जायसी ग्रंथावली/भूमिका/ईश्वरोन्मुख प्रेम
ईश्वरोन्मुख प्रेम
पहले कहा जा चुका है कि जायसी का झुकाव सूफी मत की ओर था जिसमें जीवात्मा और परमात्मा में पारमार्थिक भेद न माना जाने पर भी साधकों के व्यवहार में ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में की जाती है। इन्होंने ग्रंथ के अंत में सारी कहानीं को अन्योक्ति कह दिया है और बीच बीच में भी उनका प्रेमवर्णन लौकिक पक्ष से अलौकिक पक्ष की ओर संकेत करता जान पड़ता है। इसी विशेषता के कारण कहीं कहीं इनके प्रेम की गंभीरता और व्यापकता अनंतता की ओर अग्रसर दिखाई पड़ती है। 'रति भाव' का वर्णन हिंदी के बहुत से कवियों ने किया है—कुछ लोगों का तो कहना है कि इसके अतिरिक्त और हमने किया ही क्या है—पर एक प्रबंध के भीतर शुद्ध भाव के स्वरूप का ऐसा उत्कर्ष जो पार्थिव प्रतिबंधों से परे होकर आध्यात्मिक क्षेत्र में जाता दिखाई पड़े, जायसी का मुख्य लक्ष्य है। क्या संयोग, क्या वियोग, दोनों में कवि प्रेम के उस आध्यात्मिक स्वरूप का आभास देने लगता है, जगत् के समस्त व्यापार जिसकी छाया से प्रतीत होते हैं। वियोग पक्ष में जब कवि लीन होता है तब सूर्य, चंद्र और नक्षत्र सब उसी परम विरह में जलते और चक्कर लगाते दिखाई देते हैं, प्राणियों का लौकिक वियोग जिसका आभास मात्र है—
विरह के आगि सूर जरि काँपा। रातिउ दिवस जरै ओहि तापा॥
यद्यपि इस प्रकार के विरहवर्णन की ओर सगुण धारा के भक्तों की प्रवृत्ति नहीं रही है, पर तुलसी की 'विनयपत्रिका' में एक जगह ऐसे विश्वव्यापी विरह की भावना पाई जाती है—
बिछुरे रबि ससि, मन! नैनन तें पावत दुख बहुतेरो।
भ्रमत स्रमित निसि दिवस गगन महँ, तहँ रिपु राहु बड़ेरो॥
जद्यपि अति पुनीत सुर सरिता, तिहुँ पर सुजस घनेरो।
तजे चरन अजहूँ न मिटत नित बहिबो ताहू केरो॥
इसी शुद्ध भावक्षेत्र में अग्नि, पवन इत्यादि सब उस प्रिय (ईश्वर) के पास तक पहुँचने में व्यस्त दिखाई पड़ते हैं—सारी सृष्टि उसी 'परम भाव' में लीन होने को बढ़ती जान पड़ती है। परम साधना पूरी हुए बिना कोई यों ही इच्छा मात्र करके नहीं पहुँच सकता है—
धाइ जो बाजा कै मन साधा। मारा चक्र, भएउ दुइ आधा॥
पवन जाइ तहँ पहुँचै चहा। मारा तैस, लोटि भुइँ रहा॥
अगिनि उठी, जरि उठी निआना। धुआँ उठा, उठि बीच बिलाना॥
पानि उठा, उठि जाइ न छूआ। बहुरा रोइ आई मुँह चूआ॥
लौकिक सौंदर्य का वर्णन करते करते कवि की दृष्टि किस प्रकार उस चरम सौंदर्य की ओर जा पड़ती है, यह 'रूप-सौंदर्य-वर्णन' के अंतर्गत देखिए। उस चरम सौंदर्य की कुछ झलक मानों सृष्टि के वृक्ष, वल्ली, पशु पक्षी, पृथ्वी, आकाश सबको मिली हुई है, सबके हृदय में मानों उसकी दृष्टिकोर गड़ी हुई है, सब उसके विरह में लीन हैं—
उन बानन्ह अस को जो न मारा। बेधि रहा सगरौ संसारा॥
गगन नखत जो जाँहि न गने। वै सब बान ओहि अ हने॥
धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी॥
रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढ़े। सूतहिं सूत बेध अस गाढ़े॥
बरुनि बान अस ओपहँ बेधे रन, वन ढाँख।
सौजहि तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥
सृष्टि के नाना पदार्थ रूप, रस, गंध आदि का जो विकास करते दिखाई पड़ते हैं—सौंदर्य और माधुर्य धारण करते दिखाई पड़ते हैं—वह मानों उस अनंत सौंदर्य के समागम के अभिलाष से उसके पास तक पहुँचने की आशा से—
पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा। मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा॥
रत्नसेन को पद्मावती तक पहुँचानेवाला प्रेमपंथ जीवात्मा को परमात्मा में ले जाकर मिलानेवाले प्रेमपंथ का स्थूल आभास है। प्रेमपथिक रत्नसेन में सच्चे साधक भक्त का स्वरूप दिखाया गया है। पद्मिनी ही ईश्वर से मिलानेवाला ज्ञान या बुद्धि है अथवा चैतन्यस्वरूप परमात्मा है, जिसकी प्राप्ति का मार्ग बतलानेवाला सूआ सद्गुरु है। उस मार्ग में अग्रसर होने से रोकनेवाली नागमती संसार का जंजाल है। तनरूपी चित्तौरगढ़ का राजा मन है। राघव चेतन शैतान हैं जो प्रेम का ठीक मार्ग न बताकर इधर उधर भटकाता है। माया में पड़े हुए सुलतान अलाउद्दीन को मायारूप ही समझना चाहिए। इसी प्रकार जायसी ने 'पद्मावत' के अंत में अपने सारे प्रबंध को व्यंग्यगर्भित कह दिया है—
तन चितउर, मन राजा कीन्हा। हिय सिंहल, बुधि पदमिनि चीन्हा॥
गुरू सुआ जेहि पंथ देखावा। बिन गुरु जगत को निरगुन पावा॥
नागमती यह दुनिया धंधा। बाँचा सोइ न एहि चित बंधा॥
राघव दूत, सोइ सैतानू। माया अलादीन सुलतानू॥
अब यदि कवि के स्पष्टीकरण के अनुसार व्यंग्य अर्थ को ही प्रधान या प्रस्तुत मानें तो जहाँ जहाँ दूसरे अर्थ भी निकलते हैं, वहाँ वहाँ अन्योक्ति माननी पड़ेगी। पर ऐसे स्थल अधिकतर कथा के अंग हैं और पढ़ते समय कथा के प्रस्तुत होने की धारणा किसी पाठक को हो नहीं सकती। अतः इन स्थलों के वाच्यार्थ को अप्रस्तुत नहीं कह सकते। इस प्रकार वाच्यार्थ के प्रस्तुत और व्यंग्यार्थ के अप्रस्तुत होने से ऐसी जगह सर्वत्र 'समासोक्ति' ही माननी चाहिए। 'पद्मावत' के सारे वाक्यों के दोहरे अर्थ नहीं हैं, सर्वत्र अन्य पक्ष के व्यवहार का आारोप नहीं है। केवल बीच बीच में कहीं कहीं दूसरे अर्थ की व्यंजना होती है। ये बीच बीच आए हुए स्थल, जैसा कि कहा जा चुका है, अधिकतर तो कथाप्रसंग के अंग हैं जैसे—सिंहलद्वीप की दुर्गमता और सिंहलद्वीप के मार्ग का वर्णन, रत्नसेन का लोभ के कारण तूफान में पड़ना और लंका के राक्षस द्वारा बहकाया जाना। अतः इन स्थलों में वाच्यार्थ से अन्य अर्थ जो साधनापक्ष में व्यंग्य रखा गया है वह प्रबंध काव्य की दृष्टि से अप्रस्तुत ही कहा जा सकता है और 'समासोक्ति' ही माननी पड़ती है।
एक छोटा सा उदाहरण लीजिए। राजा रत्नसेन जब दिल्ली में कैद हो गए तब रानी पद्मावती इस प्रकार विलाप करती हैं—
सो दिल्ली अस निबहुर देसू। केहि पूछहूँ, को कहै सँदेसू?
