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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/७

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ १९९ से – २०१ तक

 
 


कपिशा में एलेक्जेंड्रिया का राजमन्दिर
[कार्नेलिया और उसकी सखी का प्रवेश]

कार्ने॰—बहुत दिन हुए देखा था!—वही भारतवर्ष! वही निर्मल ज्योति का देश, पवित्र भूमि, अब हत्या और लूट से बीभत्स बनायी जायगी—ग्रीक सैनिक इस शस्यश्यामला पृथ्वी को रक्त-रंजित बनावेंगे! पिता अपने साम्राज्य से सन्तुष्ट नहीं, आशा उन्हें दौड़ावेगी। पिशाची की छलना में पड़कर लाखों प्राणियों का नाश होगा। और, सुना है यह युद्ध होगा चन्द्रगुप्त से!

सखी—सम्राट तो आज स्कन्धावार में जानेवाले हैं!

[राक्षस का प्रवेश]

राक्षस—आयुष्मती! मैं आ गया।

कार्ने॰—नमस्कार। तुम्हारे देश में तो सुना है कि ब्राह्मण जाति बड़ी तपस्वी और त्यागी है।

राक्षस—हाँ कल्याणी, वह मेरे पूर्वजों का गौरव है। किन्तु हमलोग तो बौद्ध हैं।

कार्ने॰—और तुम उसके ध्वंसावशेष हो। मेरे यहाँ ऐसे ही लोगों को देशद्रोही कहते हैं। तुम्हारे यहाँ इसे क्या कहते हैं?

राक्षस—राजकुमारी! मैं कृतघ्न नहीं, मेरे देश में कृतज्ञता पुरुषत्व का चिह्न है। जिसके अन्न से जीवन-निर्वाह होता है उसका कल्याण...

कार्ने॰—कृतज्ञता पाश है, मनुष्य की दुर्बलताओं के फंदे उसे और भी दृढ़ करते हैं। परन्तु जिस देश ने तुम्हारा पालन-पोषण करके पूर्व उपकारों का बोझ तुम्हारे ऊपर डाला है, उसे विस्मृत करके क्या तुम कृतघ्न नहीं हो रहे हो? सुकरात का तर्क तुमने पढ़ा है?

राक्षस—तर्क और राजनीति में भेद है, मैं प्रतिशोध चाहता हूँ। राजकुमारी! कर्णिक ने कहा है

कार्ने॰—कि सर्वनाश कर दो! यदि ऐसा है, तो मैं तुम्हारी राजनीति नहीं पढ़ना चाहती।

राक्षस—पाठ थोड़ा अवशिष्ट है। उसे भी समाप्त कर लीजिए,आपके पिता की आज्ञा है।

कार्ने॰—मैं तुम्हारे उशना और कर्णिक से ऊब गयी हूँ, जाओ!

[राक्षस का प्रस्थान]

कार्ने॰—एलिस! इन दिनों जो ब्राह्मण मुझे रामायण पढ़ाता था, वह कहाँ गया? उसने व्याकरण पर अपनी नयी टिप्पणी प्रस्तुत की है। वह कितना सरल और विद्वान है।

एलिस—वह चला गया राजकुमारी।

कार्ने॰—बड़ा ही निर्लोभी सच्चा ब्राह्मण था। (सिल्यूकस का प्रवेश)—अरे पिता जी!

सिल्यू॰—हाँ बेटी! अब तुमने अध्ययन बन्द कर दिया, ऐसा क्यों? अभी वह राक्षस मुझसे कह रहा था।

कार्ने॰—पिताजी! उसके देश ने उसका नाम कुछ समझ कर ही रक्खा है—राक्षस! मैं उससे डरती हूँ।

सिल्यू॰—बड़ा विद्वान है बेटी! मैं उसे भारतीय प्रदेश का क्षत्रप बनाऊँगा।

कार्ने॰—पिताजी! वह पाप की मलिन छाया है। उसकी भँवों में कितना अन्धकार है, आप देखते नहीं। उससे अलग रहिए। विश्राम लीजिए। विजयों की प्रवंचना में अपने को न हारिए। महाप्वाकांक्षा के दाँव पर मनुष्यता सदैव हारी है। डिमास्थनीज ने...

सिल्यू॰—मुझे दार्शनिकों से तो विरक्ति हो गयी है। क्या ही अच्छा होता कि ग्रीस में दार्शनिक न उत्पन्न हो कर, केवल योद्धा ही होते!

कार्ने॰—सो तो होता ही है। मेरे पिता किससे कम वीर हैं। मेरे विजेता पिता! मैं भूल करती हूँ, क्षमा कीजिए।

सिल्यू॰—यही तो मेरी बेटी! ग्रीक-रक्त वीरता के परमाणु से संगठित है। तुम चलोगी युद्ध देखने? सिन्धु-तट के स्कन्धावार में रहना।

कार्ने॰—चलूँगी।

सिल्यू॰—अच्छा तो प्रस्तुत रहना। आम्भीक—तक्षशिला का राजा—इस युद्ध में तटस्थ रहेगा, आज उसका पत्र आया है। और राक्षस कहता था कि चाणक्य—चन्द्रगुप्त का मंत्री—उससे क्रुद्ध हो कर कहीं चला गया है। पंचनद में चन्द्रगुप्त का कोई सहायक नहीं! बेटी, सिकन्दर से बड़ा साम्राज्य—उससे बड़ी विजय! कितना उज्ज्वल भविष्य है।

कार्ने॰—हाँ पिताजी।

सिल्यू॰—हाँ पिताजी।—उल्लास की रेखा भी नहीं—इतनी उदासी! तू पढ़ना छोड़ दे! मैं कहता हूँ कि तू दार्शनिक होती जा रही है—ग्रीक-रत्न!

कार्ने॰—वही तो कह रही हूँ। आप ही तो कभी पढ़ने के लिए कहते हैं, कभी छोड़ने के लिए।

सिल्यू॰—तब ठीक है, मैं ही भूल कर रहा हूँ।

[प्रस्थान]