चन्द्रकांता सन्तति 3/12.10

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चंद्रकांता संतति भाग 3  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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अब रोहतासगढ़ किले के अन्दर राजा वीरेन्द्रसिंह की सवारी आई है जिससे यहाँ की रिआया बहुत ही प्रसन्न है। छोटे-छोटे बच्चे भी उनके आने की खुशी में मग्न हो रहे हैं। इसका सबब यही है कि राजा वीरेन्द्रसिंह जब जहाँ रहते है खैरात का दरवाजा वहाँ खुला रहता है। यों तो जहाँ इनकी अमलदारी है, बराबर खैरात हुआ ही करती है मगर जहाँ ये स्वयं मौजद रहते हैं खैरात ज्यादा हुआ करती है। खैरात का मकान और बन्दोबस्त अलग है। कोई आदमी वापस नहीं जाने पाता और जिसको जिस चीज की जरूरत होती है दी जाती है। तीन वर्ष से ऊपर और बारह वर्ष से कम उम्र वाले लड़कों को मिठाई बांटने का हकम है और तीन वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों को चीनी के खिलौने बांटे जाते हैं। चीनी के खिलौने मिठाइयाँ और साथ ही इसके कपड़ों का बाँटना तभी तक जारी रहता है जब तक राजा वीरेन्द्रसिह स्वयं मौजूद रहते हैं, और अन्न तो हमेशा बँटा करता है। यही सबव है कि आज रोहतासगढ़ के छोटे-छोटे बच्चों को भी हद से ज्यादा खुशी है और वे झुण्ड-के-झुण्ड इधर-उधर घूमते दिखाई दे रहे हैं।

आज यह खबर बहुत अच्छी तरह मशहूर हो रही है कि मायारानी नामी एक औरत और 'दारोगा बाबा' नामी एक मर्द इस किले में गिरफ्तार हुए हैं, जो वीरेन्द्रसिंह के दुश्मन हैं और भूतनाथ नामी कोई ऐयार गिरफ्तार किया गया है, जिसके मुकदमे का फैसला करने के लिए राजा साहव स्वयं आये हैं। ये खबरें किसी एक ढंग पर मशहर नहीं है बल्कि तरह-तरह का पलेथन लगाकर लोग इनकी चर्चा कर रहे हैं और राजा वीरेन्द्रसिंह के दुश्मनों को जी-जान से गालियाँ दे रहे हैं।

राजा वीरेन्द्रसिंह के आने के साथ ही उनके ऐयारों ने एक-एक करके वे कूल बातें बयान कर दीं, जो आज के पहले हो चकी थीं और जिन्हें राजा वीरेन्द्रसिंह नहीं जानते थे। भूतनाथ का हाल सुनकर उन्हें बड़ा ही रंज हुआ क्योंकि कमला को वे अपनी लड़की की तरह प्यार करते थे। खैर, सब बातों को सुन-सुनाकर राजा वीरेन्द्रसिंह महल में गए और कमलिनी, लाडिली और कमला इत्यादि से इस तरह मिले जैसे बड़े लोग अपनी लड़कियों और भतीजियों से मिला करते हैं और उन सभी ने भी वैसी ही मुहब्बत और इज्जत का बरताव किया जैसा नेकचलन लडकियाँ अपने माता-पिता के साथ करती हैं।

सभी को प्यार और दिलासा देकर राजा वीरेन्द्रसिंह वाहर आये और आज का दिन तेजसिह से सलाह-विचार करने में बिताया। दूसरे दिन दोपहर के बाद शेरअलीखाँ से मुलाकात की और घण्टे भर रात जाने के बाद भूतनाथ का मुकदमा सुनने का विचार [ २३९ ]प्रकट करके कहा कि मायारानी तथा दारोगा का मुकदमा भूतनाथ के बाद सुना जायेगा।

