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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/५४. बंधन मोक्ष; पद्मावती मिलन खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ २५४ से – २५६ तक

 

(५४) बंधनमोक्ष, पद्मावती मिलन खंड

पदमावति मन रही जो झूरी। सुनत सरोवर हिय गा पूरी॥
अद्रा महि हुलास जिमि होई। सुख सोहाग आदर भा सोई॥
नलिन नीक दल कीन्ह अँकूरू। बिगसा कँवल उवा जब सूरू॥
पुरइनि पूर सँवारे पाता। औ सिर आनि धरा बिधि छाता॥
लागेउ उदय होइ जस भोरा। रैनि गई, दिन कीन्ह अँजोरा॥
अस्ति अस्ति कै पाई कला। आगे बली कटक सब चला॥
देखि चाँद अस पदमिनि रानी। सखी कुमोद सबै बिगसानी॥
गहन छूट दिनिअर कर, ससि सौं भएउ नेराव।
मँदिर सिंहासन साजा, बाजा नगर बधाव॥ १ ॥
बिहँसि चाँद देइ माँग सेंदूरू। आरति करै चली जहँ सूरू॥
औ गोहन ससि नखत तराई। चितउर कै रानी जहँ ताईं॥
जनु बसंत ऋतु पलुही छूटी। की सावन महँ बीर बहुटी॥
भा अनंद, बाजा घन तूरू। जगत रात होइ चला सेंदूरू॥
डफ मृदंग मंदिर बहु बाजे। इंद्र सबद सुनि सब सो लाजे॥
राजा जहाँ सूर परगासा। पदमावति मुख कँवल बिगासा॥
कँवल पाँय सुरुज के परा। सूरुज कँवल आनि सिर धरा॥
सेंदुर फूल तमोल सौं, सखी सहेली साथ।
धनि पूजे पिउ पायँ दुइ, पिउ पूजा धनि माथ॥ २ ॥
पूजा कौनि देउँ तुम्ह राजा? । सबै तुम्हार; आव मोहि लाजा॥
तन मन जोबन आरति करऊँ। जीव काढि नेवछावरि धरऊँ॥
पंथ पूरि कै दिस्टि बिछावौं। तुम पग धरहु, सीस मैं लावौं॥
पायँ निहारत पलक न मारौं। बरुनी सेंति चरन रज झारौं॥
हिय सो मंदिर तुम्हरै, नाहा। नैन पंथ पैठहु तेहि माहाँ॥
बैठहु पाट छत्र नव फेरी। तुम्हरे गरब गरूइ मैं चेरी॥
तुम जिउ, मैं तन जौ लहि मया। कहै जो जीव करै सो कया॥
जो सूरज सिर ऊपर, तौ रे कँवल सिर छात।
नाहिं त भरे सरोवर, सूखे पुरइन पात॥ ३ ॥


(१) झूरी रही = सूख रही थी। अस्ति अस्ति = वाह वाह। दिनिअर = दिनकर, सूर्य। (३) आरति = आरती। पूरि कै = भरकर। सेंति = से। तुम्हरै = तुम्हारा ही। गरुइ = गरुई, गौरवमयी। छात = छत्र (कमल के बीच

छत्ता होता भी है)

परसि पायँ राजा के रानी। पुनि आरति बादल कहँ आनी॥
पूजे बादल के भुजदंडा। तुरय के पायँ दाब कर खंडा॥
यह गजगवन गरब जो मारा। तुम राखा, बादल औ गोरा॥
सेंदुर तिलक जो आँकुस अहा। तुम राखा, माथे तौ रहा॥
काछ काछि तुम जिउ पर खेला। तुम जिउ आनि मँजूषा मेला॥
राखा छात, चँवर औधारा। राखा छुद्रघंट झनकारा॥
तुम हनुवँत होइ धुजा पईठे। तब चितउर पिय आइ बईठे॥
पुनि गजमत्त चढ़ावा, नेत बिछाई खाट॥
बाजत गाजत राजा, आइ बैठ सुखपाट॥ ४ ॥
निसि राजै रानी कँठ लाई। पिउ मरि जिया नारि जनु पाई॥
रति रति राजै दुख उगसारा। जियत जीउ नहिं होउँ निनारा॥
कठिन बंदि तुरकन्ह लेइ गहा। जो सँवरा जिउ पेट न रहा॥
घालि निगड़ ओबरी लेइ मेला। साँकरि औ अँधियार दुहेला॥
खन खन करहिं सड़ासन्ह आँका। औ निति डोम छुआवहिं बाँका॥
पाछे साँप रहहिं चहुँ पासा। भोजन सोई, रहै भर साँसा॥
राँध न तहँवा दूसर कोई। न जनौं पवन पानि कस होई॥
आस तुम्हारि मिलन कै, तब सो रहा जिउ पेट।
नाहि त होत निरास जौ, कित जीवन, कित भेंट? ॥ ५ ॥
तुम्ह पिउ! आइ परी असि बेरा। अब दुख सुनहु कँवल धनि केरा॥
छोड़ेि गएउ सरवर महँ मोहीं। सरवर सूखि गएउ बिनु तोहीं॥
केलि जो करत हंस उड़ि गयऊ। दिनिअर निपट सौ बैरी भयऊ॥
गईं तजि लहरै पुरइनि पाता। मुइउँ धूप, सिर रहेउ न छाता॥
भइउँ मीन, तन तलफै लागा। बेिरह आइ बैठा होइ कागा॥


