चन्द्रकांता सन्तति 4/16.14

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ २४१ ]

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किशोरी, कामिनी, कमलिनी, लक्ष्मीदेवी, कमला और लाड़िली सभी को कृष्ण जिन्न के आने का इन्तजार था। सभी के दिल में तरह-तरह की बातें पैदा हो रही थीं और सभी को इस बात की आशा लग रही थी कि कृष्ण जिन्न के आने पर इस बात का पता लग जायेगा कि कृष्ण जिन्न कौन हैं और राजा गोपालसिंह ने लक्ष्मीदेवी की सुध क्यों भुला दी।

आखिर दूसरे दिन कृष्ण जिन्न भी वहां आ पहुँचा। यद्यपि वह एक ऐसा आदमी था, जिसकी किसी को भी खबर न थी। कोई भी नहीं कह सकता था कि वह कौन और कहाँ का रहने वाला है, न कोई उसकी जात बता सकता था और न कोई उसकी ताकत और सामर्थ्य के विषय में ही कुछ बाद-विवाद कर सकता था, तथापि उसकी हमदर्दी और कार्रवाई से सभी खुश थे और इसलिए कि राजा वीरेन्द्रसिंह उसे मानते थे। सभी उसकी कदर करते थे। गुप्त स्थान में पहुँच वह सभी को चौकन्ना कर चुका था। इस और न ऐसा करने का उन्हें हुक्म था। अस्तु कृष्ण जिन्न के आने की खबर पाकर सब खुश हुई और बीच वाले दोमंजिले मकान में, जिनमें सबके पहले आकर उसने इन्द्रदेव से मुलाकात की थी, चलने के लिए तैयार हो गई, मगर उसी समय भैरोंसिंह ने बँगले पर आकर लक्ष्मोदेवी इत्यादि से कहा कि कृष्ण जिन्न स्वयं वहीं चले आ रहे हैं।

थोड़ी देर बाद कृष्ण जिन्न बँगले पर आ पहुँचा। लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाडिली, किशोरी, कामिनी और कमला ने आगे बढ़कर उसका इस्तकबाल (अगवानी) किया और इज्जत के साथ लाकर एक ऊंची गद्दी के ऊपर बैठाया। उसकी आज्ञानुसार इन्द्रदेव और भैरोंसिंह गद्दी के नीचे दाहिनी तरफ बैठे और लक्ष्मीदेवी इत्यादि को सामने बैठने के लिए कृष्ण जिन्न ने आज्ञा दी और सभी ने खुशी से उसकी आज्ञा स्वीकार की। कृष्ण जिन्न ने सभी का कुशल-मंगल पूछा और फिर यों बातचीत होने लगी--

किशोरी--आपकी बदौलत हम लोगों की जान बच गई, मगर उन लौंडियों के मारे जाने का रंज है। [ २४२ ]कृष्ण जिन्न--यह सब ईश्वर की माया है, वह जो चाहता है, करता है। यद्यपि मनोरमा ने कई शैतानों को साथ लेकर तुम लोगों का पीछा किया था, मगर उसके गिरफ्तार हो जाने से ही उन सभी का खौफ जाता रहा। अब जो मैं खयाल करके देखता हूँ तो तुम लोगों का दुश्मन कोई भी दिखाई नहीं देता। क्योंकि जिन दुष्टों की बदौलत लोग दुश्मन हो रहे थे या यों कहो कि जो लोग उनके मुखिया थे, वे सब गिरफ्तार हो गए। यहाँ तक कि उन लोगों को कैद से छुड़ाने वाला भी कोई न रहा।

कमलिनी--ठीक है, तो अब हम लोगों को छिप कर यहां रहने की क्या जरूरत है?

कृष्ण जिन्न-–(हँस कर) तुम्हें तो तब भी छिप कर रहने की जरूरत नहीं पड़ी जब चारों तरफ दुश्मनों का जोर बँधा हुआ था, आज की कौन कहे ? मगर हाँ (हाथ का इशारा करके) इन बेचारियों को अब यहां रहने की कोई जरूरत नहीं और अब इसी- लिए मैं यहाँ आया हूँ कि तुम लोगों को जमानिया ले चलूं, वहाँ से फिर जिसको जिधर जाना होगा, चला जायगा।

लक्ष्मीदेवी तो आप हम लोगों को चुनारगढ़ क्यों नहीं ले चलते या वहाँ जाने की आज्ञा क्यों नहीं देते?