राजा वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से यह भी कह दिया कि भूतनाथ का मुकदमा महल के अन्दर सुना जायेगा और उस समय हमारे ऐयारों के सिवाय यहाँ किसी गैर के रहने की जरूरत नहीं है। औरतों में भी सिवाय लड़कियों के जो चिक के अन्दर बैठाई जायेंगी, कोई लौंडी इतना नजदीक न रहने पावे कि हम लोगों की बातें सुने, और बल- भद्रसिंह की गद्दी हमारे पास ही बिछाई जाये।

हमारे पाठक सवाल कर सकते हैं कि जब मुकदमा सुनने के समय ऐयारों के सिवाय किसी गैर आदमी के मौजूद रहने की मनाही कर दी गई तो किशोरी, कमलिनी और लक्ष्मीदेवी इत्यादि को पर्दे के अन्दर बैठाने की क्या जरूरत थी? इसका जवाब यह हो सकता है कि ताज्जुब नहीं, राजा वीरेन्द्रसिंह ने सोचा हो कि जिस समय भूतनाथ का मुकदमा सुना जायेगा और उसके ऐबों को पोटलियाँ खोलने के साथ-साथ सबूत की चिट्ठियाँ अर्थात् वह जन्मपत्री पढ़ी जायेगी, जो बलभद्रसिंह ने दी है तो वेशक लड़कियों के दिल पर चोट बैठेगी और उनके चेहरे तथा अंगों से उनकी अवस्था अवश्य प्रकट होगी कौन ठिकाना कोई चीख उठे, कोई बदहवास हो के गिर पड़े, या किसी से किसी तरह की वेअदबी हो जाये, तो यह अच्छी बात न होगी। बड़ों के सामने अनुचित काम बेबसी की अवस्था में हो जाने से दिल को रंज पहुँचेगा और यदि ऐसा न भी हुआ तो भी दिल की अवस्था छिपाने के लिए उन्हें बहुत उद्योग करना पड़ेगा तथा उनके नाजुक कलेजे को तकलीफ पहुँचेगी, जिससे वह लज्जित होगी। इससे इन लोगों का परदे के अन्दर ही बैठना उचित होगा। बेशक यही बात है और बड़ों को ऐसा खयाल होना ही चाहिए!

रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। महल के एक छोटे से मगर दोहरे दालान में रोशनी अच्छी तरह हो रही है। दालान के पहले हिस्से में बारीक चिक का परदा गिरा हुआ है और भीतर पूरा अंधकार है। किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाड़िली और कमला उसी के अन्दर बैठी हुई हैं। वाहरी हिस्से में जिसमें रोशनी बखूबी हो रही है, राजा वीरेन्द्रसिंह की गद्दी लगी हुई है, उनके बगल में बलभद्रसिंह बैठे हुए हैं, दूसरी बगल में कागजों की गठरी लिए हुए तेजसिंह विराजमान हैं, और बाकी के ऐयार लोग (भैरोंसिंह को छोड़ के) दोनों तरफ दिखाई दे रहे हैं तथा सभी की निगाहें सामने के मैदान पर पड़ रही हैं जिधर से हथकड़ी-वेड़ी से मजबूर भूतनाथ को लिए हुए देवीसिंह चले आ रहे हैं। भूतनाथ ने आने के साथ ही झुक कर राजा वीरेन्द्रसिंह को सलाम किया और कहा।

भूतनाथ―व्यर्थ ही बात का बतंगड़ बनाकर मुझे साँसत में डाल रखा गया है, मगर भूतनाथ ने भी जिसने आप लोगों को खुश रखने के लिए कोई बात उठा नहीं रखी इस बात का प्रण कर लिया था कि जब तक राजा वीरेन्द्रसिंह का सामना न होगा, अपने मुकदमे की उलझन को खुलने न देगा।

वीरेन्द्रसिंह―बेशक इस बात का मुझे भी बहुत रंज है कि उस के ऊपर एक भारी जुर्म ठहर गया है, जिसकी कार्रवाइयों को सुन-सुनकर हम खुश होते थे और जिसे मुहब्बत की निगाह से देखने की अभिलाषा रखते थे। [ २४० ]भूतनाथ―अगर महाराज को इस बात का रंज है तो महाराज निश्चय रखें कि भूतनाथ महाराज की नजरों से दूर किए जाने लायक साबित नहीं होगा। (इधर-उधर और पीछे की तरफ देख के) मगर अफसोस, हमारा मददगार अभी तक नहीं पहुँचा, न मालूम कहाँ अटक रहा!

