चन्द्रकान्ता सन्तति 6/24.8
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तीसरे दिन पुनः दरबार हुआ और कैदी लोग लाकर हाजिर किये गए । महाराज सुरेन्द्रसिंह का लिखाया हुआ फैसला सभी के सामने तेजसिंह ने पढ़ कर सुनाया। सुनते ही कम्बख्त दारोगा जयपाल, हरनामसिंह वगैरह रोने, कलपने, चिल्लाने और महाराज से कहने लगे कि इसी जगह हम लोगों का सिर काट लिया जाय या जो चाहें महाराज सजा दें मगर हम लोगों को गोपालसिंह के हवाले न करें
कैदियों ने बहुत सिर पीटा, मगर उनकी कुछ न सुनी गई। जो कुछ महाराज ने फैसला लिखाया था उसी मुताबिक कार्रवाई की गई और इस फैसले को सभी ने पसन्द किया।
इन सब कामों से छुट्टी पाने के बाद एक बहुत बड़ा जलसा किया गया और कई दिनों तक खुशी मनाने के बाद सब कोई बिदा कर दिये गए। राजा गोपालसिंह कैदियों को साथ लेकर जमानिया चले गए, लक्ष्मीदेवी उनके साथ गई और तेजसिंह तथा और भी बहुत से आदमी महाराज की तरफ से उनको साथ पहुँचाने के लिए गए। जब वे लौट आये तब औरतों को साथ लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह वगैरह पुनः तिलिस्म में गए और उन्हें तिलिस्म की खूब सैर कराई। कुछ दिन बाद रोहतासगढ़ के तहखाने की भी उन लोगों को सैर कराई और फिर सब कोई हँसी-खुशी से दिन बिताने लगे।
प्रेमी पाठक महाशय, अब इस उपन्यास में मुझे सिवाय इसके और कुछ कहना नहीं है कि भूतनाथ ने प्रतिज्ञानुसार अपनी जीवनी लिख कर दरबार में पेश की और महाराज ने पढ़कर उसे खजाने में रख दिया। इस उपन्यास का भूतनाथ की खास जीवनी से कोई सम्बन्ध न था इसलिए इसमें वह जीवनी नत्थी न की गई, हाँ खास-खास भेद जो सतनाथ से सम्बन्ध रखते थे खोल दिये गए, तथापि भूतनाथ की जीवनी जिसे चन्द्रकान्ता सन्तति का उपसंहार भाग भी कह सकेंगे स्वतन्त्र रूप से लिख कर अपने प्रेमी पाठकों की नजर करूँगा, मगर इसके बदले में अपने प्रेमी पाठकों से इतना जरूर कहूँगा कि इस उपन्यास में जो कुछ भूल चूक रह गई हो और जो भेद रह गए हों वह मुझे अवश्य बतावें जिसमें 'भूतनाथ की जीवनी' लिखते समय उन पर ध्यान रहे, क्योंकि इतने बड़े उपन्यास में मेरे ऐसे अनजान आदमी से किसी भी तरह की त्रुटि का रह जाना कोई आश्चर्य नहीं है।
प्रिय पाठक महाशय, अब चन्द्रकान्ता सन्तति की लेख प्रणाली के विषय में भी कुछ कहने की इच्छा होती है।
