चिन्तामणि/५—लज्जा और ग्लानि

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लज्जा और ग्लानि

हम जिन लोगों के बीच रहते हैं अपने विषय में उनकी धारणा का जितना ही अधिक ध्यान रखते हैं उतना ही अधिक प्रतिबन्ध अपने आचरण पर रखते हैं। जो हमारी बुराई, मूर्खता या तुच्छता के प्रमाण पा चुके रहते हैं, उनके सामने हम उसी धड़ाके के साथ नहीं जाते जिस धड़ाके के साथ औरों के सामने जाते हैं। यहीं तक नहीं, जिन्हें इस प्रकार का प्रमाण नहीं भी मिला रहता है उनके आगे भी कोई काम करते हुए यह सोचकर कुछ आगा-पीछा होता है कि कहीं इस प्रकार का प्रमाण उन्हें मिल न रहा हो। दूसरों के चित्त में अपने विषय में बुरी या तुच्छ धारणा होने के निश्चय या आशंका मात्र से वृत्तियों का जो सङ्कोच होता है—उनकी स्वच्छंदता के विघात का जो अनुभव होता है—उसे लज्जा कहते हैं। इस मनोवेग के मारे लोग सिर ऊँचा नहीं करते, मुँह नहीं दिखते, सामने नहीं आते, साफ-साफ कहते नहीं, और भी न जाने क्या-क्या नहीं करते। 'हम बुरे न समझे जायँ' यह स्थायी भावना जिसमें जितनी ही अधिक होगी, वह उतना ही लज्जाशील होगा। 'कोई बुरा कहे चाहे भला,' इसकी परवा न करके जो काम किया करते हैं वे ही निर्लज्ज कहलाते हैं।

जिस समाज में हम कोई बुराई करते हैं, जिस समाज में हम अपनी मूर्खता, धृष्टता आदि का प्रमाण दे चुके रहते हैं, उसके अंग होने का स्वत्व हम जता नहीं सकते, अतः उसके सामने अपनी सजीवता के लक्षणों को उपस्थित करते या रखते नहीं बनता—यह प्रकट करते नहीं बनता कि हम भी इस संसार में हैं। जिसके साथ हमने कोई बुराई की होती है उसे देखते ही हमारी क्या दशा होती है? हमारी चेष्टाएँ मन्द [ ५७ ]पड़ जाती है, हमारे ऊपर घड़ों पानी पड़ जाता है, हम गड़ जाते हैं या चाहते हैं कि धरती फट जाती और हम उसमें समा जाते। सारांश यह कि यदि हम कुछ देर के लिए मर नहीं जाते तो कम से कम अपने जीने के प्रमाण अवश्य समेट लेते हैं।

ऊपर जो कुछ कहा गया उससे यह स्पष्ट हो गया होगा कि लज्जा का कारण अपनी बुराई, त्रुटि या दोष का हमारा अपना निश्चय नहीं; दूसरे के निश्चय का निश्चय या अनुमान है, जो हम बिना किसी प्रकार का प्रमाण पाए केवल अपने आचरण या परिस्थिति-विशेष पर दृष्टि रखकर ही कभी-कभी कर लिया करते हैं। हम अपने को दोषी समझें यह आवश्यक नहीं; दूसरा हमें दोषी या बुरा समझे यह भी आवश्यक नहीं; आवश्यक है हमारा यह समझना कि दूसरा हमें दोषी या बुरा समझता है या समझता होगा। जो आचरण लोगों को बुरा लगा करता है, जिस अवस्था का लोग उपहास किया करते हैं, जिस बात से लोग घृणा किया करते हैं यदि हम समझते हैं कि लोगों के देखने में वह आचरण हमसे हो गया, उस अवस्था में हम पड़ गए या वह बात हमसे बन पड़ी, तो हम लज्जित होने के लिए इसका आसरा न देखेंगे कि जिन लोगों के सामने ऐसी बात हुई है वे निन्दा करें, उपहास करें या छिः छिः करें। वे निन्दा करें या न करें, उपहास करें, या न करें, घृणा प्रकट करें या न करें, पर हम समझते हैं कि मसाला उनके पास है वे उसका उपयोग करें करे, न करें। यह अवश्य है कि उपयोग होने पर हमारी लज्जा का वेग या भार बहुत बढ़ जाता है, पर कभी-कभी इसका उलटा भी होता है। जिसके साथ हमने कोई भारी बुराई की होती है वह यदि दस आदमियों के सामने मिलने पर मौन रहे, हमारा गुणानुवाद करने लगे, हमसे प्रेम जताने लगे या हमारा उपकार करने चले, तो शायद हम अपने डूबने के लिए चुल्लू भर पानी ढूँढ़ने लगेंगे। वन से लौटने पर रामचन्द्रजी कैकेयी से मिले और "रामहिं मिलत कैकेई हृदय बहुत सकुचानि।" पर जब लक्ष्मण "कैकेई [ ५८ ]कहँ पुनि-पुनि मिले" तब तो वह लज्जा से धँस गई होगी। चित्रकूट में जब राम पहले कैकेयी से मिले होंगे तब उसकी क्या दशा हुई होगी?