इतने में सामने की तरफ से वही जिन्न आता हुआ दिखाई पड़ा, जिसे तेजसिंह पहले देख चुके थे और जिसका हाल राजा वीरेन्द्रसिंह से भी कह चुके थे। इस जिन्न की चाल आजाद, बेफिक्र और निडर लोगों की-सी थी जो धीरे-धीरे चलकर उसी दालान में आ पहुँचा और चुपचाप एक किनारे खड़ा हो गया।

उसके रंग-ढंग और उसकी पोशाक का हाल हम एक जगह बयान कर आए हैं, इसलिए पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। यद्यपि जिन्न आश्चर्यजनक रीति से यकायक वहाँ आ पहुँचा था और उसको इस बात का गुमान था कि हमारा आना लोगों को बड़ा ही आश्चर्यजनक मालूम होगा, मगर ऐसा न था क्योंकि तेजसिंह को इस बात की खबर पहले ही दिन हो चुकी थी जब वे जिन्न और भूतनाथ के पीछे-पीछे जाकर उनकी बातें सुन आये थे और तेजसिंह ने यह हाल राजा वीरेन्द्रसिंह, अपने साथियों और कमलिनी, लक्ष्मीदेवी वगैरह से भी कह दिया था, अतएव जिन्न के आने का सब कोई इन्तजार ही कर रहे थे और जब वह आ गया, तो सब उसकी सूरत गौर से देखने लगे। वीरेन्द्रसिंह का इशारा पाकर देवीसिंह ने उस जिन्न से पूछा―

देवीसिंह―महाराज की इच्छा है कि तुम अपना नाम और यहाँ आने का सबब बताओ।

जिन्न―मेरा नाम कृष्ण जिन्न है और मैं भूतनाथ का विचित्र मुकदमा सुनने तथा अपने एक पुराने मित्र से मिलने आया हूँ।

देवीसिंह―(आश्चर्य से) क्या भूतनाथ के अतिरिक्त कोई दूसरा आदमी भी तुम्हारा मित्र है?

जिन्न―हाँ।

देवीसिंह―और वह है कहाँ?

जिन्न―इसी जगह, आप लोगों के बीच ही में।

देवीसिंह―अगर ऐसा है तो तुम उसे अपने पास बुलाओ और बातचीत करो।

जिन्न—इससे आपको कोई मतलब नहीं, जब मौका आवेगा ऐसा किया जाएगा।

देवीसिंह―ताज्जुब है कि तुम किसी का कुछ खयाल न करके बेअदबी के साथ बातचीत करते हो! क्या हम लोगों के साथ तुम्हें किसी तरह की दुश्मनी या रंज है? या दुश्मनी पैदा करना चाहते हो?

जिन्न―दुश्मनी बिना डाह, डर और रंज के पैदा नहीं होती और हमारे को ये तीनों बात छू नहीं गई हैं। न तो हमें किसी का डर है न किसी को डराने की इच्छा है, न किसी को कुछ देते हैं और न किसी से कुछ चाहते हैं, न कोई हमारा कुछ बिगाड़ सकता है न हम किसी का कुछ बिगाड़ते हैं, न हमें किसी बात की कमी है न लालसा है, फिर ऐसी अवस्था में किसी से दुश्मनी या रंज की नौबत हो भी क्योंकर सकती है? अतः [ २४१ ]आप लोगों को यही चाहिए कि हमारा खयाल छोड़कर अपना काम करें और हमारा होना न होना एक बराबर समझें।

जिन्न की बातों से सभी को बड़ा ही आश्चर्य और रंज हुआ, बल्कि हमारे कई ऐयारों को क्रोध भी चढ़ आया, मगर राजा वीरेन्द्रसिंह का इशारा पाकर सभी को चुप और शान्त होना ही पड़ा। वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखकर भूतनाथ का मुकदमा शुरू करने के लिए कहा और तेजसिंह ने ऐसा ही किया।

