चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.5
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आधी रात का समय था जब लीला और मायारानी उस जंगल में पहुँची जिसमें माधवी और भीमसेन टिके हुए थे। जब ये दोनों उसके पास पहुँची और लीला को वहाँ टिके हुए बहुत से आदमियों की आहट मिली तो वह मायारानी को एक ठिकाने खड़ा करके पता लगाने के लिए उसकी तरफ गई।
हम ऊपर बयान कर चुके है कि सेनापति कुबेरसिंह के साथ थोड़ी-सी फौज भी थी––अब लीला को थोड़ी ही कोशिश से मालूम हो गया कि यहाँ सैकड़ों आदमियों का डेरा पड़ा हुआ है और वे लोग इस ढंग से घने जंगल में आड़ देख टिके हुए हैं जैसे डाकुओं का गिरोह या छिपकर धावा मारने वाले टिकते हैं और हर वक्त होशियार रहते हैं। लीला खूब जानती थी कि राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके साथी या सम्बन्धी अगर किसी काम के लिए कहीं जाते हैं या लड़ाई करते हैं तो छिपकर या आड़ पकड़कर डेरा नहीं डालते। हाँ, अगर अकेले या ऐयार लोग हों तो शायद ऐसा करें, मगर जब उनके साथ सौ-पचास आदमी या कुछ फौज होगी, तब कदापि ऐसा न करेंगे, इसलिए उसे गुमान हुआ कि ये लोग जरूर कोई गैर हैं, बल्कि ताज्जुब नहीं कि हमारा साथ देने वाले हों, अब बहुत सी बातों को सोच-विचार और अपनी ऐयारी पर भरोसा करके लीला माधवी की फौज में घुस गयी और वहाँ बहुत से सिपाहियों को होशियार तथा पहरा देते हुए देखा।
पहले लिखा जा चुका है कि लीला भेष बदले हुए थी और यह भी दर्शाया गया है कि माधवी और कुबेरसिंह अपनी सुरत में सफर करते थे।
लीला को कई सिपाहियों ने देखा और एक ने टोका कौन है?
लीला––एक मुसाफिर परदेशी औरत।
सिपाही––यहाँ क्यों चली आ रही है?
लीला––अपनी भलाई की आशा से।
सिपाही––क्या चाहती है?
लीला––आपके सरदार से मिलना।
सिपाही––अपना परिचय दे तो सरदार के पास भिजवा दूँ।
लीला––परिचय देने में तो कोई हर्ज नहीं है, मगर डरती हूँ कि आप लोग भी कहीं उन्हीं में से न हों जिन्होंने मुझे लूट लिया है, यद्यपि अब मैं बिल्कुल खाली हो रही हूँ मगर...
इतने में और भी कई सिपाही वहाँ जुट आये और सभी ने लीला को घेरकर सवाल करना शुरू किया और लीला ने भी गौर करके जान लिया कि ये लोग राजा वीरेन्द्रसिंह के दल वाले नहीं हैं, क्योंकि उनके फौजी सिपाही अक्सर जर्द पोशाक काम में लाते हैं, इसी तरह से जमानिया वाले भी नहीं मालूम हुए, क्योंकि उनकी बातचीत और चाल-ढाल को लीला खूब पहचानती थी, अब कुछ और बातचीत होने पर लीला को विश्वास हो गया कि ये लोग उनमें से नहीं हैं जिसका मुझे डर है।
उन सिपाहियों को भी एक अकेली औरत से डरने की कोई जरूरत न थी, इसलिए उन्होंने अपने मालिक का नाम जाहिर कर दिया और लीला को लिए हुए उस जगह जा पहुँचे जहाँ माधवी और भीमसेन का बिस्तर लगा हुआ था और ये दोनों इस समय भी बैठे बातचीत कर रहे थे। लालटेन जलाया गया और लीला की सूरत अच्छी तरह देखी गयी, लीला ने भी उसी रोशनी में माधवी को पहचान लिया और खुश होकर बोली, "अहा, आप तो गया की रानी माधवीदेवी हैं।"
