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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/१०. नखशिख खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३७ से – ४३ तक

 

(१०) नखशिख खंड

का सिंगार ओहि बरनौं, राजा। ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा॥
प्रथम सीस कस्तूरी केसा। बलि बासुकि, का और नरेसा॥
भौंर केस, वह मालति रानी। बिसहर लुरे लेहिं अरघानी॥
बेनी छोरि झार जौं बारा। सरग पतार होइ अँधियारा॥
कोंवर कुटिल केस नग करे। लहरिन्हिं भरे झुअँग बैसारे॥
बेधे जनौं मलयगिरि बासा। सीस चढ़े लोटहिं चहुँ पासा॥
घुँघरवार अलकैं विषभरी। सँकरैं पेम चहैं गिउ परी॥

अस फँदवार केस वै, परा सीस गिउ फाँद।
अस्टौ कुरो नाग सब, अरुझ केस के बाँद॥१॥

बरनौं माँग सीस उपराहीं। सेंदुर अबहिं चढ़ा जेहि नाहीं॥
बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ। उजियर पंथ रैनि महँ कीआ॥
कंचन रेख कसौटी कसी। जन घन महँ दामिनि परगसी॥
सुरुज किरिन जनु गगन बिसेखी। जमुना माँह सुरसती देखी॥
खाँड़ै धार रुहिर जनु भरा। करवत लेइ बेनो पर धरा॥
तेहि पर पूरि धरे जो मोती। जमुना माँझ गंग कै सोती॥
करवत तपा लेहिं होइ चूरू। मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरू॥

कनक दुवादस बानि होइ, चह सोहाग वह माँग।
सेवा करेहिं नखत सब, उवै गगन जस गाँग॥२॥

कहौं लिलार दुइज कै जोती। दइजहि जोति कहाँ जग ओती॥
सहस किरिन जो सुरुज दिपाई। देखि लिलार सोउ छपि जाई॥
का सरिवर तेहिं देउँ मयंकू। चाँद कलंकी, वह निकलंकू॥
औ चाँदहि पुनि राहु गरासा। वह बिनु राहु सदा परगासा॥
तेहि लिलार पर तिलक बईठा। दुइज पाट जानहु धुव दीठा॥


(१) संकरैं = शृंखला, जंजीर। फँदवार = फँद में फँसानेवाले। बलि = निछावर हैं। लुरे = लढ़ते या लहरते हुए। अरघानि = महँक, आघ्राण। अस्ट कुरी = अष्टकुलनाग (ये हैं—वासुकि, तक्षक, कुलक, ककोंटक, पद्म, शंखचूड़, महापद्म, धनंजय। (२) उपराहीं = ऊपर। रुहिर = रुधिर। करवत = करपत्र, आरा। बेनी (क) त्रिवेणी, (ख) वेणी। करवत लेइ = पहले मोक्ष के लिये कुछ लोग त्रिवेणी संगम पर अपना शरीर आरे से चिरवाते थे, इसी को करवत लेना कहते थे। वहाँ एक आरा इसके लिये रखा रहता था। काशी में भी ऐसा स्थान था जिसे काशी करवट कहते हैं। तपा = तपस्वी।

कनक पाट जनु बैठा राजा। सबै सिँगार अन्न लेइ साजा॥
ओहि आगे थिर रहा न कोऊ। दहुँ का कहँ अस जुरै सँजोऊ॥

खरग, धनुक, चक बान दुउ, जग मारन तिन्ह नावँ।
सुनि कै परा मुरुछि कै (राजा) मोकहँ हए कुठावँ॥३॥

भौंहें स्याम धनुक जनु ताना। जासहुँ हेर मार विष बाना॥
हनै धुनै उन्ह भौंहरि चढ़े। केइ हतियार काल अस गढ़े?
उहै धनुक किरसुन पर अहा। उहै धनुक राघौ कर गहा॥
ओहि भ्रमुक रावन संघारा। ओहि धनुक कंसासुर मारा॥
ओहि धनुक बेधा हुत राहु। मारा ओहि सहस्राबाहू॥
उहै धनुक मैं तापहँ चीन्हा। धानुक आप बेझ जग कीन्हा॥
उन्ह भौंहनि सरि केउ न जीता। अछरी छपीं, छपीं गोपीता॥