निन्दा का भय लज्जा नहीं है, भय ही है, और कई बातों का, जिसमें लज्जा भी एक है। हमें निन्दा का भय है, इसका मतलब है कि हमें उसके परिणामों का भय है—अपने कुढ़ने, दुखी होने, लज्जित होने, हानि सहने इत्यादि का भय है।

विशुद्ध लज्जा अपने विषय में दूसरे की ही भावना पर दृष्टि रखने से होती है। अपनी बुराई, मूर्खता, तुच्छता इत्यादि का एकान्त अनुभव करने से वृत्तियों में जो शैथिल्य आता है, उसे 'ग्लानि' कहते हैं। इसे अधिकतर उन लोगों को भोगना पड़ता है जिनका अन्तःकरण सत्त्वप्रधान होता है, जिनके संस्कार सात्त्विक होते हैं, जिनके भाव कोमल और उदार होते हैं। जिनका हृदय कठोर होता है, जिनकी वृत्ति क्रूर होती है, जो सिर से पैर तक स्वार्थ में निमग्न होते हैं, उन्हें सहने के लिए संसार में इतनी बाधाएँ, इतनी कठिनाइयाँ, इतने कष्ट होते है कि ऊपर से और इसकी भी न उतनी ज़रूरत रहती है, न जगह। मन में ग्लानि आने के लिए यह आवश्यक नहीं कि जो हमारी बुराई, मूर्खता, तुच्छता आदि से परिचित हों, या परिचित समझे जाते हों, उनका सामना हो। हम अपना मुँह न दिखाकर लज्जा से बच सकते हैं, पर ग्लानि से नहीं। कोठरी में पर पड़े-पड़े, लिहाफ के नीचे भी लोग ग्लानि से गल सकते हैं। चित्रकूट में भरत-राम के मिलाप के स्थान पर जब जनक के आने का समाचार पहुँचा तब "सुनत जनक-आगमन सब हरखेउ अवध-समाज।" पर "गरइ गलानि कुटिल कैकेई।"

ग्लानि में अपनी बुराई, मूर्खता, तुच्छता आदि के अनुभव से जो सन्ताप होता है वह अकेले में भी होता है और दस आदमियों के सामने प्रकट भी किया जाता है। ग्लानि अन्तःकरण की शुद्धि का एक विधान है इससे उसके उद्गार में अपने दोष, अपराध, तुच्छता, बुराई इत्यादि [ ५९ ] का लोग दुःख से या सुख से कथन भी करते हैं—उसमें दुराव या छिपाव की प्रवृत्ति नहीं रहती। अपने दोष का अनुभव, अपने अपराध का स्वीकार, आन्तरिक अस्वस्थता का उपचार तथा सच्चे सुधार का द्वार है। 'हम बुरे हैं।' जब तक हम यह न समझेंगे तब तक अच्छे नहीं हो सकते। 'हम बुरे हैं।' दूसरों के कान में पड़ते ही इसका अर्थ उलट जाता है।

