीतसिंह––यदि तुमसे हो सके तो हमें किसी ऐसी जगह ले चलो, जो इस बाग की सरहद के अन्दर हो और जहाँ दो-तीन रोज तक गुप्त रीति से हम लोग रह भी सकें।

कमलिनी––(कुछ सोचकर) हाँ, यह हो सकता है और इस राय को मैं भी पसंद कहती हूँ।

लाड़िली––(कमलिनी से) तुमने कौन-सी ऐसी जगह सोची है?

कमलिनी––ऐसी जगह बाग के तीसरे दर्जे में है, बल्कि चौथे दर्जे में भी है।

लाड़िली––चौथे दर्जे में जाकर दो-तीन दिन तक रहना उचित नहीं क्योंकि वह बड़ी भयानक जगह है, क्या तुम वहाँ के भेद अच्छी तरह जानती हो?

कमलिनी––हरे कृष्ण गोविन्द! वहाँ का हाल जानना क्या खिलवाड़ है? हाँ, एक मकान के अन्दर जाने का रास्ता जरूर मालूम है, जहाँ कोई दूसरा नहीं पहुँच सकता।

इन्द्रजीतसिंह––तो फिर उसी जगह हम लोगों को क्यों नहीं ले चलती हो?

कमलिनी––(कुछ सोचकर) हाँ, मुझे अब याद आया, इतनी‌ देर से व्यर्थ भटक रही हूँ। अच्छा आप लोग मेरे पीछे-पीछे चले आइये।

सभी को साथ लिए हुए कमलिनी रवाना हुई। थोड़ी दूर जाने के बाद एक बन्द दरवाजा मिला। वह दरवाजा लोहे का था। मगर यह नहीं मालूम होता था कि वह किस तरह खलेगा क्योंकि न तो उसमें कहीं ताली लगाने की जगह थी और न कोई जंजीर या कुंडी ही दिखाई देती थी। दरवाजे की दोनों बगल दीवार में तीन-तीन हाथ ऊँचे दो हाथी बने हुए थे। ये हाथी चाँदी के थे और इनके धड़ का अगला हिस्सा कुछ आगे की तरफ बढ़ा हुआ था। एक हाथी की सूँड में दूसरे हाथी की सूँड गुथी थी। इन दोनों हाथियों के अगले एक-एक पैर आगे बढ़े और कुछ जमीन की तरफ इस प्रकार मुड़े हुए थे, जिसके देखने से मालूम होता था कि दो सफेद हाथी क्रोध में आकर सूँड मिला रहे हैं और लड़ने के लिए तैयार हैं।

कमलिनी––एक ग्रन्थ के पढ़ने से मुझे मालूम हुआ कि यह दरवाजा कमानी के [ १८३ ]सहारे से खुलता और बन्द होता है और इसकी कमानी इन दोनों हाथियों के पेट में है, जिस पर दोनों सूँड़ों के दबाने से दबाव पहुँचता है, अस्तु यहाँ ताकत का काम है। इन दोनों सूँड़ों को जोर से साथ यहाँ तक झुकाना और दबाना चाहिए कि दरवाजे के साथ लग जायें। मैं देखना चाहती हूँ कि आपके ऐयारों में कितनी ताकत है।

देवीसिंह––अगर किसी आदमी के झुकाये यह झुक सकता है, तो पहले मुझे उद्योग करने दीजिए।

कमलिनी––आइये-आइये, लीजिये, मैं हट जाती हूँ।

देवीसिंह ने दोनों सूँड़ों पर हाथ रखा और छाती से अड़ाकर जोर किया, मगर एक बित्ते से ज्यादा न दबा सके और दरवाजा दो हाथ की दूरी पर था, इसलिए दो हाथ दबाकर ले जाने की आवश्यकता थी। आखिर देवीसिंह यह कहते हुए पीछे हटे, "यह राक्षसी काम है।"

इसके बाद और ऐयारों ने भी जोर किया, मगर देवीसिंह से ज्यादा कान न कर सके। तब कमलिनी कुमारों की तरफ देखकर हँसी और बोली, "सिवाय आप दोनों के यह काम किसी तीसरे से न हो सकेगा!"

