सामग्री पर जाएँ

चन्द्रकांता सन्तति 4/16.1

विकिस्रोत से
चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १८८ से – १९९ तक

 

अब हम अपने पाठकों को पुन: जमानिया के तिलिस्म में ले चलते हैं और इन्दिरा का बचा हुआ किस्सा उसी की जुबानी सुनवाते हैं जिसे छोड़ दिया गया था। इन्दिरा ने एक लम्बी सांस लेकर अपना किस्सा यों कहना शुरू किया--

इन्दिरा--जब मैं अपनी मां की लिखी चिट्ठी पढ़ चुकी तो जी में खुश होकर सोचने लगी कि ईश्वर चाहेगा तो अब मैं बहुत जल्द अपनी माँ से मिलूंगी और हम दोनों को इस कैद से छुटकारा मिलेगा, अब केवल इतनी ही कसर है कि दारोगा साहब मेरे पास आवें और जो कुछ वे कहें मैं उसे पूरा कर दूं। थोड़ी देर तक सोचकर मैंने अन्ना से कहा, "अन्ना, जो कुछ दारोगा साहब कहें उसे तुरन्त करना चाहिए।"

अन्ना--नहीं बेटी, तू भूलती है, क्योंकि इन चालबाजियों को समझने लायक अभी तेरी उम्र नहीं है। अगर तू दारोगा के कहे मुताविक काम कर देगी तो तेरी माँ और साथ ही उसके तू भी मार डाली जायगी, क्योंकि इसमें कोई सन्देह नहीं कि दारोगा ने तेरी माँ से जबर्दस्ती यह चिट्ठी लिखवाई है।

मैं--तब तुमने इस चिट्ठी के बारे में यह कैसे कहा कि मैं तेरे लिए खुश-खबरी लाई हूँ?

अन्ना--'खुश-खबरी' से मेरा मतलब यह न था कि अगर तू दारोगा के कहे मुताबिक काम कर देगी तो तुझे और तेरी माँ को कैद से छुट्टी मिल जायगी, बल्कि यह था कि तेरी माँ अभी तक जीती-जागती है इसका पता लग गया। क्या तुझे यह मालूम नहीं कि स्वयं दारोगा ही ने तुझे कैद किया है?

मैं--यह तो मैं खुद तुझ से कह चुकी हूँ कि दारोगा ने मुझे धोखा देकर कैद कर लिया है।

अन्ना--तो क्या तुझे छोड़ देने से दारोगा की जान बच जायगी? क्या दारोगा साहब इस बात को नहीं समझते कि अगर तू छूटेगी तो सीधे राजा गोपालसिंह के पास चली जायगी और अपना तथा लक्ष्मीदेवी का भेद उनसे कह देगी? उस समय दारोगा का क्या हाल होगा?

मैं--ठीक है, दारोगा मुझ कभी न छोड़ेगा।

अन्ना--बेशक कभी न छोड़ेगा। वह कम्बख्त तो अब तक तुझे मार डाले होता, मगर अब निश्चय हो गया कि उसे तुम दोनों से अपना कुछ मतलव निकालना है इसीलिए अभी तक कैद किए हुए है, जिस दिन उसका काम हो जायगा उसी दिन तुम दोनों को मार डालेगा। जब तक उसका काम नहीं होता तभी तक तुम दोनों की जान बची है। (चिट्ठी की तरफ इशारा करके) यह चिट्ठी उसने इसी चालाकी से लिखवाई है जिससे तू उसका काम जल्द कर दे।

मैं--अन्ना, तू सच कहती है, अब मैं दारोगा का काम न करूँगी चाहे जो हो।

अन्ना--अगर तु मेरे कहे मुताबिक करेगी तो निःसन्देह तुम दोनों का जान बच रहेगी और किसी-न-किसी दिन तुम दोनों को कैद से छुट्टी भी मिल जायगी।

मैं--बेशक जो तू कहेगी, वही मैं करूँगी।

अन्ना--मगर मैं डरती हूँ कि अगर दारोगा तुझे धमकायेगा या मारे-पीटेगा तो तू मार खाने के डर से उसका काम जरूर कर देगी।

मैं--नहीं-नहीं, कदापि नहीं। अगर वह मेरी बोटी-बोटी भी काटकर फेंक दे तो भी मैं तेरे कहे बिना उसका कोई भी काम न करूंगी।

अन्ना--ठीक है, मगर इसके साथ ही यह भी न कह देना कि यदि अन्ना कहेगी तो मैं तेरा काम कर दूंगी।

मैं--नहीं सो तो न कहूँगी, मगर कहूँगी क्या सो तो बताओ!

अन्ना--बस जहाँ तक हो टालमटोल करती जाना। आजकल करते-करते दोतीन दिन टाल जाना चाहिए, मुझे आशा है कि इस बीच में हम लोग छूट जायेंगे।

