चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/९

विकिस्रोत से
चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ २०४ ]
ग्रीक-शिविर

कार्ने०––एलिस! यहाँ आने पर जैसे मन उदास हो गया है। इस सध्या के दृश्य ने मेरी तन्मयता में एक स्मृति की सूचना दी है। सरला सध्या, पक्षियों के नाद से शान्ति को बुलाने लगी है। देखते-देखते, एक-एक करके दो-चार नक्षत्र उदय होने लगे। जैसे प्रकृति, अपनी सृष्टि की रक्षा, हीरो की कील से जुडी हुई काली ढाल लेकर कर रही है और पवन किसी मधुर कथा का भार लेकर मचलता हुआ जा रहा है। यह कहाँ जायगा एलिस!

एलिस––अपने प्रिय के पास!

कार्ने०––दुर! तुझे तो प्रेम-ही-प्रेम सूझता है।

[ दासी का प्रवेश ]

दासी––राजकुमारी! एक स्त्री वन्दी होकर आई है।

कार्ने०––( आश्चर्य से )––तो उसे पिताजी ने मेरे पास भेजा होगा, उसे शीघ्र ले आओ!

[ दासी का प्रस्थान ; सुवासिनी का प्रवेश ]

कार्ने०––तुम्हारा नाम क्या है?

सुवा०––मेरा नाम सुवासिनी हैं। मैं किसी को खोजने जा रही थी, सहसा वन्दी कर ली गई। वह भी कदाचित् आपके यहाँ वन्दी हो!

कार्ने०––उसका नाम?

सुवा०––राक्षस।

कार्ने०––ओहो, तुमने उससे व्याह कर लिया है क्या? तब तो तुम सचमुच अभागिनी हो!

सुवा०––( चौंककर )––ऐसा क्यों? अभी तो व्याह होनेवाला है, क्या आप उसके सम्बन्ध में कुछ जानती है?

कार्ने०––बैठो, बताओ, तुम वन्दी बन कर रहना चाहती हो, या मेरी सखी? झटपट बोलो! [ २०५ ]सुवा०––बन्दी बनकर तो आई हूँ, यदि सखी हो जाऊँ तो अहोभाग्य!

कार्ने०––प्रतिज्ञा करनी होगी कि मेरी अनुमति के बिना तुम व्याह न करोगी!

सुवा०––स्वीकार है।

कार्ने०––अच्छा, अपनी परीक्षा दो, बताओ, तुम विवाहिता स्त्रियो को क्या समझती हो?

सुवा––बनियो के प्रमोद का कटा-छंटा हुआ शोभावृक्ष। कोई डाली उल्लास के आगे बढी, कुतर दी गई! माली के मन से सँवरे हुए गोल-मटोल खड़े रहो!

कार्ने०––वाह, ठीक कहा। यही तो मैं भी सोचती थी। क्यो एलिस! अच्छा, यौवन और प्रेम को क्या समझती हो?

सुवा०––अकस्मात् जीवन-कानन में, एक राका-रजनी की छाया में छिप कर मधुर वसन्त घुस आता है। शरीर की सब क्यारियाँ हरीभरी हो जाती है। सौन्दर्य का कोकिल―‘कौन?’ कहकर सब को रोकने-टोकने लगता है, पुकारने लगता है। राजकुमारी! फिर उसी में प्रेम का मुकुल लग जाता है, ऑसू-भरी स्मृतियाँ मकरद-सी उसमे छिपी रहती है।

कार्ने०––( उसे गले लगाकर )––आह सखी! तुम तो कवि हो। तुम प्रेम करना जानती हो और जानती हो उसका रहस्य। तुमसे हमारी पटेगी। एलिस! जा, पिताजी से कह दे, कि मैंने उस स्त्री को अपनी सखी बना लिया।

[ एलिस का प्रस्थान ]

सुवा––राजकुमारी! प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। आश्चर्य तो यह है कि प्रत्येक कुमारी के हृदय में वह निवास करती हैं। पर, उसे सब प्रत्यक्ष नही कर सकती, सब को उसका मार्मिक अनुभव नहीं होता।

कार्ने०––तुम क्या कहती हो? [ २०६ ]