दूसरों को हम अच्छे नहीं लगते, यह समझकर हम लज्जित होते हैं अतः औरों को अच्छी न लगनेवाली अपनी बातों को केवल उनकी दृष्टि से दूर रखकर ही बहुत से लोग न लज्जित होते हैं, न निर्लज्ज कहलाते हैं। दूसरों के हृदय में अज्ञान की प्रतिष्ठा करके वे उसकी शरण में जाते हैं। पर अज्ञान, चाहे अपना हो चाहे पराया, सब दिन रक्षा नहीं कर सकता। बलिपशु होकर ही हम उसके आश्रय में पलते हैं। जीवन के किसी अंग की यदि वह रक्षा करता है तो सर्वांग भक्षण के लिए। अज्ञान अन्धकार स्वरूप है। दीया बुझाकर भागनेवाला यदि समझता है कि दूसरे उसे देख नहीं सकते, तो उसे यह भी समझ रखना चाहिए कि वह ठोकर खाकर गिर भी सकता है।

कोई बात ऐसी है जिसके प्रकट हो जाने के कारण हम दूसरों को अच्छे नहीं लगते हैं यह जानकर अपने को, और प्रकट होने पर अच्छे न लगेंगे यह समझकर उस बात को, थोड़े बहुत यत्न से उनके दृष्टिपथ से दूर करके भी जब हम समय पर अपना बचाव कर सकते हैं, यही नहीं, अपने व्यवधान-कौशल पर विश्वास कर सदा बचते चले जाने की आशा तक—चाहे वह झूठी ही क्यों न हो—कर सकते है, तब हमारा केवल यह जानना या समझना सदा सुधार की इच्छा ही उत्पन्न करेगा, कैसे कहा जा सकता है? दूसरों का भय हमें भगा सकता है, हमारी बुराइयों को नहीं। दूसरों से हम भाग सकते हैं, पर अपने से नहीं। जब अपने को हम अच्छे न लगने लगेंगे तब सिवा इसके कि हम अच्छे हों या अच्छे होने की आशा करें, आत्मग्लानि से बचने का [ ६० ]और कोई उपाय न रहेगा। पर जिनके अन्तःकरण में अच्छे संस्कारों का बीज रहता है ग्लानि उन्हीं को होती है।

संकल्प या प्रवृत्ति हो जाने पर बुराई से बचानेवाले तीन मनोविकार हैं—सात्त्विक वृत्तिवालों के लिए ग्लानि, राजसी वृत्तिवालों के लिए लज्जा और तामसी वृत्तिवालों के लिए भय। जिन्हें अपने किए पर ग्लानि नहीं हो सकती वे लोकलज्जा से, जिनमें लोकलज्जा का लेश नहीं रहता वे भय से, बहुत से कामों को करते हुए हिचकते हैं। प्रायः कहा जाता है कि बहुत से लोग इच्छा रखते हुए भी बुरे काम लज्जा के मारे नहीं करते। पर लज्जा का अनुभव एक प्रकार के दुःख का ही अनुभव है अतः यह नहीं कहा जा सकता कि कर्म न करने पर भी अपनी इच्छा मात्र पर उन्हें यह दुःख होता है; क्योंकि यदि ऐसा होता तो वे इच्छा रखते ही क्यों? सच पूछिए तो उन्हें उस दुःख की आशङ्का मात्र रहती है जो लोगों के धिक्कार, बुरी धारणा आदि से उन्हें होगा। वास्तव में उन्हें लज्जा की आशङ्का रहती है, इस बात का डर रहता है कि कहीं लज्जित न होना पड़े। लज्जा का अनुभव तो तभी होगा जब वे कुकर्म की ओर इतने अग्रसर हो चुके रहेंगे कि यह समझ सकें कि लोगों के मन में बुरी धारणा हो गई होगी। उस समय उनका पैर आगे नहीं बढ़ेगा।

