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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४३. राजा बादशाह युद्ध खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २०० से – २०६ तक

 

(४३) राजा बादशाह युद्ध खंड

इहाँ राज अस सेन बनाई। उहाँ साह कै भई अवाई॥
अगिले दौरे आगे आए। पछिले पाछ कोस दस छाए॥
साह आइ चितउर गढ़ बाजा। हस्ती सहस बीस सँग साजा॥
ओनइ आइ दूनौ दल साजे। हिंदू तुरक दुवौ रन गाजे॥
दूवौ समुद दधि उदधि अपारा। दूनौ मेरु खिखिंद पहारा॥
कोपि जुझार दुवौ दिसि मेले। औ हस्ती हस्ती सहुँ पेले॥
आँकुस चमकि बीजु अस बाजहिं। गरजहिं हस्ति मेघ जनु गाजहिं॥

धरती सरंग एक भा, जूहहिं ऊपर जूह।
कोई टरै न टारे, दूनौ ने बज्र समूह॥ १ ॥

 

हस्ती सहुँ हस्ती हठि गाजहिं। जनु परबत सौं परबत बाजहिं॥
गरू गयंद न टारे टरहीं। टूटहिं दाँत, माथ गिरि परहीं॥
परबत आइ जो परहिं तराही। दर महँ चाँपि खेह मिल जाहीं॥
कोइ हस्ती असवारहिं लेहीं। सूँड़ समेटि पायँ तर देहीं॥
कोई असवार सिंघ होइ मारहिं। हनि कै मस्तक सूँड़ उपारहिं॥
गरब गयंदन्ह गगन पसीजा। रुहिर चुवै धरती सब भीजा॥
कोइ मैमंत सँभारहि नाहीं। तब जानहिं जब गुद सिर जाहीं॥

गगन रुहिर जस बरसै धरती बहै मिलाइ।
सिर धर टूटि बिलाहिं तस पानी पंक बिलाइ॥ २ ॥

 

आठों बज्र जूझ जस सुना। तेहि तें अधिक भएउ चौगुना॥
बाजहिं खड़ग उठै दर आगी। भुँई जरि चहै सरग कहँ लागी॥
चमकहि बीजु होइ उजियारा। जेहि सिर परै होइ दुइ फारा॥
मेघ जो हस्ति हस्ति सहुँ गाजहिं। बीजू जो खड़ग खड़ग सौं बाजहिं॥
बरसहि सेल बान होई काँदों। जस वरसै सावन औ भादों॥
झपटहिं कोपि, परहिं तरवारी। औ गोला ओला जस भारी॥
जूझे वीर कहौं कहँ ताई। लेइ अछरी कैलास सिधाई॥

स्वामि काज जा जूझै, सोइ गए मुख रात।
जो भागे सत छाँड़ि कै मसि, मुख चढ़ी परात॥ ३ ॥

 

भा संग्राम न भा अस काऊ। लोहे दुहुँ दिसि भए अगाऊ॥
सीस कंध कटि कटि भुइँ परे। रुहिर सलिल होइ सायर भरे॥
अनंद बधाव करहिं मसखावा। अब भख जनम जनम कहँ पावा॥
चौंसठ जोगिनि खप्पर पूरा। बिग जंबुक घर बाजहिं तूरा॥
गिद्ध चील सब माँड़ो छावहिं। काग कलोल करहिं औ गावहिं॥
आजु साह हटि अनी वियाही। पाई भुगुति जैसि चित्त चाही॥
जेइँ जस माँसू भखा परावा। तस तेहि कर लेइ औरन्ह खावा?