तेजसिंह ने भूमिका के तौर पर थोड़ा-सा पिछला हाल कह कर वह गठरी खोली जिसमें पीतल की एक सन्दूकड़ी और कागज का वह मुट्ठा भी था जिसमें की कई चिट्ठियाँ कमलिनी वगैरह के सामने पढ़ी जा चुकी थीं। तेजसिंह उन चिट्ठियों को पढ़ गये, जिनका हाल हमारे पाठकों को मालूम हो चुका है और इसके बाद अगली चिट्ठी पढ़ने का इरादा किया, मगर जिन्न ने उसी समय टोक दिया और कहा, “यदि महाराज साहब उचित समझें, तो दारोगा और मुन्दर को भी जिसने अपने को मायारानी के नाम से मशहूर कर रखा है और जो इस समय सरकार के कब्जे में है इसी जगह बुलवा लें और चिट्ठियों को उनके सामने पुनः पढ़ने की आज्ञा दें। यद्यपि यहाँ पर शेरअलीखाँ के आने की भी आवश्यकता है परन्तु मौके-मौके पर कई बातें ऐसी प्रकट होंगी, जिनका हाल शेरअलीखाँ को मालूम होने देना हम उचित नहीं समझते।"

यद्यपि जिन्न ने बेमौके टोक दिया था और राजा वीरेन्द्रसिंह तथा हमारे ऐयारों को इस बात का रंज होना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हुआ, बल्कि सभी ने जिन्न की बात पसन्द की और महाराज ने मायारानी को हाजिर करने का हुक्म दिया। तारासिंह गए और थोड़ी ही देर में मायारानी और दारोगा को इस तरह लिए हुए आ पहुँचे, जिस तरह अपनी जान से हाथ धोए और जिद्दी कैदियों को घसीटते हुए लाना पड़ता है। जिस समय मुन्दर वहाँ आई, उसने घबराहट के साथ चारों तरफ देखा। सबसे ज्यादा देर तक उसकी निगाह जिस पर अड़ी रही, वह बलभद्रसिंह था, और बलभद्रसिंह ने भी मायारानी को बड़े गौर से देर तक देखा। जिन्न ने इस समय पुनः टोका और राजा वीरेन्द्रसिंह से कहा, "आशा है कि हमारे होशियार और नीति-कुशल महाराज मुन्दर और बलभद्रसिंह की आँखों को बड़े ध्यान और गूढ़ विचार से देख रहे होंगे!"

जिन्न की इस बात ने होशियारों और बुद्धिमानों के दिल में एक नया ही रंग पैदा कर दिया और तेजसिंह तथा वीरेन्द्रसिंह ने मुस्कुराते हुए जिन्न की तरफ देखा। इसी समय भैरोंसिंह भी आ पहुँचे जिन्हें तेजसिंह कुछ समझा-बुझाकर आज दो दिन हुए बाग के उस हिस्से में छोड़ कर आये थे जिसमें मायारानी गिरफ्तार की गई थी। भैरोंसिंह के हाथ में एक छोटा-सा पुर्जा था जिसे उन्होंने तेजसिंह के हाथ में रख दिया और तब मुस्कुराते हुए जिन्न की तरफ देखा। भैरोंसिंह को देख जिन्न के दाँत भी हँसी से दिखाई दे गए, मगर उसने अपने को रोका और भैरोंसिंह की तरफ से मुँह फेर लिया। तेजसिंह ने इस पुर्जे को पढ़ा और हँसकर राजा वीरेन्द्रसिंह के हाथ में दे दिया। राजा वीरेन्द्रसिंह भी पढ़कर हँस पड़े और जिन्न तथा भैरोंसिंह की तरफ देखने लगे।

इस समय सभी की इच्छा यह जानने की हो रही थी कि भैरोंसिंह ने जो पुर्जा [ २४२ ]तेजसिंह को दिया उसमें क्या लिखा हुआ था और राजा वीरेन्द्रसिंह उसे पढ़कर और जिन्न की तरफ देखकर क्यों हँस पड़े? और इसी तरह जिन्न भैरोंसिंह को और भैरोसिंह जिन्न को देखकर क्यों हँसे? असल भेद न किसी को मालूम हुआ न कोई पूछ ही सका।

