जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२४. गंधर्वसेन मंत्री खंड

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[ ९० ](२४) गंधर्वसन मंत्री खंड राजे सुनि जोगी गढ़ चढ़े। पास जो पंडित पड़े । जोगी गढ़ जो संधि द श्रावहि। बोलह सबद सिद्धि जस पावहि ॥ कहति वेद पढ़ि पंडित बेदी। जोगि भर जस मालति भेदी ॥ जे से चोर सेंधि सिर मेलहि। तस ए दुवी जी पर खेलहि ॥ पंथ न चलहि वेद जस लिखा। सरग जाए सूते चढ़ सिखा ॥ चोर होइ सूते पर मोडू । देइ जौ सूरि तिन्हहि नहि दोवू ॥ चोर पुकारि बेधि घर मूसा। खेखे लै । राजभंडार मंजसा जस ए राजमंदिर महूँदीन्ह रैनि कहें सेंधि । ॥ तस ठेकढ पुनि इन्ह कहेंमारह सूरी बेधि ॥ १ ध जो मंत्रो बोले सोई । ऐस जो चोर सिद्धि से कोई ॥ सिद्ध निसंक ‘नि दिन भहो। ताका जहाँ तहाँ आपसवहीं । सिद्ध निडर अस अपने जोवा। खड़ग देखि के नावहि गोवा ॥ सिद्ध जाइ पे िउवध जहाँ। ऑौरह मरन पंख अस कहाँ ? ॥ चढ़ा जो कोपि गगन उपराहों। थोरेसा मरै सो नंाहीं जज व क जज चढ़ जो राजा। संघ साज के चढ़े तो छाजा ॥ सिद्ध भर, काया जस पारा। छरह मरह बर जाड़ न मारा। छर ही काज कृस्न करराजा चढ़े - । रिसाइ सिद्धगिद्ध जिन्ह दिस्टि गगन पर; विनछर किछ न बसाइ ॥ २। वहीं करहु गु दर मिस साजू । चढ़हि बजाइ जहाँ लगि राजू ।। होह जोवल कुंवर जो भोगो। सघ दर कि धरह अब जोगी। चौविस लाख छत्रपति साजे । छपन कोटि दर वाजन बाजे ॥ बाइस हस्ति सिघलोसहित महि हली ॥ सहस । सकल पहार । जगत व राबर व सत्र चाँपा। डरा इंद्र, ॥ पदुम कोट रथ सजे प्रावह । गिरि होइ खेद गगन कहें धावह ॥ बासुकि हि काँपा, जमू , भुवाल चल त महिं परा । टो कमठ पोठि, हिय डरा । । (१) सबद = व्यवस्था । सरग जाए = स्वर्ग जाना (ग्रवधी) । सूरि सूली । (२) Tध = पास, समा । भवडों = फिरते हैं। सवहीं = जाते हैं । मरनमें मृत्यु जैसे को ज मते । छछरह व = के पंख चोंटों हैं । पारा = पारद। ८ छछल से, आति से । = व ल से । (३) गु दर राजा के दरबार में हाजिरी, बर मोजर ; कदरम' अथवा पाठतर ‘त। मैं जोवल दर = यद्ध = सावधान । दलसेना चाँपा =पैर से गेंद कर समतल कर दिया। । चाल = , | व रावर भू चाल, भूकंप । [ ९१ ]गंधर्वसेन मंत्री खंड छनहि सरग छाइगा, सूज गयज अलोपि । दिनहि राति आस देखियचढ़ा इंद्र अस कोपि ॥ ३ ॥ देखि कटक नौ मैIत हाथी। बोले रतनसेन कर साथी । होत आाव दल बहुत प्रसूझा। आस जानिय कियू होदि जूझा। राजा तू जोगी होइ खेला। एहीं दिवस वह हम भए चेला जहाँ गाढ़ ठाकुर कहें होई। संग न डे सेवक सोई जो हम मरन दिसव मन ताका। श्रा आाइ पूजी वह साका । बरु जिउ जाइजाइ नहि बोला। राजा सत सुमेरु नहि डोला। गुरू केर जो प्रायस पावहसौंह होह चक्र लावह भाजू कह रन भारत, सत बाचा देइ राखि । सत्य देख सब कौतुक, सत्य भरे पुनि साखि । ४। गुरू कहा चेला सिध हो । पेम बार होइ करह न कोहू । जाकहें- सीस नाइ कै दी। रंग न होइ । ऊभ जी की। जेहि जिज पेम पानि भा सोई। जेहि रॉग मिले मोहि रंग होई ॥ जौ पे जाइ पेम सीं जूझाकित तप मरह सिद्ध जो बूझा एहि सेंति बहुरि जूझ नहि करिए। खड़ग देखि पानी हो ढरिए । पानिहि काह खड़ग ईं धारा। लौटि पानि होइ सोइ जो मारा पानी सेंति आागि का ? बुझाइ जौ पानी परई । । करई जाइ सीस दीन्ह मैं अगमन, पेम जानि सिर मेलि । अब सो प्रीति निबाहीं, चलौं सिद्ध होइ खेलि ॥ ५ ॥ राजे धरे दुख ऊपर दुख सहै । कि सब जोगी। बियोगी ना जिउ धरक धरत होइ कोई। नाहीं मरन जियन डर होई ॥ नाग फाँस उन्ह मेला गीवा। हरख न बिसम एक जीवा। जेइ जिउ दीन्ह सो लेइ निकासा। बिसरे नहि जौ लहि तन साँसा ॥ कर किंगरी तेहि बजावै। इहै गीत बैरागी गावै । _तंतु भलेहि यानि गिद्ध मेली फाँसी । है न सोच हिय, रिस सब नासी ॥ में गिज फाँद ओोहि दिन मेला । जेहि दिन पेम पंथ होइ खेला। परगट गुपुत सकल महंह पूरि रहा सो नाँवु जहें देखाँ तहूँ औोही, दूसर नहि ज, जावें । ६ अलोपि गए - लुप्त हो गए । (४) साका = पूजसमय पूरा हूंप्रग 'ीत बोला = बचनप्रतिज्ञा । (५) ऊभ ऊँचा। एहि = इससेइसलिये । पानिहि कहा धारा = पानी में तलवार मारने से पानी विदीर्ण नहीं होता, वह फिर ज्यों का त्यों बराबर हो जाता है । लौट“मारा = जो मरता है वही उलटा पानी (कोमल या नम्र ) हो जाता है । धरक = धड़क। बिसमो = विषाद (अवध) । रिस सब नासी क्रोध भी सब प्रकार नष्ट कर दिया है । [ ९२ ]पदमावत जब लगि गुरु हों अहा न चोन्हा। कोटि ऑतरपट बीचहि दीन्हा ॥ जब चोन्हा तब ऑौर न कोई । तन मन जिउ जीवन सब सोई ॥ हो हीं करत धोख इतराहों । जय भा सिद्ध कहाँ परछाहीं ? ॥ मारै गु रू, कि गुरू जियावै। ऑौर को मार ? मरै सब प्रावै । सूरी में लु, हस्ति करु चूरू । हों नह जान ; जाने गए। ॥ रू हस्ति पर चढ़ा सो पेखा। जगत जो नास्ति, नास्ति प देखा । ध मोन जस जल महें धावा। जल जीवन चल दिस्टि न आावा । गुरु मोरे मोरे हिये, दिए तुरंगम ठाठ । भौतर करह डोलाव, बाहर नाच काठ। सो पदमावति गुरु हीं चेला। जोग तंत जेहि कारन खेला ॥ तजि वह बार न जानों दूजा । जेहि दिन मिलेजातरा पूजा ॥ जीउ कातुि भुईं धर्ण लिलटा । मोहि कहें देऊँ हिये महें पाटा : ॥ को मोहि श्रोहि प्रावै पाया। नव प्रव तारदेइ नई काया। जीउ चाहि जो आर्थिक सियारो। माँ जोउ दे बलिहारी ॥ माँ सोसदेखें सह गोवा। यधिक तरों जर्थों मारे जीवा ॥ अपने जिक्र कर लोभ न मोहों। पेम बार होइ माँगों औोही ॥ दरसन मोहि कर दिया जस, हीं सो भिखरि पतंग । जो करवत सिर सारे, मरत न मोरों अंग : ८ । पदमावति कंवला ससि जोती। हँसें , रोवे सब मोती ॥ बरजा पिते हंसो औो रोजू । लागे दूतहोड़ निति खोज ॥ जबहि सुरुज कहें लागा राहू। तबहि कंबल मन भएड प्रगाह ॥ विरह अगस्त जो विसमी उए। सरवर हरप सूचि सब गएऊ । परगट ढारि सके नहि ग्राँसू । घटि घटि माँसू गुपुत होइ नासू ॥ जस दिन माँ रंनि होड़ थाई। विगसत कंवल गएड मुरझाई ॥ राता बदन गएज हो सेता। भंवत भंवर रहि गए प्रचेता ॥ चित्त जो चिता कोन्ह धनि, रो रोचें । समेत सहस साल सहि, ग्राहि भरि, मुरुछि परीगा चेत 1 & ॥ (७) ग्रहा = था। बेंतरपट = परदा, व्यवधान । इतराहीं =इतराते हैं, गर्व करते करु व च र करे, पास डाल पं = ही । जल जीवन आावा = जल यह है, नहीं सा जोवन चंचल यह दिखाई देता है । ठाठ = रचना, ाँचा। का = ज ड वस्तु, शरोरा (८) जातरा पूजा = यात्रा सफल हुई । पाटा = fस हासन = मारा ' । करव सिर सारे सिर पर चलावे । (8) रोज = ' रोदन, । बा चो सो । अगस्त = एक नक्षत्र, जैसेउदित अगस्त पंथ रीना न जल सोखा । बिसमों बिना समय के । भंवत भंवर "चेता = डोलते हुए भरे अर्थात् पुतलियाँ निश्चल हो गई । [ ९३ ]गंधर्वसेन मंत्री खंड ९३ पदमावति सँग सखी सयानी। गनत नखत सब रैनि बिहानी ॥ जानहि मरम केंवल कर कोईं। देखि बिथा बिरहिन के रोई ॥ बिरहा कठिन काल के कला। बिरह न सहै, काल बरु भला ॥ काल काढ़ि जिउ लेइ सिधारा । बिरह काल मारे पर मारा ॥ बिरह नागि पर मेले मागी। बिरह घाव पर घाव बजागी । विरह बान पर बान पसारा। बिरह रोग पर रोग सँवारा ॥ बिरह साल पर साल नवेला। बिरह काल पर काल दुहेला ॥ तन रावन होइ सर चढ़, बिरह भयउ हनुवंत । जारे ऊपर जा त्रित मन करि भसमंत 1१०। कोइ कुमोद पसाह पाया। कोइ मलयागिरि निरकहि काया । कोइ मुख सीतल नीर चुनावै । कोइ चल सौं पौन डोलावे ॥ कोइ मूख अमृत आानि निचोवा। जन बिष दीन्ह, अधिक धनि सोवा ॥ जोवहि साँस खनहि खिन सखी। कब जिउ फिरै पौन पर पंखी । बिरह काल होइ हिये पईठा। जीउ काढ़ि ले हाथ बईठा । खिनहि मौन बाँध, खिन खोला। गही जीभ मुख श्राव न बोला। खिनहि बे ि बानन्ह मारा। कैपि पि नौरि मरै बेकरारा ॥ कैसेहु बिरह न , भा ससि गहन गरास । नखत चहूँ दिसि रोवहअंधर धरति प्रकास ॥११। घरी चाहि इमि गहन गरासी। पुनि विधि हिये जोति परगासी ॥ निर्मास ऊमि भरि लीन्हेसि साँसा। भा अधार, जीवन के आासा ॥ बिनवहि सखीट ससि राइ। तुम्हरी जोति जोति सब काहू । तू ससि बदन जगत उजियारी। केइ हरि लीन्ह, कोन्ह अंधियारी ? ॥ तु गजगामिनि गरव गहेली। अब कस आास छड़ तू बेली ॥ हरिलंक हराए केहरि। अब कित हारि करति है हियहरि ॥ तू कोकिल बैनी जग मोहा। केइ व्याधा होइ गहा निछोहा । वल कली तू पदमिति ! गई निसि भयड बिहान । अब, न संपुट खोलसि, जब रे उमा जग भानु 1१२। ॥ भानु नार्वे सुनि कंवल बिगासाफिर भौंर लोन्ह मधु बासा ॥ सरद चंद मुख जवह उघेलीनैन केली ॥ । खंजन उठे करि विरन बोल भाव मुख ताई। मरि मरि बोल जीउ बरियाई ॥ (१०) कला = काल । नवेला कोई = कुमुदिनी, यहाँ सखियाँ। काल के के रूप = वे करारा = नया । (११) पौनपर = पवन के परवाला अर्थात् वायु रू । बेचैन बेकरार । अंधर = अँधेरा। (१२) तू हरिलंककेहरि = तूने सह से कटि छीनकर उसे हराया। हारि करति है = निराश होती है, हिम्मत हारती है । निोहा = निष्ठुर । (१३) फिरि के भरमधू बासा = भौंरों ने फिर मधुवास लिया अर्थात् काली पुतलियाँ लीं । बरियाई = जबरदस्ती [ ९४ ]पदमावत दव बिरह दारुन हिय काँपा। खोलि न जाइ विरह दुख झाँपा ॥ उदधि समुद जस तरंग देखावा। चख महैि, मुख बात न आावा ॥ यह सुनि लहरि लहरि पर धावा। भंवर , जिउ थाह न पावा सखी यानि विष देह तो मरऊँ। जिउ न पियारमरे का डर खिनहि उठे, खिन वः आंस हि कंवल फेंकेत हार रामनहि लावहि, सबो ! गहन लेत १२ चेरी धाय सुनत खिन धाई। हीरामन लेइ छाईं बोलाई जनहु बैद औोषद लेइ आावा। रोगिया रोग मरत जिउ पावा सुनत असोस नैन धनि खोले। विरह बैन कोकिल जिमि बोले केंवलहि बिरह बिथा जस बाढ़ी। केसर बरन पीर हि गाढ़ी कित कंवलहि भा पेम शूरू । जो पै गहन लेहि दिन सूरू पुरइनि छह कंवल करी । सकल बिथा सुनि आंस तुम हरी पुरुष गंभोर न बोलह काहू। जो बोलहि तो और निबाहू एतवें बोल क्हत मुखपुनि होझ पुनि को चेत सँभारै? उहै कहत मुख सेत 1१४ और दगध का कहीं अपारा। सती सो जरें टिन अस झारा लका बुझौ नागि जौ लागी । यह न व झाइ ऑाँच बज्ागी कोई । लंकादाह लागू करे सोई जनह अगिनि के उठह पहारा । औी सब लागह अंग भंगारा । कटेिं कटि माँसू सराग पिरोवा । रकत के आंसु माँस सब रोबा। खिन एक बार माँसु नस भूजा। खिनहि चबाई सिंघ स पूजा एहि रे दगध ढंत उतिम मरी। दगध न सहिय जीउ बरु दी जहें लगि चंदन मलयगिरि औी सायर सब नीर सब मिलि प्राइ बुझावहि, है न नागि सरीर IIAI हीरामन जी देखेसि नारी। प्रीति बेल उपनी हि बारी कहे िकस न तुम्ह होह दुहेली। अरुझी पेम जो पीतम बेली प्रीति बेलि जिनि अरु कोई। रुके, मए न छूटे सोई प्रीति बेलि ऐसे तन डाढ़ा ॥ पलुहत सुखबाढ़त दुख बाड़ा प्रीति वेलि के अमर को बोई ?। दिन दिन बट्ट, छीन नहि होई प्रीति लि संग विरह अपारा । सरग पतार जगे तेहि झारा प्रीति के लि वेलि चढ़ि छावा। दूसर बेलि न सेंच पावा न वत है, पीसता है। झाँपा ढका था। फेंकेत = संकट गहन सूर्य रूप रत्नसेन का प्रदर्शन। (१४) भैरू के अंकुर। काबू कभी है। (१५) झारा झार, सराग = शलाका, सीख । जा गरजा दगध दाह उतिम = उत्तम। (१६) दुहेली = दु:खी । पहुँहत = पल्लवित

होते, पनपते हुए [ ९५ ]

प्रीति बेलि अरुझे जबतब सुह सुख साख।
मिलै पिरीतम आाड़ के, दाख बेलि रस चाख १६।
पदमावत अउठि टे पाया। तुम्ह ढंत देख पीतम छाया ॥
कहत लाज औी रहै न जीऊ। एक दिसि आागि दुसर दि िपीछ॥
उदयगिरि चढ़त भुलाना। गहने गहा, कंवल कुंभिलाना ॥
औोहट होइ मर्के तौ शुरी। यह सुठि मॐ जो नियरन दूरी
घट महें निकटविकट होइ मैरू। मिलहि न मिले, परा तस फेरू ॥
तुम्ह सो मोर खेवक रु देवा। उतरी पार तेही विधि सेवा ।॥
दमनहि नलहि जो हंस मेरावा। तुम्ह हीरामन नाँव कहावा ॥
मूरि सजीवन दूरि है, साले सकती बा
प्रोन म् कुत अब होत है, बेगि देखावह भानु ।1१७।
हीरामन भुईं धरा लिलाटू। तुम्ह रानी जुग जुग सुखपादू ॥
जेहि के हाथ सजीवन मूरी। सो जानिय अब नाहीं दूरी ॥
तुम्हार राज कर भौगी। पूछे बिन मराव जोगी ॥