सूबह की सुफेदी खिड़कियों में दिखाई देने लगी और दरवाजा खोलकर दारोगा कमरे के अन्दर आता हुआ दिखाई दिया, वह सीधे आकर बैठ गया और बोला "इन्दिरा, त समझती होगी कि दारोगा साहब ने मेरे साथ दगाबाजी की और मुझे गिरफ्तार कर लिया. मगर मैं धर्म की कसम खाकर कहता हूँ कि वास्तव में यह बात नहीं है, बल्कि सच तो यह है कि स्वयं राजा गोपालसिंह तेरे दुश्मन हो रहे हैं। उन्होंने मुझे हुक्म दिया था कि इन्दिरा को गिरफ्तार करके मार डालो, और उन्हीं की आज्ञानुसार मैं उनके कमरे में बैठा हुआ गिरफ्तार करने की तरकीब सोच रहा था कि यकायक तू आ गई और मैंने तुझे गिरफ्तार कर लिया। मैं लाचार हूँ कि राजा साहब का हुक्म टाल नहीं सकता मगर साथ ही इसके जब तुझे मारने का इरादा करता हूँ तो मुझे दया आ जाती है और तेरी जान बचाने की तरकीब सोचने लगता हूँ। तुझे इस बात का ताज्जुब होगा कि गोपालसिंह तेरे दुश्मन क्यों हो गये, मगर मैं तेरा यह शक भी मिटाये देता हैं। असल बात यह है कि राजा साहब को लक्ष्मीदेवी के साथ शादी करना मंजूर न था और जिस खूबसूरत औरत के साथ वे शादी करना चाहते थे वह विधवा हो चुकी थी और लोगों की जानकारी में वे उसके साथ शादी नहीं कर सकते थे। इसलिए लक्ष्मीदेवी के बदले में यह दूसरी औरत उलट फेर कर दी गई। उनकी आज्ञानुसार लक्ष्मीदेवी तो मार डाली गई मगर उन लोगों को भी चुपचाप मार डालने की आज्ञा राजा साहब ने दे दी जिन्हें यह भेद मालूम हो चुका था या जिनकी बदौलत इस भेद के खुल जाने का डर था। तेरे सबब से भी लक्ष्मी देवी का भेद अवश्य खुल जाता, इसीलिए तू भी उनकी आज्ञानुसार कैद कर ली गई।"

गोपालसिंह--(क्रोध से) क्या कम्बख्त दारोगा ने तुझे इस तरह से समझाया बुझाया?

इन्दिरा--जी हाँ, और यह बात उसने ऐसे ढंग से अफसोस के साथ कही कि मुझे और मेरी अन्ना को भी थोड़ी देर के लिए उसकी बातों पर पूरा विश्वास हो गया, बल्कि वह उसके बाद भी बहुत देर तक आपकी शिकायत करता रहा।

गोपालसिंह--और मुझे वह बहुत दिनों तक तेरी बदमाशी का विश्वास दिलाता रहा था। अस्तु अब मुझे मालूम हुआ कि तू मेरा सामना करने से क्यों डरती थी। अच्छा, तब क्या हुआ?

इन्दिरा--दारोगा की बात सुनकर अन्ना ने उससे कहा कि जब आपको इन्दिरा पर दया आ रही है, तो कोई ऐसी तरकीब निकालिये जिसमें इस लड़की और इसकी मां की जान बच जाय।

दारोगा--मैं खुद इसी फिक्र में लगा हुआ हूँ। इसकी माँ को बदमाशों ने गिरफ्तार कर लिया था मगर ईश्वर की कृपा से वह बच गई, मैंने उसे उन शैतानों के हाथ से बचा लिया।

अन्ना--मगर वह लक्ष्मीदेवी को पहचानती है, और उसकी बदौलत लक्ष्मीदेवी का भेद खुल जाना सम्भव है।

दारोगा--हाँ, ठीक है, मगर इसके लिए भी मैंने एक बन्दोबस्त कर लिया है।

अन्ना--वह क्या?

दारोगा--(एक चिट्ठी दिखाकर) देख, सरयू से मैंने यह चिट्ठी लिखवा ली है, पहले इसे पढ़ ले।

मैंने और अन्ना ने वह चिट्ठी पढ़ी। उसमें यह लिखा हुआ था-'मेरी प्यारी लक्ष्मी, मुझे इस बात का बड़ा अफसोस है कि तेरे ब्याह के समय मैं नहीं आ सकी ! इसका बहुत बड़ा कारण था जो मुलाकात होने पर तुमसे कहूँगी, मगर अपनी बेटी इन्दिरा की जुबानी यह सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई कि वह विवाह के समय तेरे पास थी, बल्कि ब्याह होने के एक दिन बाद तक तेरे साथ खेलती रही।"

जब मैं चिट्ठी पढ़ चुकी तो दारोगा ने कहा कि बस अब तू भी एक चिट्ठी लक्ष्मीदेवी के नाम से लिख दे और उसमें यह लिखा कि "मुझे इस बात का रंज है कि तेरी शादी होने के बाद एक दिन से ज्यादा मैं तेरे पास न रह सकी मगर मैं तेरी उस छवि को नहीं भल सकती जो ब्याह के दूसरे दिन देखी थी।" मैं ये दोनों चिट्ठियाँ राजा गोपालसिंह को दंगा और तुम दोनों को छोड़ देने के लिए उनसे जिद करके उन्हें समझा दंगा कि "अब सरय और इन्दिरा की जुबानी लक्ष्मीदेवी का भेद कोई नहीं सुन सकता, अगर ये दोनों कुछ कहेंगी तो इन चिट्ठियों के मुकाबले में स्वयं झूठी बनेंगी।" मैंने दारोगा की बातों का यह जवाब दिया कि "बात तो आपने बहुत ही ठीक कही, अच्छा मैं आपके कहे मुताबिक चिट्ठी कल लिख दूंगी।"

दारोगा--यह काम देर करने का नहीं है, इसमें जितनी जल्दी करोगी उतनी जल्दी तुम्हें छुट्टी मिलेगी।

मैं--ठीक है मगर इस समय मेरे सिर में बहुत दर्द है, मुझसे एक अक्षर भी न लिखा जायगा।