भौंह धनुक, धनि धानुक, दूसर सरि न कराई।
गगन धनुक जो ऊगै, लाजहि सो छपि जाइ॥४॥

नैन बाँक, सरि पूछ न कोऊ। मानसरोदक उलथहिं दोऊ॥
राते कँवल कारहिं अलि भवाँ। धूमहिं माति चहहिं अपसवाँ॥
उठहि तुरंग लेहिं नहिं बागा। चाहहिं उलथि गगन कहँ लागा॥
पवन झकोरहिं देइ हिलोरा। सरग लाल भुइँ लाल बहोरा॥
जग डोलै डोलन नैनाहाँ। उलटि अड़ार जाहिं पल माहाँ॥
जबहिं फिराहिं गगन गति बोरा। अस वै धौंर चक्र के जोरा॥
समुद हिलोर फिरहिं जनु झूले। खंजन लरहिं, मिरिग जनु भूले॥

सुभर सरोवर नयन वै, मानिक ररे तरंग।
आवत तीर फिरावहीं, काल भौंर तेहिं संग॥१॥

बरुनी का बरनौं इमि बनी। साधे बान जानु दुइ अनी॥
जुरी राम रावन कै सैना। बीच समुद्र भए दुइ नैना॥
बारहिं पार बदावरि साधा। जा सहुँ हेर लाग विष बाधा॥
उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा। बेधि रहा सगरौ संसारा॥
गगन नखत जो जाहि न गने। वै सब बान ओही के हने॥
धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी॥
रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढ़े। सूतहि सूत बेध अस गाढ़े॥


सोहाग = (क) सौभाग्य, (ख) सोहागा। (३) ओती = उतनी। अब = अस्त्र हए = हने, मारा। (४) सहूँ = सामने। हुत = था। बेझ = बेध्य, बेझा, निसाना। (५) उलथहिं = उछलते हैं। भवाँ = फेरा, चक्कर। अपसवाँ चहहिं = जाना चाहते हैं, उड़कर भागना चाहते हैं (अपस्रवण)। (६) उलचि....

पल साहा = बड़े बड़े अड़नेवाले या स्थिर रहने वाले पल भर में उलट जाते हैं।

बरुनि बान अस ओपहँ, बेधें रन बन ढाँख।
सौजहिं तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥६॥

नासिक खरग देउँ कह जोगू। खरग खीन, वह बदन-सँगोजू॥
नासिक देखि लजानेउ सुआ। सूक आइ बेसरि होइ ऊआ॥
सुआ, गो पिअर हिरामन लाजा। और भाव का बरनौं राजा॥
सुआ, सो नाक कठोर पँवारी। वह कोंवर तिल-पुहुप सँवारी॥
पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा। मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा॥
अधर दसन पर नासिक सोभा। दारिउँ बिंब देखि सुक लोभा॥
खंजन दुहुँ दिसि केलि कराहीं। दहुँ वह रस कोउ पाव कि नाहीं॥

देखि अमिय यस अधरन्ह, भएउ नासिका कीर।
पौन वास पहुँचावैं, अस रस छाँड़ न तीर॥७॥

अधर सुरंग अभी रस भरे। बिंब सुरंग लाजि वन फरे॥
फूल दुपहरी जान राता। फल झरहिं ज्यों ज्यों कह बाता॥
होरा लेइ सो विद्रुम धारा। विहँसत जगत होइ उजियारा॥
भए मँजीठ मानन्ह रँग लागे। कुसुम-रंग थिर रहै न आगे॥
अस कै अधर अभी भरि राखे। अवहिं अछूत, न काहू चाखे॥
मुख तँबोल रँग धारहिं रसा। केहि मुख जोग जो अमृत बसा?॥
राता जगत देखि रँगराती। रुहिर भरे आछहि बिहँसाती॥

अभी अधर अस राजा, सब जग आस करेइ।
केहि कहँ कँवल बिगासा, को मधुकर रस लेइ?॥८॥

दसन चौक बैले जनु हीरा। औ बिच बिच रंग स्याम गंभीरा॥
जस भादौं दिसि दामिनि दीरी। चमक उठै तस बना बतीसी॥
वह सुजोति हीरा उपराहीं। हीरा जाति सो तेहि परछाहीं॥
जेहि दिन दसनजोति निरमई बहुतै जोति जोति ओहि भई॥
रवि ससि नखत दिपहि ओहि जोनी। रतन पदारथ मानिक मोती॥
जहँ जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी। तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी॥
दामिनि दमकि न सरवरि पूजी। पुनि ओहि जोति और को दूजी?॥

