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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/५२. गोरा बादल युद्धयात्रा खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २४४ से – २४६ तक

 

(५२) गोरा बादल युद्धयात्रा खंड

बादल केरि जसोवै मावा। आइ गहेसि बादल कर पावा॥
बादल राय! मोर तुइ बारा। का जानसि कस होइ जुझारा॥
बादसाह पुहुमीपति राजा। सनमुख होइ न हमीरहि छाजा॥
छत्तिस लाख तुरय दर छाजहिं। बीस सहस हस्ती रन गाजहिं॥
जबहीं आइ चढ़ै दल टटा। दीखत जैसि गगन घन घटा॥
चमकहिं खड़ग जो बीजु समाना। घुमरहिं गलगाजहिं नीसाना॥
बरिसहिं सेल बान घनघोरा। धीरज धीर न बाँधहि तोरा॥
जहाँ दलपती दलि मरहिं, तहाँ तोर का काज।
आजु गवन तोर आवै, बैठि मानु सुख राज॥ १ ॥
मातु! न जानसि बालक आदी। हौं बादला सिंघ रनवादी॥
सुनि गज जूह अधिक जिउ तपा। सिंघ क जाति रहै किमि छपा? ॥
तौ लगि गाज, न गाज सिंघेला। सौंह साह सौं जरौं अकेला॥
को मोहिं सौँह होइ मैमंता। फारौं सूँड़, उखारौं दंता॥
जुरौ स्वामि सँकरे जस ढारा। पेलौ जस दुरजोधन भारा॥
अँगद कोपि पाँव जस राखा। टेकौं कटक छतीसौ लाखा॥
हनुवँत सरिस जंघ बर जोरौं। दहौं समुद्र, स्वामि बँदि छोरौं॥
सो तुम, मानु जसोवै! मोहिं न जानहु बार।
जहँ राजा बलि बाँधा छोरौं पैठि पतार॥ २ ॥
बादल गवन जूझ कर साजा। तैसेहि गवन आइ घर बाजा॥
का बरनौं गवने कर चारू। चंद्रबदनि रचि कीन्ह सिंगारू॥
माँग मोति भरि सेंदुर पूरा। बैठ मयूर, बाँक तस जूरा॥
भौंहैं धनुक टकोरि परीखे। काजर नैन, मार सर तीखे॥
घालि कचपची टीका सजा। तिलक जो देख ठाँव जिउ तजा॥


(१) जसोवै = यह 'यशोदा' शब्द का प्राकृत या अपभ्रंश रूप है। पावा = पैर। जुझारा = युद्ध। ठटा = समूह बाँधकर। (२) आदी = नितांत, बिलकुल। सिंघेला = सिंघ का बच्चा। मैमंता = मस्त हाथी। स्वामि सकेरे = स्वामी के संकट के समय में। जस ढारा = ढाल के समान होकर। पेलों = जोर से चलाऊँ। भारा = भाला। टेकौं = रोक लूँ। जंघ बर जोरौं = जाँघों में बल लाऊँ। बार = बालक। (३) जूझ = युद्ध। गबन - बधू का प्रथम प्रवेश। चारू = रीति व्यवहार। बाँक = बाँका, सुंदर। जूरा = बँधी हुई चोटी का गुच्छा। टकोरि = टंकार देकर। परीखे = परीक्षा की, आजमाया। घालि =

डालकर, लगा कर। कचपची = कृत्तिका नक्षत्र; यहाँ चमकी।

मनि कुंडल डोलैं दुइ स्त्रवना। सीस धुनहिं सुनि सुनि पिउ गवना॥
नागिनि अलक, झलक उर हारू। भएउ सिंगार कंत बिनु भारू॥
गवन जो आवा पँवरि महँ, पिउ गवने परदेश।
सखी बुझावहि किमि अनल, बुझै सो केहि उपदेस? ॥ ३ ॥
मानि गवन सो घूँघट काढ़ी। बिनवै आइ बार भइ ठाढ़ी॥
तीखे हेरि चीर गहि ओढ़ा। कंत न हेर, कीन्ह जिउ पोढ़ा॥
तब धनि बिहँसि कीन्ह सहुँ दीठी। बादल ओहि दीन्हि फिरि पीठी॥
मुख फिराइ मन अपने रीसा। चलत न तिरिया कर मुख दीसा॥
भा मिन मेष नारि के लेखे। कस पिउ पीठि दीन्हि मोहिं देखे॥
मकु पिउ दिस्टि समानेउ सालू। हुलसी पीठि कढ़ावौं फालू॥
कुच तूंबी अब पीठि गड़ोवौं। गहै जो हूकि, गाढ़ रस धोवौं॥
रहौं लजाइ त पिउ चलै, गहौं त कह मोहिं ढीठ।
ठाढ़ि तेवानि कि का करौं, दूभर दुऔ बईठ॥ ४ ॥
लाज किए जौ पिउ नहिं पावौं। तजौं लाज कर जोरि मनावौं॥
करि हठ कंत जाइ जेहि लाजा। घूँघुट लाज आवा केहि काजा॥
तब धनि विहँसि कहा गहि फेंटा। नारि जो बिनवै कंत न मेटा॥
आजु गवन हौं आई, नाहाँ। तुम न, कंत! गवनहु रन माहाँ॥
गवन आव धनि मिलै के ताईं। कौन गवन जौ बिछुरे साई॥
धनि न नैन भरि देखा पीऊ। पिउ न मिला धनि सौं भरि जीऊ॥
जहँ अस आस भरा है केवा। भँवर न तजै बास रसलेवा॥
पायँन्ह धरा लिलाट धनि, बिनय सुनहु, हो राय!
अलक परी फँदवार होइ; कैसेहु तजै न पाय॥ ५ ॥
छाँड़ फेंट धनि! बादल कहा। पुरुष गवन धनि फेंट न गहा॥
जौ तुइ गवन आइ, गजगामी। गवन मोर जहँवाँ मोर स्वामी॥
जौ लगि राजा छूटेि न आवा। भावै बीर, सिँगार न भावा॥
तिरिया भूमि खड़ग कै चेरी। जीत जो खड़ग होइ तेहि केरी॥