दारोगा--अच्छा, कोई हर्ज नहीं, कल सही।

इतना कहकर दारोगा हमारे कमरे के बाहर चला गया और फिर मुझमें और अन्ना में बातचीत होने लगी। मैंने अन्ना से कहा, "क्यों अन्ना, तू क्या समझती है ? मुझे तो दारोगा की बात सच जान पड़ती है।"

अन्ना--(कुछ सोचकर) जैसी चिट्ठी दारोगा तुमसे लिखाना चाहता है वह केवल इस योग्य ही नहीं कि यदि राजा गोपालसिंह दोषी हैं तो लोक-निन्दा से उनको बचावे बल्कि वह चिट्ठी बनिस्बत उनके दारोगा के काम की ज्यादा होगी, अगर यह स्वयं दोषी है तो।

मैं--ठीक है, मगर ताज्जुब की बात है कि जो राजा साहब मुझे अपनी लड़की से बढ़कर मानते थे वे ही मेरी जान के ग्राहक बन जायें।

अन्ना--कौन ठिकाना, कदाचित ऐसा ही हो।

मैं--अच्छा तो अब क्या करना चाहिए?

अन्ना--(कुछ सोचकर) चिट्ठी तो कभी न लिखनी चाहिए चाहे राजा गोपालसिंह दोषी हों या दारोगा दोषी हो। इसमें कोई सन्देह नहीं कि चिट्ठी लिख देने के बाद तू मार डाली जायगी।

अन्ना की बात सुनकर मैं रोने लगी और समझ गई कि अब मेरी जान नहीं बचती और ताज्जुब नहीं कि दारोगा के मतलब की चिट्ठी लिख देने के कारण मेरी माँ इस दुनिया से उठा दी गई हो। थोड़ी देर तक तो अन्ना ने रोने में मेरा साथ दिया लेकिन इसके बाद उसने अपने को सम्हाला और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। कुछ देर के बाद अन्ना ने मुझसे कहा कि "बेटी, मुझे कुछ आशा हो रही है कि हम लोगों को इस कैदखाने से निकल जाने का रास्ता मिल जायगा। मैं पहले कह चकी हैं और अब भी कहती हूँ कि रात को (कोठरी की तरफ इशारा करके) उस कोठरी में सिर पर से गठरी फेंक देने की तरह धमाके की आवाज सुनकर मैं जाग उठी थी और जब उस कोठरी में गई तो वास्तव में एक गठरी पर निगाह पड़ी। अब जो मैं सोचती हूँ तो विश्वास होता है कि उस कोठरी में कोई ऐसा दरवाजा जरूर है जिसे खोलकर बाहर वाला उस कोठरी में आ सके या उसमें से बाहर जा सके। इसके अतिरिक्त इस कोठरी में भी तख्ते बन्दी की दीवार है जिससे कहीं न कहीं दरवाजा होने का शक हर एक ऐसे आदमी की हो सकता है जिस पर हमारी तरह मुसीबत आई हो, अस्तु आज का दिन तो किसी तरह काट ले, रात को मैं दरवाजा ढूंढ़ने का उद्योग करूंगी।"

अन्ना की बातों से मुझे भी कुछ ढाढ़स हुई। थोड़ी देर बाद कमरे का दरवाजा खुला और कई तरह की चीजें लिए हुए तीन आदमी कमरे के अन्दर आ पहुँचे। एक के हाथ में पानी का भरा बड़ा लोटा और गिलास था, दूसरा कपड़े की गठरी लिए हुए था, तीसरे के हाथ में खाने की चीजें थीं। तीनों ने सब चीजें कमरे में रख दी और पहले की रक्खी हुई चीजें और चिरागदान बगैरह उठा ले गये और जाते समय कह गये कि "तुम लोग स्नान करके खाओ पीओ, तुम्हारे मतलब की सब चीजें मौजूद हैं।"

ऐसी मुसीबत में खाना-पीना किसे सूझता है, परन्तु अन्ना के समझाने-बुझाने से जान बचाने के लिए सब-कुछ करना पड़ा। तमाम दिन बीत गया, संध्या होने पर फिर हमारे कमरे के अन्दर खाने-पीने का सामान पहुँचाया गया और चिराग भी जलाया गया मगर रात को हम दोनों ने कुछ भी न खाया।

कैदखाने से निकल भागने की धुन में हम लोगों को नींद बिल्कुल न आई। शायद आधी रात बीती होगी जब अन्ना ने उठकर कमरे का वह दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया जिस राह से वे लोग आते थे, और इसके बाद मुझे उठने और अपने साथ उस कोठरी के अन्दर चलने के लिए कहा जिसमें से कपड़े की गठरी और मेरी माँ के हाथ की लिखी हुई चिट्ठी मिली थी। मैं उठ खड़ी हुई और अन्ना के पीछे-पीछे चली। अन्ना ने चिराग हाथ में उठा लिया और धीरे-धीरे कदम रखती हुई कोठरी के अन्दर गई। मैं पहले बयान कर चुकी हूँ कि उसके अन्दर तीन कोठरियाँ थीं, एक में पायखाना बना हुआ था और दो कोठरियां खाली थीं। उन दोनों कोठरियों के चारों तरफ की दीवारें भी तख्तों की थीं। अन्ना हाथ में चिराग लिए एक कोठरी के अन्दर गई और उन लकड़ी वाली दीवारों को गौर से देखने लगी। मालूम होता था कि दीवार कुछ पुराने जमाने की बनी हुई है क्योंकि लकड़ी के तख्ते खराब हो गये थे, और कई तख्ती को घुन ने ऐसा बरबाद कर दिया था कि एक कमजोर लात खाकर भी उनका बच रहना कठिन जान पड़ता था। यह सब-कुछ था मगर जैसाकि देखने में वह खराब और कमजोर मालूम होती थी वैसी वास्तव में न थी क्योंकि दीवार की लकड़ी पाँच या छ: अंगुल से कम मोटी न होगी, जिसमें से सिर्फ अंगुल डेढ़ अंगूल के लगभग घुनी हुई थी। अन्ना ने चाहा कि लात मारकर एक दो तख्तों को तोड़ डाले मगर ऐसा न कर सकी।

