चन्द्रगुप्त मौर्य्य/द्वितीय अंक/२

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १०७ ]
 


झेलम-तट का वनपथ
[चाणक्य, चन्द्रगुप्त और अलका का प्रवेश]

अलका—आर्य्य! अब हम लोगों का क्या कर्त्तव्य है?

चाणक्य—पलायन।

चन्द्र॰—व्यंग न कीजिए गुरुदेव!

चाणक्य—दूसरा उपाय क्या है?

अलका—है क्यों नही?

चाणक्य—हो सकता है,—(दूसरी ओर देखने लगता है)

चन्द्र॰—गुरुदेव!

चाणक्य—परिव्राजक होने की इच्छा है क्या? यही एक सरल उपाय है!

चन्द्र॰—नहीं, कदापि नहीं। यवनों को प्रतिपद में बाधा देना मेरा कर्त्तव्य है और शक्ति-भर प्रयत्न करूँगा।

चाणक्य—यह तो अच्छी बात है। परन्तु सिंहरण अभी नहीं आया।

चन्द्र॰—उसे समाचार मिलना चाहिए।

चाणक्य—अवश्य मिला होगा।

अलका—यदि न आ सके?

चाणक्य—जब काली घटाओं से आकाश घिरा हो, रह-रहकर बिजली चमक जाती हो, पवन स्तब्ध हो, उससे बढ़ रही हो, और आषाढ़ के आरम्भिक दिन हो, तब किस बात की संभावना करनी चाहिए?

अलका—जल बरसने की।

चाणक्य—ठीक उसी प्रकार जब देश में युद्ध हो, सिंहरण मालव को समाचार मिला हो, तब उसके आने की भी निश्चित आशा है।

चन्द्र॰—उधर देखिये—वे दो व्यक्ति कौन आ रहे है।

[सिंहरण का सहारा लिये वृद्ध गांधार-राज का प्रवेश]

[ १०८ ]

चाणक्य—राजन्!

गांधार-राज—विभव की छलनाओं से वंचित एक वृद्ध! जिसके पुत्र ने विश्वासघात किया हो और कन्या ने साथ छोड़ दिया हो—मैं वही, एक अभागा मनुष्य हूँ!

अलका—पिताजी!—(गले से लिपट जाती है)

गांधार॰—बेटी अलका, अरे तू कहाँ भटक रही है?

अलका—कहीं नहीं पिताजी! आप के लिए छोटी-सी झोपड़ी बना रक्खी हैं, चलिये विश्राम कीजिये।

गां‌धार॰—नहीं, तू मुझे अपनी झोपड़ी में बिठा कर चली जायगी। जो महलों को छोड़ चुकी है, उसका झोपडियों के लिए क्या विश्वास!

अलका—नहीं पिताजी, विश्वास कीजिये। (सिंहरण से) मालव! मैं कृतज्ञ हुई।

[सिंहरण सस्मित नमस्कार करता है। पिता के साथ अलका का प्रस्थान]

चाणक्य—सिंहरण! तुम आ गये, परन्तु ......।

सिंह॰—किन्तु-परन्तु नहीं आर्य्य! आप आज्ञा दीजिये, हम लोग कर्त्तव्य में लग जायँ। विपत्तियों के बादल-मँडरा रहे हैं।

चाणक्य—उसकी चिन्ता नहीं। पौधें अन्धकार में बढ़ते हैं, और मेरी नीति-लता भी उसी भाँति विपत्ति-तम में लहलही होगी। हाँ, केवल शौर्य्य से काम नहीं चलेगा। एक बात समझ लो, चाणक्य सिद्धि देखता है, साधन चाहे कैसे ही हो। बोलो—तुम लोग प्रस्तुत हो?

सिंह॰—हम लोग प्रस्तुत हैं।

चाणक्य—तो युद्ध नहीं करना होगा।

चन्द्र॰—फिर क्यों?

चाणक्य—सिंहरण और अलका को नट और नटी बनाना होगा। चन्द्रगुप्त बनेगा सँपेरा और मैं ब्रह्मचारी। देख रहे हो चन्द्रगुप्त, पर्वतेश्वर की सेना में जो एक गुल्म अपनी छावनी अलग डाले हैं, वे सैनिक कहाँ के हैं? [ १०९ ]

चन्द्र॰—नहीं जानता।

चाणक्य—अभी जानने की आवश्यकता भी नहीं। हम लोग उसी सेना के साथ अपने स्वाँग रक्खेंगे। वही हमारे खेल होंगे। चलो हम लोग चलें; देखो—वह नवीन गुल्म का युवक-सेनापति जा रहा है।

(सब का प्रस्थान)

[पुरुष-वेष में कल्याणी और सैनिक का प्रवेश]

कल्याणी—सेनापति! मैंने दुस्साहस करके पिताजी को चिढ़ा तो दिया, पर अब कोई मार्ग बताओ, जिससे मैं सफलता प्राप्त कर सकूँ पर्वतेश्वर को नीचा दिखलाना ही हमारा उद्देश्य है।

सेना॰—राजकुमारी!

