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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४०. स्त्री भेद वर्णन खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १८० से – १८१ तक

 

(४०) स्त्रीभेद वर्णन खंड

पहिले कहौं हस्तिनी नारी। हस्ती कै परकीरति सारी॥
सिर औ पायँ सुभर गिउ छोटी। उर कै खीनि लंक कै मोटी॥
कुंभस्थल कुच मद उर माहीं। गयन गयंद ढाल जनु बाँही॥
दिस्टि न आवै आपन पीऊ। पुरुष पराए ऊपर जीऊ॥
भोजन बहुत बहुत रति चाऊ। अछवाई नहिं थोर बनाऊ॥
मद जस मंद बसाइ पसेऊ। औ बिसवासि छरै सब केऊ॥
डर और लाज न एकौ हिये। रहै जो राखे आँकुस दिये॥

गज गति चलै चहूँ दिसि चितवै लाए चोख।
कही हस्तिनी नारि यह सब हस्तिन्ह के दोख॥ १ ॥

 

 दूसरि कहौं संखिनी नारी। करै बहुत बल अलप अहारी॥
उर अति सुभर खीन अति लंका। गरब भरी मन करै न संका॥
बहुत रोष चाहै पिउ हना। भागे घाल न काहू गना॥
अपनै अलंकार ओहि भावा। देखि न सकै सिँगार परावा॥
सिंघ क चाल चल डग ढीली। रोवाँ बहुत जाँघ औ फीली॥
मोटि माँसु रुचि भोजन तासू। औ मुख आव बिसायँध बासू॥
दिस्टि तिरडुँही हेर न आगे। जनु मथवाह रहै सिर लागै॥

सेज मिलत स्वामी कहँ, लावै उर नखबान।
जेहि गुन सबै सिंघ के, सो संखिनि सुलतान! ॥ २ ॥

 

 तीसरि कहौं चित्रिनी नारी। महा चतुर रस प्रेम पियारी॥
रूप सुरूप सिंगार सवाई। अछरी जैसि रहै अछवाई॥
रोष न जाने हँसतामुखी। जेहि असि नारी कंत सो सुखी॥
अपने पिउ कै जानै पूजा। एक पुरुष तजि आान न दूजा॥
चंदबदनि रँग कुमुदिनि गौरी। चाल सोहाइ हंस कै जोरी॥

खीर खाँड़ रुचि अलप अहारू। पान फूल तेहि अधिक पियारू॥
पदमिनि चाहि घाटि दुइ करा। और सबै गुन ओहि निरमरा॥

 चित्रिनि जैस कुमुद रँग, सोइ बासना अंग।
पदमिनि सब चंदन असि, भंवर फिरहिं तेहि संग ॥ ३ ॥

 

चौथी कहौं पदमिनी नारी। पदुम गंध ससि दैउ सँवारी॥
पदमिनि जाति पदुम रँग ओही। पदुम बास, मधुकर सँग होहीं॥
ना सुठि लाँबो, ना सुठि छोटी। ना सुठि पातरि, ना सुठि मोटी॥
सोरह करा रँग ओहि बानी। सो, सुलतान! पदमिनी जानी॥
दीरघ चारि, चारि लघु सोई। सुभर चारि, चहुँ खीनौ होई॥
औ ससि बदन देखि सब मोहा। बाल मराल चलत गति सोहा॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरी। पान फूल के रहै अधारी॥

 सोरह करा सँपूरन, औ सोरहौ सिंगार।
अब ओहि भाँति कहत हौं, जस बरनै संसार॥ ४ ॥

 

 प्रथम केस दीरघ मन मोहै। औ दीरघ अंगूरी कर सोहै॥
दीरघ नैन तीख तहँ देखा। दीरघ गीउ, कंठ तिनि रेखा॥
पुनि लघु दसन होहिं जनु हीरा। औ लघु कुच उत्तंग जँभीरा॥
लघु लिलाट दूइज परगासू। औ नाभी लघु, चंदन बासू॥
नासिक खीन खरग कै धारा। खीन लंक जनु केहरि हारा॥
खीन पेट जानहुँ नहिं आँता। खीन अधर बिद्रुम रँग राता॥
सुभर कपोल, देख मुख सोभा। सुभर नितंब देखि मन लोभा॥

सुभर कलाई अति बनी, सुभर जंघ, गज चाल॥
सोरह सिंगार बरनि कै, करहिं देवता लाल॥५॥