माधवीदेवी––और तू कौन है? लीला––मैं प्रसिद्ध मायारानी की ऐयारा हूँ और उन्हीं के साथ यहाँ तक आई भी हूँ। यह दुनिया का कायदा है कि एक से दूसरे को मदद पहुँचती है। अब जिस तरह आपको मायारानी से मदद पहुँच सकती है, उसी तरह आप मायारानी की भी मदद कर सकती हैं। वाह-वाह, यह समागम तो बहुत ही अच्छा हुआ। अगर आजकल मायारानी मुसीबत के दिन काट रही हैं तो क्या हुआ, मगर फिर भी वह तिलिस्म की रानी रह चुकी हैं और जो वह कर सकती हैं, किसी दूसरे से नहीं हो सकता। आप लोगों का एक हो जाना बहुत ही मुनासिब होगा, तब आप लोग जो चाहेंगी, कर सकेंगी।"
माधवीदेवी––(खुश होकर) मायारानी कहाँ हैं? उन्हें तो राजा वीरेन्द्रसिंह कैद करके चुनार ले गये थे।
लीला––जी हाँ, मगर मैं अभी कह चुकी हूँ कि मायारानी आखिर तिलिस्म की रानी हैं, इसलिए जो कुछ वह कर सकती हैं, किसी दूसरे के किए नहीं हो सकता। राजा वीरेन्द्रसिंह ने उन्हें कैद किया तो क्या हुआ, उनका छूटना कोई मुश्किल न था!
माधवीदेवी––बेशक-वेशक, अच्छा बताओ, वह कहाँ हैं?
लीला––यहाँ से थोड़ी दूर पर खड़ी हैं। किसी सरदार को भेजिये, उनका इस्तकबाल करके यहाँ ले आवे, दो-तीन सौ कदम से ज्यादा न चलना पड़ेगा।
माधवीदेवी––मैं खुद उन्हें लेने के लिए चलूँगी।
लीला––इससे बढ़कर और क्या हो सकता है? अगर आप उनकी इज्जत करेंगी तो वह भी आपके लिए जान तक देना जरूरी समझेंगी।
लीला ने अपनी लम्बी-चौड़ी बातों में माधवी को खूब उलझाया, यहाँ तक कि माधवी अपने साथ भीमसेन और कुबेरसिंह तथा सिपाहियों को लेकर मायारानी के पास गयी और उसे बड़ी खातिर और इज्जत के साथ अपने डेरे पर ले आई। जल मँगवाकर हाथ-मुँह धुलवाया और फिर बातचीत करने लगी।
माधवीदेवी––(मायारानी से) आपको वीरेन्द्रसिंह की कैद से छूट जाने पर मैं मुबारकबाद देती हूँ यद्यपि आपके लिए यह कोई बड़ी बात न थी।
मायारानी––बेशक, यह कोई बड़ी बात न थी, इस काम को तो अकेली मेरी सखी या ऐयारा लीला ही ने कर दिखाया। इस समय आपसे मिलकर मैं बहुत खुश हुई और इसमें अब शक करने की कोई जगह न रही कि आप पुनः गया की रानी और मैं जमानिया की मालिक बन जाऊँगी। दुनिया में एक का काम दूसरे हुआ ही करता है और जब हम आप एक दिल हो जायेंगे तो वह कौन-सा काम है जिसे नहीं कर सकते! मुझे आपके कैद होने की भी खबर लगी थी और मुझे इस बात का बहुत रंज था कि आपको मेरी छोटी बहिन कमलिनी ने कैदखाने की सूरत दिखाई थी।
माधवीदेवी––इधर तो यह सुनने में आया है कि आपसे और कमलिनी से कोई नाता नहीं है और लक्ष्मीदेवी भी प्रकट हो गई है। तथा उसे राजा वीरेन्द्रसिंह चुनार ले गये हैं।
मायारानी––(मुस्कुराकर) बेशक, ऐसा ही है, मगर जिस जमाने का मैं जिक्र कर रही हूँ, उस जमाने में वह मेरी ही बहिन कहलाती थी। और लक्ष्मीदेवी को राजा
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माधवीदेवी––(ताज्जुब से) हाँ! क्या कल मैं दुष्टा किशोरी की नापाक सूरत देख सकूँगी! उस पर मुझे बड़ा ही रंज है, और कमलिनी ने तो मुझे कैद ही किया था।
मायारानी––बेशक, कल किशोरी और कमलिनी इत्यादि तुम्हारे कब्जे में होंगी और गोपालसिंह भी तुम्हारे काबू में होगा जो वीरेन्द्रसिंह और उनके लड़कों की बदौलत तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन हो रहा है?
