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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/तृतीय अंक/२

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ १४२ से – १४८ तक

 
 


रावी-तट के उत्सव-शिविर का एक पथ। पर्वतेश्वर अकेले टहलते हुए

पर्व॰—आह! कैसा अपमान! जिस पर्वतेश्वर ने उत्तरापथ में अनेक प्रबल शत्रुओं के रहते भी विरोधों को कुचल कर गर्व से सिर ऊँचा कर रक्खा था, जिसने दुर्दान्त सिकन्दर के सामने मरण को तुच्छ समझते हुए, वक्ष ऊँचा करके भाग्य से हँसी-ठट्ठा किया था, उसी का यह तिरस्कार ―तो भी एक स्त्री के द्वारा! और सिकन्दर के संकेत से! प्रतिशोध! रक्त-पिशाची प्रतिहिंसा अपने दाँतो से नसों को नोच रही हैं! मरूँ या मार डालूँ? मारना तो असम्भव है। सिंहरण और अलका, वर-वधू-वेश में हैं, मालवों के चुने हुए वीरों से वे घिरे हैं। सिकन्दर उनकी प्रशंसा और आदर में लगा है। इस समय सिंहरण पर हाथ उठाना असफलता के पैरों-तले गिरना है। तो फिर जीकर क्या करूँ?

[छुरा निकाल कर आत्महत्या करना चाहता है, चाणक्य आकर हाथ पकड़ लेता है]

पर्वतेश्वर—कौन?

चाणक्य—ब्राह्मण चाणक्य।

पर्व॰—इस मेरे अन्तिम समय में भी क्या कुछ दान चाहते हो?

चाणक्य―हाँ!

पर्व॰—मैंने अपना राज्य दिया, अब हटो।

चाणक्य—यह तो तुमने दे दिया, परन्तु इसे मैंने तुमसे माँगा न था पौरव!

पर्व॰—फिर क्या चाहते हो?

चाणक्य—एक प्रश्न का उत्तर।

पर्व॰—तुम अपनी बात मुझे स्मरण दिलाने आये हो? तो ठीक है। ब्राह्मण! तुम्हारी बात सच हुई। यवनों ने आर्यावर्त्त को पददलित कर लिया। मैं गर्व में भूला था, तुम्हारी बात न मानी। अब उसी का प्रायश्चित्त करने जाता हूँ! छोड़ दो!

चाणक्य—पौरव! शान्त हो। मैं एक दूसरी बात पूछता हूँ। वृषल चन्द्रगुप्त क्षत्रिय हैं कि नहीं, अथवा उसे मूर्धाभिषिक्त करने में ब्राह्मण से भूल हुई?

पर्व॰—आह, ब्राह्मण! व्यंग्य न करो। चन्द्रगुप्त के क्षत्रिय होने का प्रमाण यही विराट् आयोजन है। आर्य्य चाणक्य! मैं क्षमता रखते हुए जिस कार्य को न कर सका, वह कार्य्य निस्सहाय चन्द्रगुप्त ने किया। आर्य्यावर्त्त से यवनों को निकल जाने का संकेत उसके प्रचुर बल का द्योतक है। मैं विश्वस्त हृदय से कहता हूँ कि चन्द्रगुप्त आर्य्यवर्त्त का एकैच्छत्र सम्राट् होने के उपयुक्त हैं। अब मुझे छोड़ दो .....

चाणक्य—पौरव! ब्राह्मण राज्य करना नहीं जानता, करना भी नहीं चाहता, हाँ, वह राजाओं का नियमन करना जानता है; राजा बनाना जानता है। इसलिए तुम्हें अभी राज्य करना होगा, और करना होगा वह कार्य्य-जिसमें भारतीयों का गौरव हो और तुम्हारे क्षात्रधर्म का पालन हो।

पर्व॰—(छुरा फेंक कर)—वह क्या काम है?

चाणक्य—जिन यवनों ने तुमको लाञ्छित और अपमानित किया है, उनसे प्रतिशोध!

पर्व॰—असम्भव है!

चाणक्य—(हँस कर)—मनुष्य अपनी दुर्बलता से भलीभाँति परिचित रहता है। परन्तु उसे अपने बल से भी अवगत होना चाहिए। असम्भव कहकर किसी काम को करने के पहले कर्मक्षेत्र में काँपकर लड़खडाओ मत पौरव! तुम क्या हो—विचार कर देखो तो! सिकन्दर ने जो क्षत्रप नियुक्त किया है, जिन सन्धियों को वह प्रगतिशील रखना चाहता है, वे सब क्या है? अपनी लूट-पाट को वह साम्राज्य के रूप में देखना चाहता है! चाणक्य जीते-जी यह नहीं होने देगा! तुम राज्य करो।

पर्व॰—परन्तु आर्य्य, मैंने राज्य दान कर दिया है!