जब जिन्न ने मायारानी और बलभद्रसिंह की देखा-देखी के बारे में आवाजं कसी, उस समय मायारानी ने बलभद्रसिंह की तरफ से आँखें फेर लीं, मगर बलभद्रसिंह केवल आँख वचाकर चुप न रह गया बल्कि उसने क्रोध में आकर जिन्न से कहा―

बलभद्रसिंह―एक तो तुम बिना बुलाए यहाँ पर चले आए जहाँ आपस की गुप्त बातों का मामला पेश है, दूसरे तुमसे जो कुछ पूछा गया, उसका जवाब तुमने बेअदबी और ढिठाई के साथ दिया, तीसरे अब तुम बात-बात पर टोका-टाकी करने और आवाजें भी कसने लगे! आखिर कोई कहाँ तक ये हरकतें बरदाश्त करेगा? तुम हम लोगों की बातों में बोलने वाले कौन?

जिन्न―(क्रोध और जोश में आकर) हमें भूतनाथ ने अपना मुख्तार बनाया है, इसलिए हम इस मामले में बोलने का अधिकार रखते हैं, हाँ, यदि राजा साहब हमें चुप रहने की आज्ञा दें तो हम अपनी जवान बन्द कर सकते हैं। (कुछ रुककर) मगर मैं अफसोस के साथ कहता हूँ कि क्रोध और खुदगर्जी ने तुम्हारी बुद्धि के आईने को गँदला कर दिया है और निर्लज्जता की सहायता से तुम बोलने में तेज हो गये हो। इतना भी नही सोचते कि इतने बड़े रोहतासगढ़ किले के अन्दर बल्कि महल के बीच में जो बेखौफ घुस आया है वह किसी तरह की ताकत भी रखता होगा या नहीं! (राजा वीरेन्द्रसिंह और ऐयारों की तरफ इशारा करके) जो ऐसे-ऐसे वहादुरों और बुद्धिमानों के सामने बिना बुलाए आने पर भी ढिठाई के साथ वाद-विवाद कर रहा है, वह किसी तरह की कुदरत भी रखता होगा या नहीं! मैं खूब जानता हूँ कि नेक, ईमानदार, निर्लोभ और लापरवाह आदमी को राजा वीरेन्द्रसिंह ऐसे बहादुर और तेजसिंह ऐसे चालाक आदमी भी कुछ नहीं कह सकते, तुम्हारे ऐसों की तो हकीकत ही क्या जिसने बेईमानी, लालच, दगाबाजी और बेशर्मी के साथ ही-साथ पापों की भारी गठरी अपने सिर पर उठा रखी है और उसके बोझ से घुटने तक जमीन के अन्दर गड़ा हुआ है। मैं इस बात को भी खूब समझता हूँ कि मेरी इस समय की बातचीत लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को जो इस पर्दे के अन्दर बैठी हुई सब-कुछ देख सुन रही हैं बहुत वुरी मालूम होती होगी, मगर उन्हें धीरज के साथ देखना चाहिए कि हम क्या करते हैं। हाँ मुझे अभी बहुत-कुछ कहना है और मैं चुप नहीं रह सकता क्योंकि तुमने लज्जा से सिर झुका लेने के बदले में बेशर्मी अख्तियार कर ली है और जिस तरह अबकी दफे टोका है उसी तरह आगे भी बात-बात मुझे टोकने का इरादा कर लिया है, मगर खूब समझ रखो कि राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों की बातें मैं इसलिए सह लूँगा कि ये लोग किसी के साथ सिवाय भलाई के बुराई करने वाले नहीं हैं जब तक कोई कम्बख्त इन लोगों को व्यर्थ न सतावे, और ये नेक तथा बद को पहचानने की भी बुद्धि रखते हैं, मगर तुम्हारे ऐसे बेईमान और पापी की बातें मैं सह नहीं सकता। भूतनाथ पर एक भारी इल्जाम लगाया गया है और भूतनाथ का मैं मुख्तार हूँ, इससे मेरी इज्जत में कमी नहीं आ सकती। तुम लक्ष्मीदेवी, [ २४३ ]
कमलिनी और लाड़िली के वाप बनकर अपने को बराबरी का दर्जा दिया चाहते हो, मगर ऐसा नहीं हो सकता। अगर भूतनाथ दोषी है तो तुम भी मुँँह दिखाने के लायक नहीं हो। समझ रखो और खूब समझ रखो कि चाहे आज ही या दो दिन के बाद हो, भूतनाथ की इज्जत तुमसे बढ़ी ही रहेगी! (भूतनाथ की तरफ़ देखकर) क्यों जी भूतनाथ, तुम क्यों इससे दबे जाते हो? तुम्हें किस बात का डर है?

