चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.3

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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कैद से छुटकारा मिलने के बाद बीमारी के सबब से यद्यपि भीमसेन को घर जाना पड़ा और वहाँ उसकी बीमारी बहुत जल्दी जाती रही, मगर घर में रहने का जो सुख उसको मिलना चाहिए वह न मिला क्यों एक तो माँ के मरने का रंज और गम उसे हद से ज्यादा था और अब वह घर काटने को दौड़ता था, दूसरे थोड़े ही दिन बाद बाप के मरने की खबर भी उसे पहुँची, जिससे वह बहुत ही उदास और बेचैन हो गया। इस समय उसके ऐयार लोग भी वहीं मौजूद थे जो बाहर से यह दुखदायी खबर लेकर लौट आये थे। पहले तो उसके ऐयारों ने उसे बहुत समझाया और राजा वीरेन्द्रसिंह से सुलह कर लेने में बहुत सी भलाइयाँ दिखाईं, मगर उस नालायक के दिल में एक भी न बैठी और वह राजा वीरेन्द्रसिंह से बदला लेने तथा किशोरी को जान से मार डालने की कसम खाकर घर से बाहर निकल पड़ा। बाकरअली, खुदाबक्श, अजायबसिंह और यारअली इत्यादि उसके लालची ऐयारों ने भी लाचार होकर उसका साथ दिया।

अब की दफा भीमसेन ने अपने ऐयारों के सिवाय और किसी को भी साथ न लिया, हाँ रुपये-अशर्फी या जवाहिरात की किस्म में से जहाँ तक उससे बना या जो कुछ भी उसके पास था, लेकर अपने ऐयारों को लालच भरी उम्मीदों का सब्जबाग दिखाता रवाना हुआ और थोड़ी दूर जाने के बाद ऐयारों के साथ ही उसने भी अपनी सूरत बदल ली।

"राजा वीरेन्द्रसिंह को किस तरह नीचा दिखाना चाहिए और क्या करना चाहिए?" इस विषय पर तीन दिन तक उन लोगों में बहस होती रही और अन्त में यह निश्चय किया गया कि राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान तथा आपस वालों का मुकाबला करने के पहले उनके दुश्मनों से दोस्ती बढ़ाकर अपना बल खूब पुष्ट कर लेना चाहिए। इस इरादे पर वे लोग बहुत कुछ कायम भी रहे और माधवी, मायारानी तथा तिलिस्मी दारोगा वगैरह से मुलाकात करने की फिक्र करने लगे।

कई दिनों तक सफर करने और घूमने-फिरने के बाद एक दिन ये लोग दोपहर होते-होते एक घने जंगल में पहुँचे। चार-पाँच घण्टे आराम कर लेना इन लोगों को बहुत जरूरी मालूम हुआ क्योंकि गर्मी की चलाचली का जमाना था और धूप बहुत कड़ी और दुःखदायी थी। मुसाफिरों को तो जाने दीजिये, जंगली जानवरों और आकश में उड़ने वाली तथा बात-की-बात में दूर-दूर की खबर लाने वाली चिड़ियाओं को भी पत्तों की आड़ से [ १२ ]निकलना बुरा मालूम होता था।

इस जंगल में एक जगह पानी का झरना भी जारी था और उसके दोनों तरफ पेड़ों की घनाहट के सबब और जगहों के बनिस्बत ज्यादा ठंडक थी। ये पाँचों मुसाफिर भी झरने के किनारे पत्थर की साफ चट्टान देखकर बैठ गए और आपस में इधर-उधर की बातें करने लगे। इसी समय बातचीत की आहट पाने और निगाह दौड़ाने पर इन लोगों की निगाह दस-बारह सिपाहियों पर पड़ी जिन्हें देख भीमसेन चौंका और उनका पता लगाने के लिए अजायबसिंह से कहा, क्योंकि दोस्तों और दुश्मनों के खयाल से उसका जो एक पल के लिए भी ठिकाने नहीं रहता था और 'पत्ता खड़का बन्दा भड़का' की कहावत का नमूना बन रहा था।

भीमसेन की आज्ञानुसार अजायबसिंह ने उन आदमियों का पीछा किया और दो घंटे तक लौट कर न आया। तब दूसरे ऐयारों को भी चिन्ता हुई और वे अजायबसिंह की खोज में जाने के लिए तैयार हुए मगर इसकी नौबत न पहुँची, क्योंकि उसी समय अजायबसिंह अपने साथ कई सिपाहियों को लिए भीमसेन की तरफ आता दिखाई दिया। अजायबसिंह के इस तरह आने ने पहले तो सभी को खुटके में डाल दिया मगर जब अजायबसिंह ने दूर ही से खुशी का इशारा किया तब सभी का जी ठिकाने हुआ और उसके आने का इन्तजार करने लगे। पास आने पर अजायबसिंह ने भीमसेन से कहा, "इस जंगल में आकर टिक जाना हम लोगों के लिए बहुत अच्छा हुआ क्योंकि रानी माधवी से मुलाकात हो गई। आज ही उनका डेरा भी इस जंगल में आया है। कुबेरसिंह सेनापति और चार-पाँच सौ सिपाही उनके साथ हैं। जिन लोगों का मैंने पीछा किया था वे भी उन्हीं के सिपाहियों में से थे और ये भी उन्हीं के सिपाही हैं जो मेरे साथ आपको बुलाने के लिए आए हैं।"

माधवी की खबर सुनकर भीमसेन उतना ही खुश हुआ जितना अजायबसिंह की जुबानी भीमसेन के आने की खबर पाकर माधवी खुश हुई थी। अजायबसिंह की बात सुनते ही भीमसेन उठ खड़ा हुआ और अपने ऐयारों को साथ लिए हुए घड़ी भर के अन्दर ही अपनी बेहया बहिन माधवी से जा मिला। ये दोनों एक-दूसरे को देखकर बहुत खुश हुए मगर उन दोनों की मुलाकात कुबेरसिंह को अच्छी न मालूम पड़ी जिसका सबब क्या था सो हमारे पाठक लोग खुद ही समझ सकते हैं।

थोड़ी देर तक भीमसेन और माधवी ने कुशल-मंगल पूछने में बिताया। माधवी ने खाने-पीने की चीजें तैयार करने का हुक्म दिया, क्योंकि उसे अपने अनूठे भाई की खातिरदारी आज मंजूर थी और इसलिए बड़ी मुहब्बत के साथ देर रात तक बातें होती रहीं।

माधवी को इस जंगल में आये आज पाँच दिन हो चुके हैं। पाँचवें दिन दोपहर के समय भीमसेन से मुलकात हुई थी। उसका (कुबेरसिंह का) ऐयार दुश्मनों की खोज खबर लगाने के लिए कहीं गया हुआ था क्योंकि माधवी और कुबेरसिंह ने इस जंगल में पहुँच कर निश्चय कर लिया था कि पहले दुश्मनों का हाल-चाल मालूम करना चाहिए, इसके वाद जो कुछ मुनासिब होगा; किया जायगा।