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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४७. रत्‍नसेन बंधन खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २२५ से – २२७ तक

 

(४७) रत्नसेन बंधन खंड

मीत मैं माँगा बेगि विवानू। चला सूर, सँवरा अस्थानू॥
चलत पंथ राखा जौ पाऊ! कहाँ रहे थिर चलत बटाऊ॥
पंथी कहाँ कहाँ सुसताई। पंथ चलै तब पंथ सेराई॥
छर कीजै बर जहाँ न आँटा। लीजै फूल टारि कै काँटा॥
बहुत मया सुनि राजा फूला। चला साथ पहुँचावै भूला॥
साह हेतु राजा सौ बाँधा। वातन्ह लाइ लीन्ह गहि काँधा॥
घिउ मधु सानि दीन्ह रस सोई। जो मुँह मीट, पेट विष होई॥

अमिय बचन औ माया को न मुएउ रस भीज?।
सत्रु मरै जो अमृत, कित ता कहँ विष दोज? ॥ १ ॥

 

चॉद घरेहिं जौ सूरुज आवा। होइ सो अलोप अमावस पावा॥
पूछहिं नखत मलीन सो मोती। सोरह कला, न एकौ जोती॥
चाँद क गहन अगाह जनावा। राज भूल गहि साह चलावा॥
पहिली पँवरि नाँघि जौ आवा। ठाढ़ होइ राजहि पहिरावा॥
सौ तुषार, तेइस गज पावा। दुंदुभि औ चौघड़ा दियावा॥
दूजी पँवरि दीन्ह असवारा। तीजि पँवरि नग दीन्ह अपारा॥
चौथि पँवरि देइ दरब करोरी। पँचईं दुइ हीरा कै जोरी॥

छठइँ पँवरि देइ माँडौ, सतई दीन्ह चँदेरि।
सात पँवरि नाँघत नृपहि लेइगा बाँधि गरेरि॥ २ ॥

 

एहि जग बहुत नदी जल जूड़ा। कोउ पार भा, कोऊ बूढ़ा॥
कोउ अंध भा आगु न देखा। कोउ भएउ डिठियार सरेखा॥
राजा कहँ बियाध भइ माया। तजि कबिलास धरा भुइँ पाया॥

जेहि कारन गढ़ कीन्ह अगोठी। कित छाँड़े जौ आवै मूठी॥
सत्रुहि कोउ पाव जौं बाँधी। छोड़ि आपु कहँ करै बियाधी॥
चारा मेलि धरा जस माछू। जल हुँत निकसि मुवै कित काछू॥
सत्रू नाग पेटारी मूँदा। वाँधा मिरिग पैग नहिं खूँदा॥

राजहिं धरा, आनि कै, तन पहिरावा लोह।
ऐस लोह सो पहिरै, चीत सामि कै दोह ॥ ३ ॥

 

पायन्ह गाढ़ी बेड़ी परी। साँकर गीउ, हाथ हथकरी॥
औ धरि बाँधि मँजूषा मेला। ऐस सत्रु जिनि होइ दुहेला!॥
सुनि चितउर मँह परा बखाना। देस देस चारिउ दिसि जाना॥
आजु नरायन फिरि जग खूँदा। आजु सो सिंघ मँजूषा मूँदा॥
आजु खसे रावन दस माथा। आजु कान्ह कालीफन नाथा॥
आजु परान कंस कर ढीला। आजु मीन संखासुर लीला॥
आजु परे पंडव वँदि माहाँ। आजु दुसासन उतरी बाहाँ॥

आजु धरा बलि राजा, मेला बाँधि पतार।
आजु सूर दिन अथवा, भा चितउर अँधियार ॥ ४ ॥

 

देव सुलेमाँ के बँदि परा। जहँ लगि देव सबै सत हरा॥
साहि लीन्ह गहि कीन्ह पयाना। जो जहँ सत्रु सो तहाँ बिलाना॥
खुरासान औ डरा हरेऊ। काँपा विदर, धरा अस देऊ! ॥
बाँधौं, देवगिरि, धौलागिरी। काँपी सिस्टि, दोहाई फिरी॥
उवा सूर, भइ सामुहँ करा। पाला फूट, पानि होइ ढरा॥
दुंदहि डाँड़ दीन्ह, जहँ ताईं। आइ दंडवत कीन्ह सवाई॥
दुंद डाँड़ सब सरगहि गई। भूमि जो डोली अहथिर भई॥

बादशाह दिल्ली महँ, आइ बैठ सुख पाट।
जेइ जेई सीस उठावा धरती धरा लिलाट ॥ ५ ॥

 

हबसी बँदवाना जिउबधा। तेहि सौंपा राजा अगिदधा॥

पानि पवन कहँ आस करेई। सो जिउ बधिक साँस भर देई॥
माँगत पानि नागि लेइ धावा। मुँगरी एक आनि सिर लावा॥
पानि पवन तुइ पिया सो पिया। अब को आनि देइ पानीया॥
तब चितउर जिउ रहा न तोरे। बादसाह है सिर पर मोरे॥
जबहि हँकारै है उठि चलना। सकती करै होइ कर मलना॥
करै सो मीत गाँढ़ बँदि जहाँ। पान फूल पहुँचावै तहाँ॥

जब अँजल मुँह, सोवा; समुद न सँवरा जागि।
अब धरि काढ़ि मच्छ जिमि, पानी माँगति आागि॥ ६ ॥

 

पुनि चलि दुइ जन पूछै आए। ओउ सुठि दगध आइ देखराए॥
तुइ मरपुरी न कबहूँ देखी। हाड़ जो बिथुरै देखि न लेखी॥
जाना नहिं कि होब अस महूँ। खोजे खोज न पाउब कहूँ॥
अब हम्ह उतर देह, रे देवा। कौने गरब न मानेसि सेवा?॥
तोहि अस बहुत गाड़ि खनि मूँदे। बहुरि न निकसि बार होइ देखूँ॥
जो जस हँसा तैसे रोवा। खेलत हँसत अभय भुइँ सोवा॥
जस अपने मुहँ काढ़े धूवाँ। मेलेसि आनि नरक के कूआँ॥

जरसि मरसि अब बाँधा, तैस लाग तेहि दोख।
अबहूँ मागुँ पदमिनी, जौ चाहसि भा मोख ॥ ७ ॥

 

पूछहिं बहुत, न बोला राजा। लीन्हेसि जीउ मीचु कर साजा[]
खनि गड़वा चरनन्ह देइ राखा। नित उठि दगध होहिं नौ लाखा॥
ठाँव सो साँकर औ अँधियारा। दूसर करवट लेइ न पारा॥
बीछी साँप आनि तहँ मेला। बाँका आइ छुआवहि हेला॥
धरहि, सँड़ासन्ह, छूटै नारी। राति दिवस दुख पहुँचै भारी॥
जो दुख कठिन न सहै पहारू। सो अँगवा मानुष सिर भारू॥
जे सिर परै आइ सो सहै। किछु न बसाइ, काह सौं कहै?॥

दुख जारै, दुख भूँजै, दुख खोवै सब लाज।
गाजहु चाहि अधिक दुख, दुखी जान जेहि बाज॥ ८ ॥

 

  1. पाठांतर--पूछहिं बहुत न राजा बोला। दिहे केबार, न कैसेहु खोला॥