कल्याणी—सावधान सेनापति!

सेनापति—क्षमा हो, अब ऐसी भूल न होगी। हाँ, तो केवल एक मार्ग है।

कल्याणी—वह क्या?

सेना॰—घायलों की शुश्रूषा का भार ले लेना है।

कल्याणी—मगध सेनापति! तुम कायर हो।

सेना॰—तब जैसी आज्ञा हो!—(स्वगत) स्त्री की अधीनता वैसे ही बुरी होती है, तिसपर युद्धक्षेत्र में! भगवान ही बचावे।

कल्याणी—मेरी इच्छा है कि जब पर्वतेश्वर यवन-सेना द्वारा चारों ओर से घिर जाय, उस समय उसका उद्धार करके अपनी मनोरथ पूर्ण करूँ।

सेना—बात तो अच्छी है।

कल्याणी—और तब तक हम लोगों की रक्षित सेना—(रुककर देखते हुए)—यह लो पर्वतेश्वर इधर ही आ रहा है।

[पर्वतेश्वर का युद्ध-वेश में प्रवेश]

पर्वतेश्वर—(दूर दिखला कर)—वह किस गुल्म का शिविर है। युवक? [ ११० ]

कल्याणी—मगध-गुल्म का महाराज!

पर्व॰—मगध की सेना, असम्भव! उसने तो रण-निमंत्रण ही अस्वीकृत किया था।

कल्याणी—परन्तु मगध की बड़ी सेना में से एक छोटा-सा वीर युवकों का दल इस युद्ध के लिए परम उत्साहित था। स्वेच्छा से उसने इस युद्ध में योग दिया हैं।

पर्व॰—प्राच्य मनुष्यों में भी इतना उत्साह!

[हँसता है]

कल्याणी—महाराज, उत्साह का निवास किसी विशेष दिशा में नहीं है!

पर्व॰—(हँसकर) प्रगल्भ हो युवक , परन्तु रण जब नाचने लगता है, तब भी यदि तुम्हारा उत्साह बना रहे तो मानूँगा। हाँ! तुम बडे़ सुन्दर सुकुमार हो, इसलिए साहस न कर बैठना। तुम मेरी रक्षित सेना के साथ रहो तो अच्छा! समझे न!

कल्याणी—जैसी आज्ञा!

[चन्द्रगुप्त, सिंहरण और अलका का वेश बदले हुए प्रवेश]

सिंह—खेल देख लो! ऐसा खेल—जो कभी न देखा हो, न सुना!

पर्व॰—नट! इस समय खेल देखने का अवकाश नहीं।

अलका—क्या युद्ध के पहले ही घबरा गये, सेनापति! वह भी तो वीरों का खेल ही है!

पर्व॰—बड़ी ढीठ है!

चन्द्र०—न हो तो नागों का ही दर्शन कर लो!

कल्याणी—बड़ा कौतुक है महाराज, इन नागों को ये लोग किस प्रकार वश कर लेते हैं?

चन्द्र॰—(सम्भ्रम से)—महाराज हैं! तब तो अवश्य पुरस्कार मिलेगा। [ १११ ]

[संपेरों की-सी चेष्टा करता है। पिटारी खोलकर सांप निकालता है]

कल्याणी—आश्चर्य है, मनुष्य ऐसे कुटिल विषधरों को भी वश कर सक‌ता हैं, परन्तु मनुष्य को नहीं!

पर्व॰—नट, नागों पर तुम लोगों का अधिकार कैसे हो जाता है?

चन्द्र॰—मंत्र-महौषधि के भाले से बड़े-बडे़ मत्त नाग वशीभूत होते हैं।

पर्व॰—भाले से?

सिह॰—हाँ महाराज! वैसे ही जैसे भालों से मदमत्त मातंग।

पर्व॰—तुम लोग कहाँ से आ रहे हो?

सिंह॰—ग्रीकों के शिविर से।

चन्द्र॰—उनके भाले भारतीय हाथियों के लिए बज्र ही है।

पर्व॰—तुम लोग आम्भीक के चर तो नहीं हो?

सिंह॰—रातोरात यवन-सेना वितस्ता के पार हो गई हैं―समीप है, महाराज! सचेत हो जाइए!