भूतनाथ―(पीतल की सन्दूकड़ी की तरफ इशारा करके) वस केवल इसी का डर है, और इस कागज के मुढे को तो मैं कुछ भी नहीं समझता, इसकी इज्जत तो मेरे सामने इतनी ही हो सकती है जितनी आज के दिन मायारानी की उस चिट्ठी की होती जो वह अपने हाथ से लिख कर राजा गोपालसिंह के सामने इस नीयत से रखती कि उसका कसूर माफ किया जाये और लक्ष्मीदेवी का कुछ खयाल न करके मुझे पुनः रानी बनाया जाये।

जिन्न—निःसन्देह ऐसा ही है और इसी सन्दूकड़ी के सबब से बलभद्रसिंह तुम्हारे सामने ढिठाई कर रहा है। अच्छा इस सन्दूकड़ी का जादू दूर करने के लिए इसी के पास नैं एक तिलिस्मी कलमदान रखे देता हूँ, जिसमें बलभद्रसिंह पुनः तुम्हारे सामने बोलने का साहस न कर सके और तुम्हारा मुकदमा विना किसी रोक-टोक के समाप्त हो जाये।

इतना कह कर जिन्न ने अपने कपड़ों के अन्दर से एक सोने का कलमदान निकाल कर उस सन्दूकड़ी के बगल में रख दिया जो राजा वीरेन्द्रसिंह के सामने रक्खी हुई थी और भूतनाथ के कागजात की गठरी में से निकाली गई थी।

यह कलमदान, जिसका ताला बन्द था, बहुत ही अनूठा और सुन्दर बना हुआ था। इसके ऊपर की तरफ मीनाकारी के काम की तीन तस्वीरें बनी हुई थीं और उनकी चमक इतनी तेज और साफ थी कि कोई देखने वाला इन्हें पुरानी नहीं कह सकता था।

इस कलमदान को देखते ही भूतनाथ खुशी से उछल पड़ा और जिन्न की तरफ देख के तथा हाथ जोड़ के बोला, “माफ करना, मैंने आपकी कुदरत के बारे में शक किया था। मैं नहीं जानता था कि आपके पास एक ऐसी अनूठी चीज है। यद्यपि मैंने अभी तक आपको नहीं पहचाना, तथापि कह सकता हूँ कि आप साधारण मनुष्य नहीं हैं। आप यह न समझें कि यह कलमदान मुझसे दूर है और मैं इसे अच्छी तरह से देख नहीं सकता। नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है, इसकी एक झलक ने ही मेरे दिल के अन्दर इसकी पूरी-पूरी तस्वीर खींच दी है! (आसमान की तरफ हाथ उठा के) हे ईश्वर, तू धन्य है!”

भूतनाथ के विपरीत बलभद्रसिंह पर उस कलमदान का उल्टा ही असर पड़ा। वह उसे देखते ही चिल्ला उठा और उठकर मैदान की तरफ भामा मगर जिन्न ने फुर्ती के साथ लपक कर उसे पकड़ लिया और वीरेन्द्रसिंह के सामने लाकर कहा, “भलमनसी के साथ हाँ चुपचाप बैठो, तुम भाग कर अपनी जान किसी तरह नहीं बचा सकते!”