जिस समय मैंने 'चन्द्रकान्ता' लिखनी आरम्भ की थी उस समय कविवर प्रतापनारायण मिश्र और पण्डितवर अम्बिकादत्त व्यास जैसे धुरंधर किन्तु अनुद्धत सुकवि और सुलेखक विद्यमान थे, तथा राजा शिवप्रसाद, राजा लक्ष्मणसिंह जैसे सुप्रतिष्ठित पुरुष हिन्दी की सेवा करने में अपना गौरव समझते थे, परन्तु अब न वैसे मार्मिक कवि हैं और वैसे सुलेखक। उस समय हिन्दी के लेखक थे परन्तु ग्राहक न थे, इस समय ग्राहक हैं पर वैसे लेखक नहीं हैं। मेरे इस कथन का यह मतलब नहीं है कि वर्तमान समय के साहित्यसेवी प्रतिष्ठा के योग्य नहीं हैं, बल्कि यह मतलब है कि जो स्वर्गीय सज्जन अपनी लेखनी से हिन्दी के आदि युग में हमें ज्ञान दे गए हैं वे हमारी अपेक्षा बहुत बढ़-चढ़ कर उनकी लेख प्रणाली में चाहे भेद रहा हो, परन्तु उन सब का लक्ष्य यही था कि इस भूमि में किसी तरह मातृ-भाषा का एकाधिपत्य हो, लेकिन यह कोई नियम की बात नहीं है कि वैसे लोगों से कुछ भूल हो ही नहीं उनसे भूल हुई तो यही कि प्रचलित शब्दों पर उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया। राजा शिवप्रसादजी के राजनीति के विचार चाहे कैसे ही रहे हों पर सामाजिक विचार उनके बहुत ही प्राञ्जल थे और वे समयानुकूल काम करना खूब जानते थे, विशेषत जिस ढंग की हिन्दी वे लिख गए हैं उसी से वर्तमान में हिन्दी का रास्ता कुछ साफ हुआ है।
चाहे कोई हिन्दू हों चाहे जैन या बौद्ध हों और चाहे आर्य समाजी या धर्म-समाजी ही क्यों न हों परन्तु जिन सज्जनों के माननीय अवतारों और पूर्वजों ने इस पुण्य भूमि का अपने आविर्भाव से गौरव बढ़ाया है उनमें ऐसा अभागा कौन होगा जो पुण्यता और मधुरता-युक्त संस्कृत भाषा के शब्दों का प्रचुर प्रचार न चाहेगा? मेरे विचार में किसी विवेकी भारत सन्तान के विषय में केवल यह देखकर कि वह विदेशी भाषा के शब्दों का प्रसार कर रहा है यह गढन्त कर लेना कि वह देववाणी के पवित्र शब्दों का विरोधी है भ्रम ही नहीं किन्तु अन्याय भी है। देखना यह चाहिए कि ऐसा करने से उसका मतलब क्या है ? भारतवर्ष में आठ सौ वर्ष तक विदेशी यवनों का राज्य रहा है इसलिए फारसी-अरबी के शब्द हिन्दू समाज में "न पठेत् यावनी भाषा" की दीवार लांघ कर उसी प्रकार आ घुसे जिस प्रकार हिमालय के उन्नत मस्तक को लांघकर वे स्वयं यहां आ गए, यहाँ तक कि महात्मा तुलसीदास जी जैसे भगवद्भक्त कवियों को भी "गरीब-निवाज" आदि शब्दों का बर्ताव दिल खोल कर करना पड़ा।
आठ सौ वर्ष के कुसंस्कार को जो गिनती के दिनों में दूर करना चाहते हैं, उनके उत्साह और साहस की प्रशंसा करने पर भी हम यह कहने के लिए मजबूर हैं कि वे अपने बहुमूल्य समय का सदुपयोग नहीं करते बल्कि जो कुछ वे कर सकते थे, उससे भी दूर हटते हैं। यदि ईश्वरचन्द्र विद्यासागर सीधे-सादे शब्दों से बंगला में काम न लेते तो उत्तर काल के लेखकों को संस्कृत शब्द के बाहुल्य प्रचार का अवसर न मिलता और यदि राजा'शिवप्रसादी हिन्दी' प्रकट न होती तो सरकारी पाठशालाओं में हिन्दी के चन्द्रमा की चाँदनी मुश्किल से पहुंचती। मेरे बहुत से मित्र हिन्दुओं की अकृतज्ञता का यों वर्णन करते हैं कि उन्होंने हरिश्चन्द्रजी