कृष्ण जिन्न-नहीं-नहीं, तुम लोगों को पहले जमानिया चलना चाहिए। यह केवल मेरी आज्ञा ही नहीं, बल्कि मैं समझता हूँ कि तुम लोगों की भी यही इच्छा होगी। (लक्ष्मीदेवी से) तुम तो जमानिया की रानी ही ठहरी, तुम्हारी रिआया खुशी मनाने के लिए उस दिन का इन्तजार कर रही है जिस दिन तुम्हारी सवारी शहर के अन्दर पहुँचेगी, और कमलिनी तथा लाड़िली तुम्हारी बहिन ही ठहरी...

लक्ष्मीदेवी--(बात काट कर) बस बस, मैं बाज आई जमानिया की रानी बनने से ! वहाँ जाने की मुझे कोई जरूरत नहीं और मेरी दोनों वहिनें भी जहां मैं रहूँगी, वहीं मेरे साथ रहेंगी।

कृष्ण जिन्न–-क्यों क्यों, ऐसा क्यों?

लक्ष्मीदेवी–-मैं इसलिए विशेष बात कहना नहीं चाहती कि आपने यद्यपि हम लोगों की बड़ी सहायता की है और हम लोग जन्म-भर आपकी ताबेदारी करके भी उसका बदला नहीं चुका सकतीं तथापि आपका परिचय न पाने के कारण...

कृष्ण जिन्न-ठीक है ठीक है, अपरिचित पुरुष से दिल खोल कर बातें करना कुलवती स्त्रियों का धर्म नहीं है, मगर मैं यद्यपि इस समय अपना परिचय नहीं दे सकता तथापि यह कहे देता हूँ कि नाते में राजा गोपालसिंह का छोटा भाई हूँ। इसलिए तुम्हें भावज मानकर बहुत-कुछ कहने और सुनने का हक रखता हूँ। तुम निश्चय रक्खो कि मेरे विषय में राजा गोपालसिंह तुम्हें कभी उलाहना न देंगे, चाहे तुम मुझसे किसी तरह पर बातचीत क्यों न करो ! (कुछ सोच कर) मगर मैं समझ रहा हूँ कि तुम जमानिया जाने से क्यों इनकार करती हो। शायद तुम्हें इस बात का रंज है कि यकायक तुम्हारे जीते रहने की खबर पाकर भी गोपालसिंह तुम्हें देखने के लिए न आए" [ २४३ ]कमलिनी—देखने के लिए आना तो दूर रहा, अपने हाथ से एक पुर्जा लिख कर यह भी न पूछा कि तेरा मिजाज कैसा है!

लाड़िली--आने-जाने वाले आदमी तक से भी हाल न पूछा!

लक्ष्मीदेवी--(धीरे से) एक कुत्ते की भी इतनी बेकदरी नहीं की जाती!

कमलिनी--ऐसी हालत में रंज हुआ ही चाहे, जब आप यह कहते हैं कि राजा गोपाल सिंह के छोटे भाई हैं, और मैं समझती हूँ कि आप झूठ भी नहीं कहते होंगे, तभी हम लोगों को इतना कहने का हौसला भी होता है। आप ही कहिए कि राजा साहब को क्या यही उचित था?

कृष्ण जिन्न--मगर तुम इस बात का क्या सबूत रखती हो कि राजा साहब ने इनकी बेकदरी की ? औरतों की भी विचित्र बुद्धि होती है ! असल बात तो जानती नहीं और उलाहना देने पर तैयार हो जाती हैं।

कमलिनी--सबूत अब इससे बढ़कर क्या होगा जो मैं कह चुकी हूँ ? अगर एक दिन के लिए चुनारगढ़ आ जाते तो क्या पैर की मेंहदी छूट जाती!

कृष्ण जिन्न-अपने बड़े लोगों के सामने अपनी स्त्री को देखने के लिए आना क्या उचित होता? मगर अफसोस, तुम लोगों को तो इस बात की खबर ही नहीं कि राजा गोपालसिंह महाराज वीरेन्द्रसिंह के भतीजे होते हैं और इसी सबब से लक्ष्मीदेवी को अपने घर में आ गई जानकर उन्होंने किसी तरह की जाहिरदारी न की।

सब--(ताज्जुब से) क्या महाराज उनके चाचा होते हैं?

कृष्ण जिन्न--हाँ, यह बात पहले केवल हमी दोनों आदमियों को मालूम थी और तिलिस्म तोड़ने के समय दोनों कुमारों को मालूम हुई या आज मेरी जुबानी तुम लोगों ने सुनी। खुद महाराज वीरेन्द्रसिंह को भी अभी तक यह बात मालूम नहीं है।

लक्ष्मीदेवी-अच्छा अच्छा, जब नातेदारी इतनी छिपी हुई थी तो

कमलिनी--(लक्ष्मीदेवी को रोककर) बहिन, तुम रहने दो, मैं इनकी बातों का जवाब दे लूंगी ! (कृष्ण जिन्न से) तो क्या गुप्त रीति से वह यहाँ एक चिट्ठी भी नहीं भेज सकते थे?