पौंरि पौंरि कोतवार जो बैठा । पैम क लुबुध सुरंग होइ पैठा ॥
चढ़त रैनि गढ़ होइगा भोरू। आावत बार धरा के चोरू ।
अब लेइ गए देइ मोहि सूरी। तेहि सौ अगाह विथा तुम्ह पूरी ॥
अब तुम्ह जिउ काया वह जोगी । कया क रोग जानु पे रोगी ।
रूप तुम्हार जीउ है (थापन) पिंड कमावा फेरि
आा हाइ रहा, तेहि काल रि 1१८
हीरामन जो बात यह कही । सूर के गहन चाँद तब गही ॥
सूर के दुख सीं ससि भइ दुखी । सौ कित दुख माने करमुखी ? ॥
अब जो जोगि मरे मोहि नेहा। मोहि मोहि साथ धरति गगनेहा ।
रहै त करों जनम भरि सेवा। चले त, यह जिउ साथ परेवा ॥
कईसि कि कौन करा है सोई। पर काया परदेस जो होई ॥
पलटि सो पंथ कौन विधि खेला। चेला गुरू गुरू भा चेला ।
कौन खंड प्रस रहा काई । प्रावै काल, हरि फिरि जाई ॥
चेला सिद्धि सो पाव, गुरु सौ करें अछेद ।
गू रू करै जो किरिपा, पार्थ चेला भेद ।१९।

(१७) तुम्ह ढंत = तुम्हारे द्वारा । श्रोहट = नोट में, दूर । मेरू = मेल मिलाप। मिलहि में मिले = मिलने पर भी (पास होने पर भी) नहीं मिलता। दमयंती मुकुत होत दमन = । है = टता है । (१८) रूप तुम्हार जीडे"फेरि = तुम्हारे रूप (शरीर) में अपने जीव को करके (परकाय प्रवेश करके) उसने मानो दूसरा शरीर प्राप्त किया। (१६) करमुखी काले मुँहाली। गगनेहा = गगन में, स्वर्ग में । करा = कला । चेला सिद्धि सो पावे“भेद = यह शुक का उत्तर है । अछेद = भेद, भेद भाव का त्याग । १७ [ ९६ ]& ६ पदमावत अनु रानी तुम गुरु, वह चेला। मोहि बूझह के सिद्ध नवेला ॥ तुम्ह चेला कहें परसन भई। दरसन देइ ऐंडप चलि गई ॥ रूप गुरू कर चेले डीठा। चित समाइ होइ चित्र पईठा ॥ जीडें काढ़ि ले तुम्ह आपसई । वह भा कया, जीव तुम्ह भई ॥ कया जो लाग धूप औौ सीऊ। क्या न जान, जान जीऊ ॥ भोग तुम्हार मिली मोहि जाई। जो मोहि बिथा सो तुम्ह कहूँ आई ॥ तुम हिके घट, वह तुम माहाँ। काल कहाँ पावै वह छाहाँ ? ॥ अस वह जोगी अमर भा, परकाया परवेस । श्रावै काल, रुहि तहूँदेखि सो करै देस ॥२०॥ सुनि जोगी के अमर जो करनी। नेवी बिथा बिरह के मनी ॥ कर्बल करी होइ बिगसा जीऊ । जनु रवि देखि यूटि गा सीज ॥ जो आस सिद्ध को मा पारा ? । निपुरुष तेइ जर्र होइ छारा ॥ कही जाइ अब मोर फंदे । तजौ जोग अब, होहु नमू ॥ जिनि जानहु हों तुम्ह स दूरी । नैनन माँझ गड़ी वह सूरी। तुम्ह परसद घटे घट केरा। मोहि घट जीव घटत नहि बेरा ॥ तुम्ह कहें पाट हिये महें साजा । अब तुम मोर दुहूँ जग राजा ॥ ज रे जियहि मिलि गर रंहि, मरह तो एकै दो। तुम्ह जिउ कहें जिनि होई कि, मोहि जिज होउ सो होउ 1२१। । (२०) अनु = फिर, आगे । मोहि ह"नवेला = नया सिद्ध बनाकर उलटा मुझसे पूछती हो। ग्रसई व ल दा । सोऊ = शीत । अदेस करें नमस्कार करता है; 'श्राद श [ ६ ' यह ऋ णाम साों में प्रचलित है । । (२१) नेवरी = निबटी, टो । निपुरुप = पुरुषार्थहोन। सूते यू ली जो रत्नसेन को दी जानेवाली है । परसेद = प्रस्वेदपसोना। घट = घटने पर । बेरा = बेर देरवित्र ।