जो कोइ जाइ तहाँ कर होई। जो आवै किछु जान न सोई॥
अगम पंथ पिय तहाँ सिधावा। जो रे गयउ सो बहुरि न आवा॥
प्रबंध के भीतर ये सारे वाक्य प्रस्तुत प्रसंग का वर्णन करते हैं पर इनमें परलोकयात्रा का अर्थ भी व्यंग्य है। यहाँ वाच्यार्थ को प्रस्तुत और व्यंग्यार्थ को अप्रस्तुत मानकर तथा 'कोई किछु जान न' और 'बहुरि न आवा' को दिल्लीगमन और परलोकगमन दोनों के सामान्य कार्य ठहराते हुए, दिल्लीगमन में परलोकगमन के व्यवहार का आरोप करके हम समासोक्ति ही कह सकते हैं।
जहाँ कथाप्रसंग से वस्तुओं के द्वारा प्रस्तुत प्रसंग की व्यंजना होती है वहाँ 'अन्योक्ति' होगी, जैसे—
(क) सूर उदयगिरि चढ़त भुलाना। गहनै गहा, कँवल कुँभिलाना॥
यहाँ इस 'अप्रस्तुत' के कथन द्वारा राजा रत्नसेन के सिंहलगढ़ पर चढ़ने और पकड़े जाने की व्यंजना की गई है। दूसरा उदाहरण लीजिए—
(ख) कँवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गयह सुखाइ॥
अबहुँ बेलि फिर पलुहै, जो पिय सींचै आइ॥
यहाँ जल कमल का प्रसंग प्रस्तुत नहीं है, प्रस्तुत है विरहिणी की दशा। अतः यहाँ अप्रस्तुत से प्रस्तुत की व्यंजना होने के कारण 'अन्योक्ति' है।
सारांश यह है कि जहाँ जहाँ प्रबंधप्रस्तुत वर्णन में अध्यात्मपक्ष का कुछ अर्थ भी व्यंग्य हो वहाँ समासोक्ति ही माननी चाहिए। जहाँ प्रथम पक्ष में अर्थात् अभिधेयार्थ में किसी भाव की व्यंजना नहीं है (जैसे मार्ग की कठिनता और सिंहलगढ़ की दुर्गमता के वर्णन में) वहाँ तो वस्तुव्यंजना स्पष्ट ही है, क्योंकि वहाँ एक वस्तुरूप अर्थ से दूसरे वस्तुरूप अर्थ की ही व्यंजना है। पर जहाँ किसी भाव की भी व्यंजना है वहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि एक पक्ष की वस्तु दूसरे पक्ष की दूसरी वस्तु को व्यंजित करती है अथवा एक पक्ष का भाव दूसरे पक्ष के दूसरे भाव को व्यंजित करता है। विचार के लिये यह पद्य लीजिए—
पिउ हिरदय महुँ भेंट न होई। को रे मिलाव, कहौं केहि रोई॥
