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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/३८. राघवचेतन देशनिकाला खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १७४ से – १७७ तक

 

(३८) राघवचेतन देशनिकाला खंड

राघव चेतन चेतन महा। आऊ सरि राजा पहँ रहा॥
चित चेता जानै बहु भेऊ। कवि बियास पंडित सहदेऊ॥
बरनी आइ राज कै कथा। पिंगल महँ सब सिंघल मथा॥
जो कवि सुनै सीस जो धुना। सरवन नाद वेद सो सुना॥
दिस्टि सो धरम पंथ जेहि सूझा। ज्ञान सो जो परमारथ बूझा॥
जोगि, जो रहै समाधि समाना। भोगि सो, गुनी केर गुन जाना॥
बीर जो रिस मारै, मन गहा। सोइ सिंगार कंत जो चहा॥

 वेद भेद जस वररुचि, चित चेता तस चेत।
राजा भोज चतुरदस, भा चेतन सौं हेत॥ १ ॥

 

 होइ अचेत घरी जौ आई। चेतन कै सब चेत भुलाई॥
भा दिन एक अमावस सोई। राजै कहा 'दुइज कब होई!'॥
राघव के मुख निकसा 'आजू'। पँडितन्ह कहा 'काल्हि महराजू'॥
राजे दुवौ दिसा फिरि देखा। इन महँ को बाउर, को सरेखा॥
भजा टेकि पंडित तब बोला। 'छाँड़हि देस बचन जौ डोला'॥
राघव करै जाखिनी पूजा। चहै सो भाव देखावै दूजा॥
तेहि ऊार राघव बर खाँचा। 'दुइज आज तौ पंडित साँचा'॥

 राघव पूजि जाखनी, ‘दुइज देखाएसि साँझ॥
वेद पंथ जे नहिं चलहिं ते भूलहिं बन माँझ ॥ २[]

 

 पँडितन्ह कहा परा नहिं धोखा। कौन अगस्त समुद जेइ सोखा॥
सो दिन गएउ साझँ भइ दूजी। देखी दुइज घरी वह पूजी॥
पँडितन्ह राजहि दीन्ह असीसा। अब कस यह कंचन औ सीसा॥

जो यह दुइज कल्हि कै होती। आजु तेज देखत ससि जोती॥
राघव दिस्टिबंध कल्हि खेला। सभा माँझ चेटक अस मेला॥[]
एहि कर गुरू चमारिनि लोना। सिखा काँवरू पाढ़न टोना॥
दुइज अमावस कहूँ जो देखावै। एक दिन राहु चाँद कहँ लावै॥

 राज बार अस गुनी न चाहिय जेहि टोना कै खोज॥
ऐहि चेटक औ विद्या छला जो राजा भोज॥ ३ ॥

 

राघव वैन जो कंचन रेखा। कसे बानि पीतर अस देखा॥
अज्ञा भई, रिसान नरेसू। मारहु नाहिं, निसारहु देसू॥
झूठ बोलि थिर रहै न राँचा। पंडित सोइ वेद मत साँचा॥
वेद वचन मुख साँच जो कहा। सो जुग जुड अहथिर होइ रहा॥
खोट रतन सोई फटकरै। केहि घर रतन जो दारिद हरै?॥
चहै लच्छि बाउर कवि सोई। जहँ, सुरसती लच्छि कित होई?॥
कविता सँग दारिद मतिभंगी। काँटै कूँट पुहुप कै संगी॥

 कवि तौ चेला, बिधि गुरू, सीप सेवाती बुंद।
तेहि मानुष कै आस का, जो मरजिया समुंद ॥ ॥

 

 एहि रे बात पदमावति सुनी। देश निसारा राघव गुनी॥
ज्ञान दिस्टि धनि अगम विचारा। भल न कीन्ह अस गुनी निसारा॥
जेइ जाखिनी पूजि ससि काढ़ा। सूर के ठाँव करै पुनि ठाढ़ा॥
कवि कै जीभ खड़ग हरद्वानी। एक दिसि आगि, दुसर दिसि पानी॥
जिन अनुगुति कारे सुख भोरे। जस बहुते, अपजस होइ थोरे॥
रानी राघव बेगि हँकारा। सूर गहन भा लेहु उतारा॥
बाम्हन जहाँ दच्छिना पावा। सरग जाइ जौ होइ बोलावा॥

 आवा राघव। चेतन, धौराहर के पास।
ऐस न जाना ते हियै, बिजुरी बसै अकास ॥ ५ ॥

 

पदमावति जो झरोखै आई। निहकलंक ससि दीन्ह दिखाई॥
ततखन राघव दीन्ह असीसा। भएउ चकोर चंदमुख दीसा॥
पहिरे ससि नखतन्ह कै मारा। धरती सरग भएउ उजियारा॥
औ पहिरे कर कंचन जोरी। नग लागे जेहि महँ नौ कोरी॥
कँकन एक कर काढि पवारा। काढ़त हाड़ टूट औ मारा॥
जानहुँ चाँद टूट लेइ तारा। छुटी अकास काल के धारा॥
जानहु टूटि बीजु भुइँ परी। उटा चौधि राघव चित हरी॥