काहू साथ न तन गा, सकति मुए सब पोखि॥
ओछ पूर तेहि जानब, जो थिर आवत जोखि॥४॥

 

चाँद न टरै सूर सौं कोपा। दूसर छत्र सौंह के रोपा॥
सुना साह अस भएउ समूहा। पेले सब हस्तिन्ह के जूहा॥
आज चाँद तोर करौं निपातू। रहै न जग महँ दूसर छातू॥
सहस करा होइ किरिन पसारा। छेका चाँद जहाँ लगि तारा॥
दर लोहा दरपन भा आवा। घट घट जानहु भानु देखावा॥
अस क्रोधित कुठार लेइ धाए। अगिनि पहार जरत जनु आए॥
खडग बीजु सब तुरुक उठाए। ओड़न चाँद काल[] कर पाए॥

जगमग अनी देखि कै, धाइ दिस्टि तेहि लागि।
छुए होइ जो लोहा, माँझ आव तेहि आगि ॥ ५ ॥

 

सूरुज देखि चाँद मन लाजा। बिगसा कँवल कुमुद भा राजा॥

भलेहि चाँद बड़ होइ दिसि पाई। दिन दिनअर सहुँ कौन बड़ाई॥
अहे जो नखत चंद सँग तपे। सूर के दिस्टि गगन महँ छपे॥
कैं चिंता राजा मन बूझा। जो होइ सरग न धरती जूझा॥
गढ़पति उतरिं लड़ै नहिं धाए। हाथ परै गढ़ हाथ पराए॥
गढ़पति इंद्र गगन गढ़ राजा। दिवस न निसर रैनि कर राजा॥
चंद रैनि रह नखतन्ह माँझा। सुरुज के सौंह न होइ चहै साँझा॥

देखा चंद भोर भा, सूरुज के बड़ भाग।
चाँद फिरा भा गढ़पति, सूर गगन गढ़ लाग॥ ६ ॥

 

कटक असूझ अलाउदिं साही। आवत कोइ न सँभारै ताही॥
उदधि समुद जस लहरैं देखी। नयन देख मुख जाइ न लेखी॥
केते तजा चितउर कै घाटी। केते बजावत मिलि गए माटी॥
केतेन्ह नितहिं देइ नव साजा। कबहुँ न साज घटै तस राजा॥
लाख जाहिं आवहिं दुइ लाखा। फरै झरै उपनै नव साजा॥
जो आवै गढ़ लागै सोई। थिर होइ रहै न पावै कोई॥
उमरा मीर रहै तहँ ताई। सबहीं बाँटि अलंगै पाई॥

 

लाग कटक चारिहु दिसि, गढ़हि परा अगिदाहु।
सुरुज गहन भा चाहै, चाँदहिं भा जस राहु॥ ७ ॥

 

अथवा दिवस, सूर भा बासा। परी रैनि, ससि उवा अकासा॥
चाँद छत्र देइ बैठा आई। चहुँ दिसि नखत दीन्ह छिटकाई॥
नखत अकासहि चढ़े दिपाहीं। टुटि टुटि लूक परहिं, न बुझाहीं॥
परहिं सिला जस परै बजागी। पाहन पाहन सौ उठि आगी॥
गोला परहिं, कोल्हु ढरकाहीं। चूर करत चारिउ दिसि जाहीं॥
ओनई घटा बरस झरि लाई। ओला टपकहिं, परहिं बिछाई॥
तुरुक न मुख फेरहिं गढ़ लागे। एक मरै, दूसर होइ आगे॥

 

परहिं बान राजा के, सकै को सनमुख काढ़ि।
ओनई सेन साह कै रही भोर लगि ठाढ़ि॥ ८ ॥

 

भएउ बिहानु, भानु पुनि चढ़ा। सहसहु करा दिवस विधि गढ़ा॥
भा धावा गढ़ कीन्ह गरेरा। कोपा कटक लाग चहुँ फेरा॥
बान करोर एक मुख छूटहिं। बाजहिं जहाँ फोंक लगि फूटहिं॥
नखत गगन जस देखहिं घने। तस गढ़ कोटन्ह बानन्ह हने॥
बान बेधि साही कै राखा। गढ़ भा गरुड़ फुलावा पाँखा॥
ओहि रँग केरि कठिन है बाता। तौ पै कहै होइ मुख राता॥
पीठि न देहि घाव के लागे। पैग पैग भुइँ चापहिं आगे॥

चारि पहर दिन जूझ भा, गढ़ न टूट तस बाँक।
गरुअ होत पै आवै दिन दिन नाकहि नाक॥ ९ ॥

 