ये पद्मावती के वचन हैं जिनमें रतिभाव व्यंजक 'विषाद' और 'औत्सुक्य' की व्यंजना है। ये वचन जब भगवत्पक्ष में घटते हैं तब भी इन भावों की व्यंजना बनी रहती है। इस अवस्था में क्या हम कह सकते हैं कि प्रथम पक्ष में व्यंजित भाव दूसरे पक्ष में उसी भाव की व्यंजना करता है? नहीं; क्योंकि व्यंजना अन्य अर्थ की हुआ करती है, उसी अर्थ की नहीं। उक्त पद्य में भाव दोनों पक्षों में ही हैं। आलंबन भिन्न होने से भाव अपर (अर्थात् अन्य और समान; समानता अपरता में ही होती है) नहीं हो सकता। प्रेम चाहे मनुष्य के प्रति हो चाहे ईश्वर के प्रति, दोनों पक्षों में प्रेम ही रहेगा। अतः यहाँ वस्तु से वस्तु ही व्यंग्य है और भावव्यंजना का विधान दोनों पक्षों में अलग अलग माना जायगा।
पहले तो पद्मावती और रत्नसेन के पक्ष में वाच्यार्थ की प्रतीति के साथ ही असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य द्वारा उन दो भावों (विषाद और औत्सुक्य) की प्रतीति होती है। इसके उपरांत हम फिर प्रथम पक्ष के वाच्यार्थ से चलकर लक्ष्यक्रम व्यंग्य द्वारा दूसरे पक्ष की इस वस्तु पर पहुँचते हैं—'ईश्वर तो अंतःकरण में ही है, पर साक्षात्कार नहीं होता। किस गुरु से कहें जो उपदेश देकर मिलावे।' इसमें अन्य आलंबन का ग्रहण है अतः यह वस्तुव्यंजना हुई। इस प्रकार दूसरे पक्ष की व्यंग्य वस्तु पर पहुँचकर हम चट उसके व्यंग्य भाव (ईश्वरप्रेम) पर पहुँच जाते हैं। मतलब यह है कि एक पक्ष से दूसरे पक्ष पर हम वस्तुव्यंजना द्वारा ही आते हैं। यह वस्तुव्यंजना अधिकतर अर्थशक्त्युद्भव ही है, शब्दशक्त्युद्भव नहीं—अर्थात् अर्थ के सादृश्य से ही लक्ष्यक्रम व्यंग्य जायसी में मिलता है, श्लेष के सहारे पर नहीं।कहीं एक आध जगह ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनमें शब्द के दोहरे अर्थ से कुछ काम लिया गया है जैसे—
जो यहि खीर समुद मह् परे,। जीव गँवाइ हंस होइ तरे॥
यहाँ 'हंस' शब्द का पक्षी भी अर्थ है और उपाधिमुक्त शुद्ध आत्मा भी।
जैसा कि कह आए हैं, भगवत्पक्ष में घटनेवाले व्यंग्यार्थगर्भ वाक्य बीच बीच में बहुत से हैं। हीरामन तोते के मुँह से पद्मिनी का रूपवर्णन सुन राजा उसके ध्यान में बेसुध हो गया। पर राजा केवल संसार के देखने में बेसुध था। अपने ध्यान की गंभीरता में, समाधि की अवस्था में, उसे उस समय परम ज्योति के सामीप्य की आनंदमयी अनुभूति हो रही थी जिसके भंग होने का दुःख वह सचेत होने पर प्रकट करता है—
आवत जग बालक जस रोवा। उठा रोइ 'हा ज्ञान सो खोवा'॥
हौं तो अहा अमरपुर जहाँ। इहाँ मरनपुर आएउ कहाँ?