(४) बार = द्वार। हेर = ताकता है। पोढ़ा = कड़ा। मिन मेष = आगा पीछा, सोच विचार। मकु...सालू = शायद मेरी तीखी दृष्टि का साल उसके हृदय में पैठ गया है। हुलसी...फालू = वह साल पीठ की और हुलसकर जा निकला है इससे मैं वह गड़ा हुआ तीर का फल निकलवा दूँ। कुच तूंबी...गड़ोवों = जैसे धँसे हुए काँटे आदि को तूंबी लगाकर निकालते हैं वैसे ही अपनी कूचरूपी तूंबी जरा पीठ में लागऊँ। गहै जो...धोवौं = पीड़ा से चौंककर जब वह मुझे पकड़े तब मैं गाढ़े रस से उसे धो डालू अर्थात् रसमग्न कर दूं। तेवानि = चिता में पड़ी हुई। दुऔ = दौनों बाते।

(५) मिलै के ताईं = मिलने के लिये। फँदवार = फंदा। (६) पुरुष

गवन = पुरुष के चलते समय। बीर = वीर रस।

जेहि घर खड़ग मोंछ तेहिं गाढ़ी। जहाँ न खड़ग मोंछ नहिं दाढ़ी॥
तब मुँह मोछ, जीउ पर खेलौं। स्वामि काज इंद्रासन पेलौं॥
पुरुष बोलि कै टरै न पाछू। दसन गयंद, गीउ नहिं काछू॥
तुइ अबला, धनि! कुबुधि बुधि, जानै काह जुझार।
जेहि पुरुषहि हिय बीर रस, भावै तेहिं न सिंगार॥ ६ ॥
जौ तुम चहहु जूझि, पिउ! बाजा। कीन्ह सिंगार जूझ मैं साजा॥
जोबन आइ सौंह होइ रोपा। बिखरा बिरह, काम दल कोपा॥
बहेउ बीररस सेंदूर माँगा। राता रुहिर खड़ग जस नाँगा॥
भौंहें धनुक नैन रस साधे। काजर पवन, बरुनि बिष बाँधे॥
जनु कटाछ स्यों सान सँवारे। नखसिख बान मेल अनियारे॥
अलक फाँस गिउ मेल असूझा। अधर अधर सौं चाहहि जूझा॥
कुंभस्थल कुच दोउ मैमंंता। पेलों सौह, सँभारहु, कंता? ॥
कोप सिंगार, बिरह दल, टूटि होइ दुइ आध।
पहिले मोहिं संग्राम कै, करहु जूझ कै साध॥ ७ ॥
एकौ बिनति न माने नाहाँ। आगि परी चित उर धनि माहाँ॥
उठा जो धूम नैन करुवाने। लागे परै आँसु झहराने॥
भीजे हार, चीर दिय चोली। रही अछूत कंत नहिं खोली॥
भीजीं अलक छुए कटि मंडन। भीजे कँवल भँवर सिर फुंदन॥
चुइ चुइ काजर आँचर भीजा। तबहुँ न पिउ कर रोवँ पसीजा॥
जौ तुम कंत! जूझ जिउ काँधा। तुम किय साहस, मैं सत बाँधा॥[]
रन संग्राम जूझि जिति आबहु। लाज होइ जौ पीठेि देखावहु॥
तुम्ह पिउ साहस बाँधा, मैं दिय माँग सेंदूर।
दोउ सँभारे होइ सँग, बाजै मादर तुर॥ ८ ॥



मोंछ = मूँछें। दसन गयंद...काछू = वह हाथी के दाँत के समान हैं (जो निक- लकर पीछे नहीं जाते), कछुए की गर्दन के समान नहीं, जो जरा सी आहट पाकर पीछे घुस जाता है। (७) बाजा चहहु = लड़ा चाहते हो। पनच = धनुष की डोरी। अनियारे = नुकीले, तीखे। कोप = कोपा है। मोहिं = मुझ से।

(८) चित उर = (क) मन और हृदय में, (ख) चित्तौर । आंगि परी... माहाँ = इस पंक्ति में कवि ने आगे चलकर चित्तौर की स्त्रियों के सती होने का संकेत भी किया है। करुवाने = कड़वे धुँए से दुखने लगे। कटिमंडन = करधनी। फुंदन = चोटी का फुलरा।

  1. कई प्रतियों में यह पाठ है —

    छाँड़ि चला, हिरदय देइ दाहू। निठुर नाह आपन नहिं काहू॥
    सबै सिंगार भीजि भूइँ चूबा। छार मिलाइ कंत नहिं छूवा॥
    रोए कंत न बहुरै, तेहि रोए का काज?
    कंत धरा मन जूझ रन, धनि साजा सर साज॥