जायसी ग्रंथावली/पदमावत/७. बनिजारा खंड
(७) वनिजारा खंड
चितउरगढ़ कर एक बनिजारा। सिंघलदीप चला बैपारा॥
बाम्हन हुत एक निपट भिखारी। सो पुनि चला चलत वैपारी॥
ऋन काहू सन लीन्हेसि काढ़ी। मऊ तहँ गए होइ किछु बाढ़ी॥
मारग कठिन बहुत दुख भएऊ। नाँघि समुद्र दीप ओहि गएऊ॥
देखि हाट किछु सूझ न ओरा। सबै बहुत, किछु दीख न थोरा॥
पै सुठि ऊँच बनिज तहँ केरा। धनी पाव, निधनी मुख हेरा॥
लाख करोरिन्ह वस्तु बिकाई। सहसन केरि न कोउ ओनाई॥
सबहीं लीन्ह बेसाहना औ घर कीन्ह बहोर।
बाम्हन तहवाँ लेइ का? गाँठि साँठि सुठि थोर॥१॥
झूरै ठाढ़ हौं, काहे क आवा? बनिज न मिला, रहा पछितावा॥
लाभ जानि आएउँ एहि हाटा। मूर गँवाइ चलेउ तेहि बाटा॥
का मैं मरन सिखावन सीखी। औएउँ मरै, मीचु हति लीखी॥
अपने चलत सो कीन्ह कुबानी। लाभ न देख, मूर भै हानी॥
का मैं बोआ जनम ओहि भूँजी? खोइ चलेउँ घरहू कै पूँजी॥
जेहि ब्योहरिया कर ब्यौहारू। का लेइ देव जौं छेंकिहि बारू॥
घर कैसे पैठब मैं छूछे। कौन उतर देवौं तेहि पूछे॥
साथि चले, सँग बीछुरा, भए बिच समुद पहार।
आस निरासा हौं फिरौं, तू बिधि देहि अधार॥२॥
तबहीं ब्याध सुआ लेइ आवा। कंचन बरन अनूप सुहावा॥
बेंचै लाग हाट लै ओही। मोल रतन मानिक जहँ होहीं॥
सुअहिं को पूछ? पतंग भँड़ारे। चल न, दीख आछै मन मारे॥
बाम्हन आई सुआ सौं पूछा। दहुँ, गुनवंत, कि निरगुन छूछा?
कहउ परबत्ते! गुन तोहि पाहाँ। गुन न छपाइय हिरदय माहाँ॥
हम तुम जाति बराम्हन दोऊ। जातिहि जाति पूछ सब कोऊ॥
पंडित हो तौ सुनावहु वेदू। बिनु पूछे पाइब नहि भेदू॥
(१) बनिजारा = वाणिज्य करनेवाला, बनिया। मकु = शायद, चाहे जैसे, गगन मगन मकु मेघहि मिलई—तुलसी। बहोर = लौटना। साँठि = पूंजी, धन। सुठि = खूब। (२) झुरै = निष्फल, व्यर्थ। कुबानी = कुवाणिज्य, बुरा व्यवसाय। भूँजि बोआ = भूनकर बीज बोया (भूनकर बोने से बीज नहीं
जमता)। हौं बाम्हन औ पंडित, बहु आपन गुन सोइ।
पढ़े के आगे जो पढ़ै, दून लाभ तेहि होइ॥३॥
तब गुन मोहि अहा, हो देवा। जब पिंजर हुत छूट परेवा॥
अब गुन कौन जो बँद, जजमाना। घालि मँजूसा बेचै आना॥
पंडित होइ सो हाट न चढ़ा। चहौं बिकाय, भूलि गा पढ़ा॥
दुइ मारग देखौं यहि हाटा। दई चलावै दहुँ केहि बाटा॥
रोवत रकत भएउ मुख राता। तन भा पियर कहौं का बाता?
राते स्याम कंठ दुइ गोवाँ। तेहिं दुइ फंद डौं सुठि जोवा॥
अब हौं कंठ फंद खुद दुइ चीन्हा। दहुँ ए फंद चाह का कीन्हा?॥
पढ़ि गुनि देखा बहुत मैं, है आगे डर सोइ।
धुंध जगत सब जानि कै, भूलि रहा बुधि खोइ॥४॥
सुनि बाम्हन बिनवा चिरिहारू। करि पंखिन्ह कहँ मया न मारू॥
निठुर होइ जिउ बधसि परावा। हत्या केर न ताहि डर आवा॥
कहसि पंखि का दोस जनावा। निठुर तेइ जे परमँस खावा॥
आवहि रोइ, जात पुनि रोना। तबहूँ न तजहिं भोग सुख सोना॥
औ जानहिं तन हाइहि नासू। पोखै माँसु पराय माँसू॥
जो न होहिं अस परमँस खाधू। कित पंखिन्ह कहँ धरै बियाधू?