आनन्दसिंह––(इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर) यदि आज्ञा हो तो मैं भी जोर करूँ?

इन्द्रजीतसिंह––क्या हर्ज है, तुम यह काम बखूबी कर सकते हो!

आज्ञा पाते ही कुँअर आनन्दसिंह ने दोनों सूँड़ों पर हाथ रख के जोर किया और पहले ही जोर में दरवाजे के साथ लगा दिया। यह हाल देखते ही लाड़िली ने जोश में आकर कहा, "वाह-वाह! कैद की मुसीबत उठाकर कमजोर होने पर भी यह हाल है!"

दरवाजे के साथ सूँड़ों का लगना था कि हाथियों के चिंघाड़ने की हलकी आवाज आई और दरवाजा जो एक ही पल्ले का था, सरसर करता जमीन के अन्दर घुस गया। कमलिनी ने आनन्द सिंह से कहा, "अब सूंड़ को पीछे की तरफ हटाइये, मगर पहले सूंड़ के नीचे से या उसके ऊपर से लाँघकर दूसरी तरफ निकल चलिए।

हाथ में कंदील लिए हुए पहले तारासिंह टप गये और दरवाजे के उस पार जा खड़े हुए, तब इन्द्रजीतसिंह दरवाजे के उस पार पहुँचे, उसके बाद कुँअर आनन्दसिंह जाना ही चाहते थे कि एक नई घटना ने सब खेल ही बिगाड़ दिया।

दरवाजे के उस पार एक आदमी न मालूम कब से छिपा बैठा था। उसने फुर्ती से आगे बढ़कर एक लात उस कन्दील में मारी जो तारासिंह के हाथ में थी। कंदील हाथ से छटकर जमीन पर तो न गिरी मगर बुझ गई और एकदम अन्धकार हो गया। यद्यपि यह काम उसने बड़ी फुर्ती से किया, तथापि इन लोगों की निगाह उस पर पड़ ही गई, लेकिन उसकी असली सूरत नजर न पड़ी क्योंकि वह काला कपड़ा पहने और अपने चेहरे को नकाब से छिपाये हुए था।

अँधेरा होते ही उसने दूसरा काम किया। भुजाली उसके पास थी जिसका एक भरपूर हाथ उसने कुँअर इन्द्रजीतसिंह के सिर पर जमाया। अंधेरे के सबब से निशाने [ १८४ ]में फर्क पड़ गया तो भी कुमार के बायें मोढ़े पर गहरी चोट बैठी। चोट खाते ही कुमार ने पुकारकर कहा, "सब कोई होशियार रहना! दुश्मन के हाथ में हर्बा है और वह मुझे जख्मी भी कर चुका है!"

यह हाल देख और सुनकर कमलिनी ने झट अपने तिलिस्मी खंजर से काम लिया। हम ऊपर लिख आये हैं कि उसकी कमर में दो तिलिस्मी खंजर हैं। उसने एक खंजर हाथ में लेकर उसका कब्जा दबाया और उसमें से बिजली की तरह चमक पैदा हुई जिससे कमलिनी के सिवाय जो आदमी वहाँ थे, कोई भी उस चमक को न सह सका और सभी ने अपनी-अपनी आँखें बन्द कर लीं।

दरवाजे के उस पार भी उसी तरह की सुरंग थी। कमलिनी ने देखा कि दुश्मन अपना काम करके सामने की तरफ भागा जा रहा है, मगर इस खंजर की चमक ने उसे भी चौंधिया दिया था। जिसका नतीजा यह हुआ कि कमलिनी बहुत जल्द ही उसके पास जा पहुँची और खंजर उसके बदन से लगा दिया, जिसके साथ ही वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। खंजर कमर में रखकर कमलिनी लौटी और उसने अपने बटुए में से सामान निकालकर एक मोमबत्ती जलाई तथा इतने में हमारे ऐयार लोग भी दरबाजे के दूसरी तरफ जा पहुँचे।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह के मोढ़े से खून निकल रहा था। यद्यपि कुमार को उसकी कुछ परवाह न थी और उनके चेहरे पर भी किसी प्रकार का रंज न मालूम होता था तथापि देवीसिंह ने जख्म बाँधने का इरादा किया, मगर कमलिनी ने रोककर अपने बटुए में से किसी प्रकार के तेल की एक शीशी निकाली और अपने नाजुक हाथों से घाव पर तेल लगाया, जिससे तुरन्त ही खून बन्द हो गया। इसके बाद अपने आँचल में से थोड़ा कपड़ा फाड़कर जख्म बाँधा। उसके अहसान ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह को पहले ही अपना कर लिया था, अब उसकी मुहब्बत और हमदर्दी ने उन्हें अच्छी तरह अपने काबू में कर लिया।