माधवीदेवी––निःसन्देह वह मेरा और तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन है, तो क्या उसकी गिरफ्तारी का इन्तजाम हो चुका है?
मायारानी––हाँ, चौदह आना इन्तजाम हो चुका जो दो आना बाकी है सो वह भी हो जायगा।
माधवी––क्या बन्दोबस्त हुआ है? और किस समय तथा किस तरह वे लोग गिरफ्तार किये जायेंगे?
मायारानी––(इधर-उधर देखकर)बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो मैं केवल तुम्हीं से कहूँगी कोई दूसरा उसके सुनने का अधिकारी नहीं है।
माधवी––बहुत अच्छा यह कोई बड़ी बात नहीं है।
इतना कहकर माधवी ने भीमसेन और कुबेरसिंह की तरफ देखा क्योंकि माधवी मायारानी और लीला के सिवाय केवल ये ही दो आदमी वहाँ मौजूद थे। भीमसेन ने कहा, "हम दोनों यहाँ से हट जाते हैं, तुम लोग बेधड़क बातें करो मगर (मायारानी से)मेरे एक सवाब का जवाब पहले मिलना चाहिए।"
मायारानी––वह क्या?
भीमसेन––आप अभी कह चुकी हैं कि कल किशोरी, कामिनी और लक्ष्मीदेवी वगैरह गिरफ्तार हो जायेंगी मगर मैंने सुना था कि राजा वीरेन्द्रसिंह के लश्कर में पहुँच कर मनोरमा ने किशोरी, कामिनी और कमला को जान से मार डाला, अब इस समय कोई और ही बात सुनने में आ रही है।
माधवी––हाँ, यह सवाल मैं भी करने वाली थी लेकिन बातों का सिलसिला दूसरी तरफ चला गया और मैं पूछना भूल गई।
मायारानी––हाँ, यह बात अच्छी तरह सुनने में आई थी और मुझे विश्वास भी हो गया था कि वास्तव में ऐसा ही हुआ है मगर आज यह बात खुद गोपालसिंह की लिखावट से खुल गई कि वास्तव में वे तीनों मारी नहीं गई, परन्तु मुझे यह मालूम नहीं है कि इस विषय में किस तरह की चालाकी खेली गई या मनोरमा ने जिन्हें मारा, वे कौन थीं।
भीमसेन––तो निश्चय है कि वे तीनों मारी नहीं गई?
मायारानी––बेशक वे तीनों जीती हैं। (गोपालसिंह वाली चिट्ठी दिखाकर) देखो एक ही सबूत से मैं तुम्हारी दिलजमई कर देती हूँ, इसे पढ़ो और माधवी रानी को सुनाओ। (माधवी से) देखो बहिन, तुम इस बात का खयाल न करना कि मैं तुम्हें आप कहकर सम्बोधन नहीं करती, मेरा तुम्हारा अब दोस्ती और मुहब्बत का नाता हो चुका इसलिए अब इन बातों का खयाल नहीं हो सकता।
माधवी––मैं भी यही पसन्द करती हूँ और इस बारे में अपने लिए भी तुमसे पहले ही माफी माँग लेती हूँ।
भीमसेन ने पत्र पढ़ा और माधवी को सुनाया।
भीमसेन––इस पत्र से तो बड़ा काम निकल सकता है! यह कब का लिखा है और तुम्हारे हाथ क्योंकर लगा तथा जिस अँगूठी का इसमें जिक्र किया गया है वह कहाँ है?