केइ उपकार मरन कर कीन्हा। सकति हँकारि जीउ हरि लीन्हा॥
संबंधनिर्वाह
प्रबंधकाव्य में बड़ी भारी बात है संबंधनिर्वाह। माघ ने कहा है—
बह्वपि स्वेच्छया कामं प्रकीर्णमभिधीयते।
अनुज्झितार्थसम्बन्धः प्रबन्धो दुरुदाहरः॥
जायसी का संबंधनिर्वाह अच्छा है। एक प्रसंग से दूसरे प्रसंग की शृंखला बराबर लगी हुई है। कथाप्रवाह खंडित नहीं है जैसा केशव की 'रामचंद्रिका' का है, जो अभिनय के लिये चुने हुए फुटकर पद्यों का संग्रह सी जान पड़ती है। जायसी में विराम अवश्य हैं—जो कहीं कहीं अनावश्यक हैं—पर विवररण का लोप नहीं है जिससे प्रवाह खंडित होता है।
हमारे आचार्यों ने कथावस्तु दो प्रकार की कही है—आधिकारिक और प्रासंगिक। अतः संबंधनिर्वाह पर विचार करते समय सबसे पहले तो यह देखना चाहिए कि प्रासंगिक कथाओं का जोड़ आधिकारिक वस्तु के साथ अच्छी तरह मिला हुआ है या नहीं अर्थात् उनका आधिकारिक वस्तु के साथ ऐसा संबंध है या नहीं जिससे उसकी गति में कुछ सहायता पहुँचती हो। जो वृत्तांत इस प्रकार संबद्ध न होंगे वे ऊपर से व्यर्थ ठूँसे हुए मालूम होंगे चाहे उनमें कितनी ही अधिक रसात्मकता हो। 'हितोपदेश' में एक कथा के भीतर कोई जो दूसरी कथा कहने लगता है या 'अलिफलैला' में एक कहानी के भीतर का कोई पात्र जो दूसरी कहानी छेड़ बैठता है वह मुख्य कथाप्रवाह से संबद्ध नहीं कही जा सकती। पद्मावती में कई प्रासंगिक वृत्त हैं—जैसे हीरामन तोता खरीदनेवाला ब्राह्मण का वृत्तांत, राघव चेतन का हाल, बादल का प्रसंग—जिनका आधिकारिक वस्तु के प्रवाह पर पूरा प्रभाव है। उनके कारण आधिकारिक वस्तुस्रोत का मार्ग बहुत कुछ निर्धारित हुआ है। प्रासंगिक वस्तु ऐसी ही होनी चाहिए जो आधिकारिक वस्तु की गति आगे बढ़ाती या किसी ओर मोड़ती हो, जैसे देवपाल के वृत्त ने अलाउद्दीन के फिर चित्तौर पहुँचने के पहले ही रत्नसेन के जीवन का अंत कर दिया।
यह तो हुई प्रासंगिक कथा की बात जिसमें प्रधान नायक के अतिरिक्त किसी अन्य का वृत्त रहता है। अब आधिकारिक वस्तु की योजना पर आइए। सबसे पहले तो यह प्रश्न उठता है कि प्रबंधकाव्य में क्या जीवनचरित के समान उन सब बातों का विवरण होना चाहिए जो नायक के जीवन में हुई हों। संस्कृत के प्रबंधकाव्यों को देखने से पता चलता है कि कुछ में तो इस प्रकार का विवरण होता है और कुछ में नहीं, कुछ की दृष्टि तो व्यक्ति पर होती है और कुछ की किसी प्रधान घटना पर। जिनकी दृष्टि व्यक्ति पर होती है उनमें नायक के जीवन की सारी मुख्य घटनाओं का वर्णन—गौरववृद्धि या गौरवरक्षा के ध्यान से अवश्य कहीं कहीं कुछ उलटफेर के साथ—होता है। जिनकी दृष्टि किसी मुख्य घटना पर होती है उनका सारा वस्तुविन्यास उस घटना के उपक्रम के रूप में होता है। प्रथम प्रकार के प्रबंधों को हम व्यक्तिप्रधान कह सकते हैं जिसके अंतर्गत रघुवंश, बुद्धचरित, विक्रमांकदेवचरित आदि हैं। दूसरे प्रकार के घटनाप्रधान प्रबंधों के अंतर्गत कुमारसंभव, किराता र्जुनीय, शिशुपालवध आदि हैं। 'पद्मावत' को इसी दूसरे प्रकार के प्रबंध के अंतर्गत समझना चाहिए।