चाणक्य—पौरव, तामस त्याग से सात्त्विक ग्रहण उत्तम है। वह दान न था, उसमें कोई सत्य नहीं। तुम उसे ग्रहण करो।

पर्व॰—तो क्या आज्ञा हैं?

चाणक्य—पीछे बतलाऊँगा। इस समय मुझे केवल यही कहना है कि सिंहरण को अपना भाई समझो और अलका को बहन।

[वृद्ध गांधार-राज का सहसा प्रवेश]

वृद्ध॰—अलका कहाँ है, अलका?

पर्व॰—कौन हो तुम वृद्ध?

चाणक्य—मैं इन्हे जानता हूँ―वृद्ध गांधार-नरेश।

पर्व॰—आर्य्य, मैं पर्वतेश्वर प्रणाम करता हूँ।

वृद्ध॰—मैं प्रणाम करने योग्य नहीं, पौरव! मेरी सन्तान से देश का बड़ा अनिष्ट हुआ है। आम्भीक ने लज्जा की यवनिका में मुझे छिपा दिया है। इस देशद्रोही के प्राण केवल अलका को देखने के लिए बचे हैं, उसी से कुछ आशा थी। जिसको मोल लेने में लोभ असमर्थ था, उसी अलका को देखना चाहता हूँ और प्राण दे देना चाहता हूँ!―(हांफता है)

चाणक्य—क्षत्रिय! तुम्हारे पाप और पुण्य दोनों जीवित है। स्वस्तिमती अलका आज सौभाग्यवती होने जा रही है, चलो कन्या-सप्रदान करके प्रसन्न हो जाओ।

[चाणक्य वृद्ध गांधार-नरेश को लिवा जाता है]

पर्व॰—जाऊँ? किधर जाऊँ? चाणक्य के पीछे?―(जाता है)

[कार्नेलिया और चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

चन्द्र॰—कुमारी, आज मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।

कार्ने॰—किस बात की?

चन्द्र॰—कि मैं विस्मृत नहीं हुआ।

कार्ने॰—स्मृति कोई अच्छी वस्तु है क्या?

चन्द्र॰—स्मृति जीवन का पुरस्कार है सुन्दरी!

कार्ने॰—परन्तु मैं कितने दूर देश की हूँ। स्मृतियाँ ऐसे अवसर पर उदण्ड हो जाती हैं। अतीत के कारागृह में बन्दिनी स्मृतियाँ अपने करुण निश्वास की शृंखलाओं को झनझनाकर सूचीभेद्य अन्धकार में सो जाती है।

चन्द्र॰—ऐसा हो तो भूल जाओ शुभे! इस केन्द्रच्युत जलते हुए उल्कापिंड की कोई कक्षा नहीं। निर्वासित, अपमानित प्राणों की चिन्ता क्या?

कार्ने॰—नहीं चन्द्रगुप्त, मुझे इस देश से जन्मभूमि के समान स्नेह होता जा रहा है। यहाँ के श्यामल कुंज, घने जंगल, सरिताओं की माला पहने हुए शैल-श्रेणी, हरी-भरी वर्षा, गर्मी की चाँदनी, शीत-काल की धूप, और भोले कृषक तथा सरल कृषक-बालिकायें, बाल्य-काल की सुनी हुई कहानियों की जीवित प्रतिमाएँ है। यह स्वप्नों का देश, यह त्याग और ज्ञान का पालना, यह प्रेम की रंगभूमि—भारतभूमि क्या भुलाई जा सकती है? कदापि नहीं। अन्य देश मनुष्यो की जन्मभूमि हैं, यह भारत मानवता की जन्मभूमि हैं।

चन्द्र॰—शुभे, मैं यह सुनकर चकित हो गया हूँ।

कार्ने॰—और मैं मर्म्माहत हो गई हूँ चन्द्रगुप्त, मुझे पूर्ण विश्वास था कि यहाँ के क्षत्रप पिताजी नियुक्त होंगे और मैं अलेग्जेंद्रिया में समीप ही रहकर भारत को देख सकूँगी। परन्तु वैसा न हुआ, सम्राट् ने फिलिप्स को यहाँ का शासक नियुक्त कर दिया हैं।

[अकस्मात् फिलिप्स का प्रवेश]

फिलि॰—तो बुरा क्या है कुमारी! सिल्यूकस के क्षत्रप न होने पर भी कार्नेलिया यहाँ की शासक हो सकती हैं। फिलिप्स अनुचर होगा―(देखकर)—फिर वही भारतीय युवक!

चन्द्र॰—सावधान! यवन! हम लोग एक बार एक-दूसरे की परीक्षा ले चुके हैं।

फिलि॰—उँह! तुमसे मेरा सम्बन्ध ही क्या है, परन्तु ..