हम दोनों आदमी बड़े गौर से चारों तरफ की दीवार को देख रहे थे कि यकायक एक छोटे से कपड़े पर अन्ना की निगाह पड़ी जो लकड़ी के दो तख्तों के बीच में फंसा हुआ था। वह वास्तव में एक छोटा-सा रूमाल था, जिसका आधा हिस्सा तो दीवार के उस पार था और आधा हिस्सा हम लोगों की तरफ था। उस कपड़े को अच्छी तरह देखकर अन्ना ने मुझे कहा, "बेटी, देख यहाँ एक दरवाजा अवश्य है। (हाथ से निशान बताकर) यह चारों तरफ की दरार दरवाजे को साफ बता रही है। कोई आदमी इस तरफ आया है मगर लौटकर जाती दफे जब उसने दरबाजा बन्द किया तो उसका रूमाल इसमें फंसकर रह गया। शायद अँधेरे में उसने इस बात का खयाल न किया हो, और देख इस कपड़े के फंस जाने के कारण दरवाजा भी अच्छी तरह बैठा नहीं है, ताज्जुब नहीं यह दरवाजा किसी खटके पर बन्द होता हो और तख्ता अच्छी तरह न बैठने के कारण खटका भी बन्द न हुआ हो।"

च० स०-4-12,

वास्तव में जो कुछ अन्ना ने कहा, वही बात थी, क्योंकि जब उसने उस रूमाल को अच्छी तरह पकड़ कर अपनी तरफ खींचा, तो उसके साथ लकड़ी का तख्ता भी खिंच कर हम लोगों की तरफ चला आया और दूसरी तरफ जाने के लिए रास्ता निकल आया। हम दोनों आदमी उस तरफ चले गये और एक कमरे में पहुँचे। उस लकड़ी के तख्ते में जो पेंच पर जड़ा हुआ था और जिसे हटाकर हम लोग उस पार चले गये थे, दूसरी तरफ पीतल का एक मुट्ठा लगा हुआ था, अन्ना ने उसे पकड़ कर खींचा और वह दरवाजा जहाँ-का-तहां खट से बैठ गया। अब हम दोनों आदमी जिस कमरे में पहुंचे, वह बहुत बड़ा था। सामने की तरफ एक छोटा-सा दरवाजा नजर आया और उसके पास जाने पर मालूम हुआ कि नीचे उतर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। दाहिनी और बाईं तरफ की दीवार में छोटी-छोटी कई खिड़कियाँ बनी हुई थीं, दाहिनी तरफ की खिड़कियों में से एक खिड़की कुछ खुली हुई थी, मैंने और अन्ना ने उसमें झांककर देखा, तो एक मरातिब नीचे छोटा-सा चौक नजर आया, जिसमें साफ-सुथरा फर्श लगा हुआ था, ऊँची गद्दी पर कम्बख्त दारोगा बैठा हुआ था, उसके आगे एक शमादान जल रहा था और उसके पास ही एक आदमी कलम-दवात और कागज लिए बैठा हुआ था।

हम दोनों आदमी दारोगा की सूरत देखते ही चौके और डर कर पीछे हट गए। अन्ना ने धीरे से कहा, "यहाँ भी वही बला नजर आती है। कहीं ऐसा न हो कि वह कम्बख्त हम लोगों को देख ले या ऊपर चढ़ आवे।"

इतना कहकर अन्ना सीढ़ी की तरफ चली गई और धीरे से सीढ़ी का दरवाजा खींचकर जंजीर चढ़ा दी। वह चिराग जो अपने कमरे में से लेकर यहाँ तक आये थे, एक कोने में रखकर हम दोनों फिर उसी खिड़की के पास गये और नीचे की तरफ झांककर देखने लगे कि दारोगा क्या कर रहा है। दारोगा के पास जो आदमी बैठा था, उसने एक लिखा हुआ कागज हाथ में उठाकर दारोगा से कहा, "जहाँ तक मुझसे बन पड़ा, मैंने इस चिट्ठी के बनाने में बड़ी मेहनत की।"

दारोगा--इसमें कोई शक नहीं कि तुमने ये अक्षर बहुत अच्छे बनाये हैं और इन्हें देखकर कोई यकायक नहीं कह सकता कि यह सरयू का लिखा हुआ नहीं है। जब मैंने वह पत्र इन्दिरा को दिखाया, तो उसे भी निश्चय हो गया कि यह उसकी मां के हाथ का लिखा हुआ है, मगर जब गौर करके देखता हूँ, तो सरयू की लिखावट में और इसमें थोड़ा फर्क मालूम पड़ता है। इन्दिरा लड़की है, वह यह बात नहीं समझ सकती, मगर इन्द्रदेव जब इस पत्र को देखेगा तो जरूर पहचान जायेगा कि सरयू के हाथ का लिखा नहीं है, बल्कि जाल बनाया गया है।