छेंका कोट जोर अस कीन्हा। घुसि कै सरग सुरँग तिन्ह दीन्हा॥
गरगज बाँधि कमानैं धरीं। बज्र आगि मुख दारू भरी॥
हवसी, रूमी और फिरंगी। बड़ बड़ गुनी और तिन्ह संगी॥
जिन्हके गोट कोट पर जाहीं। जेहि ताकहि चूकहिं तेहि नाहीं॥
अस्ट धातु के गोला छूटहिं। गिरहिं पहार चून होइ फूटहिं॥
एक बार बस छूटहिं गोला। गरजै गगन, धरति सब डोला॥
फूटहिं कोट फूट जनु सीसा। औदरहिं बुरुज जाहिं सब पीसा॥

लंका रावट जस भई, दाह परा गढ़ सोइ।
रावन लिखा जरै कहँ, कहहु अजर किमि होइ ॥१०॥

 

राजगीर लागे गढ़ थवई। फूटै जहाँ सँवारहिं सवई॥

बाँके पर सुठि बाँक करेहीं। रातिहि कोट चित्र कै लेहीं॥
गाजहिं गगन चढ़ा जस मेघा। बरिसहि बज्र, सीस को ठेवा? ॥
सौ सौ मन के बरसहिं गोला। बरसहिं तुपक तीर जस ओला॥
जानहुँ परहिं सरग हुत गाजा। फाटे धरति आइ जहँ बाजा॥
गरगज चूर चूर होइ परहीं। हस्ति घोर मानुष संघरहीं॥
सबै कहा अब परलै आई। धरती सरग जूझ जनु, लाई॥

आठौ बज्र जुरे सब, एक डुंगवै लागि।
जगत जरै चारिउ दिसि, कैसेहु बुझै न आगि॥११॥

 

तबहूँ राजा हिये न हारा। राज पौरि पर रचा अखारा॥
सो साह कै बैठक जहाँ। समुहें नाच करावै तहाँ॥
जंत्र पखाउज औ जत बाजा। सुर मादर रबाब भल साजा॥
बीना बेनु कमाइच गहे। बाजे अमृत तहँ गहगहे॥
चंग उपग नाद सुर तूरा। महुअर बंसि बाज भरपूरा॥
हुड़क बाज, डफ बाज गंभीरा। औ बाजहिं बहु झाँझ मजीरा॥
तंत बितंत सुभर धनतारा। बाजहिं सबद होइ झनकारा॥

जग सिंगार मनमोहन पातुर नाचहिं पाँच।
बादशाह गढ़ छेका, राजा भूला नाच ॥ १२ ॥

 

बीजानगर केर सब गुनी। करहिं अलाप जैस नहिं सुनी।
छवौ राग गाए सँग तारा। सगरी कटक सुनै झनकारा॥
प्रथम राग भैरव तिन्ह कीन्हा। दूसर मालकोस पुनि लीन्हा॥
पुनि हिंडोल राग भल गाए। मेघ मलार मेघ बरिसाए॥
पाँचवँ सिरी राग भल किया। छछवाँ दीपक बरि उठ दिया॥
ऊपर भए सो पातुर नाचहिं। तर भए तुरुक कमानैं खाँचहिं॥
गढ़ माथे होश उमरा झुमरा। तर भए देख मीर औ उमरा॥

सुनि सुनि सीस धुनहि सब, कर मलि मलि पछिताहिं।
कब हम माथ चढ़हिं ओहि, नैनन्ह के दुख जाहिं॥ १३ ॥

 

छवौ राग गावहिं पातुरनी। औ पुनि छत्तीसौ रागिनी॥
औ कल्यान कान्हरा न होई। राग बिहाग केदारा सोई॥
परभाती होइ उठै बँगाला। आसावरी राग गुनमाला॥
धनासिरी औ सूहा कीन्हा। भएउ बिलावल, मारू लीन्हा॥
रामकली, नट, गौरी गाई। धुनि खंमाच सो राग सुनाई॥
साम गूजरी पुनि भल भाई। सारँग औ बिभास मुँह आई॥
पुरबी, सिंधी देस बरारी। टोड़ी गौड़ सौ भई निरारी॥