मायारानी––(अँगूठी दिखाकर) अँगूठी भी मुझे मिल गई है और यह चिट्ठी आज ही की लिखी है और आज ही मेरे हाथ लगी है। अभी इसकी कार्रवाई बिल्कुल बाकी है।
भीमसेन––अफसोस इतना ही है कि मेरे ऐयारों में से कोई भी रामदीन को नहीं जानता...
मायारानी––क्या हर्ज है, यह मेरी ऐयारा लीला बखूबी उसकी तरह बनकर काम निकाल सकती है, तुम्हारे ऐयार इसकी मदद पर मुस्तैद रह सकते हैं, और यह जब रामदीन की सूरत बनेगी तो इसे अच्छी तरह देख भी सकते हैं।
भीमसेन––(चिट्ठी मायारानी के हाथ में देकर) अच्छा अब तुम दोनों को जो कुछ गुप्त बातें करनी हैं कर लो पीछे मैं इस विषय में कुछ कहूँ सुनूँगा।
इतना कहकर भीमसेन उठ खड़ा हुआ और कुबेरसिंह को साथ लिए हुए कुछ दूर चला गया और मौका समझकर लीला भी कुछ पीछे हट गई।
मायारानी––जो कुछ पीछे कहोगी-सुनोगी उसे मैं पहले ही निपटा देना चाहती हूँ। सच पूछो तो मेरी और तुम्हारी अवस्था बराबर है, तुम भी विधवा हो और मैं भी विधवा हूँ, क्योंकि मैं वास्तव में गोपालसिंह की स्त्री नहीं हूँ और यह बात सभी को मालूम हो गई, बल्कि तुम भी सुन चुकी होगी।
माधवी––हाँ, मैं सुन चुकी हूँ, और मैंने यह भी सुना था कि तुमने राजा गोपालसिंह को वर्षों तक कैद कर रखा था पर आखिर कमलिनी ने उन्हें छुड़ा दिया। तो तुमने ऐसा क्यों किया और उन्हें मार ही क्यों न डाला?
मायारानी––यही मुझसे भूल हो गई। तिलिस्म के दो-चार भेद जो मुझे मालूम न थे जानने के लिए मैंने ऐसा किया था, मुझे उम्मीद थी कि वह कैद की तकलीफ उठाकर बता देगा। तब उसे मार डालती तो आज यह दिन देखना नसीब न होता, मैं तिलिस्म की बदौलत अकेली ही राजा वीरेन्द्रसिंह ऐसे दस को जहन्नुम में पहुँचा देने की ताकत रखती थी। अब भी अगर गोपालसिंह को मैं पकड़ पाऊँ और मार सकूँ तो पुनः तिलिस्म की रानी होने से मुझे कोई भी रोक नहीं सकता और तब मैं बात-की-बात में तुम्हें राजगृही और गया की रानी बना सकती हूँ, मगर उस बात का सिलसिला तो टूटा ही जाता है। तुम भी विधवा हो और मैं भी विधवा हूँ, तुम भी नौजवान और आशिक-मिजाज मैं भी नौजवान और आशिक-मिजाज हूँ, तुम भी इन्द्रजीतसिंह के फेर में पड़कर दुःख भोग रही हो और मैं भी आनन्दसिंह की मुहब्बत में इस दशा तक आ पहुँची हूँ, अब भी मेरी और तुम्हारी किस्मतों का फैसला एक साथ और एक ही ठिकाने हो सकता है क्योंकि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी आजकल जमानिया में तिलिस्म तोड़ रहे हैं, अगर हम तुम एक होकर काम करें तो बहुत जल्द दुश्मनों का नाम-निशान मिटाकर अपने प्यारों के साथ दुनिया का सुख भोग सकती हैं, मगर इस समय तुम्हारे दो कंटक दिखाई देते हैं।