इन्द्रजीतसिंह––(कमलिनी से) तुम्हारे अहसानों के बोझ से मैं दबा ही जाता हूँ। (मुस्कुरा कर और धीरे से) देखना चाहिए, सिर उठाने का दिन भी कभी आता है या नहीं।

कमलिनी––(मुस्कुरा कर) बस, रहने दीजिये, बहुत बातें न बनाइये।

आनन्दसिंह––मालूम होता है, वह शैतान भाग गया।

कमलिनी––नहीं-नहीं, मेरे सामने से भाग कर निकल जाना जरा मुश्किल है, आगे चल कर आप उसे जमीन पर बेहोश पड़ा हुआ देखेंगे।

इन्द्रजीतसिंह––इस समय तो तुमने वह काम किया है जिसे करामात कहना चाहिए!

कमलिनी––मैं बेचारी क्या कर सकती हूँ, इस समय तो (खंजर की तरफ इशारा करके) इसने बड़ा काम किया।

इन्द्रजीतसिंह––बेशक यह अनूठी चीज है, इसकी चमक ने तो आँखें बन्द कर दी, कुछ देख भी न सके कि तुमने क्या किया। [ १८५ ]कमलिनी––यह तिलिस्मी खंजर है और इसमें बहुत से गुण हैं।

इन्द्रजीतसिंह––मैं सुनना चाहता हूँ कि इस खंजर में क्या-क्या गुण हैं। बल्कि और भी कई बातें पूछना चाहता हूँ मगर यकायक दुश्मन के पहुँचने से...

कमलिनी––खैर, ईश्वर की मर्जी, मैं खूब जानती हूँ कि सिवाय इस शैतान के और कोई यहाँ तक नहीं आ सकता, तिस पर भी इस दरवाजे को खोलने की इसे सामर्थ्य न थी, इसी से चुपचाप दुबका हुआ था। मगर फिर भी इसका यहाँ तक पहुँच जाना ताज्जुब मालूम होता है।

इन्द्रजीतसिंह––क्या तुम उसे पहचानती हो?

कमलिनी––हाँ, कुछ-कुछ शक तो होता है मगर निश्चय किये बिना कुछ नहीं कह सकती।

इन्द्रजीतसिंह––जो हो, मगर अब हम लोगों को यहाँ से निकल चलने के लिए जल्दी करनी चाहिए।

कमलिनी––पहले इस दरवाजे को बन्द कर लीजिये नहीं तो इस राह से दुश्मन के आ पहुँचने का डर रहेगा।

दरवाजे के दूसरी तरफ भी उसी प्रकार के दो हाथी बने हुए थे। कमलिनी के कहे मुताबिक आनन्दसिंह ने जोर से सूँड को दरवाजे की तरफ हटाया जिससे उस तरफ वाले हाथियों की सूँड ज्यों-की-त्यों सीधी हो गई और दरवाजा भी बन्द हो गया।

इन्द्रजीतसिंह––मालूम होता है कि इस तरफ से कोई दरवाजा खोलना चाहे तो इन हाथियों की सूँड़ों को, जो इस समय दरवाजे के साथ लगी हुई हैं, अपनी तरफ खींच कर सीधा करना पड़ेगा और ऐसा करने से उस तरफ के हाथियों की सूँड़ें दरवाजे के पास आ लगेंगी।

कमलिनी––आपका सोचना बहुत ठीक है, वास्तव में ऐसा ही है।

इन्द्रजीतसिंह––अच्छा, अब यहाँ से चल देना चाहिए, चलते-चलते इस खंजर का गुण भी कहो जिसकी करामात मैं अभी देख चुका हूँ।