सुवा॰—वही स्त्री-जीवन का सत्य है। जो कहती है कि मैं नहीं जानती—वह दूसरे को तो धोखा देती ही है, अपने को भी प्रवंचित करती है। धधकते हुए रमणी-वक्ष पर हाथ रख कर उसी कम्पन में स्वर मिला कर कामदेव गाता है। और राजकुमारी! वही काम-संगीत की तान सौन्दर्य की रंगीन लहर बनकर, युवतियों के मुख में लज्जा और स्वास्थ्य की लाली चढ़ाया करती है।

कार्ने॰—सखी! मदिरा की प्याली में तू स्वप्न-सी लहरों को मत आन्दोलित कर। स्मृति बड़ी निष्ठुर है। यदि प्रेम ही जीवन का सत्य है, तो संसार ज्वालामुखी है।

[सिल्यूकस का प्रवेश]

सिल्यू॰—तो बेटी, तुमने इसे अपने पास रख ही लिया। मन बहलेगा, अच्छा तो है। मैं भी इसी समय जा रहा हूँ, कल ही आक्रमण होगा। देखो, सावधान रहना।

कार्ने॰—किस पर आक्रमण होगा पिताजी?

सिल्यू॰—चन्द्रगुप्त की सेना पर। वितस्ता के इस पार सेना आ पहुँची है, अब युद्ध में विलम्ब नहीं।

कार्ने॰—पिताजी, उसी चन्द्रगुप्त से युद्ध होगा, जिसके लिए उस साधु ने भविष्यवाणी की थी? वही तो भारत का राजा हुआ न?

सिल्यू॰—हाँ बेटी, वही चन्द्रगुप्त।

कार्ने॰—पिताजी, आप ही ने मृत्यु-मुख से उसका उद्धार किया था और उसी ने आपके प्राणों की रक्षा की थी?

सिल्यू॰—हाँ, वही तो।

कार्ने॰—और उसी ने आपकी कन्या के सम्मान की रक्षा की थी? फिलिप्स का वह अशिष्ट आचरण पिताजी!

सिल्यू॰—तभी तो बेटी, मैंने साइवर्टियस को दूत बनाकर समझाने के लिए भेजा था। किन्तु उसने उत्तर दिया कि मैं सिल्यूकस का कृतज्ञ [ २०७ ]हूँ, तो भी क्षत्रिय हूँ, रणदान जो भी माँगेगा, उसे दूँगा। युद्ध होना अनिवार्य है।

कार्ने॰—तब मैं कुछ नहीं कहती।

सिल्यू॰—(प्यार से)—तू रूठ गयी बेटी। भला अपनी कन्या के सम्मान की रक्षा करने वाले का मैं वध करूँगा!

सुवा॰—फिलिप्स को द्वंद्व-युद्ध में सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त ने मार डाला। सुना था, इन लोगों का कोई व्यक्तिगत विरोध...

सिल्यू॰—चुप रहो, तुम!—(कार्नेलिया से)—बेटी, मैं चन्द्रगुप्त को क्षत्रप बना दूँगा, बदला चुक जायगा। मैं हत्यारा नहीं, विजेता सिल्यूकस हूँ।

[प्रस्थान]

कार्ने—(दीर्घ निःश्वास लेकर)—रात अधिक हो गई, चलो सो रहें! सुवासिनी, तुम कुछ गाना जानती हो?

सुवा॰—जानती थी, भूल गयी हूँ। कोई वाद्य-यन्त्र तो आप न बजाती होंगी?—(आकाश की ओर देखकर)—रजनी कितने रहस्यों की रानी है—राजकुमारी!

कार्ने॰—रजनी! मेरी स्वप्न-सहचरी!

सुवा॰—(गाने लगती है)—

सखे! वह प्रेममयी रजनी।
आँखों में स्वप्न बनी,
सखे! वह प्रेममयी रजनी।

कोमल द्रुमदल निष्कम्प रहे,
ठिठका-सा चन्द्र खड़ा।
माधव सुमनों में गूँथ रहा,
तारों की किरन-अनी।


सखे! वह प्रेममयी रजनी।

[ २०८ ]

नयनों में मदिर विलास लिये,
उज्ज्वल आलोक खिला।
हँसती-सी सुरभि सुधार रही,
अलकों की मृदुल अनी।


सखे! वह प्रेममयी रजनी।

मधु मन्दिर-सा यह विश्व बना,
मीठी झनकार उठी।
केवल तुमको थी देख रही—
स्मृतियों की भीड़ घनी।


सखे! वह प्रेममयी रजनी।




——————