जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां/गूदड़ साईं
गूदड़ साईं
'साईं! ओ साईं!!' एक लड़के ने पुकारा। साईं घूम पड़ा। उसने देखा कि 8 वर्ष का बालक उसे पुकार रहा है।
आज कई दिन पर उस मोहल्ले में साईं दिखलाई पड़ा है। साईं वैरागी था—माया नहीं, मोह नहीं, परन्तु कुछ दिनों से उसकी आदत पड़ गई थी कि दोपहर को मोहन के घर जाता, अपने दो-तीन गन्दे गूदड़ यत्न से रखकर उन्हीं पर बैठ जाता और मोहन से बातें करता। जब कभी मोहन उसे गरीब और भिखमंगा जानकर माँ से अभिमान करके पिता की नजर बचाकर कुछ साग-रोटी लाकर दे देता, तब उस साईं के मुख पर पवित्र मैत्री के भावों का साम्राज्य हो जाता। गदड साईं उस समय 10 वर्ष के बालक के समान अभिमान, सराहना और उलाहना के आदान-प्रदान के बाद उसे बड़े चाव से खा लेता; मोहन की दी हुई एक रोटी उसकी अक्षय-तृप्ति का कारण होती।
एक दिन मोहन के पिता ने देख लिया। वह बहुत बिगड़े। वह थे कट्टर आर्यसमाजी। ढोंगी फकीरों पर उनकी साधारण और स्वाभाविक चिढ़ थी। मोहन को डाँटा कि वह इन लोगों के साथ बातें न किया करे। साईं हँस पड़ा, चला गया।
उसके बाद आज कई दिन पर साईं आया और वह जान-बूझकर उस बालक के मकान की ओर नहीं गया; परन्तु पढ़कर लौटते हुए मोहन ने उसे देखकर पुकारा और वह लौट भी आया।
'मोहन!'
'तुम आजकल आते नहीं?'
'तुम्हारे बाबा बिगड़ते थे।'
'नहीं, तुम रोटी ले जाया करो।
'भूख नहीं लगती।'
'अच्छा, कल जरूर आना; भूलना मत!' इतने में एक दूसरा लड़का साईं का गूदड़ खींचकर भागा। गूदड़ लेने के लिए साईं उस लड़के के पीछे दौड़ा। मोहन खड़ा देखता रहा, साईं आँखों से ओझल हो गया।
चौराहे तक दौड़ते-दौड़ते साईं को ठोकर लगी, वह गिर पड़ा। सिर से खून बहने लगा। खिझाने के लिए जो लड़का उसका गूदड़ लेकर भागा था, वह डर से ठिठका रहा। दूसरी ओर से मोहन के पिता ने उसे पकड़ लिया, दूसरे हाथ से साईं को पकड़कर उठाया। नटखट लड़के के सिर पर चपत पड़ने लगी; साईं उठकर खड़ा हो गया।
'मत मारो, मत मारो, चोट लगती होगी!' साईं ने कहा—और लड़के को छुड़ाने लगा। मोहन के पिता ने साईं से पछा—'तब चीथड़े के लिए दौडते क्यों थे?'
सिर फटने पर भी जिसको रुलाई नहीं आई थी, वह साईं लड़के को रोते देखकर रोने लगा। उसने कहा—'बाबा, मेरे पास, दूसरी कौन वस्तु है, जिसे देकर इन 'रामरूप' भगवान् को प्रसन्न करता।'
'तो क्या तुम इसीलिए गूदड़ रखते हो?'
'इस चीथड़े को लेकर भागते हैं भगवान् और मैं उनसे लड़कर छीन लेता हूँ; रखता हू फिर उन्हीं से छिनवाने के लिए, उनके मनोविनोद के लिए। सोने का खिलौना तो उचक्के भी छीनते हैं पर चीथड़ों पर भगवान् ही दया करते हैं!' इतना कहकर बालक का मुँह पोंछते हुए मित्र के समान गलबाँही डाले हुए साईं चला गया।
मोहन के पिता आश्चर्य से बोले—'गूदड़ साईं! तुम निरे गूदड़ नहीं; गुदड़ी के लाल हो!!'