कमलिनी––चलते-चलते कहने की कोई जरूरत नहीं, मैं इसी जगह अच्छी तरह समझा कर एक खंजर आपके हवाले करती हूँ।

उस खंजर में जो-जो गुण था उसके विषय में ऊपर कई जगह लिखा जा चुका है, कमलिनी ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह को सब समझाया और इसके बाद खंजर के जोड़ की अँगूठी उनके हाथ में पहना कर एक खंजर उनके हवाले किया, जिसे पाकर कुमार बहत प्रसन्न हुए।

लाड़िली––(कमलिनी से) एक खंजर छोटे कुमार को भी देना चाहिए।

कमलिनी––(मुस्कुरा कर) आपकी सिफारिश की कोई जरूरत नहीं है, मैं खुद एक खंजर छोटे कुमार को दूँगी।

आनन्दसिंह––कब?

कमलिनी––यह दूसरा खंजर उसी तरह का मेरे पास है। इसे मैं आपको अभी दे देती मगर इसलिए रख छोड़ा है कि आप ही के लिए इस घर में अभी कई तरह का [ १८६ ]काम करना है, शायद कभी दुश्मनों के...

आनन्दसिंह––नहीं-नहीं, यह खंजर, जो तुम्हारे पास रह गया है, लेकर मैं तुम्हें खतरे में नहीं डाल सकता, कल-परसों या दस दिन में जब मौका हो तब मुझे देना।

कमलिनी––जरूर दूँगी, अच्छा अब यहाँ से चलना चाहिए।

दोनों कुमारों और ऐयारों को साथ लिये हुए कमलिनी वहाँ से रवाना हुई और उस ठिकाने पहुँची जहाँ वह शैतान बेहोश पड़ा हुआ था जिसने कन्दील बुझा कर कुमार को जख्मी किया था। चेहरे पर से नकाब हटाते ही कमलिनी चौंकी और बोली, "हैं, यह तो कोई दूसरा ही है! मैं समझे हुए थी कि दारोगा, किसी तरह राजा वीरेन्द्रसिंह की कैद से छूट कर आ गया होगा, मगर इसे तो मैं बिल्कुल नहीं पहचानती। (कुछ रुक कर) उसने मेरे साथ दगा तो नहीं की कौन ठिकाना, ऐसे आदमी का विश्वास न करना चाहिए, मगर मैंने तो उसके साथ..."

ऊपर लिखी बातें कह कमलिनी चुप हो गई और थोड़ी देर तक किसी गम्भीर चिन्ता में डूबी-सी दिखाई पड़ी। आखिर कुँअर इन्द्रजीतसिंह से रहा न गया, धीरे से कमलिनी की उँगली पकड़ कर बोले––

इन्द्रजीतसिंह––तुन्हें इस अवस्था में देख कर मुझे जान पड़ता है कि शायद कोई नयी मुसीबत आने वाली है जिसके विषय में तुम कुछ सोच रही हो।

कमलिनी––हाँ, ऐसा ही है, मेरे कामों में विघ्न पड़ता दिखाई देता है। अच्छा मर्जी परमेश्वर की! आपके लिए कष्ट उठाना क्या, जान तक देने को तैयार हूँ। (कुछ रुक कर) अब देर करना उचित नहीं, यहाँ से निकल ही जाना चाहिए।

इन्द्रजीतसिंह––क्या मायारानी के अनूठे बाग के बाहर निकलने को कहती हो?

कमलिनी––हाँ।

इन्द्रजीतसिंह––मैं तो सोचे हुए था कि माता-पिता को छुड़ा कर तभी यहाँ से जाऊँगा।

कमलिनी––मैंने भी यही निश्चय किया था, परन्तु अब क्या किया जाय, सब के पहले अपने को बचाना उचित है, यदि आप ही आफत में फँसेंगे तो उन्हें कौन छुड़ायेगा!