(४) तुरय के...कर खंडा = बादल के घोड़े के पैर भी दाबे अपने हाथ से। सेंदुर तिलक...अहा = सिंदूर की रेखा जो मुझ गजगामिनी के सिर पैर अंकुश के समान है अर्थात् मुझ पर दाब रखनेवाले मेरे स्वामी का (अर्थात् सौभाग्य का सूचक है। तुम जिउ...मेला = तुमने मेरे शरीर में प्राण डाले। औधारा = ढारा। छुद्रघंट = घुंघरूदार करधनी। नेत = रेशमी चादर; जैसे, ओढ़े नत पिछौरा — गीत। (५) रति रति = रत्ती रत्ती, थोड़ा थोड़ा करके सब। उगसारा = निकाला, खोला, प्रकट किया। निगड़ = बेड़ी। ओबरी = तंग कोठरी। आँका करहिं = दागा करते थे। बाँका = हँसिए की तरह झुका हुआ टेढ़ा औजार जिससे धरकार (बीजन, मोढ़े आदि बनाने वाले) बाँस छीलते हैं। भोजन सोइ...साँसा = भोजन इतना ही मिलता था जितने से साँस या प्राण बना रहे। रांँध = पास, समीप। (६) तुम्ह पिउ...बेर = तुम

पर तो ऐसा समय पड़ा। न खंडहेि = नहीं खाते थे, नहीं चबाते थे।

काग चोच, तस सालै, नाहा। जब बँदि तोरि साल हिय माहाँ॥
कहों 'काग! अब तहँ लेइ जाही। जहँवा पिउ देखै मोहि खाही'॥
काग औ गिद्ध न खंडहिं, का मारहिं, बहु मंदि? ।
एहि पछितावै सुठि मुइउँ, गइउँ न पिउ सँग बंदि॥ ६ ॥
तेहि ऊपर का कहौं जो भारी। विषम पहार परा दुख भारी॥
दूती एक देवपाल पठाई। बाह्मनि भेस छरै मोहिं आई॥
कहै तोरि हौं आहुँ सहेली। चलि लेइ जाउँ भँवर जहँ, बेली॥
तब मैं ज्ञान कीन्ह; करत बाँधा। ओहि कर बोल लाग विष साँधा॥
कहूँ कँवल नहि करत अहेरा। चहै भँवर करै सै फेरा॥
पाँच भूत आतमा नेवारिउँ। बारहि बार फिरत मन मारिउँ॥
रोइ बुझाइउँ आपन हियरा। कंत न दुर, अहे सुठि नियरा॥
फूल बास, घिउ छीर जेउँ, नियर मिले एक ठाइँ।
तस कंता घट धर कै, जिइउँ अगिनि कहँ खाइँ॥ ७ ॥













का मारहिं, बहु मंदि = वे मुझे क्या मारते, मैं बहुत क्षीण हो रही थी। (७) मारी = मार, चोट। साँधा = सना, मिला। कहुँ कँवल...सै फेरा = चाहे भौंरा (पुरुष) सौ जगह फेरे लगाए पर कमल (स्त्री) दूसरों को फँसाने नहीं जाता। पाँच भूत...मारिउँ = फिर योगिनी बनकर उस योगिनी के साथ जाने की इच्छा हुई पर अपने शरीर और आत्मा को घर बैठे ही वश किया और योगिनी होकर द्वार द्वार फिरने की इच्छा को रोका। जेउ = ज्यों, जिस प्रकार। फूल बास...खाइ = जैसे फल में महक और दूध में घी मिला रहता है वैसे ही अपने शरीर में तुम्हें मिला समझकर इतना संताप सहकर जीती रही ।