हँसत दसन अस चमके, पाहन उठे झरक्कि।
दारिउँ सरि जो न कै सका, फाटेउ हिया दरक्कि॥९॥


फिरावहीं = चक्कर देते हैं। (६) अनी = सेना। वनावरि = वाणावलि, तोरों की पंक्ति। साखी = वृक्ष। साखी = साक्ष्य, गवाही। रन = अरण्य (प्रा॰ रण्य)। (७) जोग देउँ = जोड़ मलाऊँ। समता में रखूं। पँवारी = लोहारों का एक औजार जिससे लोहे में छेद करते हैं। हिरकाइ लेइ = पास सटा ले। (८) हीरा केइ....उजियारा = दाँतों को श्वेत अधरों को अरुण ज्योति के प्रसार से जगत में उजाला होता, कहकर कवि ने उषा या अरुणोदय का बड़ा सुंदर गूढ़ संकेत रखा है। मजीठ = बहुत गहरा मजीठ के रंग का लाल।

रसना कहौं जो कह रस बाता। अमृत बैन मन सुनत राता॥
हरै सो सुर चातक कोकिला। बिनु बसंत यह बैन न मिला॥
चातक कोकिल रहहिं जो नाहीं। सुनि वह बैन लाज छपि जाहीं॥
भरे प्रेमरस बोलै बोला। सुनै सो माति घूमि के डोला॥
चतुतवेद मत सब ओहि पाहाँ। रिग, जजु, साम, अथरवन साहाँ॥
एक एक बोल अरथ चौगुना। इंद्र मोह, बरम्हा सिर धुना॥
अमर, भागवत, पिंगल गीता। अरथ बूझि पंडित नहिं जीता॥

भासवती औ व्याकरन, पिंगल पढ़ै पुरान।
बेद भेद सौं बान कह, सृजनन्ह लागै बान॥१०॥

पुनि बरनौं का सुरँग कपोला। एक नारँग दुइ किए अमोला॥
पुहुप पंक रस अमृत साँधे। केइ यह सुरँग खरौरा बाँधे?॥
तेहिं कपोल बाएँ तिल परा। जेइ तिल देखि सो तिल तिल जरा॥
जनु घुँघची ओहि तिल करमुहीं। बिरह बान साधे सामुहीं॥
अगिनि बान जानों तिल सूझा। एक कटाछ लाख दस सूझा॥
सो तिल गाल मेटि नहिं गएऊ। अब वह गाल काल जग भएऊ॥
देखत नैन परी परिछाहीं। तेहि तें रात साम उपराहीं॥

सो तिल देखि कपोल पर, गगन रहा ध्रुव गाड़ि।
खिनहिं उठै खिन बूड़ै, डोलै नहिं तिल छाँड़ि॥११॥

स्रवन सीप दृढ़ दीप सँवारे। कुंडल कनक रचे उजियारे॥
मनि कुंडल झलकैं अति लीने। जनु कौंधा लौकहिं दुइ कोने॥
दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं। नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं॥
तेहि पर खूँट दीप दुइ वारे। दुइ ध्रुव दुऔ खूँट बैसारे॥
पहिरे खुंभी सिंघलदीपी। जनौ भरी कचपचिआ सीपी॥
खन खिन जबहिं कीर सिर गहे। काँपति बीज दुऔ बिसि रहै॥
डरपहिं देवलोक सिंघला। परै न बीजु टूटि ए क कला॥

करहिं नखत सब सेवा स्रवन दीन्ह अस दोउ।
चाँद सुरुज अस गोहने और जगत का कोउ?॥१२॥


धार = घड़ी, रेखा। चौक = आगे के चार दाँत। पाहन = पत्थर, हीरा। झरक्कि उठे = झलक गए। अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए। (१०) अमर = अमरकोश। भासवती = भास्वती नामक ज्योतिष का ग्रंथ। सुजनन्ह = सुजानों या चतुरों चो।) (११) साँवे = साने, गूंधे। खुरौरा = खाँड़ के लड्‍डू। खँड़ौरा। घुँघुची = गुजा। करमुँहा = काले मुँहवाला। (१२) लौकहि = चमकती है, दिखाई पड़ती है। खूँट = कान का एक गहना। खूँट = कोने। खुंभी = कान का एक गहना। कपचिया = कृत्तिका नक्षत्र जिसमें बहुत से तारे एक में गुच्छ दिखाई पड़ते हैं। गोहने = साथ में, सेवा में। (१३) कंबु = शंख।