इन्द्रजीतसिंह––यहाँ की अद्भुत बातों से मैं अनजान हूँ इसलिए जो कुछ करने को कहोगी करना ही पड़ेगा, नहीं तो मेरी राय तो यहाँ से भागने की न थी, क्योंकि जब मेरे हाथ-पैर खुले हैं और सचेत हूँ तो एक क्या पाँच सौ से भी डर नहीं सकता। जिस पर तुम्हारा दिया हुआ यह अनूठा तिलिस्मी खंजर पाकर तो साक्षात् काल का भी मुकाबला करने से बाज न आऊँगा।

कमलिनी––आपका कहना ठीक है, मैं आपकी बहादुरी को अच्छी तरह जानती हूँ, परन्तु इस समय नीति यही कहती है कि यहाँ से निकल जाओ।

इन्द्रजीतसिंह––अगर ऐसा ही है तो चलो मैं चलता हूँ।(धीरे-से कान में) तुम्हारी बुद्धिमानी पर मुझे डाह होता है।

कमलिनी––(धीरे से) डाह कैसा?

इन्द्रजीतसिंह––(दो कदम आगे ले जाकर) डाह इस बात का कि वह बड़ा ही [ १८७ ]भाग्यशाली होगा जिसके तुम पाले पड़ोगी।

इसके जवाब में कमलिनी ने कुमार को एक हल्की चुटफी काटी और धीरे से कहा, "मुझे तो तुमसे बढ़ कर भाग्यशाली कोई दिखाई नहीं पड़ता मगर...!"

आह, कमलिनी की इस बात ने तो कुमार को फड़का दिया लेकिन इस 'मगर' के शब्द ने भी बड़ा अंधेर किया जिसका सबब हमारे मनचले पाठक स्वयं समझ जायँगे क्योंकि वे कमलिनी और कुँअर इन्द्रजीतसिंह की पहली बातें अभी भूले न होंगे, जो तालाब के बीच वाले उस मकान में हुई थीं जहाँ कमलिनी रहा करती थी।

कमलिनी––(देवीसिंह से) इस आदमी को जो बेहोश पड़ा है उठा के ले चलना चाहिए।

देवीसिंह––हाँ-हाँ, इसे मैं उठाकर ले चलूँगा।

इद्रजीतसिंह––शायद हम लोगों को फिर लौटना पड़े क्योंकि बाहर निकलने का रास्ता पीछे छोड़ आये हैं।

कमलिनी––हाँ, सुगम रास्ता तो यही था मगर अब मैं उधर न जाऊँगी। कौन ठिकाना हाथी वाले दरवाजे के उस तरफ दुश्मन लोग आ गये हों, क्योंकि कैदखाने की दीवार आप तोड़ ही चुके हैं और उधर वाली सुरंग का मुँह खुला रहने के कारण किसी का आना कठिन नहीं है।

इन्द्रजीतसिंह––तब दूसरी राह कौन-सी है? क्या उधर चलोगी जिधर से यह दुश्मन आया है?

कमलिनी––नहीं, उधर भी दुश्मनों का गुमान है, आइये मैं एक और ही राह से ले चलती हूँ।

आगे-आगे कमलिनी और उसके पीछे दोनों कुमार और ऐयार लोग रवाना हए।

यहाँ भी दोनों तरफ दीवारों पर सुन्दर तस्वीरें बनी हुई थीं। दस-बारह कदम आगे जाने के बाद बगल की दीवार पर एक छोटा-सा खुला हुआ दरवाजा था जिसे देख कर कमलिनी ने इन्द्रजीतसिंह से कहा, "यह आदमी इसी राह से आया होगा, क्योंकि अभी तक दरवाजा खुला हुआ है, मगर मैं दूसरी ही राह से चलूँगी जो जरा कठिन है।"

कुमार––मैं तो कहता हूँ कि इसी राह से चलो। दरवाजे पर दस-पाँच दुश्मन मिल ही जायँगे तो क्या होगा।

कमलिनी––खैर, तब चलिये।

सब कोई उस राह से बाहर हुए और कमलिनी ने उस दरवाजे को जो एक खटके के सहारे खुलता और बन्द होता था बन्द कर दिया। उस तरफ भी थोड़ी दूर सूरंग में ही जाना पड़ा। जब सुरंग का अन्त हुआ तो छोटी-छोटी सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ने के लिए मिलीं। कमलिनी ने ऊपर की तरफ देखा और कहा, "यहाँ का दरवाजा तो बन्द है।" सबके आगे कमलिनी और फिर दोनों कुमार और ऐयार लोग ऊपर चढ़े। ये सीढ़ियाँ घूमती हुई ऊपर गई थीं, मालूम होता था कि किसी बुर्ज पर चढ़ रहे हैं।