आशङ्का अनिश्चयात्मक वृत्ति है, इससे लज्जा की ही हो सकती है जिसका सम्बन्ध दूसरो की धारणा से होता है। ग्लानि को आशङ्का नहीं हो सकती। क्योंकि उसका सम्बन्ध अपने से कहीं बाहर की दुरी धारणा से तो होता नहीं, अपनी ही बुरी धारणा से होता है जिसमें अनिश्चय का भाव नहीं रह सकता। जिससे बुरी की जितनी ही अधिक सम्भावना होती है उसे रोकने का उतने ही पहले से उपाय किया जाता है। जिन्हें अपने किए पर ग्लानि हो सकती है उनके लिए उत्तने पहले से प्रतिबन्ध की आवश्यकता नही होती जितने पहले से उनके लिए होती है जो केवल यही समझकर दुखी होते हैं कि 'लोग हमे बुरा समझते है'; यह समझकर नही कि 'हम बुरे हैं।' जो निपट [ ६१ ]निर्लज्ज होते हैं, जो दूसरों की बुरी धारणा की भी तब तक परवा नहीं करते जब तक उससे किसी उन फल की आशङ्का नहीं होती, उनके कर्म प्रायः इतने बुरे, इतने असह्य हुआ करते हैं कि दूसरे उन्हें बुरा समझ कर ही नहीं रह जाते, छिः छिः करके ही सन्तोष नहीं कर लेते; मरम्मत करने के लिए भी तैयार हो जाते है, जिससे उन्हें कभी भयभीत होना पड़ता है, कभी सशङ्क।

मनुष्य लोक-बद्ध प्राणी है इससे वह अपने को उनके कर्मों के गुण-दोष का भी भागी समझता है जिनसे उसका सम्बन्ध होता है, जिनके साथ में वह देखा जाता है। पुत्र की अयोग्यता और दुराचार, भाई के दुर्गुण और असभ्य व्यवहार आदि का ध्यान करके भी दस आदमियों के सामने सिर नीचा होता है। यदि हमारा साथी हमारे सामने किसी तीसरे आदमी से बातचीत करने से भारी मूर्खता का प्रमाण देता है, भद्दी और ग्राम्य भाषा का प्रयोग करता है, तो हमें भी लज्जा आती है। मैंने कुत्ते के कई शौक़ीनों को अपने कुत्ते की बदतमीज़ी पर शरमाते देखा है। जिसे लोग कुमार्गी जानते हैं उसके साथ यदि हम कमी देवमन्दिर के मार्ग पर भी देखे जाते हैं तो सिर झुका लेते हैं या बग़लें झाँकते हैं। बात यह है कि जिसके साथ हम देखे जाते हैं उसका हमारा कितनी बातों में कहाँ तक साथ है, दूसरों को इसके अनुमान की पूरी स्वच्छन्दता रहती है, उनकी कल्पना की काई सीमा हम तत्काल बाँध नहीं सकते।

किसी बुरे प्रसंग में यदि निमित्त रूप से भी हमारा नाम आ जाता है तो हमें लज्जा होती है—चाहे ऐसा हमारी जानकारी में हुआ हो, चाहे अनजान में। यदि बिना हमें जताए हमारे पक्ष में कोई कुचक्र रचा जाय तो उसका वृत्तान्त फैलने पर हमें लज्जा क्या ग्लानि तक हो सकती है। लज्जा का होना तो ठीक हैं क्योकि वह दूसरों की धारणा के कारण होती है; अपनी धारणा के कारण नहीं। पर ग्लानि कैसे होती है, 'हम बुरे या तुच्छ हैं।' यह धारणा कहाँ से आती है, यही देखना है। अपमान होने पर यदि क्रोध के लिए स्थान हुआ [ ६२ ]तो क्रोध का, नहीं तो अपनी तुच्छता का अनुभव होता है। दूसरों के चित्त में हमारे प्रति जो प्रेम या प्रतिष्ठा का भाव रहता है उसका ह्रास, किसी कुचक्र के साथ अपना नाम मात्र का सम्बन्ध समझकर भी, हम समझे बिना नहीं रह सकते। जब स्थिति ऐसी होती है कि इस ह्रास का न हम समाधान द्वारा निराकरण कर सकते हैं, न क्रोध द्वारा प्रतीकार, तो सिवा इसके कि हम अपनी हीनता का अनुभव करें, और कर ही क्या सकते है? भरत को इसी दशा में पाकर राम ने उन्हे समझाया था कि—

तात जाय जनि करहु गलानी।
ईस अधीन जीव-गति जानी॥
तीनि-काल त्रिभुवन मत मोरे।
पुन्यसलोक तात तर तोरे॥
उर आनत तुम पर कुटिलाई।
जाइ लोक परलोक नसाई॥