आदमी--ठीक है, अच्छा तो मैं इसके बनाने में एक दफे और मेहनत करूँगा, क्या करूं, सरयू की लिखावट ही ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी है कि ठीक नकल नहीं उतरती. जिसमें इस चिट्ठी में कई अक्षर ऐसे लिखने पड़े जो कि मेरे देखे हुए नहीं हैं केवल अन्दाज ही से लिखे हैं।

दारोगा--ठीक है, ठीक है, इसमें कोई शक नहीं कि तुमने बड़ी सफाई से इसे बनाया है, खैर एक दफे और मेहनत करो, और मुझे आशा है, अबकी दफे बहुत ठीक हो जायेगा। (लम्बी साँस लेकर) क्या कहें, कम्बख्त सरयू किसी तरह मानती ही नहीं। उसे मेरी बातों पर कुछ भी विश्वास नहीं होता, यद्यपि कल मैं उसे फिर दिलासा दूंगा, अगर उसने मेरे दम में आकर अपने हाथ से चिट्ठी लिख दी, तो इस काम को खत्म समझो, नहीं तो तुम्हें पुनः मेहनत करनी पड़ेगी। सरयू और इन्दिरा ने मेरे कहे मुताबिक चिट्ठी लिख दी, तो मैं बहुत जल्द उन दोनों को मारकर बखेड़ा तय करूंगा, क्योंकि मुझे गदाधरसिंह (भूतनाथ) का डर बराबर बना रहता है, वह सरयू और इन्दिरा की खोज में लगा हुआ है और उसे घड़ी-घड़ी मुझी पर शक होता है। यद्यपि मैं उससे कसम खाकर कह चुका हूँ कि मुझे दोनों का हाल कुछ भी मालूम नहीं है मगर उसे विश्वास नहीं होता। क्या करूँ, लाखों रुपये दे देने पर भी मैं उसकी मुट्ठी में फंसा हुआ हूँ, यदि उसे जरा भी मालूम हो जायेगा कि सरयू और इन्दिरा को मैंने कैद में रखा है तो वह बड़ा ही ऊधम मचावेगा और मुझे बरबाद किये बिना न रहेगा।

आदमी--गदाधरसिंह तो मुझे आज भी मिला था।

दारोगा--(चौंक कर) क्या वह फिर इस शहर में आया है? मुझसे तो कह गया था कि मैं दो-तीन महीने के लिए जाता हूं, मगर वह तो दो-तीन दिन भी गैरहाजिर न रहा था।

आदमी--वह बड़ा शैतान है, उसकी बातों का कुछ भी विश्वास नहीं हो सकता, और इसका जानना तो बड़ा ही कठिन है कि वह क्या करता है, क्या करेगा या किस धुन में लगा हुआ है।

दारोगा--अच्छा, तो मुलाकात होने पर उससे क्या-क्या बात हुई?

आदमी–-मैं अपने घर की तरफ जा रहा था कि उसने पीछे से आवाज दी, "ओ रघुबरसिंह, ओ जयपालसिंह !"1

दारोगा--बड़ा ही बदमाश है, किसी का अदब लिहाज करना तो जानता ही नहीं ! अच्छा, तब क्या हुआ?

रघुबर--उसकी आवाज सुनकर मैं रुक गया, जब वह पास आया, तो बोला, "आज आधी रात के समय मैं दारोगा साहब से मिलने जाऊँगा, उस समय तुम्हें भी वहाँ मौजूद रहना चाहिए।" बस, इतना कहकर चला गया।

दारोगा तो इस समय वह आता ही होगा?

रघुबर--जरूर आता होगा।

दारोगा--कम्बख्त ने नाक में दम कर दिया है।

इतने ही में बाहर से घंटी बजने की आवाज आई, जिसे सुन दारोगा ने रघुबरसिंह से कहा, "देखो, दरबान क्या कहता है, मालूम होता है, गदाधरसिंह आ गया।"

रघबरसिंह उठकर बाहर आया और थोड़ी ही देर में गदाधरसिंह को अपने साथ लिा हा दारोगा के पास आया। गदाधरसिह को देखते ही दारोगा उठ खडा हआ और बडी खातिरदारी और तपाक के साथ मिलकर उसे अपने पास बैठाया।


1. जयपालसिंह, बालासिंह और रघुबरसिंह ये सब नाम उसी नकली बलभद्रसिंह के हैं। दारोगा--(गदाधरसिंह से) आप कब आये?

गदाधरसिंह--मैं गया ही कब और कहाँ था?

दारोगा--आप ने कहा न था कि मैं दो-तीन महीने के लिए कहीं जा रहा हूँ!

गदाधरसिंह--हाँ, कहा तो था, मगर एक बहुत बड़ा सबब आ पड़ने से लाचार होकर रुक जाना पड़ा।

दारोगा--क्या, वह सबब मैं भी सुन सकता हूँ।

गदाधरसिंह--हाँ-हाँ, आप ही के सुनने लायक तो वह सबब है, क्योंकि उसके कर्ता-धर्ता भी आप ही हैं।

दारोगा--तो जल्द कहिये।

गदाधरसिंह--जाते ही जाते एक आदमी ने मुझे निश्चय दिलाया कि सरयू और इन्दिरा आप ही के कब्जे में हैं अर्थात् आप ही ने उन्हें कैद करके कहीं छिपा रखा है।

दारोगा--(अपने दोनों कानों पर हाथ रख के) राम राम ! किस कम्बख्त ने मुझ पर यह कलंक लगाया? नारायण-नारायण ! मेरे दोस्त, मैं तुम्हें कई दफे कसमें खाकर कह चुका हूँ कि सरयू और इन्दिरा के विषय में कुछ भी नहीं जानता, मगर तुम्हें मेरी बातों का विश्वास ही नहीं होता।