केवल भूतनाथ और बलभद्र सिंह पर ही नहीं बल्कि तिलिस्म के दारोगा पर भी उस कलमदान का बहुत ही बुरा असर पड़ा और डर के मारे वह इस तरह काँपने लगा जैसे जड़ैया बुखार चढ़ आया हो। वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और बाकी के ऐयारों को भी बड़ा ही आश्चर्य हुआ और वे लोग ताज्जुब-भरी निगाहों से उस कलमदान की तरफ देखने लगे। इतने में चिक के अन्दर से आवाज आई, “इस कलमदान को मैं भी जरा देखना [ २४४ ]चाहती हूँ!" यह आवाज कमलिनी की थी जिसे सुनकर राजा वीरेन्द्र सिंह ने जिन्न की तरफ देखा और जिन्न ने जोश के साथ कहा, "हाँ-हाँ, आप बेशक इस कलमदान को पर्दे के अन्दर भिजवा दें क्योंकि लक्ष्मीदेवी और कमलिनी को भी इस कलमदान का देखना आवश्यक है।" (तेजसिंह से) "आप स्वयं इसे लेकर चिक के अन्दर जाइये।"

तेजसिंह कलमदान को लेकर उठ खड़े हुए और चिक के अन्दर जाकर कलमदान कमलिनी के हाथ में रख दिया। वहाँ किसी तरह की रोशनी नहीं थी और पूरा अंधकार था इसलिए उन सभी को कलमदान अच्छी तरह देखने के लिए दूसरे कमरे में जाना पड़ा जहाँ दीवारगीरों की रोशनी से दिन की तरह उजाला हो रहा था।

सिवाय लक्ष्मीदेवी के और किसी औरत ने कलमदान को नहीं पहचाना और न किसी पर उसका असर ही पड़ा, मगर लक्ष्मीदेवी ने जिस समय उसे उजाले में देखा, तो उसकी अजब हालत हो गई। वह सिर पकड़कर जमीन पर बैठने के साथ ही बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी।

लक्ष्मीदेवी के बेहोश होने से एक हलचल-सी मच गई और कमलिनी तथा कमला इत्यादि उसे होश में लाने का उद्योग करने लगीं। तेजसिंह कलमदान उठाकर और यह कहकर कि "लक्ष्मीदेवी की तबीयत ठीक हो के साथ ही बाहर खबर कर देना" वीरेन्द्रसिंह के पास चले आये और कलमदान सामने रखकर लक्ष्मीदेवी का हाल कहा।

इस मामले से सभी का ताज्जुब बढ़ गया और वीरेन्द्र सिंह ने तेजसिंह से कहा―

वीरेन्द्रसिंह―इन भेदों को खोल कर आज अवश्य फैसला कर ही देना चाहिए।

तेजसिंह―मैं भी यही चाहता हूँ। (जिन्न की तरफ देख के) मगर यह बात बिना आपकी मदद के किसी तरह नहीं हो सकती!

जिन्न―जब तक राजा वीरेन्द्रसिंह आज्ञा नहीं देंगे मैं यहाँ से न जाऊँगा क्योंकि मैं भी इस मामले को आज खतम कर देना आवश्यक समझता हूँ मगर तब तक सब्र कीजिए जब तक लक्ष्मीदेवी की तबीयत ठिकाने न हो जाय और वे सब पर्दे के पास आकर बैठ न जायँ। हाँ, बलभद्रसिंह को कहिये कि वह उठकर अपने ठिकाने जाय और भाग जाने का ध्यान भूल कर चुपचाप बैठे।

बलभद्रसिंह की ताकत बिल्कुल निकल गई थी और वह जहाँ का तहाँ सुस्त बैठा रह गया था। तेजसिंह ने उसे उठाकर अपनी बगल में बैठा लिया और थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा।

आधी घड़ी के बाद खबर आई कि लक्ष्मीदेवी की तबीयत ठीक हो गई और वे सब पर्दे के पास आकर बैठ गई हैं। [ आवरण-चित्र ]