कार्ने॰—और मुझसे भी नहीं, फिलिप्स! मैं चाहती हूँ कि तुम मुझसे न बोलो!

फिलि॰—अच्छी बात है। किन्तु मैं चन्द्रगुप्त को भी तुमसे बातें करते हुए नहीं देख सकता। तुम्हारे प्रेम का....

कार्ने॰—चुप रहो, मैं कहती हूँ चुप रहो!

फिलि॰—(चन्द्रगुप्त से) मैं तुमसे द्वंद्व-युद्ध किया चाहता हूँ।

चन्द्र॰—जब इच्छा हो, मैं प्रस्तुत हूँ। और सन्धि भंग करने के लिये तुम्हीं अग्रसर होंगे, यह अच्छी बात होगी।

फिलि॰—सन्धि राष्ट्र की है। यह मेरी व्यक्तिगत बात है। अच्छा, फिर कभी मैं तुम्हे आह्वान करूँगा।

चन्द्र॰—आधी रात, पिछले पहर, जब तुम्हारी इच्छा हो!

[फिलिप्स का प्रस्थान]

कार्ने॰—सिकन्दर ने भारत से युद्ध किया हैं और मैंने भारत का अध्ययन किया है। मैं देखती हूँ कि यह युद्ध ग्रीक और भारतीयों के अस्त्र का ही नहीं इसमें दो बुद्धियाँ भी लड़ रही हैं। यह अरस्तू और चाणक्य की चोट है, सिकन्दर और चन्द्रगुप्त उनके अस्त्र हैं।

चन्द्र॰—मैं क्या कहूँ, मैं एक निर्वासित----

कार्ने॰—लोग चाहे जो कहें, मैं भलीभाँति जानती हूँ कि अभी तक चाणक्य की विजय है। पिताजी से और मुझ से इस विषय पर अच्छा विवाद होता है। वे अरस्तु के शिष्यों में हैं।

चन्द्र॰—भविष्य के गर्भ में अभी बहुत-से रहस्य छिपे हैं।

कार्ने॰—अच्छा, तो मैं जाती हूँ और फिर एक बार अपनी कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। किन्तु मुझे विश्वास है कि मैं पुनः, लौट कर आऊँगी।

चन्द्र॰—उस समय भी मुझे भूलने की चेष्टा करोगी?

कार्ने॰—नहीं। चन्द्रगुप्त! विदा,---यवन-बेड़ा आज ही जायगा।

[दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हुए जाते हैं--राक्षस और कल्याणी का प्रवेश]

कल्याणी—ऐसा विराट् दृश्य तो मैंने नहीं देखा था अमात्य! मगध को किस बात का गर्व है?

राक्षस—गर्व है राजकुमारी! और उसका गर्व सत्य है। चाणक्य और चन्द्रगुप्त मगध की ही प्रजा हैं, जिन्होनें इतना बड़ा उलट-फेर किया है?

[चाणक्य का प्रवेश]

चाणक्य—तो तुम इसे स्वीकार करते हो अमात्य राक्षस?

राक्षस—शत्रु की उचित प्रशंसा करना मनुष्य का धर्म्म है। तुमने अद्भुत कार्य्य किये, इसमें भी कोई सन्देह है?

चाणक्य—अस्तु, अब तुम जा सकते हो। मगध तुम्हारा स्वागत करेगा।

राक्षस—राजकुमारी तो कल चली जायँगी। पर, मैंने अभी तक निश्चय नहीं किया है।

चाणक्य—मेरा कार्य्य हो गया, राजकुमारी जा सकती हैं। परन्तु एक बात कहूँ?

राक्षस—क्या?

चाणक्य—यहाँ की कोई बात नन्द से न कहने की प्रतिज्ञा करनी होगी।

कल्याणी—मैं प्रतिश्रुत होती हूँ।

चाणक्य—राक्षस, मैं सुवासिनी से तुम्हारी भेट भी करा देता, परन्तु वह मुझ पर विश्वास नहीं कर सकती।

राक्षस—क्या वह भी यहीं है?

चाणक्य—कहीं होगी, तुम्हारा प्रत्यय देखकर वह आ सकती हैं।

राक्षस—यह लो मेरी अगुलीय मुद्रा। चाणक्य! सुवासिनी को कारागार से मुक्त करा कर मुझसे भेंट करा दो।

चाणक्य—(मुद्रा लेकर)—मैं चेष्टा करूँगा।

[प्रस्थान]

राक्षस—तो राजकुमारी, प्रणाम!

कल्याणी—तुमने अपना कर्तव्य भली-भाँति सोच लिया होगा। मैं जाती हूँ, और विश्वास दिलाती हूँ कि मुझसे तुम्हारा अनिष्ट न होगा।

[दोनों का प्रस्थान]