चन्द्रकान्ता सन्तति 5/20.10
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अब देखना चाहिए कि देवीसिंह का साथ छोड़ के भूतनाथ ने क्या किया। भूतनाथ भी वास्तव में एक विचित्र ऐयार है। जिस तरह वह ऐयारी के फन में बड़ा ही तेज और होशियार है और जिस काम के पीछे पड़ जाता है उसे कुछ-न-कुछ सीधा किये बिना नहीं रहता, उसी तरह वह निडर भी परले सिरे का कहा जा सकता है। यद्यपि आज-कल उसे इस बात की धुन चढ़ी हुई है कि उसके दो-एक पुराने ऐब, जिनके सबब से उसकी ऐयारी में धब्बा लगता है, छिपे रह जायें और वह किसी-न-किसी तरह राजा वीरेन्द्रसिंह का ऐयार बन जाय, मगर फिर भी ऐयारी के समय अपना काम निकालने की धुन में वह जान तक की परवाह नहीं करता। इस मौके पर भी उसने नकाबपोशों का पीछा करके जो कुछ किया उसके विषय में भी यही कहने की इच्छा होती है कि उसने अपनी जान को हथेली पर लेकर वह काम किया, जिसका हाल अब हम लिखते हैं।
संध्या होने में अभी घण्टे भर की देर है। उसी खोह के मुहाने पर जिसके अन्दर नकाबपोशों का मकान है या जिसमें भूतनाथ और देवीसिंह नकाबपोशों का पता लगाते हुए गए थे, हम दो नकाबपोशों को ढाल-तलवार लगाये, हाथ में हाथ दिये टहलते हुए देखते हैं। इन दोनों नकाबपोशों की पोशाक और नकाव साधारण थी और हाथ-पैर से भी ये दोनों दुबले-पतले और कमजोर मालूम पड़ते थे। हम नहीं कह सकते कि ये दोनों यहाँ कितनी देर से और किस फिक्र में घूम रहे हैं तथा आपस में किस ढंग की बातें कर रहे हैं, हाँ, इनके हाव-भाव से इस बात का पता जरूर लगता है कि ये दोनों किसी के आने का इन्तजार कर रहे हैं। ऐसे ही समय में अचानक एक आदमी इनके पास आकर खड़ा हो गया जो सुरत-शक्ल आदि से बिल्कुल उजड्ड और देहाती मालूम पड़ता था तथा जिसके हाथ-पैर तथा चेहरे पर गर्द रहने से यह भी जान पड़ता था कि यह कुछ दूर से सफर करता हुआ आ रहा है।
दोनों नकाबपोशों ने उसकी सूरत गौर से देखी और एक ने पूछा, "तू कौन है और क्या चाहता है?"
उस देहाती ने नकाबपोश की बात का कुछ जवाब न दिया और इशारे से बताया कि यहाँ से थोड़ी दूर पर कोई किसी को मार रहा है।
पुनः एक नकाबपोश ने पूछा, "क्या तू गूँगा है?"
इसका भी उसने कुछ जवाब न देकर फिर पहले की तरह इशारे से कुछ समझाया और अपने साथ आने के लिए कहा।
दोनों नकाबपोशों को विश्वास हो गया कि यह गूँगा-बहरा और साथ ही इसके उजड्ड तथा बेवकूफ भी है, अतः एक नकाबपोश ने अपने साथी से कहा, "इसके साथ जाकर देखो तो सही, क्या कहता है।"
दोनों नकाबपोश उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गये और वह भी यह इशारा करके कि तुम्हें थोड़ी ही दूर चलना पड़ेगा, उन्हें अपने साथ लिए हुए पूरब की तरफ रवाना हुआ।
थोड़ी दूर जाने के बाद उस देहाती ने जमीन पर गिरे कई रुपये और दो-तीन जनाने जेवर नकाबपोशों को दिखाए जिससे इन्हें ताज्जुब हुआ और उन्होंने उस देहाती को जेवर और रुपये उठा लेने के लिए कहा, मगर उस देहाती ने ऐसा करने से इनकार किया और आगे चलने के लिए इशारा किया।
दोनों नकाबपोश भी जेवरों और रुपयो को उसी तरह छोड़ उस देहाती के पीछे-पीछे चलकर और आगे बढ़े तथा कुछ दूर चलने पर पुनः दो-तीन जेवर और एक कटा हुआ हाथ जमीन पर पड़ा देखा। ताज्जुब में आकर एक नकाबपोश ने दूसरे से कहा, "यह क्या मामला है? हमारे पड़ोस ही में कोई बुरी घटना हुई जान पड़ती है?"
दूसरा––रंग तो ऐसा ही मालूम पड़ता है!