बरनौं गीउ कंबु कै रीसी। कंचन ताल लागि जनु सीसी॥
कुंदै फेरि जानु गिउ काढ़ी। हरी पुछार ठगी जनु ठाढ़ी॥
जनु हिय बाढ़ि परेवा टाढ़ा। तेहि तैं अधिक भाव गिउ बाढ़ा॥
चाक चढ़ाइ साँच जनु कीन्हा। बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा॥
गए मयूर तमचूर जो हारे। उहै पुकारहिं साँझ सकारे॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा। घूँट जो पीक लीक सब देखा॥
धनि ओहि गीउ दीन्ह विधि भाउ। दहुँ कासौं लेइ करै मेराऊ॥

कंठसिरी मुकुतावली, सोहै आाभरन गीउ।
लागै कंठहार होइ को तप साधा जीउ॥१३॥

कनक दंढ़ दुइ भुजा कलाई। जानौं फेरि कुँदेरै भाई॥
कदलि गाभ के जानौ जोरी। औ राती ओहि कँबल हथोरी॥
जानो रकत हथोरी बूड़ी। रवि परभात तात, वै जूड़ी॥
हिया काड़ि जनु कीन्हेसि हाथा। रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा॥
औ पहिरे नग जरी अँगूठी। जग बिनु जीउ, जीउ ओहि मूठी॥
बाहूँ कंगन, टाड़ सलोनी। डोलत बाँह भाव गति लोनी॥
जानौ गति बेड़िन देखराई। बाँह डोलाइ जीउ लेइ जाई॥

भुज उपमा पौंनार नहिं, खीन भयउ तेहि चिंत।
ठाँवहि ठाँव बेध भा, ऊबि साँस लेइ नित॥१४॥

हिया थार, कुच कंचन लारू। कनक कचोर उठे जनु चारू॥
कुंदन बेल साजि जनु कूँदे। अमृत रतन मोन दुइ मूँदे॥
बेधे भौंर कंट केतकी। चाहहिं बेध कीन्ह कंचुकी॥
जोबन बान लेहिं नहिं बागा। चाहहिं हुलसि हिये हठ लागा॥
अगिनिं बान दुइ जानौं साधे। जग बेधहिं जौं होहि न बाँधे॥
उतँग जँभीर होइ रखवारी। छुइ को सक राजा कै बारी॥
दारिउँ दाख फरे अनचाखे। अस नारँग दहुँ का कहँ राखे॥

राजा बहुत मुए तपि, लाइ लाइ भुँइ माथ।
काहू छुवै न पाए, गए मरोरत हाथ॥१५॥


दिखाई पड़ते हैं। गोहने साथ में, सेवा में। (१३) कंबु = शंख। रीसी। ईर्ष्या (उत्पन्न करनेवाली) अथवा केरीसी कैसी, जैसी; समान (प्रा॰ केरिसी) = कुंदै = खराद। पुछार = मोर। साँच = साँचा। (१४) भाई = फिराई हुई, खराद पर घुमाई हुई। गाभ = नरम कल्ला। हथोरी = हथेली। तात = गरम। टाड़ = बाँह पर पहनने का एक गहना। बेड़िन = नाचने गानेवाली एक जाति। पौनार = पद्मनाल (प्रा॰ पउम नाल), कमल का डंठल। ठाँवहिं ठाँव...निंद = कमल नाल में काँटे से होते हैं और वह सदा पानी के ऊपर उठा रहता है। (१५) कचोर = कटोरे। कूँदे = खरादे हुए। मोन = (सं॰ मोण) मोना, पिटारा,

पेट परत जनु चंदन लावा। कुहँकुहँ केसर बरन सुहावा॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरा। पान फूल के रहै अधारा॥
साम भुअंगिनि रोमावली। नाभी निकसि कँवल कहँ चली॥
आइ दुऔ नारँग बिच भई। देखि मयूर ठमकि रहि गई॥
मनहुँ चढ़ी भौरन्ह कै पाँती। चंदन खाँभ वास कै माती॥
की कालिंदी बिरह सताई। चलि पयाग अरइल बिच आई॥
नाभि कुंभ बिच वारानसी। सौंह को होइ, मीचु तहँ बसी॥

सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तेहि आस।
बहुत धूम घुट घुटि मुए, उतर न देइ निरास॥१६॥

बैरिनि पीठि लीन्हि वह पाछे। जन फिर चली अपछरा काछे॥
मलयागिरि कै पीठि सँवारी। बेनी नागिनि चढ़ी जो कारी॥
लहुरैं देति पीठि जनु चढ़ी। चीर ओहार केंचुली मढ़ी॥
दहुँ का कहँ अस वेनी कीन्हीं। चंदन बास भुअंगै लीन्हीं॥
किरसुन करा चढ़ा ओहि माथे। तब तौ छूट अब छुटै न नाथे॥
कारे कवँल गहे मुख देखा। ससि पाछे जनु राहू बिसेखा॥
को देखै पावै वह नागू। सो देखै जेहि के सिर भागू॥