कहने की आवश्यकता नहीं कि दृश्य काव्य का स्वरूप भी घटनाप्रधान ही होता है। अतः इस प्रकार के प्रबंध के वस्तुविन्यास की समीक्षा बहुत कुछ दृश्य काव्य के वस्तुविन्यास के समान ही होनी चाहिए। जैसे दृश्य काव्य का वैसे ही प्रत्येक घटनाप्रधान प्रबंध काव्य का एक कार्य होता है जिसके लिये घटनाओं का सारा आयोजन होता है; जैसे, रामचरित में रावण का वध। अतः घटनाप्रधान प्रबंधकाव्य में उन्हीं वृत्तांतों का सन्निवेश अपेक्षित होता है जो उस साध्य 'कार्य' के साधनमार्ग में पड़ते हैं अर्थात् जिनका उस कार्य से संबंध होता है। प्राचीन यवन आचार्य अरस्तू ने इसका विचार अपने 'काव्यसिद्धांत' के आठवें प्रकरण में किया है और यह अब भी 'पाश्चात्य समालोचकों में कार्यान्वय' (यूनिटी आफ ऐक्शन) के नाम से प्रसिद्ध है।
'पदमावत' में कार्य है पद्मावती का सती होना । उसकी दृष्टि से राघव चेतन का उतना ही वृत्त आया है जितने का घटनाओं के 'कार्य' की ओर अग्रसर करने में योग है। इसी सिद्धांत पर न तो चित्तौर की चढ़ाई के उपरांत राघव की कोई चर्चा आती है और न विवाह के उपरांत तोते की। यहाँ पर दो प्रसंगों पर विचार कीजिए-- सिंहल से लौटते समय समुद्र के तूफान के प्रसंग पर और देवपाल के दूती भेजने के प्रसंग पर। तूफानवाली घटना यद्यपि प्रधान नायक के जीवन की घटना है पर यों देखने में 'कार्य' से बिलकुल असंबद्ध नहीं है। कवि ने बड़े कौशल से सूक्ष्म संबंधसूत्र रचा है। उसी घटना के अंतर्गत रत्नसेन को समुद्र से पाँच रत्न प्राप्त हुए थे। जब अलाउद्दीन से चित्तौर गढ़ न टूट सका तब उसने संधि के लिये वे ही पाँच रत्न रत्नसेन से माँगे। अतः वे ही पाँच रत्न उस संधि के हेतु हुए जिसके द्वारा बादशाह का गढ़ में प्रवेश और रत्नसेन का बंधन हुआ। प्रबंधनिपुणता यही है कि जिस घटना का सन्निवेश हो वह ऐसी हो कि 'कार्य' से दूर या निकट का संबंध भी रखती हो और नए नए विशद भावों की व्यंजना का अवसर भी देती हो। देवपाल की दूती का आना भी इसी प्रकार की घटना है जो सतीत्वगौरव की अपूर्व व्यंजना के लिये अवकाश भी निकालती है और रत्नसेन को उस मृत्यु का हेतु भी होती है जो 'कार्य' का (पद्मावती के सती होने का) कारण है।