जैसे देश हितैषी पुरुष की उत्तम-उत्तम पुस्तकें नहीं खरीदी, पर मैं कहता हूँ कि यदि बाबू हरिश्चन्द्र अपनी भाषा को थोड़ा सरल करते तो हमारे भाइयों को अपने समाज पर कलंक लगाने की आवश्यकता न पड़ती और स्वाभाविक शब्दों के मेल से हिन्दी की पैसिजर भी मेल बन जाती। प्रवाह के विरुद्ध चलकर यदि कोई कृतकार्य हो तो निःसन्देह उसकी बहादुरी है, परन्तु बड़े-बड़े दार्शनिक पंडितों ने इसको असम्भव ठहराया है । सारसुधानिधि और कविवचनसुधा की भाषा यद्यपि भावुक-जनों के लिए आदर की वस्तु थी, परन्तु समय के उपयोगी न थी। हमारे 'सुदर्शन' की लेख-प्रणाली को हिन्दी के धुरन्धर लेखकों और विद्वानों ने प्रशंसा के योग्य ठहराया है,परन्तु साधारणजन उससे कितना लाभ उठा सकते है यह सोचने की बात है। यदि महाकवि भवभूति के समान किसी भविष्य पुरुष की आशा ही पर ग्रन्थकारों और लेखकों को यत्न करना चाहिए, तब तो मैं सुदर्शन के सम्पादक पण्डित माधवप्रसाद मिश्र को भी भविष्य की आशा पर बधाई देता हूँ, पर यदि ग्रन्थकारों को भविष्य की अपेक्षा वर्तमान से अधिक सम्बन्ध है तो निःसन्देह इस विषय में मुझे आपत्ति है ।
किसी दार्शनिक ग्रंथ या पत्र की भाषा के लिए यदि किसी बड़े कोष को टटोलना पड़े, तो कुछ परवाह नहीं, परन्तु साधारण विषयों की भाषा के लिए भी कोषी की खोज करनी पड़े तो निःसन्देह दोष की बात है। मेरी हिन्दी किस श्रेणी की हिन्दी है इसका निर्धारण मैं नहीं करता परन्तु मैं यह जानता हूँ कि इसके पढ़ने के लिए कोष की तलाश नहीं करनी पड़ती । चन्द्रकान्ता के आरम्भ के समय मुझे यह विश्वास न था कि उसका इतना अधिक प्रचार होगा, यह मनोविनोद के लिए लिखी गई थी, पर पीछे लोगों का अनुराग देखकर मेरा भी अनुराग हो गया और मैंने अपने उन विचारों को जिनको मैं अभी तक प्रकाश नहीं कर सका था, फैलाने के लिए इस पुस्तक को द्वार बनाया और सरल भाषा में उन्हीं मामूली बातों को लिखा जिससे मैं उस होनहार मण्डली का प्रिय- पात्र बन जाऊँ, जिसके हाथ में भारत का भविष्य सौंपकर हमें इस असार संसार से बिदा होना है। मुझे इस बात से बड़ा हर्ष है कि मैं इस विषय में सफल हुआ और मुझे ग्राहकों की अच्छी श्रेणी मिल गई । यह बात बहुत से सज्जनों पर प्रकट है कि 'चन्द्रकान्ता' पढ़ने के लिए बहुत से पुरुष नागरी की वर्णमाला सीखते हैं और जिनको कभी हिन्दी सीखना न था उन लोगों ने भी इसके लिए सीखी ।