पन्नग पंकज मुख गहे, खंजन तहाँ बईठ।
छत्र, सिंघासन, राज, धन, ताकहँ होइ जो डीठ॥१७॥

लंक पुहुमि अस आहि न काहू। केहरि कहौं न ओहि सरि ताहू॥
बसा लंक बरनै जग झीनी। तेहि तें अधिक लंक वह खीनी॥
परिहँस पियर भए तेहि बसा। लिए डंक लोगन्ह कह डसा॥
मानहुँ नाल खंड दुइ भए दुहुँ बिच लंक तार रहि गए॥
हिय के मुरे चलै वह तागा। पैग देत कित सहि सक लागा॥
छुद्रघंटिका मोहहि राजा। इंद्र अखाड़ आइ जनु बाजा॥
मानहुँ बीन गहे कामिनी। गावहिं सबै राग रागिनी॥

सिंघ न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बनवासु।
तेहि रिस मानुस रकत पिय, खाइ मारि कै माँसु॥१८॥


डिब्बा। बारी = (क) कन्या, (ख) बगीचा। (१६) अरइल = प्रयाग में वह स्थान जहाँ जमुना गंगा से मिलती है। करवत = आरा (सं॰ करपत्र)। करसी = (सं॰ करीष) उपले या कंडे की आग जिसमें शरीर सिझाना बड़ा तप समझा जाता था, जैसे—गनिका, गीध बधिक हरिपुर गए लै करसो प्रयाग कब सोधे।—तुलसी। (१७) करा = कला से, अपने तेज से। कारे = साँप। पन्नग पंकज...बईठ = सर्प के सिर या कमल पर बैठे खंजन को देखने से राज्य मिलता है, ऐसा ज्योतिष में लिखा है। पहुमि = पृथिवी (प्रा॰ पुहुवी)। बसा = बरट, भिड़, बरैं। परिहँस = ईर्ष्या, डाह (इस अर्थ में ही अवध में बोला जाता है)। मानहुँ नाल...गए-कमल के नाल को तोड़ने पर दोनों खंडों के बीच कुछ महीन महीन सूत लगे रह जाते हैं। तागा = सूत। छुद्रघंटिका = घूँघरूदार करधनी।

नाभिकुंड सो मलय समीरू। समुद भँवर जस भँवै गँभीरू॥
बहुतै भँवर बवंडर भए। पहुँचि न सके सरग कहें गए॥
चंदन माँझ कुरंगिनि खोजू। दर्द को पाउ, को राजा भोजू॥
को ओहि लागि हिवंचल सीझा। का कहँ लिखी, ऐस को रीझा॥
तीवइ कँवल सूगंध सरीरू। समद लहरि सोहै तन चीरू॥
भूलहीं रतन पाट के झोंपा। साजि मैन आंस का पर कोपा?॥
अबहि सो अहै कँवल कै करी। न जनौ कौन भौंर कहें धरी॥

वेधि रहा जग बासना परिमल मद सुगंध।
तेहि अरघानि भौंर सब लुवुधे तजहि न बंध॥ १९॥

बरनों नितँब लंक कै सोभा। औ गज गवन देखि मन लोभा॥
जुरे जंघ सोभा अति पाए। केरा खंभ फेरि जनु लाए॥
कवँल चरन अति रात बिसेखी। रहैं पाट पर, पुहुमि न देखो॥
देवता हाथ हाथ पर लेहीं। जहँ पगु धरै सीस तहँ देहीं॥
माथे भाग कोउ अस पावा। चरन कँवल लेइ सीस चढ़ावा॥
चूरा चाँद सुरुज उजियारा। पायल बीच करह झनकारा॥
अनवट बिछिया नखत तराई। पहुँचि सकै पायँन ताई॥

बरनि सिंगार न जानेउँ, नखशिख जैस अभोग।
तस जग किछुइ न पाएऊँ, उपमा देउँ ओहि जोग॥२०॥



(१९) भँवै = घूमता है, चक्कर खाता है । खोजू = खोज, खुर का पड़ा हुआ चिह्न। हिवंचल = हिमालय। तीवइ = स्त्री (पूरब तिवई)। समुद लहरि = लहरिया कपड़ा। झोंपा - गुच्छा। अरघानी = आम्राण, महँक। (२०) फेरि = उलटकर। लाए = गलाए।