पहला––यह कटा हाथ और जेवर भी किसी औरत के जान पड़ते हैं।
दूसरा––बेशक ये जेवर उसी के होंगे, इस बात का पता लगा कर अपने सरदार को इत्तिला देनी चाहिए।
ये बातें हो ही रही थीं कि आगे से किसी औरत के रोने की आवाज इन दोनों नकाबपोशों ने सुनी, जिससे ताज्जुब में आकर ये और आगे की तरफ बढ़े।
इसी तरह चलकर वे दोनों अपने स्थान से काफी दूर निकल गये और अन्त में एक औरत को जोर-जोर से रोते-चिल्लाते देखा। यह औरत साधारण न थी बल्कि किसी अमीर घर की मालूम पड़ती थी। इसके बदन में खूशबूदार फूलों के जेवर पड़े हुए थे और यह दोनों हाथ से अपना सिर पीट कर रो रही थी। इसके सामने एक दूसरी औरत की लाश पड़ी हुई थी और उसके बदन में भी खुशबूदार फूलों के जेवर पड़े हुए थे। उस लाश के बदन से खून बह रहा था और उसका एक हाथ कटा हुआ था।
थोड़ी देर तक ताज्जुब के साथ देखने के बाद एक नकाबपोश ने उस औरत से पूछा, "इसे किसने मारा और यह तेरी कौन है?" इसके जवाब में उस औरत ने अपने आँचल से आँसू पोंछ कर कहा, "मैं क्या बताऊँ कि किसने मारा! तुम्हारे किसी साथी ने मारा है, अब तुम मुझे भी मारकर छुट्टी करो जिससे बखेड़ा ही तय हो जाये।"
एक नकाबपोश––(ताज्जुब और क्रोध के साथ) क्या हम लोग ऐसे नामर्द और पतित हैं जो औरतों के खून से अपना हाथ रँगेंगे?
औरत––मैं तो यही सोचती हूँ, जब खुद मुझी पर बीत चुकी और वीत रही है, तब मैं और क्या कहूँ ? शायद आप न हों, मगर आप ही की तरह पर्दे में मुँह छिपाने वालों ने इसे मारा है। चाहे वह मर्द हो या औरत मगर याद रहे कि इसका बदला लिए बिना न रहूँगी या इसके साथ अपनी भी जान दे दूँगी।
नकाबपोश––मगर यह तू कह किससे रही है और तुझे क्योंकर यकीन हो गया कि इसे हमारे साथियों ने मारा है?
औरत––तुम्हीं लोगों से कह रही हूँ और मुझे यह अच्छी तरह यकीन है कि इसे तुम्हारे साथियों ने मारा है! नकाबपोश––(क्रोध से) क्या कहूँ, तू औरत है, तुझ पर हाथ छोड़ नहीं सकता, अगर कोई मर्द ऐसा बातें करता तो उसे ऐसी कहने का मजा चखा देता!
औरत––शायद मुझे धोखा हुआ हो मगर इसमें कोई शक नहीं कि जिसने इसे मारा है वह तुम्हारी ही तरह का था।
नकाबपोश––तू अपना और इसका हाल तो कह, शायद उससे कुछ पता लगे।
औरत––मैं इस जगह कुछ भी नहीं कहने की, अगर तुम उन लोगों में से नहीं हो जिन्होंने मुझे सताया है और असल मर्द हो, तो मुझे अपने सरदार के पास ले चलो, उसी जगह मैं सब हाल कहूँगी।
नकाबपोश––हमारे सरदार के पास तू नहीं जा सकती।
औरत––तो अब मुझे विश्वास हो गया जो कुछ किया सब तुम लोगों ने किया।
इसी तरह की बातें देर तक होती रहीं। यद्यपि वे दोनों नकाबपोश उस औरत को अपने सरदार के पास ले चलना या उसे अपना पता देना नहीं चाहते थे, मगर उस औरत ने ऐसी तीखी-तीखी बातें कहीं कि वे दोनों जोश में आ गए और उसे तथा उस लाश को उठाकर अपने खोह के मुहाने पर चलने के लिए तैयार हो गये। उन्होंने लाश उठाकर ले चलने में मदद करने के लिए उस गूँगे देहाती को इशारे में कहा, मगर उसने ऐसा करने से साफ इनकार किया बल्कि जब उन दोनों नकाबपोशों ने उसे डांटा तब वह डरकर वहाँ से भागा और कुछ दूर पर जाकर खड़ा हो गया।
फिर उन दोनों नकाबपोशों ने उस गूँगे से कुछ कहना उचित न जाना और जोश में आकर खुद लाश को उठाकर ले चलने के लिए तैयार हो गये, क्योंकि उन्हें इस बात का पूरा विश्वास था कि इस औरत की जुबानी जरूर कोई अनूठी बात सुनेंगे।
हम ऊपर बयान कर चुके हैं कि उस औरत की लाश भी फूलों के गहनों से भरी हुई थी, अब इतना और कह देना है कि उन फूलों पर बेहोशी की दवा इस ढंग पर छिड़की हुई थी कि कुछ मालूम नहीं होता था और खुशबू के सबब नकाबपोशों पर उसका कुछ असर हो चुका था मगर उन्हें इस बात का खयाल कुछ भी न था।
जब उन दोनों ने उस लाश को उठा लिया और फूलों की खुशबू को तेजी के साथ दिमाग में घुसने का मौका मिला, तब उन दोनों नकाबपोशों ने समझा कि हमारे साथ ऐयारी की गई। मगर अब कर ही क्या सकते थे? तुरत सिर में चक्कर आने लगा जिसके सबब से वे दोनों बैठ गये और साथ ही इसके बेहोश होकर जमीन पर लम्बे हो गये। उसी समय औरत की लाश भी चैतन्य हो गई और वह देहाती गूँगा भी उनकी खोपड़ी पर आ मौजूद हुआ। उस औरत ने देहाती गूँगे से कहा, "अब क्या करना चाहिए?"