कृष्ण जिन्न--चिट्ठी भेजना तो दूर रहा, गुप्त रीति से खुद कई दफे आकर वे इनको देख भी गये हैं।

लाड़िली--अगर ऐसा ही होता तो रंज काहे का था!

कमलिनी--इस बात को तो वह कदापि साबित नहीं कर सकते!

कृष्ण जिन्न--यह बात बहुत सहज में साबित हो जायगी और तुम लोग सहज ही में मान भी जाओगी, मगर जब उनका और तुम्हारा सामना होगा तब।

कमलिनी--तो आपकी राय है कि बिना सन्तोष हुए और बिना बुलाये बेइज्जती के साथ हमारी बहिन जमानिया चली जाय?

कृष्ण जिन्न--बिना बुलाये कैसे ? आखिर मैं यहाँ किस लिए आया हूँ। (जेब से एक चिट्ठी निकाल कर और लक्ष्मीदेवी के हाथ में देकर) देखो, उनके हाथ की लिखी चिट्ठी पढ़ो। [ २४४ ]

चिट्ठी में यह लिखा हुआ था––

"चिरंजीव कृष्ण योग्य लिखी गोपालसिंह का आशीर्वाद––आज तीन दिन हुए एक पत्र तुम्हें भेज चुका हूँ। तुम छोटे भाई हो, इसलिए विशेष लिखना उचित नहीं समझता, केवल इतमा लिखता हूँ कि चिट्ठी देखते ही चले आओ और अपनी भावज को तथा उनकी दोनों बहिनों को जहाँ तक जल्दी हो सके, यहाँ ले आओ।"

इस चिट्ठी को बारी-बारी से सभी ने पढ़ा।

कमलिनी––मगर इस चिट्ठी में कोई ऐसी बात नहीं लिखी है, जिससे लक्ष्मीदेवी के साथ हमदर्दी पाई जाती हो! जब हाथ दुखाने बैठे ही थे तो एक चिट्ठी इनके नाम की भी लिख डाली होती! इन्हें नहीं तो मुझी को कुछ लिख भेजा होता। मेरा उनका सामना हुए भी तो बहुत दिन नहीं हुए। मालूम होता है कि थोड़े ही दिनों में वे बेमुरौवत और कृतघ्न भी हो गए।

कृष्ण जिन्न––कृतघ्न का शब्द तुमने बहुत ठीक कहा! मालूम होता है कि तुम उन पर अपनी कार्रवाइयों का अहसान डालना चाहती हो?

कमलिनी––(क्रोध से) क्यों नहीं? क्या मैंने उनके लिए थोड़ी मेहनत की है? और इसका क्या यही बदला था?

कृष्ण जिन्न––जब अहसान और उसके बदले का खयाल आ गया तो मुहब्बत कैसी और प्रेम कैसा? मुहब्बत और प्रेम में अहसान और बदला चुकाने का तो खयाल ही नहीं होना चाहिए। यह तो रोजगार और लेने-देने का सौदा हो गया! और अगर तुम इसी बदला चुकाने वाली कार्रवाई को प्रेमभाव समझती हो तो घबराती क्यों हो? समझ लो कि दूकानदार नादेहन्द है, मगर बदला देने योग्य है, तो कभी-न-कभी बदला चुक ही जायगा। हाय हाय, औरतें भी कितना जल्द अहसान जताने लगती हैं! क्या तुमने कभी यह भी सोचा है कि तुम पर किसने अहसान किया और तुम उसका बदला किस तरह चुका सकती हो? अगर तुम्हारा ऐसा ही मिजाज है और बदला चुकाये जाने की तुम ऐसी ही भूखी हो तो बस हो चुका। तुम्हारे हाथों से किसी गरीब असमर्थ या दीन-दुखिया का भला कैसे हो सकता है? क्योंकि उसे तो तुम बदला चुकाने लायक समझोगी ही नहीं!

कमलिनी―(कुछ शरमाकर) क्या राजा गोपालसिंह भी कोई असमर्थ और दीन हैं?

कृष्ण जिन्न––नहीं हैं। तो तुमने राजा समझकर उन पर अहसान किया था? अगर ऐसा है तो मैं तुम्हें उनसे बहुत-सा रुपया दिलवा सकता हूँ।

कमलिनी––क्षमा करें, मैं रुपये की भूखी नहीं हूँ।

कृष्ण जिन्न––बहुत ठीक, तब तुम प्रेम की भूखी होगी?

कमलिनी––बेशक!