हिन्दी के हितैषियों में दो प्रकार के सज्जन हैं : एक तो वे जिनका विचार यह है कि चाहे अक्षर फारसी क्यों न हों पर भाषा विशुद्ध संस्कृत मिश्रित होनी चाहिए और दूसरे वे जो यह चाहते हैं कि चाहे भाषा में फारसी के शब्द मिले भी हों पर अक्षर नागरी होने चाहिए। पहले मैं पंजाब के आर्यसमाजियों और धर्म सभा वालों को मान लेता हूँ, जिनके लेखों में वर्णमाला के सिवाय फारसी, अरबी को कुछ भी सहारा नहीं, सब-कुछ संस्कृत का है, और दूसरे पक्ष में मैं अपने को ठहरा लेता हूँ, जो इसके विपरीत है। बात को भी स्वीकार करता हूँ कि जिस प्रकार फारसी, वर्णमाला उर्दू का शरीर और अरबी, फारसी के उपयुक्त शब्द उसके जीवन हैं, ठीक उसी प्रकार नागरी वर्णमाला हिन्दी का शरीर और संस्कृत के उपयुक्त शब्द उसके प्राण कहे जा सकते हैं । यदि यह देश यवनों के अधिकार में न हुआ होता, और यदि कायस्थादि हिन्दू जातियों में उर्दू भाषा का प्रेम इस उसी प्रकार हमारे ग्रंथों की सजीव उत्पत्ति होती जिस प्रकार द्विज बालकों की होती है। शरीर में यदि आत्मा न हो तो वह बेकार है और यदि आत्मा को उपयुक्त शरीर न मिल कर पशु पक्षी आदि शरीर मिल जाये, तो भी वह निष्फल ही है, इसलिए शरीर बनाकर फिर उसमें आत्मदेव की स्थापना करना ही न्याययुक्त और लाभप्रद है। 'चन्द्रकान्ता' और 'सन्तति' में यद्यपि इस बात का पता नहीं लगेगा कि कब और कहाँ भाषा का परि- वर्तन हो गया, परन्तु उसके आरम्भ और अन्त में आप ठीक वैसा ही परिवर्तन पायेंगे, बालक और वृद्ध में । एक दम से शब्दों का प्रचार करते तो कभी सम्भव न था कि उतने संस्कृत शब्द हम उन कुपढ़ ग्रामीण लोगों को याद करा देते, जिनके निकट काला अक्षर बाईस के बराबर था ।मेरे इस कर्तव्य का आश्चर्यमय फल देखकर वे लोग भी बोधगम्य उर्दू के शब्दों को अपनी विशुद्ध हिन्दी में लाने लगे हैं जो आरम्भ में इसीलिए मुझ पर कटाक्षपात करते थे। इस प्रकार प्राकृतिक प्रवाह के साथ-साथ साहित्यसेवियों की सरस्वती का प्रवाह बदलता देखकर समय के बदलने का अनुमान करना कुछ अनुचित नहीं है । जो हो भाषा के विषय में हमारा वक्तव्य यही है कि वह सरल हो और नागरी वाणी में हो, क्योंकि जिस भाषा के अक्षर होते हैं, उनका खिंचाव उन्हीं मूल भाषाओं की ओर होता है जिससे उनकी उत्पत्ति हुई है।
भाषा के सिवाय दूसरी बात मुझे भाव के विषय में कहनी है । मेरे कई मित्र आक्षेप करते है कि मुझे देश-हितपूर्ण और धर्मभावमय कोई ग्रन्थ लिखना उचित था, जिससे मेरी प्रसरणशील पुस्तकों के कारण समाज का बहुत-कुछ उपकार व सुधार हो जाता। बात बहुत ठीक है, परन्तु एक अप्रसिद्ध ग्रंथकार की पुस्तक को कौन पढ़ता? यदि मैं चन्द्रकान्ता और सन्तति को न लिखकर अपने मित्रों से भी दो-चार बातें हिन्दी के विषय में कहना चाहता तो कदाचित् वे भी सुनना पसन्द नहीं करते। गम्भीर विषय के लिए जैसे एक विशेष भाषा का प्रयोजन होता है वैसे ही विशेष पुरुष का भी । भारतवर्ष में विशेषता की अधिकता न देखकर मैंने साधारण भाषा में साधारण बातें लिखना ही आवश्यक समझा । संसार में ऐसे भी लोग हुए होंगे जिन्होंने सरल और भावमय एक ही पुस्तक लिखकर लोगों का चित्त अपनी ओर खींच लिया हो पर वैसा कठिन काम मेरे ऐसे के करने के योग्य न था । तथापि पात्रों की चाल-चलन दिखाने में जहाँ तक हो सका इसका ध्यान रखा गया है। सब पात्र यथासमय सन्ध्या-तर्पण करते हैं और अवसर पड़ने पर पूजा प्रकार भी वीरेन्द्रसिंह आदि के वर्णन में जगह-जगह दिखाई देता है ।