जिसने इतनी बुराई की वह मेरी माता है, इस भावना से जो लज्जा भरत को थी उसे दूर करने के लिए ही यह आगे का वचन है—

दोष देहिं जननिह जड़ तेई।
जिन गुरु-साधु-सभा नहिं सेई॥

इस प्रकार दोष देनेवालो से दोषोद्भावना द्वारा अनधिकार का आरोप करके माता के दोष का परिहार किया गया है।

उत्तम कोटि के मनुष्यों को अपने दुष्कर्म पर ग्लानि होती है और मध्यम कोटि के मनुष्यों को अपने दुष्कर्म के किसी कडुए फल पर। दुष्कर्म के अनेक अप्रिय फलों में से एक अपमान है, जिसे सह कर अपनी तुच्छत्ता का अनुभव किए बिना लोग प्रायः नहीं रहते। जिन्हें अपने किसी कर्म की बुराई का ध्यान आपसे आप नहीं होता उन्हें ध्यान कराने का श्रम उसकी बुराई का विशेष अनुभव करनेवाले, अपनी बुराई का सब ध्यान, अपने हाथ का सब धन्धा, छोड़कर उठाते है। इस श्रम से दूसरों के लिए उनकी बुराई का जो फल पैदा किया जाता है उसकी [ ६३ ]विरसता और कटुता कभी कभी अत्यन्त ग्लानिकारिणी होती है। पर आँख खुलने पर जो आँख खोलनेवालों को ही देख सकें, उनकी आँख की दुरुस्ती में बहुत कसर समझनी चाहिए। अपमान या हानि की जो ग्लानि उस अपमान या हानि ही तक ध्यान को ले जाय—उसके कारण तक न बढ़ाए—वह बुराई के मार्ग पर चल चुकनेवालों का थोड़ी देर के लिए पैर थास या बल तोड़ सकती है, पर उनका मुँह दूसरी ओर मोड़ नहीं सकती। अपमान का जो दुःख केवल इन शब्दों में व्यक्त किया जाता है कि 'हा! हमारी यह गति हुई!' उससे अपमान करनेवालों का काम तो हो जाता है पर दुःख करनेवालों का कोई मतलब नहीं निकलता। जो ग्लानि हमसे यह कहलाए कि 'यदि हमने ऐसा न किया होता तो हमारी यह गति क्यों होती?' वही पश्चात्ताप की ग्लानि है, जिससे हमारा हृदय पिघलकर किसी नए साँचे में डलने के योग्य हो सकता है अतः काई ऐसी बुराई करके जिससे चार आदमियों का कष्ट पहुँचा हो, हम यह समझने में कि 'हमने बुरा किया' जितनी ही जल्दी करते हैं उतने ही मज़े में रहते है क्योंकि बहुधा ऐसा होता है कि जिन्हें कष्ट पहुँचा रहता है वे हमारी इस समझ का पता पाकर संतुष्ट हो जाते हैं। अपनी किसी बुराई को बन्ध्या मानकर मन का खटका छुड़ानेवाले धोखा खाते हैं।

अपमान से जो ग्लानि होती है वह दो भावों के आधार पर—'हम ऐसे तुच्छ हैं।' और 'हम ऐसे बुरे हैं।' इन दोनों भावों को कभी कभी लोग बड़ी फुरती और सफ़ाई से रोकते हैं। अपनी तुच्छता का भाव अधिकांश में अपनी असामर्थ्य और दूसरे की सामर्थ्य का भाव है। हम इतने असमर्थ हैं कि दूसरे हमारा अपमान कर सकते हैं, इस भाव से निवृत्ति तो लोग चट अपनी सामर्थ्य का परिचय देकर—अपमान करनेवाले का अपमान करके—कर लेते हैं। रहा अपने दोष या बुराई का भाव; उससे छुटकारा लोग दोष देनेवालों में दोष ढूँढ़कर कर लेते हैं। इस प्रकार अपनी सामर्थ्य और दूसरे के दोष की भावना मन में भरकर वे अपनी तुच्छता और बुराई के अनुभव [ ६४ ]के लिए कोई कोना खाली ही नहीं छोड़ते। ऐसे लोग चाहे लाख बुराई करें, एक की दस सुनाने का सदा तैयार रहते हैं। अपने को ऐसा ही कल्पित करके तुलसीदास जी कहते हैं—