देहाती––बस अब हमारा काम हो गया, अब इन्हें मालूम हो जायगा कि भूतनाथ कोई साधारण ऐयार नहीं है।
औरत––मगर अब भी आपको इस बात के सोचने का मौका है कि नकाबपोश लोग आपसे रंज न हो जायं और इस बखेड़े का नतीजा बुरा न निकले।
देहाती––इन बातों को मैं खूब सोच चुका हूँ। उन दोनों नकाबपोशों को जो हमारे राजा साहब के दरबार में जाया करते है मैं रंज होने का मौका नही दूँगा और इन दोनों में से केवल एक ही को उठा जाकर और उसी से अपना काम निकालूँगा।
इतना कह उस देहाती ने दोनों नकाबपोशों के चेहरे पर से नकाब उलट दी मगर असली सूरत पर निगाह पड़ते ही चौंक के उस औरत की तरफ देखकर कहा, "ओफ ओह, ये सूरतें तो वे ही हैं जिन्होंने दरबारे-आम में दारोगा और जैपाल को बदहवास कर दिया था। पहले दिन जब एक नकाबपोश ने अपने चेहरे पर से नकाब हटाई थी तो दारोगा के सिर में चक्कर[१] आ गया था, और दूसरे दिन जब दूसरे नकाबपोश ने सूरत दिखाई तो जयपाल की जान शरीर से निकलने की तैयारी करने लगी थी।[२]
इसी बीच में वह औरत भी उठकर हर तरह से दुरुस्त हो गई थी जिसे थोड़ी देर पहले दोनों नकाबपोश मुर्दा समझ कर उठा ले चले थे। असल में उसका हाथ कटा हुआ हाथ लगाकर दिखा दिया गया था।
ऊपर की बातचीत से हमारे पाठक समझ गये होंगे कि ये देहाती महाशय असल में भूतनाथ हैं और दोनों औरतें उसके नौजवान शागिर्द तथा मर्द हैं।
भूतनाथ की आखिरी बात सुनकर उसके एक शागिर्द, ने जो औरत की सूरत में था कहा, "क्या ये ही दोनों हमारे महाराज के दरबार में जाया करते हैं?"
भूतनाथ––दरबार में जब नकाबपोशों ने सूरत दिखाई थी तब दो दफे इन्हीं दोनों की सूरतें देखने में आई थीं, मगर मैं नहीं कह सकता कि वहाँ जाने वाले दोनौं नकाबपोश यही हैं। मेरा दिल तो यही गवाही देता है कि दोनों नकाबपोश कोई दूसरे हैं और जब दरबार में जाते हैं तो केवल नकाब ही डालकर नहीं बल्कि अपनी सूरतें भी बदल कर जाते हैं और उस दिन इन्हीं की सी सूरत बनाकर गये।
शागिर्द––बेशक ऐसा ही है।
भूतनाथ––खैर अब मैं इन दोनों में से एक को छोड़ न जाऊँगा जैसा कि पहले इरादा कर चुका था, बल्कि दोनों ही को उठकर ले जाऊँगा और असली भेद मालूम करके ही छोडूँगा।
इतना कह के भूतनाथ ने ऐयारी ढंग पर उन दोनों नकाबपोशों की गठरी बाँधी और तीनों आदमी मिलजुल कर उन्हें उठा ले गये।
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नकाबपोशों के चले जाने के बाद जब केवल घर वाले ही वहाँ रह गये तब राजा वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता से तारासिंह की बाबत जो कुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं