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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/१४. वोहित खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ५४ से – ५५ तक

 

 

(१४) बोहित खंड

सो न डोल देखा गजपती। राजा सत्त दत्त दुहँ सती॥
अपनेहि कया, आपनेहि कंथा। जीउ दीन्ह अगुमन तेहि पंथा॥
निहचै चला भरम जिउ खोई। साहस जहाँ सिद्धि तहँ होई॥
निहचै चला छांड़ि कै राजू। बोहित दीन्ह, दीन्ह सब साजू॥
चढ़ा वेंगि, तब बोहित पेले। धनि सो पुरुष पेम जेइ खेले॥
पेम पंथ जौ पहुँचे पारा। बहुरि न मिले आइ एहि छारा॥
तेहि पावा उत्तिम कैलासू। जहाँ न मीचु, सदा सुख वासू॥

एहि जीवन कै आस का। जस सपना पल आधू।
मुहमद जियतहि जे मुए, तिन्‍ह पुरुषन्ह कह साधु॥१॥

जस बन रेंगि चले गज ठाटी। बोहित चले, समुद गा पाटी॥
धावहिं बोहित मन उपराहीं। सहस कोस एक पल महँ जाहीं॥
समुद अपार सरग जनु लागा। सरग न घाल गनै वैरागा॥
ततखन चाल्हा एक देखावा। जनु धौलागिरि परबत आवा॥
उठी हिलोर जो चाल्हनराजी। लहरि अकास लागि भुइँ बाजी॥
राजा सेंति कुंवर सब कहहीं। अस अस मच्छ समुद महँ अहहीं॥
तेहि रे पंथ हम चाहहि गवना। होहु सँजूत बहुरि नहिं अवना॥

गुरू हमार तुम राजा, हम चेला तुम नाथ।
जहां पाँव गुरु राखे, चेला राखे माथ॥२॥

कँवट हँसे सो सुनत गवेजा। समुद न जानु कुवाँ कर मेजा॥
यह तो चाल्ह न लागै कोहू। का कहिहौ जब देखिहौ रोहू?
सो अवहीं के तुम्ह देखा नाहीं। जेहि मुख ऐसे सहस समाहीं॥
राजपंखि तेहि पर मेड़राहीं। सहस कोस तिन्‍ह कै परछाहीं॥
तेइ ओहि मच्छ ठोर भरि लेहीं। साधक मुख चारा लेइ देहीं॥
गरजै गगन पंखि जब बोला। डोल समुद्र डेन जब डोला॥
जहाँ चाँद औ सूर असूझा। चढ़ै सोइ जो अगुमन बूझा॥


(१) सत्त दत्त दुहुँ सती = सत्य या दान दोनों में सच्चा या पक्का है। पेले = भोंक से चले। (३) ठाटी = ठट्ट, झुंड। उपराहीं = अधिक (वेग से)। घाल न गनै = पसंगे बराबर भी नहीं मानता, कुछ नहीं समझता। घाल = घलुआ, थोड़ी सी और वस्तु जो सौंदे के ऊपर बेचनेवाला देता है। चाल्हा = एक मछली, चेल्हवा। नराजी = नाराज हुई। भुइँ बाजी = भूमि पर पड़ी। सँजूत =

सावधान, तैयार। (३) गवेजा = बातचीत(?)। मेजा = मेंढक, (पूरब = मेजुका) । कोहू = किसी को।

दस महँ एक जाइ कोइ करम, घरम, तप, नेम।
बोहित पार होइ जब, तवहि कुसल औ खेम॥३॥

राजै कहा कीन्ह मैं पेमा। जहाँ पेम कहूँ कूसल खेमा॥
तुम्ह खेवहु जौ खेवै पारहु। जैसे आपु तरहु मोहि तारहु॥
मोहि कुसल कर सोचन ओता। कुसल होत जौ जनम न होता॥
घरती सरग जाँत पट दोऊ। जो तेहि बिच जिउ राख न कोऊ॥
हौं अब कुसल एक पै माँगौं। पेम पंथ सत बाँधि न खाँगों॥
जौ सत हिय तौ नयनहिं दीया। समुद न डरै पैठि मरजीया॥
तहँ लगि हेरौं समुद ढेंढोरी। जहँ लगि रतन पदारथ जोरी॥

सप्त पतार खोजि के काढ़ौं वेद गरंथ।
सात सरग चढ़ि धावौं, पदमावति जेंहि पंथ॥४॥


 

(४) ओता = उतना। पट = पल्ला। खाँगौं = कसर करूँ। मरजीया = जी पर खेलकर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तु (जैसे, मोती, शिला-जतु, कस्तुरी) लानेवाले, जिवकिया। ढेंढोरी = छानकर।