माधवी––हाँ, एक तो मेरा भाई भीमसेन, और दूसरा मेरा सेनापति कुबेरसिंह, मगर तुम इन दोनों का कुछ भी खयाल न करो, इस समय हमें इन दोनों को मिला-जुलाकर काम ले लेना चाहिए फिर तुम जैसा कहोगी वैसा किया जायेगा।
मायारानी––शाबाश-शाबाश! यही मालूम करने के लिए मैं तुमसे निराले में बातचीत किया चाहती थी क्योंकि ये बातें ऐसी हैं कि सिवाय मेरे और तुम्हारे किसी तीसरे का न जानना ही अच्छा है।
माधवी––निःसन्देह ऐसा ही है, हम दोनों के दिल की बातें हवा को भी मालूम न होनी चाहिए। आज बड़ी खुशी का दिन है कि हम दोनों जो एक ही तरह का दिल रखती हैं यहाँ पर आ मिली हैं, अब हम दोनों को हमेशा मेल-मिलाप रखने और समय पड़ने पर एक-दूसरे की मदद करने के लिए कसम खाकर मजबूत हो जाना चाहिए।
पाठक, मायारानी और माधवी दोनों ही अपना मतलब देख रही हैं। दोनों ही धूर्त, दोनों ही खुदगरज, और दोनों विश्वासघातिनी हैं। इस समय कुछ देर तक दोनों में घुल-घुलकर बातें होती रहीं, वादे भी हुए और कसमें भी खाई गईं। इसके बाद फिर भीमसेन और कुबेरसिंह बुलाए गए तथा लीला भी आ गई और आपस में बातें होने लगीं।
भीमसेन––अच्छा तो अब क्या निश्चय किया जाता है? राजा गोपालसिंह की चिट्ठी लेकर जमानिया कौन जायेगा और क्या होगा?
मायारानी––पहले तुम अपनी राय दो।
भीमसेन––मेरी राय तो यह है कि लीला रामदीन की सूरत बना दीवानसाहब के पास जाये और वहाँ से उनकी फरमाइश लेकर 'पिपलिया घाटी' पहुँचे और हम लोग भी अपनी फौज लेकर वहीं मौजूद रहें। लीला को यह चाहिए कि उन दो सौ सवारों को जिन्हें जमानिया से अपने साथ लायेगी किसी वजह से पीछे टिकवा दे जिसमें गोपालसिंह के पहुँचते ही हम लोग बात-की-बात मे उन सभी को गिरफ्तार कर लें या मार डालें।
मायारानी––मगर यह बात मुझे नापसन्द है क्योंकि एक तो उसके लिखे अनुसार फौज 'पिपलिया घाटी' तक जरूर जायेगी, अगर मान लिया जाये कि नकली रामदीन के हुक्म से फौज पीछे रह भी जाये और तुम लोग उन सभी को गिरफ्तार कर लो तो भी हमारा काम न निकल सकेगा क्योंकि राजा गोपालसिंह के पकड़े या मारे जाने की खबर दीवान को तुरन्त लग जायेगी और वह अपनी फौज को दुरुस्त करके लड़ने के लिए तैयार हो जायेगा और हम लोगों को जमानिया के अन्दर कभी घुसने न देगा। कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी जमानिया ही में तिलिस्म के अन्दर हैं, वे दोनों भी लड़ने-भिड़ने के लिए तैयार हो जायेंगे और उस समय हम लोग फिर लंडूरे ही रह जायेंगे, इतना बखेड़ा करने का कुछ फायदा न निकलेगा, न तो जमानिया की गद्दी मिलेगी और न गया का राज्य।
भीमसेन––तब आप ही कहिए कि क्या करना चाहिये।
मायारानी––(कुबेरसिंह से) इस वक्त आपके पास कितनी फौज है?