कार्यान्वय' के अंतर्गत ही यवनाचार्य ने कहा कि कथावस्तु के आदि, मध्य और अंत तीनों स्फुट हों। आदि से प्रारंभ होकर कथाप्रवाह मध्य में जाकर कुछ ठहरा सा जान पड़ता है, फिर चट 'कार्य' को और मुड़ पड़ता है। 'पदमावत' को कथा में हम तीनों अवस्थाओं को अलग अलग बता सकते हैं। पदमावती के जन्म से लेकर रत्नसेन के सिंहलगढ घेरने तक कथाप्रवाह का आदि समझिए, विवाह से लेकर सिंहलद्वीप से प्रस्थान तक मध्य और राघव चेतन के देशनिर्वासन से लेकर पद्मिनी के सती होने तक अंत। आदि अंश को सब घटनाएँ मध्य अर्थात् विवाह की ओर उन्मुख हैं। विवाह के उपरांत जो उत्सव, समागम और सुखभोग आदि का वर्णन है उसे मध्य का विराम समझिए। उसके उपरांत राघव चेतन के निर्वासन से घटनाओं का प्रवाह कार्य" की ओर मुड़ता है। इसी प्रकार सिंहलगढ़ का निम्नलिखित वर्णन भी हठयोग के विभागों के अनुसार शरीर का वर्णन है--
गढ़ तस बाँक जैसि तोरी काया। पुरुष देखु ओही कै छाया।
पाइय नाहिं जूझ हठि कीन्हें। जेइ पावा तेइ आपुहि चीन्हें।
नौ पौरी तेहि गढ़ मझियारा। औ तहँ फिरहिं पाँच कोटवारा॥
दसहुँ दुपार गुपुत एक ताका। अगम चढ़ाव, बाट सुठि बाँका।।
भेदै जाइ कोइ यह घाटी। जो लह भेद चढ़े होइ चाँटी।।
गढ़तर कुंड सुरंग तेहि माहाँ। तहँ वह पंथ, कहीं तोहि पाहाँ।।
दसवें दुबार ताल कै लेखा। उलटि दिस्ट जो लाव सो देखा।।
हठयोगी अपनी साधना के लिये शरीर के भीतर तीन नाड़ियाँ मानते हैं। मेरुदंड या रीढ़ की बाईं ओर इला, दाहिनी ओर पिंगला नाड़ी है। इन दोनों के बीच में सुषुम्ना नाम की नाड़ी है। स्वरोदय के अनुसार बाएँ नथने से जो साँस आती जाती है वह इला नाड़ी से होकर और दाहिने नथने से जो पाती जाती है वह पिंगला से होकर। यदि श्वास कुछ क्षण दहिने और कुछ क्षण बाएँ नथने से निकले तो समझना चाहिए कि वह सुषम्ना नाड़ी से पा रही है। मध्य मध्यस्था सुषम्ना नाड़ी ब्रह्मस्वरूप है और उसी में जगत अवस्थित है। बिना इन नाड़ियों के ज्ञान के योगाभ्यास में सिद्धि नहीं होती। जो योगाभ्यास करना चाहते हैं वे पहले इला और फिर पिंगला और उसके अनंतर सुषुम्ना को साधते हैं। सुषुम्ना के सबसे नीचे के भाग में, नाभि के नीचे, योगी कंडलिनी मानते हैं। इसी का जगाने का प्रय वे करते हैं। जाग्रत होने पर कुंडलिनी चंचल होकर सुषुम्नानाड़ी के भीतर भीतर सिर की ओर चढ़ने लगती है और हृत्कमल तथा बारह चक्रों को पार करती हुई ब्रह्मरंध्र या मूर्द्धज्योति तक चली जाती है। जैसे जैसे वह ऊपर चढ़ती जाती है, योगी के सांसारिक बंधन ढीले पड़ते जाते हैं। यहाँ तक कि ब्रह्मरंध्र में पहुंचने पर मन और शरीर से उसका संबंध छट जाता है और साधक पूर्ण समाधि या तुरायावस्था को प्राप्त होकर ब्रह्म के स्वरूप में मग्न हो जाता है।
ऊपर जो पंक्तियाँ उद्धृत हैं उनमें 'नौपौरी' नाक, कान, मुँह आदि नवद्वार हैं। दशम द्वार ब्रह्मरंध्र है जिसके पास तक पहुँचने में बहुत से विघ्न या अंतराय पड़ते हैं। पाँच कोतवाल, काम, क्रोध आदि विकार हैं। गढ़ के नीचे का कुंड नाभिकुंड है जहाँ कुंडलिनी है। इस नाभिकुंड से गई हई सुरंग सुषम्ना नाड़ी है जो ब्रह्मरध्र तक चली गई है। वह ब्रह्मरंध्र बहुत ऊँचे है, वहाँ तक पहुँचना अत्यंत कठिन संसार से अपनी दृष्टि हटाकर जो उसकी