चन्द्रगुप्त मौर्य्य/तृतीय अंक/७

विकिस्रोत से
चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १६२ ]
 


नन्द के राजमन्दिर का एक प्रकोष्ठ

नन्द—आज क्यों मेरा मन अनायास ही शंकित हो रहा है। कुछ नहीं...होगा कुछ।

[सेनापति मौर्य्य की स्त्री को साथ लिए हुए वररुचि का प्रवेश]

नन्द—कौन है यह स्त्री?

वररुचि—जय हो देव, यह सेनापति मौर्य्य की स्त्री है।

नन्द—क्या कहना चाहती है?

स्त्री—राजा प्रजा का पिता है। वही उसके अपराधओं को क्षमा करके सुधार सकता है। चन्द्रगुप्त बालक है, सम्राट्‌! उसके अपराध मगध से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, तब भी वह निर्वासित है। परन्तु सेनापति पर क्या अभियोग है? मैं असहाय मगध की प्रजा श्री-चरणों में निवेदन करती हूँ—मेरा पति छोड़ दिया जाय। पति और पुत्र दोनों से न वञ्चित की जाऊँ।

नन्द—रमणी! राजदण्ड पति और पुत्र के मोहजाल से सर्वथा स्वतंत्र है। षड्‌यन्त्रकारियों के लिए बहुत निष्ठुर है, निर्मम है! कठोर है! तुम लोग आग की ज्वाला से खेलने का फल भोगो। नन्द इन आँसू-भरी आँखों तथा अञ्चल पसार कर भिक्षा के अभिनय में नहीं भूलवायाजा सकता।

स्त्री—ठीक है महाराज! मैं ही भ्रम में थी। सेनापति मौर्य्य का ही तो यह अपराध है। जब कुसुमपुर की समस्त प्रजा विरुद्ध थी, जब जारज-पुत्र के रक्त-रँगे हाथों से सम्राट्‌ महापद्म की लीला शेष हुई थी,तभी सेनापति को चेतना चाहिए था। कृतघ्न के साथ उपकार किया है,यह उसे नहीं मालूम था।

नन्द—चुप दुष्ट! (उसका केश पकड़ कर खींचना चाहता है,वररुचि बीच में आकर रोकता है।) [ १६३ ]

वर॰—महाराज! सावधान! यह अबला है, स्त्री है।

नन्द—यह मैं जानता हूँ कात्यायन! हटो।

वर॰—आप जानते हैं, पर इस समय आपको विस्मृत हो गया है।

नन्द—तो क्या मैं तुम्हें भी इसी कुचक्र में लिप्त समझूँ?

वर॰—यह महाराज की इच्छा पर निर्भर है, और किसी का दास न रहना मेरी इच्छा पर, मैं शस्त्र समर्पण करता हूँ।

नन्द—(वररुचि का छुरा उठा कर)—विद्रोह! ब्राह्मण हो न तुम; मैंने अपने को स्वयं धोखा दिया। जाओ। परन्तु ठहरो। प्रतिहार!

[प्रतिहार सामने आता है]

नन्द—इसे बन्दी करो। और इस स्त्री के साथ मौर्य्य के समीप पहुँचा दो।

[प्रहरी दोनों को बन्दी करते हैं]

वर॰—नन्द! तुमहारे पाप का घड़ा फूटना ही चाहता है। अत्याचार की चिनगारी साम्राज्य का हरा-भरा कानन दग्ध कर देगी! न्याय का गला घोंट कर तुम उस भीषण पुकार को नहीं दबा सकोगे जो तुम तक पहुँचती है अवश्य, किनतु चाटुकारों द्वारा और ही ढंग से।

नन्द—बस ले जाओ। (सब का प्रस्थान)

नन्द—(स्वगत) क्या अच्छा नहीं किया? परन्तु ये सब मिले है, जाने दो! (एक प्रतिहार का प्रवेश) क्या है?

प्रतिहार—जय हो देव! एक संदिग्ध स्त्री राज-मन्दिर में घूमती हुई पकड़ी गयी है। उसके पास अमात्य राक्षस की मुद्रा और एक पत्र मिला है।

नन्द—अभी ले आओ।

[प्रतिहार जाकर मालविका को साथ लाता है]

नन्द—तुम कौन हो?

माल॰—मैं एक स्त्री हूँ, महाराज!

नन्द—पर तुम यहाँ किसके पास आयी हो? [ १६४ ]

माल॰—मैं-मैं, मुझे किसी ने शतुद्र-तट से भेजा है। मैं पथ में बीमार हो गई थी, विलम्ब हुआ।

नन्द—कैसा विलम्ब?

माल॰—इस पत्र को सुवासिनी नाम की स्त्री के पास पहुँचाने में।

नन्द—तो किसने तुम्हे भेजा है?

माल॰—मैं नाम तो नहीं जानती।

नन्द—हूँ! (प्रतिहार से) पत्र कहाँ है?

[प्रतिहार पत्र और मुद्रा देता है। नन्द उसे पढ़ता है]

नन्द—तुमको बतलाना पड़ेगा, किसने तुमको यह पत्र दिया है। बोलो, शीघ्र बोलो, राक्षस ने भेजा था?

माल॰—राक्षस नहीं, वह मनुष्य था।

नन्द—दुष्टे, शीघ्र बता! वह राक्षस ही रहा होगा।

माल॰—जैसा आप समझ लें।

नन्द—(क्रोध से) प्रतिहार! इसे भी ले जाओ उन विद्रोहियों की माँद में! ठहरो, पहले जाकर शीघ्र सुवासिनी और राक्षस को, चाहे जिस अवस्था में हों, ले आओ!

[नन्द चिन्तित भाव से दूसरी ओर टहलता है, मालविका बंदी होती है]

नन्द—आज सबको एक साथ ही सूली पर चढ़ा दूँगा। नहीं—(पैर पटक कर)—हाथियों के पैरों के तले कुचलवाऊँगा। यह कथा समाप्त होनी चाहिए। नन्द नीचजन्मा है न! यह विद्रोह उसी के लिए किया जा रहा है, तो फिर उसे भी दिखा देना है कि मैं क्या हूँ, यह नाम सुनकर लोग काँप उठें। प्रेम न सही, भय का की सम्मान हो।

[पट-परिवर्तन]