जानत हू निज पाप जलधि जिय,
जल-सीकर सुनत लरौं।
रज सम पर-अवगुन सुमेरु करि,
गुन गिरि सम ते निदरौं॥

अकारण अपमान पर जो ग्लानि होती है वह अपनी तुच्छता, अपनी सामर्थ्य-हीनता पर ही होती है। लोक-मर्यादा की दृष्टि से हमको इतनी सामर्थ्य का सम्पादन करना चाहिए कि दूसरे अकारण हमारा अपमान करने का साहस न कर सकें। समाज में रहकर मान-मर्यादा का भाव हम छोड़ नहीं सकतें। अतः इस सामर्थ्य का अभाव हमें खटक सकता है, उसकी हमें ग्लानि हो सकती है। जो संसार-त्यागी या आत्म-त्यागी हैं उनका विगतमान होना तो बहुत ठीक है, पर लोक-व्यवहार की दृष्टि से अनिष्ट से बचने बचाने के लिए इष्ट यही है कि हम दुष्टों का हाथ थामें और धृष्टों का मुँह—उनकी वन्दना करके हम पार नहीं पा सकते। इधर हम हाथ जोड़ेंगे, उधर वे हाथ छोड़ेंगे। असामर्थ्य हमें क्षमा या सहनशीलता का श्रेय भी पूरा-पूरा नहीं प्राप्त करने देगी।

मान लीजिए कि एक ओर से हमारे गुरुजी और दूसरी ओर से एक दण्डधारी दुष्ट, दोनों आते दिखाई पड़े। ऐसी अवस्था में पहले हमें उस दुष्ट का सत्कार करके तब गुरुजी को दण्डवत् करना चाहिए। पहले उस दुष्ट द्वारा होनेवाले अनिष्ट का निवारण कर्त्तव्य है, फिर उस आनन्द का अनुभव जो गुरुजी के चरणस्पर्श से होगा। यदि हम पहले गुरुजी को साष्टांग दण्डवत् करने लगेंगे तो बहुत सम्भव है कि वह दुष्ट हमारे अंगों को फिर उठने लायक ही न रखे। यदि हममें सामर्थ्य नहीं है तो हमें बिना गुरुजी को प्रणाम [ ६५ ]दण्डवत् किए ही भागना पड़ेगा जिसकी शायद हमें बहुत दिनों तक ग्लानि रहे।