और निरंतर ध्यान लगाए रहता है वहा साधक वहाँ तक पहुँच पाता है। जैसे रत्नसेन को शिव ने सिंहलगढ़ के भीतर पहुँचने का मार्ग बताया है वैसे ही साधक को किसी सिद्ध पुरुष से उपदेश ग्रहण किए बिना ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्रारंभ में कवि ने जो सिंहलगढ़ का वर्णन किया है उसमें कहा है कि 'चारिबसेरे सौं चढ़,सत सौं उतरै पार'। ये चार बसेरे सुफी साधकों की चार अवस्थाएँ हैं--शरीअत, तरीकत, हकीकत और मारफत। यही मारफत पूर्णसमाधि की अवस्था है जिसमें ब्रह्म के स्वरूप की अनुभूति होती है। रत्नसेन का सिंहलद्वीप में जाना भी हठयोगियों के प्रवाद के अनुकरण पर है। गोरखपंथी जोगी सिंहलद्वीप को सिद्ध पीठ मानते हैं जहाँ शिव से पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के लिये साधक को जाना पड़ता है।
लड़की का मायके से पति के पास जाना और जीव का ईश्वर के पास जाना दोनों में एक प्रकार के साम्य की कल्पना निर्गुणोपासक भावुक भक्तों में बहुत दिनों से चली आती है। कबीरदास के तो बहुत से भजनों में यह कल्पना भरी हुई है, जैसे—
खेलि लेइ नैहर दिन चारी।
पहिली पठौनी तीनि जन आए, नाऊ, ब्राह्मण, बारी।
दुसरी पठौनी पिय आपुहि आए, डोली, बाँस कहारी॥
धरि बहियाँ डोलिया बैठावै, कोउ न लगत गोहारी।
अब कर जाना, बहुरि नहीं अवना, इहै भेंट अँकवारी॥
सुनि के गवन मोरा जिया घबराई।
आजु मँदिरवा में अगिया लगिहै, कोउ न बुझावन जाई॥
इस प्रकार की अन्योक्तियाँ हिंदू गृहस्थों, विशेषतः स्त्रियों के मर्म को अधिक स्पर्श करनेवाली होती है, इससे इनके द्वारा माँगनेवाले साधु लोगों के हृदय पर प्रभाव डालकर भिक्षा का अच्छा योग कर लेते हैं। जायसी ने भी प्रथम समागम के अवसर पर पद्मावती के मुँह से इस प्रकार के व्यंग्यगर्भित वाक्य कहलाए हैं—
अनचिन्ह पिउ काँपौं मन माहाँ। का मैं कहब, गहब जो बाहाँ॥
बारि बैस है प्रीति न जानी। तरुनि भई मैमंत भुलानी॥
जीवन गरब न किछु मैं चेता। नेह न जानौं साम कि सेता॥
अब सी कंत जौ पूछिहि बाता। कस मुख होइहि, पीत की राता॥
इसी प्रकार की उक्तियाँ पद्मिनी की बिदाई के समय भी हैं, जैसे—
रोवहिं मातु पिता औ भाई। कोइ न टेक जौ कंत चलाई॥
भरीं सखी सब, भेंटत फेरा। अंत कंत सौं भएउ गुरेरा॥
कोउ काहु कर नाहिं निआना। मया मोह बाँधा अरुझाना॥
जब पहुँचाइ फिरा सब कोऊ। चला साथ गुन अवगुन दोऊ॥
इसी मायके और ससुराल की प्रचलित अन्योक्ति को ध्यान में रखकर जायसी ने ग्रंथ के आरंभ में ही पद्मावती और सखियों के खेलकूद का ऐसा माधुर्यपूर्ण वर्णन किया है। सिंहल की हाट आदि के वर्णन में भी बीच बीच में जायसी ने पारमार्थिक झलक दिखाई है, जैसे—
जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा। ता कहँ आन हाट कित लाहा?
कोई करै बेसाहनी, काहू केर बिकाइ।
कोई चलै लाभ सौं, कोई मूर गँवाइ॥