गदाधरसिंह--न तो मेरी बातों पर आपको विश्वास करना चाहिए और न आप की कही हुई बातों को मैं ही ब्रह्मवाक्य समझ सकता हूँ। बात यह है कि इन्द्रदेव को मैं अपने सगे भाई से बढ़ के समझता हूँ, चाहे मैंने आपसे रिश्वत लेकर बुरा काम ही क्यों न किया हो, मगर अपने दोस्त इन्द्रदेव को किसी तरह का नुकसान न पहुंचने दूंगा। आप सरयू और इन्दिरा के बारे में बार-बार कसमें खाकर अपनी सफाई दिखाते हैं और मैं जब उन लोगों के बारे में तहकीकात करता हूँ, तो बार-बार यही मालूम पड़ता है कि वे दोनों आपके कब्जे में हैं, अतः आज मैं एक आखिरी बात आपसे कहने आया हूँ, अबकी बार आप खूब अच्छी तरह समझ-बूझकर जवाब दें।

दारोगा--कहो, कहो, क्या कहते हो? मैं सब तरह से तुम्हारी दिलजमई करा दूंगा

गदाधरसिंह--आज मैं इस बात का निश्चय करके आया हूँ कि इन्दिरा और सरयू का हाल आपको मालूम है, अतः साफ-साफ कहे देता हूँ कि यदि वे दोनों आपके कब्जे में हों, तो ठीक-ठीक बता दीजिए, उनको छोड़ देने पर इस काम के बदले में जो कुछ आप कहें मैं करने को तैयार हैं लेकिन यदि आप इस बात से इनकार करेंगे और पीछे साबित होगा कि आपने ही उन्हें कैद किया था, तो मैं कसम खाकर कहता हूँ कि सबसे बढ़कर बुरी मौत जो कही जाती है वही आपके लिए कायम की जायेगी।

दारोगा--जरा जबान सम्हाल कर बातें करो। मैं तो दोस्ताना ढंग पर नरमी के साथ तुमसे बातें करता हूँ और तुम तेज हुए जाते हो?

गदाधरसिंह--जी, मैं आपके दोस्ताना ढंग को अच्छी तरह समझता हूँ, अपनी कसमों का विश्वास तो उसे दिलाइए, जो आपको केवल बाबाजी समझता हो। मैं तो आपको पूरा झूठा, बेईमान और विश्वासघाती समझता हूँ और आपका कोई हाल मुझसे छिपा हुआ नहीं है। जब मैंने कलमदान आपको वापस किया था, तब भी आपने कसम खाई थी कि तुम्हारे और तुम्हारे दोस्तों के साथ कभी किसी तरह की बुराई न करूँगा, मगर फिर भी आप चालबाजी करने से बाज न आये!

दारोगा--यह सब-कुछ ठीक है, मगर मैं जब एक दफे कह चुका कि सरयू और इन्दिरा का हाल मुझे कुछ भी मालूम नहीं है, तब तुम्हें अपनी बात पर ज्यादा खींच न करनी चाहिए, हाँ, अगर तुम इस बात को साबित कर सको, तो जो कुछ कहो मैं जुर्माना देने के लिए तैयार हूँ, यों अगर बेफायदे की तकरार बढ़ाकर लड़ने का इरादा हो तो बात ही दूसरी है। इसके अतिरिक्त अब तुम्हें जो कुछ कहना हो, इसको खूब सोच-समझ कर कहो कि तुम किसके मकान में और कितने आदमियों को साथ लेकर आये हो।

इतना कहकर इन्दिरा रुक गई और एक लम्बी साँस लेकर उसने राजा गोपालसिंह और दोनों कुमारों से कहा--

इन्दिरा--गदाधरसिंह और दारोगा में इस ढंग की बातें हो रही थीं और हम दोनों खिड़की में से सुन रहे थे। मुझे यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि गदाधरसिंह हम दोनों मां-बेटियों को छुड़ाने की फिक्र में लगा हुआ है। मैंने अन्ना के कान में मुंह लगाकर कहा कि "देख अन्ना, दारोगा हम लोगों के बारे में कितना झूठ बोल रहा है ! नीचे उतर जाने के लिए रास्ता मौजूद ही है, चलो हम दोनों आदमी नीचे पहुँच कर गदाधरसिंह के सामने खड़े हो जायें।" अन्ना ने जवाब दिया कि "मैं भी यही सोच रही हूँ, मगर इस बात का खयाल है कि अकेला गदाधरसिंह हम लोगों को किस तरह छुड़ा सकेगा ! कहीं ऐसा न हो कि हम लोगों को अपने सामने देखकर दारोगा गदाधरसिंह को भी गिरफ्तार कर ले, फिर हमारा छुड़ाने वाला कोई भी न रहेगा।" अन्ना नीचे उतरने से हिचकती थी, मगर मैंने उसकी बात न मानी, आखिर लाचार होकर मेरा हाथ पकड़े हुए वह नीचे उतरी और गदाधरसिंह के पास खड़ी होकर बोली, "दारोगा झूठा है, इस लड़की को इसी ने कैद कर रखा है और इसकी माँ को भी न मालूम कहाँ छिपाये हुए है।"

मेरी सूरत देखते ही दारोगा का चेहरा पीला पड़ गया और गदाधरसिंह की आँखें मारे क्रोध के लाल हो गईं। गदाधरसिंह ने दारोगा से कहा, "क्यों बे हरामजादे के बच्चे ! क्या अब भी तू अपनी कसमों पर भरोसा करने के लिए मुझसे कहेगा!"