कुबेरसिंह––पाँच सौ।
मायारानी––(माधवी से) ऐसा करना चाहिए कि हम तुम भीमसेन और कुबेरसिंह चारों आदमी जमानिया वाले तिलिस्मी बाग के अन्दर जा घुसे और इन पाँच सौ आदमियों को इस तरह तिलिस्मी बाग के अन्दर ले चलें और छिपा रखें कि किसी को कानों-कान खबर न हो, क्योंकि उस बाग में इतने आदमियों को छिपा रखने की जगह है और वह बाग भी इस लायक है कि अगर मैं उसके अन्दर मौजूद रहूँ तो चाहे कैसा ही जबरदस्त दुश्मन हो और चाहे कितनी ही ज्यादा फौज लेकर क्यों न चढ़ आवे मगर बाग के अन्दर किसी की नजर तक पहुँचने न दूँ।
माधवी––बेशक वह ऐसा ही सुनने आया है और तुम तो वहाँ की रानी ही ठहरी तथा तुम्हें वहाँ के सब भेद मालूम हैं, अच्छा तब?
मायारानी––जब किशोरी और कमलिनी इत्यादि को लेकर गोपालसिंह जमानिया जायेगा तो निःसन्देह सबको लिए उसी बाग में पहुँचेगा। बस उस समय हम लोग जो छिपे हुए रहेंगे, निकल आवेंगे और बात-की-बात में सभी को मार लेंगे। ऐसा से जमानिया में दखल भी बना रहेगा और इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह भी कब्जे में आ जायेंगे।
माधवी––(खुश होकर) बात तो बहुत ठीक है, मगर हम लोग इतने आदमियों को लेकर चुपचाप उस बाग के अन्दर किस तरह पहुँच सकते हैं?
मायारानी––इसका बन्दोबस्त इस तरह हो सकता है कि हम तुम भीमसेन और कुबेरसिंह एक साथ ही भेष बदलकर लीला के साथ जमानिया जायें और लीला दीवान साहब से कहे कि गोपालसिंह ने इन सभी अर्थात् हम लोगों को खास बाग के अन्दर पहुँचा देने का हुक्म दिया है। बस इतना कहकर हम लोगों को उस बाग के अन्दर पहुँचा दे क्योंकि दीवान इस नकली रामदीन की बात अँगूठी की बरकत से टाल न सकेगा और रामदीन पहले भी उस बाग के अन्दर आता-जाता था यह बात दीवान जानता है। जब हम लोग उस बाग के अन्दर जा पहुँचेंगे तो एक गुप्त रास्ते से कुल फौज को बाग के अन्दर ले लेंगे। इन फौजी सिपाहियों को उस सुरंग के मुहाने का पता बता दिया जायेगा जिसकी राह से हम सभी को खास बाग के अन्दर पहुँचावेंगे।
माधवी––यह बात तो तुमने बहुत ही अच्छी सोची! भीमसेन––इससे बढ़कर और कोई तरकीब फतेह पाने के लिए हो ही नहीं सकती!
कुबेरसिंह––और ऐसा करने में कोई टण्टा भी नहीं है।
लीला––बस, अब इसी राय को पक्की रखिए।
इसके बाद फिर सभी में बातचीत और राय होती रही यहाँ तक कि सवेरा हो या। मायारानी, माधवी, भीमसेन और कुबेरसिंह ने सूरतें बदल ली और लीला भी रामदीन बन बैठी। भीमसेन के चारों ऐयारों को सुरंग का पता-ठिकाना अच्छी तरह बता दिया गया और कह दिया गया कि उसी ठिकाने सुरंग के मुहाने पर फौजी सिपाहियों को लेकर इन्तजार करना, इसके बाद मायारानी, माधवी, भीमसेन, कुबेरसिंह और लीला ने घोड़ों पर सवार होकर जमानिया का रास्ता लिया।