जब सीढ़ियों का अन्त हुआ तो एक चक्कर पहिए की तरह बना हुआ दिखाई दिया जिसे कमलिनी ने चार-पाँच दफे घुमाया। खटके की आवाज के साथ पत्थर की [ १८८ ]चट्टान अलग हो गई और सभी लोग उस राह से निकल कर बाहर मैदान में दिखाई देने लगे। बाहर सन्नाटा देख कर कमलिनी ने कहा, "शुक्र है कि यहाँ हमारा दुश्मन कोई नहीं दिखाई देता।"

जिस राह से कुमार और ऐयार लोग बाहर निकले वह पत्थर का एक चबूतरा था, जिसके ऊपर महादेव का लिंग स्थापित था। चबूतरे के नीचे की तरफ का बगल वाला पत्थर खुल कर जमीन के साथ सट गया था और वही बाहर निकलने का रास्ता बन गया था। लिंग की बगल में तांबे का बड़ा-सा नन्दी (बैल) बना हुआ था और उसके मोढ़े पर लोहे का एक सर्प कुण्डली मारे बैठा था। कमलिनी ने साँप के सिर को दोनों हाथ से पकड़ कर उभाड़ा और साथ ही नन्दी ने मुँह खोल दिया, तब कमलिनी ने उसके मुँह में हाथ डाल कर कोई पेंच घुमाया। वह पत्थर की चट्टान जो अलग हो गई थी फिर ज्योंकी-त्यों हो गई और सुरंग का मुँह बन्द हो गया। कमलिनी ने साँप के फन को फिर दबा दिया और बैल ने भी अपना मुँह बन्द कर लिया।

इन्द्रजीतसिंह––(कमलिनी से) यह दरवाजा भी अजब तरह से खुलता और बन्द होता है।

कमलिनी––हाँ, बड़ी कारीगरी से बनाया गया है।

इन्द्रजीतसिंह––इसके खोलने और बन्द करने की तरकीब मायारानी को मालूम होगी?

कमलिनी––जी हाँ, बल्कि (लाड़िली की तरफ इशारा करके) यह भी जानती है, क्योंकि बाग के तीसरे दर्जे में जाने के लिए यह भी एक रास्ता है जिसे हम तीनों बहिनें जानती हैं, मगर उस हाथीवाले दरवाजे का हाल, जिसे आपने खोला था, सिवाय मेरे और कोई भी नहीं जानता।

आनन्दसिंह––यह जगह बड़ी भयानक मालूम पड़ती है!

कमलिनी––जी हाँ, यह पुराना मसान है और गंगाजी भी यहाँ से थोड़ी ही दूर पर हैं। किसी जमाने में जब का यह मसान है, गंगाजी इसी जगह पास ही में बहती थीं मगर अब कुछ दूर हट गईं और इस जगह बालू पड़ गया है।

आनन्दसिंह––खैर, अब क्या करना और कहाँ चलना चाहिए?

कमलिनी––अब हमको गंगा पार होकर जमानिया में पहुँचना चाहिए। वहाँ मैंने एक मकान किराये पर ले रवखा है जो बहुत ही गुप्त स्थान में है, उसी में दो-तीन दिन रह कर कार्रवाई करूँगी।

इन्द्रजीतसिंह––गंगा के पार किस तरह जाना होगा?

कमलिनी––थोड़ी ही दूर पर गंगा के किनारे एक किश्ती बँधी हुई है जिस पर मैं आई थी, मैं समझती हूँ वह किश्ती अभी तक वहाँ ही होगी।

सवेरा होने में कुछ विलम्ब न था। मन्द-मन्द दक्षिणी हवा चल रही थी और आसमान पर केवल दस-पाँच तारे दिखाई पड़ रहे थे जिनके चेहरे की चमक-दमक चलाचली की उदासी के कारण मन्द पड़ती जा रही थी, जब कि कमलिनी और कुमार [ १८९ ]इत्यादि सब कोई वहाँ से रवाना हुए और उसी किश्ती पर सवार होकर जिसका जिक्र कमलिनी ने किया था, गंगा पार हो गये।