पर्व॰—मगधनायक! इन लोगों को बन्दी करो।

[चन्द्रगुप्त कल्याणी को ध्यान से देखता है]

अलका—उपकार का भी यह फल!

चन्द्र॰—हम लोग, बन्दी ही हैं। परन्तु रण-व्यूह से सावधान होकर सैन्य-परिचालन कीजिए। जाइए महाराज! यवन-रणनीति भिन्न है।

[पर्वतेश्वर उद्विग्न भाव से जाता है]

कल्याणी—(सिंहरण से)—चलो हमारे शिविर में ठहरो। फिर बताया जायगा।

चन्द्र॰—मुझे कुछ कहना है।

कल्याणी—अच्छा, तुम लोग आगे चलो।

[सिंहरण इत्यादि आगे बढ़ते हैं]

चन्द्र॰—इस युद्ध में पर्वतेश्वर की पराजय निश्चित है। [ ११२ ]

कल्याणी—परन्तु तुम कौन हो—(ध्यान से देखती हुई)—मैं तुमको पहचान.........

चन्द्र॰—मगध का एक सँपेरा।

कल्याणी—हूँ! और भविष्यवक्ता भी।

चन्द्र॰—मुझे मगध की पताका के सम्मान की ........

कल्याणी—कौन? चन्द्रगुप्त तो नहीं?

चन्द्र॰—अभी तो एक सँपेरा हूँ राजकुमारी कल्याणी!

कल्याणी—(एक क्षण चुप रहकर)—हम दोनों को चुप रहना चाहिये! चलो!

[दोनों का प्रस्थान]

[ ११३ ]
 


युद्धक्षेत्र—सैनिकों के साथ पर्वतेश्वर

पर्व॰—सेनापति, भूल हुई।

सेना॰—हाथियों ने ही ऊधम मचा रक्खा हैं और रथी सेना भी व्यर्थ-सी हो रही हैं।

पर्व॰—सेनापति, युद्ध में जय या मृत्यु-दो में से एक होनी चाहिये।

सेना॰—महाराज, सिकन्दर को वितस्ता पर यह अच्छी तरह विदित हो गया है कि हमारे खड्गों में कितनी धार हैं। स्वयं सिकन्दर का अश्व मारा गया और राजकुमार के भीषण भाले की चोट सिकन्दर न सँभाल सका।

पर्व॰—प्रशंसा का समय नहीं है। शीघ्रता करो। मेरा रणगज प्रस्तुत हो; मैं स्वयं गजसेना का संचालन करूँगा। चलो!

(सब जाते हैं)

[कल्याणी और चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

कल्याणी—चन्द्रगुप्त, तुम्हें यदि मगध सेना विद्रोही जानकर बन्दी बनावे?

चन्द्र॰—बन्दी सारा देश हैं राजकुमारी, दारुण द्वेष से सब जकड़े हैं। मुझको इसकी चिन्ता भी नहीं। परन्तु राजकुमारी का युद्धक्षेत्र में आना अनोखी बात है।

कल्याणी—केवल तुम्हें देखने के लिए! मैं जानती थी कि तुम युद्ध में अवश्य सम्मिलित होंगे और मुझे भ्रम हो रहा है कि तुम्हारे निर्वासन के भीतरी कारणों में एक मैं भी हूँ।

चन्द्र॰—परन्तु राजकुमारी, मेरा हृदय देश की दुर्दशा से व्याकुल है। इस ज्वाला में स्मृतिलता मुरझा गयी है।

कल्याणी—चन्द्रगुप्त!

चन्द्र॰—राजकुमारी! समय नहीं। देखो—वह भारतीयों के [ ११४ ]प्रतिकूल दैव ने मेघमाला का सृजन किया हैं। रथ बेकार होंगे और हाथियों का प्रत्यावर्त्तन और भयानक हो रहा हैं।

कल्याणी—तब! मगध-सेना तुम्हारे अधीन हैं, जैसा चाहो करो।

चन्द्र॰—पहले उस पहाड़ी पर सेना एकत्र होनी चाहिये। शीघ्र आवश्यकता होगी। पर्वतेश्वर की पराजय को रोकने की चेष्टा कर देखूँ।

कल्याणी—चलो!

[मेघों की गड़गड़ाहट—दोनों जाते हैं]
[एक ओर से सिल्यूकस, दूसरी ओर से पर्वतेश्वर का ससैन्य प्रवेश, युद्ध]

सिल्यू॰—पर्वतेश्वर! अस्त्र रख दो!

पर्व॰—यवन! सावधान! बचाओं अपने को!