 परा आइ भुइँ कंकन, जगत भएउ उजियार।
राघव बिजुरी मारा, बिसँभर किछु न सँभार ॥ ६ ॥

 

 पदमावति हँसि दोन्ह झरोखा। जौ यह गुनी मरे, मोहिं दोखा॥
सबै सहेली देखै धाईं। 'चेतन चेतु' जगावहिं आईं॥
चेतन परा, न आवै चेतू। सब कहा 'एहि लाग परेतू'॥
कोई कहै, आहि सनिपातू। कोई कहै, कि मिरगी बातू॥
कोइ कह, लाग पवन झर झोला। कैसेहु समुझि न चेतन बोला॥
पुनि उठाइ बैठाएन्हि छाहौं। पूछहिं, कौन पीर हिय माहाँ? ॥
दहुँ काहू के दरसन हरा। की ठग धूत भूत तोहि छरा॥

 की तोहि दीन्ह काहू किछु, की रे डसा तोहि साँप?।
कहु सचेत होइ चेतन, देह तोरि कस काँप॥ ७ ॥

 

भएउ चेत चेतन चित चेता। नैन झरोखे, जीउ संकेता॥
पुनि जो बोला मति बुधि खोवा। नैन झरोखा लाए रोवा॥
बाउर बहिर सीस पै धुना। आपनि कहै, पराइ न सुना॥
जानहु लाई काहु ठगतुरी। खन पुकार, खन बातैं बौरी॥
हौं रे ठगा एहि चितउर माहाँ। कासौं कहौं, जाउँ केहि पाहाँ॥
यह राजा सठ बड़ हत्यारा। जइ राखा अस ठग बटपारा॥
ना कोइ बरज, न लोग गोहारी। अस एहि नगर होइ बटपारी॥

 दिस्टि दीन्ह ठगलाड़ू, अलक फाँस परे गीउ।
जहाँ भिखारि न बाँचे, तहाँ बाँच को जीउ? ॥ ८ ॥

 

कित धोराहर आइ झरोखे? । लेइ गइ जीउ दच्छिना धोखे॥
सरग ऊइ ससि करै अँजोरी। तेहि से अधिक देहुँ केहि जोरी? ॥
तहाँ ससिहि जौ होति वह जोती। दिन होइ राति, रैनि कस होती? ॥

तेइ हँकारि मोहि कंकन दीन्हा। दिस्टि जो परी जीउ हरि लीन्हा॥
नैन भिखारि ढीठ सतछँड़ा। लागै तहाँ बान होइ गड़ा॥
नैनहिं नैन जो वेधि समाने। सीस धुनैं निसरहिं नहिं ताने॥
नवहि न नाए निलज भिखारी। तबहिं न लागि रही मुख कारी॥

कित करमुहे नैन भए, जीउ हरा जैहि बाट।
सरवर नीर निछोह जिमि दरकि दरकि हिय फाट ॥ ९ ॥

 

 सखिन्ह कहा चेतसि बिसँभारा। हिये चेतु जेहि जासि न मारा॥
जौ कोइ पावै आपन माँगा। ना कोइ मरै, न काहु खाँगा॥
वह पदमावति आहि अनूपा। बरनि न जाइ काहू के रूपा॥
जो देखो सो गुपुत चलि गएउ। परगट कहाँ, जीउ बिनु भएउ॥
तुम्ह अस बहुत बिमोहित भए। धुनि धुनि सीस जीउ देइ गए॥
बहुतन्ह दीन्ह नाइ कै गोवा। उतर देइ नहिं, मारै जीवा॥
तुइँ पै मरहिं होइ जरि भूई। अबहुँ उघेलु कान कै रूई॥

कोइ माँगे नहिं पावै, कोइ माँगे बिनु पाव।
तू चेतन औरहि समुझावै, तोकहँ को समुझाव? ॥१०॥

 

भएउ चेत, चित चेतन चेता। बहुरि न आइ सहौं दु:ख एता॥
रोवत आइ परे हम जहाँ। रोवत चले, कौन सुख तहाँ? ॥
जहाँ रहे संसौ जिउ केरा। कौन रहनि? चलि चलै सबेरा॥
अब यह भीख तहाँ होइ माँगौं। देइ एत जेहि जनम न खाँगौं॥
अस कंकन जौ पावौं दूजा। दारिद हरै, आस मन पूजा॥
दिल्ली नगर आादि तुरकानू। जहाँ अलाउद्दीन सुलतानू॥
सोन ढरै जेहि के टकसारा। बारह बानी चले दिनारा॥

 कँवल बखानौ जाइ तहँ जहँ अलि अलाउद्दीन॥
सुनि कै चढै भानु होई, रतन जो होइ मलीन ॥११॥

 


  1. पाठांतर-पँडितहिं पँडित न देखै, भएउ बैर तिन्ह माँझ।
  2. पाठांतर--पंडित न होइ, काँवरू चेला।