गदाधरसिंह की बातों का जवाब दारोगा ने कुछ भी न दिया और इधर-उधर झांकने लगा। इत्तिफाक से वह कलमदान भी उसी जगह पड़ा हुआ था, जिसके ऊपर मेरी तस्वीर थी और जो गदाधरसिंह ने रिश्वत लेकर दारोगा को दे दिया था। दारोगा असल में यह देख रहा था कि गदाधरसिंह की निगाह उस कलमदान पर तो नहीं पड़ी, मगर वह कलमदान गदाधरसिंह की नजरों से दूर न था, अतः उसने दारोगा की अवस्था देखकर फर्ती के साथ वह कलमदान उठा लिया और दूसरे हाथ से तलवार खींचकर सामने खड़ा हो गया। उस समय दारोगा को विश्वास हो गया कि अब उसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती। यद्यपि रघुबरसिंह उसके पास बैठा हुआ था, मगर वह इस बात को खूब जानता था कि हमारे ऐसे दस आदमी भी गदाधरसिंह को काबू में नहीं कर सकते, इसलिए उसने मुकाबला करने की हिम्मत न की और अपनी जगह से उठकर भागने लगा, परन्तु जा न सका, गदाधरसिंह ने उसे एक लात ऐसी जमाई कि वह धम्म से जमीन पर गिर पड़ा और बोला, "मुझे क्यों मारते हो? मैंने क्या बिगाड़ा है ? मैं तो खुद यहाँ से चले जाने को तैयार हूँ !"

गदाधरसिंह ने कलमदान कमरबन्द में खोंस कर कहा, "मैं तेरे भागने को खूब समझता हूं, तू अपनी जान बचाने की नीयत से नहीं भागता, बल्कि बाहर पहरे वाले सिपाहियों को होशियार करने के लिए भागता है। खबरदार, अपनी जगह से हिला तो अभी भुट्टे की तरह तेरा सिर उड़ा दूंगा। (दारोगा से) बस, अब तुम भी अगर अपनी जान बचाना चाहते हो, तो चुपचाप बैठे रहो!"

गदाधरसिंह की डपट से दोनों हरामखोर जहाँ-के-तहाँ रह गये, अपनी जगह से हिलने या मुकाबला करने की हिम्मत न पड़ी। हम दोनों को साथ लिए हुए गदाधरसिंह उस मकान के बाहर निकल आया। दरवाजे पर कई पहरेदार सिपाही मौजूद थे, मगर किसी ने रोक-टोक न की और हम लोग तेजी के साथ कदम बढ़ाते हुए उस गली के . बाहर निकल गये। उस समय मालूम हुआ कि हम लोग जमानिया के बाहर नहीं हैं।

गली के बाहर निकल कर जबहम लोग सड़क पर पहुँचे तो दो घोड़ों का एक रथ और दो सवार दिखाई पड़े। गदाधरसिंह ने मुझको और अन्ना को रथ पर सवार करा या और आप भी उसी रथ पर बैठ गया। 'हू' करने के साथ ही रथ तेजी के साथ रवाना हआ और पीछे-पीछे दोनों सवार भी घोड़ा फेंकते हुए जाने लगे।

उस समय मेरे दिल में दो बातें पैदा हुईं, एक तो यह कि गदाधरसिंह ने दारोगा' को जीता क्यों छोड़ दिया, दूसरे यह कि हम लोगों को राजा गोपालसिंह के पास न ले जाकर कहीं और क्यों लिए जाता है ! मगर मुझे इस विषय में कुछ पूछने की आवश्यकता न पड़ी, क्योंकि शहर के बाहर निकल जाने पर गदाधरसिंह ने स्वयं मुझसे कहा, "बेटी इन्दिरा, निःसन्देह कम्बख्त दारोगा ने तुझे बड़ा ही कष्ट दिया होगा और तू सोचती होगी कि मैंने दारोगा को जीता क्यों छोड़ दिया तथा मुझे राजा गोपालसिंह के पास न ले जाकर अपने घर क्यों लिए जाता है. अतः मैं इसका जवाब इसी समय दे देना उचित समझता हूँ। दारोगा को मैंने यह सोचकर छोड़ दिया कि अभी तेरी माँ का पता लगाना है और निःसन्देह वह भी दारोगा ही के कब्जे में है जिसका पता मुझे लग चुका है, तथा राजा साहब के पास मैं तुझे इसलिए नहीं ले गया कि महल में बहुत से आदमी ऐसे हैं जो दारोगा के मेली हैं, राजा गोपालसिंह तथा मैं भी उन्हें नहीं जानता। ताज्जुब नहीं कि वहाँ पहुँचने पर तू फिर किसी नई मुसीबत में पड़ जाये।"

मैं--आपका सोचना बहुत ठीक है, मेरी मां भी महल ही में से गायब हो गई थी, तो क्या आप इस बात की खबर भी राजा गोपालसिंह को न करेंगे?

गदाधरसिंह--राजा साहब को इस मामले की खबर जरूर की जायगी, मगर अभी नहीं।

मैं--तब कब?

गदाधरसिंह--जब तेरी मां को भी कैद से छुड़ा लूंगा तब। हां, अब तू अपना हाल कहा कि दारोगा ने तुझे कैसे गिरफ्तार कर लिया और यह दाई तेरे पास कैसे पहुंची?