लज्जा का एक हलका रूप सङ्कोच है जो किसी काम को करने के पहले ही होता है। कर्म पूरा होने के साथ ही उसका अवसर निकल जाता है, फिर तो लज्जा ही लज्जा हाथ रह जाती है। सामान्य से सामान्य व्यवहार में भी सङ्कोच देखा जाता है। लोग अपना रुपया माँगने में सङ्कोच करते है, साफ़-साफ़ बात कहने में सङ्कोच करते हैं, उठने-बैठने में सङ्कोच करते हैं, लेटने में सङ्कोच करते हैं, खाने-पीने में सङ्कोच करते है, यहाँ तक कि एक सभा के सहायक मंत्री है जो कार्य-विवरण पढ़ने में सङ्कोच करते हैं। सारांश यह कि एक बेवकूफी करने में लोग सङ्कोच नही करते और सब बातों में करते हैं। इससे उतना हर्ज भी नहीं क्योकि बिना बेवकूफ हुए बेवकूफी का बुरा लोग प्रायः नहीं मानते। इतनी क्रियाओं का प्रतिबन्धक होने के कारण सङ्कोच शील का एक प्रधान अंग, सदाचार का एक सहज साधक और शिष्टाचार का एकमात्र आधार है। जिसमें शील सङ्कोच नहीं वह पूरा मनुष्य नहीं। बाहरी प्रतिबन्धों से ही हमारा पूरा शासन नहीं हो सकता—उन सब बातों की रुकावट नहीं हो सकती जिन्हें हमें न करना चाहिए। प्रतिबन्ध हमारे अन्तःकरण में होना चाहिए। यह आभ्यन्तर प्रतिबन्ध दो प्रकार का हो सकता है—एक विवेचनात्मक जो प्रयत्नसाध्य होता है, दूसरा मनःप्रवृत्त्यात्मक जो स्वभावज होता है। बुद्धि-द्वारा प्रवृत्ति ज़बरदस्ती रोकी जाती है, पर लज्जा, सङ्कोच आदि की अवस्था में प्राप्त होकर प्रवर्त्तक मन आपसे आप रुकता है—चेष्टाएँ आप से आप शिथिल पड़ती हैं। यही रुकावट सच्ची है। मन की जो वृत्ति बड़ों की बात का उत्तर देने से रोकती है, बार बार किसी से कुछ माँगने से रोकती है, किसी पर किसी प्रकार का भार डालने से रोकती है, उसके न रहने से भलमनसाहत भला कहाँ रहेगी? यदि सब की धड़क एकबारगी खुल जाय तो एक ओर छोटे मुँह से बड़ी बड़ी बातें निकलने लगें, चार दिन के मेहमान तरह-तरह की फरमाइशें करने लगें, [ ६६ ]उँगली का सहारा पानेवाले बाँह पकड़कर खींचने लगें; दूसरी ओर बड़ों का बहुत कुछ बड़प्पन निकल जाय, गहरे-गहरे साथी बहरे हो जायँ या सूखा जवाब देने लगें, जो हाथ सहारा देने के लिए बढ़ते हैं वे ढकेलने के लिए बढ़ने लगें—फिर तो भलमनसाहत का भार उठाने वाले इतने कम रह जायँ कि वे उसे लेकर चल ही न सकें।

सङ्कोच इस बात के ध्यान या आशङ्का से होता है कि जो कुछ हम करने जा रहे हैं वह किसी को अप्रिय या वेढङ्गा तो न लगेगा, उससे हमारी दुःशीलता या धृष्टता तो न प्रकट होगी। इस बात का जिन्हें कुछ भी ध्यान नहीं रहता उनका दस आदमियों का साथ नहीं निभ सकता और जिन्हें अत्यन्त अधिक ध्यान रहता है उनके भी कामों में बाधा पड़ती है। मनोभावों की परस्पर अनुकूल स्थिति होने से ही संसार के व्यवहार चलते हैं। यदि एक इस बात का ध्यान रखता है कि दूसरे को कोई बात खटके न, बुरी न लगे और दूसरा उसकी हानि, कठिनाई आदि का कुछ भी ध्यान नहीं रखता है तो यह स्थिति व्यवहार-बाधक है। ऐसी स्थिति में भी सङ्कोच करनेवालों के काम देर से निकलते हैं या निकलते ही नहीं। पर इससे यह न समझना चाहिए कि जितने 'अपने सङ्कोची स्वभाव' की शिकायत के बहाने अपनी तारीफ़ किया करते हैं वे सब अपनी भलमनसाहत से दुःख भोगा करते हैं। ऐसे लोगों में सङ्कोच का तो नाम मात्र न समझना चाहिए। जिन्हें यह कहने में सङ्कोच नहीं कि 'हम बड़े सङ्कोची हैं।' उनमें सङ्कोच कहाँ? उन्हें यह कहते देर नहीं कि 'अमुक बड़ा निर्लज्ज है, बड़ा दुष्ट है।'