कुछ दिनों की बात है कि मेरे कई मित्रों ने संवाद-पत्रों में इस विषय का आंदोलन उठाया था कि इनके कथानक सम्भव है या असम्भव । मैं नहीं समझता कि यह बात क्यों बनाई और बढ़ाई गई ! जिस प्रकार पंचतन्त्र-हितोपदेश आदि ग्रन्थ बालकों की शिक्षा के लिए लिखे गये, उसी प्रकार यह लोगों के मनोविनोद के लिए । पर यह सम्भव है या असम्भव इस विषय में कोई यह समझे कि 'चन्द्रकान्ता' और 'वीरेन्द्रसिंह' इत्यादि पात्र और उनके विवित्र स्थानादि सब ऐतिहासिक है तो बड़ी भारी भूल है । कल्पना का मैदान विस्तृत है और उसका यह एक छोटा-सा नमूना है। रही सम्भव असंभव की बात अर्थात् कौन-सी बात हो सकती है और कौन नहीं हो सकती ! इसका विचार प्रत्येक मनुष्य की योग्यता और देश काल पात्र से सम्बन्ध रखता है । कभी ऐसा समय था कि यहां के आकाश में विमान उड़ते थे, एक एक वीर पुरुष के तीरों में यह सामर्थ्य थी कि क्षणमात्र में सहस्रों मनुष्यों का संहार हो जाता था, पर अब वह बातें खाली पौराणिक कथा समझी जाती है पर दो सौ वर्ष पहले जो बातें असम्भव थीं आजकल विज्ञान के सहारे वे सब सम्भव हो रही हैं । रेल, तार, बिजली आदि के कार्यो को पहले कौन मान सकता था? और फिर यह भी है कि साधारण लोगों की दृष्टि में जो असम्भव है कवियों की दृष्टि में भी वह असम्भव ही रहे यह कोई नियम की बात नहीं है । संस्कृत साहित्य के सर्वोत्तम उपन्यास 'कादम्बरी' की नायिका युवती की युवती ही रही पर उसके नायक के तीन जन्म हो गये,तथापि कोई बुद्धिमान पुरुष इसको दोषावह न समझकर गुणधायक ही समझेगा। चन्द्र- कान्ता में जो अद्भुत बातें लिखी गई हैं, वे इसलिए नहीं कि लोग उनकी सचाई-झुठाई की परीक्षा करें, प्रत्युत इसलिए कि उसका पाठ कुतूहल वर्द्धक हो ।
एक समय था कि लोग 'सिंहासन' 'बत्तीसी' 'वैतालपचीसी' आदि कहानियों को विश्राम काल में रुचि से पढ़ते थे फिर 'चहारदरवेश' और 'अलिफलैला' के किस्सों का समय आया, अब इस ढंग के उपन्यासों का समय है। अब भी वह समय दूर है, जब लोग बिना किसी प्रकार की न्यूनाधिकता के ऐतिहासिक पुस्तकों को रुचि से पढ़ेंगे।जब वह समय आवेगा उस समय 'कथासरित्सागर' के समान 'चन्द्रकान्ता' बतलावेगी कि एक वह भी समय था, जब इसी प्रकार के ग्रन्थों से ही वीर प्रसू भारत भूमि की सन्तान का मनोविनोद होता था । भगवान उस समय को शीघ्र लावें !