कृष्ण जिन्न––अच्छा तो जो आदमी प्रेम का भूखा है, उसे दीन, असमर्थ और समर्थ में अहसान करते समय भेद क्यों दिखने लगा और इसके देखने की जरूरत ही क्या है? ऐसी अवस्था में यही जान पड़ता है कि तुम्हारे हाथों से गरीब, असमर्थ और [ २४५ ]दुखियों को लाभ नहीं पहुँच सकता, क्योंकि न तो वे समर्थ हैं और न तुम उनसे उस अहसान के बदले में प्रेम ही पाकर खुश हो सकती हो।

कमलिनी--आपके इस कहने से मेरी बात नहीं कटती। प्रेमभाव का बर्ताव करके तो अमीर और गरीब, बल्कि गरीब-से-गरीब आदमी भी अहसान का बदला उतार सकता है! और कुछ नहीं तो वह कम-से-कम अपने ऊपर अहसान करने वाले का कुशल-मंगल ही चाहेगा। इसके अतिरिक्त अहसान और अहसान का जस माने बिना दोस्ती भी तो नहीं हो सकती। दोस्ती की तो बुनियाद ही नेकी है! क्या आप उसके साथ दोस्ती कर सकते हैं, जो आपके साथ बदी करे?

कृष्ण जिन्न--अगर तुम केवल उपकार मान लेने ही से खुश हो सकती हो तो चलकर राजा साहब से पूछो कि वह तुम्हारा उपकार मानते हैं या नहीं, या उनको कहो कि उपकार मानते हों तो इसकी मुनादी करवा दें, जैसा कि लक्ष्मीदेवी ने इन्द्रदेव का उपकार मानकर किया था।

लक्ष्मीदेवी--(शरमा कर) मैं भला उनके अहसान का बदला क्योंकर अदा कर सकती हूँ और मुनादी कराने से होता ही क्या है?

कृष्ण जिन्न--शायद राजा गोपालसिंह भी यही सोच कर चुप बैठ रहे हों और दिल में तुम्हारी तारीफ करते हों।

लक्ष्मीदेवी--(कमलिनी से) तुम व्यर्थ की बातें कर रही हो। इस वाद-विवाद से क्या फायदा होगा! मतलब तो इतना ही है कि मैं उस घर में नहीं जाना चाहती जहाँ अपनी इज्जत नहीं, पूछ नहीं, चाह नहीं और जहाँ एक दिन भी रही नहीं।

कृष्णा--अच्छा इन सब बातों को जाने दो, मैं एक दूसरी बात कहता हूँ उसका जवाब दो।

कमलिनी--कहिए।

कृष्णा--जरा विचार करके देखो कि तुम उनको तो बेमुरौवत कहती हो, इसका खयाल भी नहीं करतीं कि तुम लोग उनसे कहीं बढ़कर बेमुरौवत हो! राजा गोपालसिंह एक चिट्ठी अपने हाथ से लिखकर तुम्हारे पास भेज देते तो तुम्हें सन्तोष हो जाता मगर चिट्ठी के बदले में मुझे भेजना तुम लोगों को पसन्द न आया! अच्छा, अहसान जताने का रास्ता तो तुमने खोल ही दिया है, खुद गोपालसिंह पर अहसान बता चुकी हो, तो अगर अब मैं भी यह कहूँ कि मैंने भी तुम लोगों पर अहसान किया है तो क्या बुराई है?

कमलिनी--कोई बुराई नहीं है और इसमें कोई सन्देह भी नहीं है कि आपने हम लोगों पर बहुत बड़ा अहसान किया है और बड़े वक्त पर ऐसी मदद की है कि कोई दूसरा कर ही नहीं सकता था। हम लोगों का बाल-बाल आपके अहसान से बँधा हुआ है।

कृष्ण जिन्न--तो अगर मैं ही राजा गोपालसिंह बन जाऊँ तो।

कृष्ण जिन्न की इस आखिरी बात ने सभी को चौंका दिया। लक्ष्मीदेवी, कमलिनी [ २४६ ]और लाड़िली कृष्ण जिन्न का मुँह देखने लगीं। कृष्ण जिन्न इस समय भी ठीक उसी सूरत में था जिस सूरत में अब से पहले कई दफ़े हमारे पाठक उसे देख चुके हैं।

कृष्ण जिन्न ने अपने चेहरे पर से एक झिल्ली-सी उतारकर अलग रख दी और उसी समय कमलिनी ने चिल्लाकर कहा, “अहा, ये तो स्वयं राजा गोपालसिंह हैं!” और तब यह कहकर उनके पैरों पर गिर पड़ी, “आपने तो हम लोगों को अच्छा धोखा दिया!” [ आवरण ]