मैं अपना और अपनी अन्ना का किस्सा शुरू से आखीर तक पूरा-पूरा कह गयी जिसे सुनकर गदाधरसिंह का बचा-बचाया शक भी जाता रहा और उसे निश्चय हो गया कि मेरी माँ भी दारोगा के ही कब्जे में है।

सवेरा हो जाने पर हम लोग सुस्ताने और घोड़ों को आराम देने के लिए एक जगह कुछ देर तक ठहरे और फिर उसी तरह रथ पर सवार हो रवाना हुए। दोपहर होते-होते हम लोग एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ दो पहाड़ियों की तलहटी (उपत्यका) एक साथ मिली थी। वहाँ सभी को सवारी छोड़कर पैदल चलना पड़ा। मैं यह नहीं जानती कि सवारी के साथ वाले और घोड़े किधर रवाना किये गये या उनके लिए अस्तबल कहाँ बना हुआ था। मुझे और अन्ना को घुमाता और चक्कर देता हुआ गदाधरसिंह पहाड़ के दर में ले गया जहाँ एक छोटा-सा मकान अनगढ़ पत्थर के ढोकों से बना हुआ था, कदाचित् वह गदाधरसिंह का अड्डा हो। वहीं उसके कई आदमी थे जिनकी सूरत आज तक मुझे याद है। अब जो मैं विचार करती हूँ तो यही कहने की इच्छा होती है कि वे लोग बदमाशी, बेरहमी और डकैती के साँचे में ढले हुए थे तथा उनकी सुरत-शक्ल और पोशाक की तरफ ध्यान देने से डर मालूम होता था।

वहाँ पहुँचकर गदाधरसिंह ने मुझसे और अन्ना से कहा कि तुम दोनों बेखौफ होकर कुछ दिन तक आगम करो, मैं सरयू को छुड़ाने की फिक्र में जाता हूँ। जहाँ तक होगा, बहुत जल्द लौट आऊँगा। तुम दोनों को किसी तरह की तकलीफ न होगी, खाने पीने का सामान यहाँ मौजूद ही है और जितने आदमी यहां हैं, सब तुम्हारी खिदमत करने के लिए तैयार हैं इत्यादि बहुत-सी बातें गदाधरसिंह ने हम दोगों को समझाई और अपने आदमियों से भी बहुत देर तक बातें करता रहा। दो पहर दिन और तमाम रात गदाधरसिंह वहाँ रहा तथा सुबह के वक्त फिर हम दोनों को समझाकर जमानिया की तरफ रवाना हो गया।

मैं तो समझती थी कि अब मुझे पुनः किसी तरह की मुसीबत का सामना न करना पड़ेगा और मैं गदाधरसिंह की बदौलत अपनी मां तथा लक्ष्मीदेवी से भी मिलकर सदेव के लिए सुखी हो जाऊँगी, मगर अफसोस, मेरी मुराद पूरी न हई और उस दिन के बाद फिर मैंने गदाधरसिंह की सूरत भी न देखी। मैं नहीं कह सकती कि वह किसी आफत में फंस गया या रुपये की लालच ने उसे हम लोगों का भी दुश्मन बना दिया। इसका असल हाल उसी की जुबानी मालूम हो सकता है-यदि वह अपना हाल ठीक-ठीक कह दे.तो। अतः अब मैं यह बयान करती हूँ कि उस दिन के बाद मुझ पर क्या मुसीबतें गुजरों और मैं अपनी कां के पास तक क्योंकर पहुंची।

गदाधरसिंह के चले जाने के बाद आठ दिन तक तो मैं बेखौफ बैठी रही, पर नौवें दिन से मेरी मुसीबत की घड़ी फिर शुरू हो गई। आधी रात का समय था, मैं और अन्ना एक कोठरी में सोई हुई थीं, यकायक किसी की आवाज सुनकर हम दोनों की आँखें खुल गईं और तब मालूम हुआ कि कोई दरवाजे के बाहर किवाड़ खटखटा रहा है, अन्ना ने उठकर दरवाजा खोला तो पण्डित मायाप्रसाद पर निगाह पड़ी। कोठरी के अन्दर चिराग जल रहा था और मैं पण्डित मायाप्रसाद को अच्छी तरह पहचानती थी।

इन्दिरा ने जब अपना किस्सा कहते-कहते पण्डित मायाप्रसाद का नाम लिया, तो राजा गोपाललसिंह चौंक गये और इन्होंने ताज्जुब में आकर इन्दिरा से पूछा, “पण्डित मायाप्रसाद कौन?'

इन्दिरा--आपके कोषाध्यक्ष (खजांची)।

गोपालसिंह--क्या उसने भी तुम्हारे साथ दगा की?

इन्दिरा--सो मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकती, मेरा हाल सुनकर कदाचित् आप कुछ अनुमान कर सकें। क्या मायाप्रसाद अब भी आपके यहाँ काम करते हैं?

गोपालसिंह--हाँ, है तो सही। मगर आजकल मैंने उसे किसी दूसरी जगह भेजा है। अतः अब मैं इस बात को बहुत जल्द सुनना चाहता हूं कि उसने तेरे साथ क्या व्यवहार किया?

हमारे पाठक महाशय पहले भी मायाप्रसाद का नाम सुन चुके हैं, सन्तति पन्द्रहवें भाग के तीसरे बयान में इनका जिक्र आ चुका है। तारासिंह के एक नौकर ने नानक की स्त्री श्यामा के प्रेमियों के नाम बताये थे। उन्हीं में इनका नाम भी दर्ज हो चुका है। ये महाशय जाति के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और अपने को ऐयार भी लगाते थे।