जो ब्याधा नित पंखिन्ह धरई। सो बेचत मन लोभ न करई॥
बाम्हन सुआ बेसाहा, सुनि मति वेद गरंथ।
मिला आई कै साथिन्ह, भा चितउर के पंथ॥५॥
तब लगि चित्रसेन सर साजा। रतनसेन चितउर भा राजा॥
आइ बात तेहि आगे चली। राजा बनिज आए सिंघली॥
हैं गजमोति भरी सब सीपी। और वस्तु बहु सिंघलदीपी॥
बाम्हन एक सुआ लइ आवा। कंचनबरन अनूप सोहाबा॥
राते स्याम कंठ दुइ काँठा। राते डहन लिखा सब पाठा॥
औ दुइ नयन सुहासन राता। राते ठौर अमीरस बाता॥
मस्तक टीका, काँध जनेऊ। कवि बियास, पंडित सहदेऊ॥
बोल अरथ सौं बोलै, सुनत सीस सब डोल।
राज मँदिर महँ चाहिय, अस वह सुआ अमोल॥६॥
भै रजाइ जन दस दौराए। बाम्हन सुआ बेगि लेइ आए॥
विप्र असीस विनति औधारा। सुआ जोउ नहिं करों निनारा॥
पै यह पेट महा बिसवासी। जेइ सब नाव तपा सन्यासी॥
(३) पतंग-मँड़ारे = चिड़ियों के मड़रे में वा झावे में। चल = चंचल, हिलता डोलता। (४) मँजूसा = मंजूषा, डला। कंठ = कंठा, काली लाल फकीर जो तोतों के गले पर होती है। धुंध = अंधकार। (५) परमँस = दूसरे का मांस। खाधू = खानेवाला। (६) सर साजा = चिता पर चढ़ा; मर गया।
डासन सेज जहाँ किछु नाहीं। भुइँ परि रहै लाइ गिउ बाहीं॥
आँधर रहै, जो देख न नैना। गूंग रहै, मुख आव न बैना॥
बाहिर रहै, जो स्रवन न सुना। पै यह पेट न रह निरगुना॥
कै कै फेरा निति यह दोखी। बारहिं बार फिरै, न सँतोखी॥
सो मोहि लेइ मँगावै, लावै भूख पियास।
जौ न होत अस बैरी, केहु न केहु कै आस॥७॥
सुआ असीस दीन्ह बड़ साजू। बड़ परताप अखंडित राजू॥
भागवंत विधि बड़ औतारा। जहाँ भाग तहँ रूप जोहारा॥
कोइ केहु पास आस कै गौना। जो निरास डिढ़ आसन मौना॥
कोई बिनु पूछे बोल जो बोला। होइ बोल माटी के मोला॥
पढ़ि गुनि जानि वेदमति भेऊ। पूछै बात कहैं सहदेऊ॥
गुनी न कोई आपु सराहा। जो बिकाइ, गुन कहा सो चाहा॥
जौ लगि गुन परगट नहिं होई। तौ लहि मरम न जानै कोई॥
चतुरवेद हौं पंडित, हीरामन मोहि नाँव।
पदमावति सौं मेरवौं, सेब करौं तेहि ठावँ॥८॥
रतनसेन हीरामन चीन्हा। एक लाख बाम्हन कहँ दीन्हा॥
विप्र असीसि जो कीन्ह पयाना। सुआ सो राजमंदिर महँ आना॥
बरनौं काह सुआ कै भाखा। धनि सो नावँ हीरामन राखा॥
जो बोलै राजा मुख जोवा। जानौ मोतिन हार परोवा॥
जौ बोलै तौ मानिक मूँगा। नाहिं त मौन बाँध रह गूँगा॥
मनहूँ मारि मुख अमृत मेला। गुरु होइ आप, कीन्ह जग चेला॥
सुरुज चाँद कै कथा जो कहेऊ। पेम क कहनि लाइ चित गहेऊ॥
जो जो सुनै धुनै सिर, राजहिं प्रीति अगाहु।
अस गुनवंता नाहिं भल, बाउर करिहै काहु॥९॥
(७) बिसवासी = विश्वासघाती। नाव = नवाता है, नम्र करता है। न रह निरगुना = अपने गुण या क्रिया के बिना नहीं रहता। बारहिं बार = द्वार द्वार (८) डिढ़ = दृढ़। मेरवौं = मिलाऊँ।
(९) बाउर = बावला, पागल।