[तुमुलयुद्ध; घायल होकर सिल्यूकस का हटना]

पर्व॰—सेनापति! देखो, उन कायरों को रोको। उनसे कह दो कि आज रणभूमि में पर्वतेश्वर पर्वत के समान अचल है। जय-पराजय की चिन्ता नहीं। इन्हे बतला देना होगा कि भारतीय लड़ना जानते हैं। बादलों से पानी बरसने की जगह बज्र बरसे, सारी गज-सेना छिन्न-भिन्न हो जाय, रथी विरथ हो, रक्त के नाले धमनियों में बहे, परन्तु एक पग भी पीछे हटना पर्वतेश्वर के लिए असम्भव है। धर्मयुद्ध में प्राण-भिक्षा माँगनेवाले भिखारी हम नहीं। जाओ, उन भगोड़ों से एक बार जननी के स्तन्य की लज्जा के नाम पर रुकने के लिए कहो। कहो कि मरने का क्षण एक ही है। जाओ।

[सेनापति का प्रस्थान। सिंहरण और अलका का प्रवेश]

सिंह॰—महाराज! यह स्थान सुरक्षित नहीं। उस पहाड़ी पर चलिए।

पर्व॰—तुम कौन हो युवक!

सिह॰—एक मालव!

पर्व॰—मालव के मुख से ऐसा कभी नहीं सुना गया। मालव! खड्ग-क्रीड़ा देखनी हो तो खडे़ रहो। डर लगता हो तो पहाड़ी पर जाओ। [ ११५ ]सिंह०––महाराज, यवनों का एक दल वह आ रहा हैं!

पर्व०––आने दो। तुम हट जाओ।

[ सिल्यूकस और फिलिप्स का प्रवेश––सिंहरण और पर्वतेश्वर का युद्ध और लड़खड़ा कर गिरने की चेष्टा। चन्द्रगुप्त और कल्याणी का सैनिकों के साथ पहुंचना। दूसरी ओर से सिकन्दर को आना। युद्ध बन्द करने के लिए सिकन्दर की आज्ञा। ]

चन्द्र०––युद्ध होगा!

सिक०––कौन, चन्द्रगुप्त!

चन्द्र०––हाँ देवपुत्र!

सिक०––किससे युद्ध! मुमूर्षु घायल पर्वतेश्वर––वीर पर्वतेश्वर से! कदापि नही। आज मुझे जय-पराजय का विचार नहीं है। मैंने एक अलौकिक वीरता का स्वर्गीय दृश्य देखा है। होमर की कविता में पढ़ी हुई, जिस कल्पना से मेरा हृदय भरा है, उसे यहाँ प्रत्यक्ष देखा! भारतीय वीर पर्वतेश्वर! अब मै तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करू?

पर्व०––( रक्त पोंछते हुए )––जैसा एक नरपति अन्य नरपति के साथ करता है, सिकन्दर!

सिक०––मैं तुमसे मैत्री करना चाहता हूँ। विस्मय-विमुग्ध होकर तुम्हारी सराहना किए बिना में नहीं रह सकता––धन्य! आर्य्य वीर!

पर्व०––मैं तुमसे युद्ध न करके मैत्री भी कर सकता हूँ।

चन्द्र०––पचनद-नरेश! आप क्या कर रहे है! समस्त मगध-सेना आपकी प्रतीक्षा में है, युद्ध होने दीजिए!

कल्याणी––इन थोडे-से अर्धजीव यवनो को विचलित करने के लिए पर्याप्त मागध सेना है। महाराज! आज्ञा दीजिये।

पर्व०––नही युवक! वीरता भी एक सुन्दर कला है, उसपर मुग्ध होना आश्चर्य की बात नही, मैने वचन दे दिया, अब सिकन्दर चाहे हटे।

सिक०––कदापि नही। [ ११६ ]

कल्याणी—(शिरस्त्राण फेंककर)—जाती हूँ क्षत्रिय पर्वतेश्वर! तुम्हारे पतन में रक्षा न कर सकी, बड़ी निराशा हुई!

पर्व॰—तुम कौन हो?

चन्द्र॰—मागध-राजकुमारी कल्याणी देवी।

पर्व॰—ओह पराजय! निकृष्ट पराजय!

[चन्द्रगुप्त और कल्याणी का प्रस्थान। सिकन्दर आश्चर्य से देखता है। अलका घायल सिंहरण को उठाया चाहती है कि आम्भीक आकर दोनों को बन्दी करता है।]

पर्व॰—यह क्या?

आम्भीक—इनको अभी बन्दी बना रखना आवश्यक है।

पर्व॰—तो वे लोग मेरे यहाँ रहेंगे।

सिक॰—पंचनद-नरेश की जैसी इच्छा हो।