लज्जा या सङ्कोच यदि बहुत अधिक होता है तो उसे छुड़ाने की फिक्र की जाती है, क्योंकि उससे कभी-कभी आवश्यकता से अधिक कष्ट उठाना पड़ता है तथा व्यवहार तो व्यवहार शिष्टाचार तक का निर्वाह कठिन हो जाता है। सुख से रहने का सीधा रास्ता बतलाने वाले ने तो 'आहार और व्यवहार में' लज्जा का एकदम त्याग ही विधेय ठहराया है। पर मुझे तो यहाँ यह देखना है कि बात-बात में लज्जा करनेवालों की मनोवृत्ति कैसी होती है, उनके चित्त में समाई क्या [ ६७ ]रहती है। काई क्रिया या व्यापार किसी को बुरा, वेढंगा या अप्रिय न लगे यह ध्यान तो निर्दिष्ट और स्पष्ट होने के कारण कुछ विशिष्ट व्यापारों का ही अवरोध करता है क्योंकि जो-जो काम लोगों को बुरे बेढंगे या अप्रिय लगा करते हैं उनकी एक छोटी या बड़ी सूची सबके अनुभव में रहती है। पर जो यही अनिश्चित भावना रखकर सङ्कुचित होते है कि कोई बात 'लोगों को न जाने कैसी लगे, उन्हें न जाने कितनी बातों में सङ्कोच या लज्जा हुआ करती है। उन्हें बात- बात में खटका होता है कि उनका बैठना न जाने कैसा मालूम होता हो, बोलना न जाने कैसा मालूम होता हो, हाथ-पैर हिलाना न जाने कैसा मालूम होता हो, ताकना न जाने कैसा मालूम होता हो, यहाँ तक कि उनके ऐसे आदमी का होना—वे कैसे हैं चाहे वे कुछ भी न जानते हों—न जाने कैसा मालूम होता हो। न जाने कैसे लगने का डर उन्हें लोगों के लगाव से दूर-दूर रखता है। यह आशंका इतनी अव्यक्त होती है, लज्जा और इसके बीच का अन्तर इतना क्षणिक होता है, कि साधारणतः इसका लज्जा से अलग अनुभव नहीं होता।

कुछ लोगो के मुँह से लज्जा या सङ्कोच के मारे आदर-सत्कार के आवश्यक वचन मुँह से नहीं निकलते, बहुत से लड़कों को प्रणाम करने में लज्जा मालूम होती है। ऐसी लज्जा किसी काम की नहीं समझी जाती। बच्चों की अपनी तुच्छता, बुराई का, बेढ़ंगेपन की भावना बहुत कम होती है। वे अपनी क्रियाओं में स्वभावतः स्वच्छन्द होते हैं। पर विशेष स्थिति में पड़कर वे इतने भीरु और लज्जालु हो जाते है कि नये आदमियों के सामने नहीं आते, लाख पूछने पर कोई बात मुँह से नहीं निकालते। ऐसी दशा अधिकतर उन बच्चों की हो जाती है जो बात-बात पर, उठते-बैठते, हिलते-डोलते डाँटे, धिक्कारे या चिढ़ाए जाते है। लोग अकसर प्यार से बच्चो को किसी भद्दे, बेढ़ंगे या बुरे आदमी का ध्यान कराकर उन्हें चिढ़ाते है कि 'तुम वही हो'। इस प्रकार उन्हे सहमने, सङ्कोच करने, लज्जित होने आदि का अभ्यास कराया जाता है जो बढ़ते-बढ़ते बहुत बढ़ जाता है। [ ६८ ]

अपनी त्रुटि, बेढ़ंगेपन, धृष्टता इत्यादि का परिचय दूसरों को विशेषतः पुरुषों को—न मिले, इसका ध्यान स्त्रियों में बहुत अधिक और स्वाभाविक होता है, इसी से उनमें लज्जा अधिक देखी जाती है। वे सदा से पुरुषों के आश्रय में रहती आई हैं इससे 'हम धृष्ट या अप्रिय न लगें', इसकी आशंङ्का उनमें चिरस्थायिनी होकर लज्जा के रूप में हो गई है। बहुत-सी स्त्रियाँ ऐसी होती हैं—विशेषतः बड़े घरों कि—जिनकी काम-धंधे के रूप में भी लोगों के सामने हाथ-पैर हिलाने की धड़क नहीं खुली रहती, अतः उनका अधिक लज्जा-शील होना ठीक ही है। लोग लज्जा को स्त्रियों का भूषण कह-कहकर उनमें धृष्टता के दूषण से बचने का ध्यान और भी पक्का करते रहे। धीरे-धीरे उनके रूप-रंग के समान उनकी लज्जा भी पुरुषों के आनन्द और विलास की एक सामग्री हुई रस-कोविद लोग मुग्धा और मध्या की लज्जा का वर्णन कान में डालकर रसिकों को आनन्द से उन्मत्त करने लगे।