सबै राग औ रागिनी सुरै अलापहिं ऊँच।
तहाँ तीर कहँ पहुँचै दिस्टि जहाँ न पहूँच? ॥ १४ ॥

 

जहँवाँ सौंह साह कै दीठी। पातुरि फिरत दीन्ह तहँ पीठी॥
देखत साह सिंघासन गूँजा। कब लगि मिरिच चाँद तोहि भूँजा[]
छाँड़हि बान जाहिं उपराही। का तैं गरब करसि इतराही?॥
बोलत बान लाख भए ऊँचे। कोइ कोट, कोइ पौरि पहूँचे॥
जहाँगीर कनउज कर राजा। ओहि क वान पातुरि के लागा॥
बाजा बान, जाँघ तस नाचा। जिउ गा सरग, परा भुइँ साँचा॥
उड़सा नाच, नचनिया मारा। रहसे तुरुच बजाइ कै तारा॥

जो गढ़ साजै लाख दस, कोटि उठावै कोट।
बादशाह जब चाहैं छपे न कौनिउ ओट ॥ १५ ॥

 

राजे पौरि अकास चढ़ाई। परा बाँध चहु फेर लगाई।
सेतु बंध जस राघव बाँधा। परा फेर, भुइँ भार न काँधा॥
हनुवँत होइ सब लागा गोहारू। चहुँ दिसि ढोई ढोई कीन्ह पहारू॥
सेत फटिक अस लागै गढ़ा। बाँध उठाइ चहूँ गढ़ मढ़ा॥
खँड खँड ऊपर होइ पटाऊ। चित्र अनेक, अनेक कटाऊ॥
सीढ़ी होति जाहिं बहु भाँती। जहाँ चढ़ै हस्तिन कै पाँती॥
भा गरगज कस कहत न आवा। जनहुँ उठाइ गगन लेइ आवा॥

राह लाग जस चाँदहि तस गढ़ लागा बाँध।
सब आगि अस बरि रहा, ठाँव जाइ को काँध? ॥ १६ ॥

 

राजसभा सब मतै बईठी। देखि न जाइ, मूँदि गइ दीठी॥

उठा बाँध, चहु दिसि गढ़ बाँधा। कीजै बेगि भार जस काँधा॥
उपजे आगि आगि जस बोई। अब मत कोइ आन नहिं होई॥
भा तेवहार जो चाँचरि जोरी। बलि फाग अब लाइव होरी॥
समदि फाग मेलिय सिर धूरी। कीन्ह जो साका चाहिय पूरी॥
चंदन अगर मलयगिरि काढ़ा। घर घर कीन्ह सरा रचि ठाढ़ा॥
जौहर कहँ साजा रनिवासू। जिन्ह सत हिये कहाँ तिन्ह आँसू॥

पुरुषन्ह खड़ग सँभारे, चंदन खेवरे देइ। मेहरिन्ह सेंदुर मेला, चहहिं भई जरि खेइ॥१७॥

 

आठ वरिस गढ़ छेंका रहा। धनि सुलतान कि राजा महा॥
आइ साह अबँरावँ जो लाए। फरे भरे पै गढ़ नहिं पाए॥
जौ तोरौं तो जौहर होई। पदमिनि हाथ चढ़ै नहिं सोई॥
एहि बिधि ढील दीन्ह, तब ताई। दिल्ली तै अरदासै आई॥
पछिउँ हरेव दीन्हि जो पीठी। सो अब चढ़ा सौंह कै दीठी॥
जिन्ह भुइँ माथ गगन तेइ लागा। थाने उठे, आव सब भागा॥
उहाँ साँह चितउर गढ़ छात्रा। इहाँ देस अब होइ परावा॥

जह जिन्ह पंथ न तृन परत, बाढ़े बेर बबूर।
निसि अँधियारी जाई तब, बेगि उठै जौ सूर॥ १८ ॥

 

  1. पाठांतर-—'कँवल'।
  2. पाठातंर = 'देखैं चाँद, सूर भा भूजा' अर्थात् चंद्रमा तो नाच देखे और सूर्य भुजवा हो गया कि उसकी ओर पीठ फेरी जाय।