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जायसी ग्रंथावली/भूमिका/जायसी का रहस्यवाद

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १२२ से – १२९ तक

 

जायसी का रहस्यवाद

सूफियों के अद्वैतवाद का जो विचार पूर्वप्रकरण में हुआ उससे यह स्पष्ट हो गया कि किस प्रकार आर्य जाति (भारतीय और यूनानी) के तत्वचिंतकों द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धांत को सामी पैगंबरी मतों में रहस्वभावना के भीतर स्थान मिला। उक्त मतों (यहूदी, ईसाई, इसलाम) के बीच तत्वचिंतन की पद्धति या ज्ञानकांड का स्थान न होने के कारण—मनुष्य की स्वाभाविक बुद्धि या अक्ल का दखल न होने के कारण—अद्वैतवाद का ग्रहण रहस्यवाद के रूप में ही हो सकता था। इस रूप में पड़कर वह धार्मिक विश्वास में बाधक नहीं समझा गया। भारतवर्ष में तो यह ज्ञानक्षेत्र से निकला और अधिकतर ज्ञानक्षेत्र में ही रहा; पर अरब, फारस आदि में जाकर यह भावक्षेत्र के बीच मनोहर रहस्यभावना के रूप में फैला।

योरोप में भी प्राचीन यूनानी दार्शनिकों द्वारा प्रतिष्ठित अद्वैतवाद ईसाई मजहब के भीतर रहस्यभावना के ही रूप में लिया गया। रहस्योन्मुख सूफियों और पुराने कैथलिक ईसाई भक्तों की साधना समान रूप से माधुर्य भाव की ओर प्रवृत्त रही। जिस प्रकार सूफी ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में करते थे उसी प्रकार स्पेन, इटली योरोपीय प्रदेशों के भी। जिस प्रकार सूफी 'हाल' की दशा में उस माशूक से भीतर ही भीतर मिला करते थे उसी प्रकार पुराने ईसाई भक्त साधक भी दुलहनें बनकर उस दूल्हे से मिलने के लिये अपने अंतर्देश में कई खंडों के रंगमहल तैयार किया करते थे। ईश्वर की पति रूप में उपासना करनेवाली सैफो, सेंट टेरेसा आादि कई भक्तिनें भी योरोप में हुई हैं।

अद्वैतवाद के दो पक्ष हैं—आत्मा और परमात्मा की एकता तथा ब्रह्म और जगत् की एकता। दोनों मिलकर सर्ववाद की प्रतिष्ठा करते हैं—सर्वं खल्विदं ब्रह्म। यद्यपि साधना के क्षेत्र में सूफियों और पुराने ईसाई भक्तों दोनों की दृष्टि प्रथम पक्ष पर ही दिखाई देती है। पर भावक्षेत्र में जाकर सूफी प्रकृति की नाना विभूतियों से भी उसकी छवि का अनुभव करते हुए आए हैं।

ईसा की १९वीं शताब्दी में रहस्यात्मक कविता का जो पुनरुत्थान योरप के कई प्रदेशों में हुआ उसमें सर्ववाद का—ब्रह्म ग्रौर जगत की एकता का—भी बहुत कुछ आाभास रहा। वहाँ इसकी ओर प्रवृत्ति—स्वातंत्र्य और लोकसत्तात्मक भावों के प्रचार के साथ ही साथ दिखाई पड़ने लगी। स्वातंत्र्य के बड़े भारी उपासक अँगरेज कवि शैली में इस प्रकार के सर्ववाद की झलक पाई जाती है। आयर्लैंड स्वतंत्रता की भीषण पुकार के बीच ईट्स की रहस्यमयी कविवाणी भी सुनाई देती रही है। ठीक समय पर पहुँचकर हमारे यहाँ के कवींद्र रवींद्र भी वहाँ के सुर में सुर मिला आए थे। पश्चिम के समालोचकों की समझ में वहाँ के इस काव्यगत सर्ववाद का संबंध लोकसत्तात्मक भावों के साथ है। इन भावों के प्रचार के साथ ही स्थूल गोचर पदार्थों के स्थान पर सूक्ष्म अगोचर भावना (ऐब्स्ट्रैक्शन्स) की प्रवृत्ति हुई और वही काव्य क्षेत्र में जाकर भड़कीली और अस्फुट भावनाओं तथा चित्रों के विधान के रूप में प्रकट हुई।[]

अद्वैतवाद मूल में एक दार्शनिक सिद्धांत है, कविकल्पना या भावना नहीं। वह मनुष्य के बुद्धिप्रयास या तत्वचिंतन का फल है। वह ज्ञानक्षेत्र की वस्तु है। जब उसका आधार लेकर कल्पना या भावना उठ खड़ी होती है अर्थात् जब उसका संचार भावक्षेत्र में होता है तब उच्च कोटि के भावात्मक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा होती है। रहस्यवाद दो प्रकार का होता है—भावात्मक और साधनात्मक। हमारे यहाँ का योगमार्ग साधनात्मक रहस्यवाद है। यह अनेक प्राकृत और जटिल अभ्यासों द्वारा मन को अव्यक्त तथ्यों का साक्षात्कार कराने तथा साधक को अनेक अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त कराने की आशा देता है। तंत्र और रसायन भी साधनात्मक रहस्यवाद हैं, पर निम्न कोटि के। भावात्मक रहस्यवाद की भी कई श्रेणियाँ हैं जैसे, भूत प्रेत की सत्ता मानकर चलनेवाली भावना, परम सत्ता के रूप में एक ईश्वर की सत्ता मानकर चलनेवाली भावना स्थूल रहस्यवाद के अंतर्गत होगी। अद्वैतवाद या ब्रह्मवाद को लेकर चलनेवालो भावना से सूक्ष्म और उच्चकोटि के रहस्यवाद की प्रतिष्ठा होती है। तात्पर्य यह कि रहस्वभावना किसी विश्वास के आधार पर चलती है, विश्वास करने के लिये कोई नया तथ्य या सिद्धांत नहीं उपस्थित कर सकती। किसी नवीन ज्ञान का उदय उसके द्वारा नहीं हो सकता। जिस कोटि का ज्ञान या विश्वास होगा उसी कोटि की उससे उद्भूत रहस्यभावना होगी।

अद्वैतवाद का प्रतिपादन सबसे पहले उपनिषदों में मिलता है। उपनिषद भारतीय ज्ञानकांड के मूल हैं। प्राचीन ऋषि तत्वचिंतन द्वारा ही अद्वैतवाद के सिद्धांत पर पहुँचे थे। उनमें इस ज्ञान का उदय बुद्धि की स्वाभाविक क्रिया द्वारा हुआ था, प्रेमोन्माद या बेहोशी की दशा में सहसा एक दिव्य आभास या इलहाम के रूप में नहीं। विविध धर्मों का इतिहास लिखनेवाले कुछ पाश्चात्य लेखकों ने उपनिषदों के ज्ञान को जो रहस्यवाद की कोटि में रखा है, वह उनका भ्रम या दृष्टिसंकोच है। बात यह है कि उस प्राचीन काल में दार्शनिक विवेचन को व्यक्त करने की व्यवस्थित शैली नहीं निकली थी। जगत् और उसके मूल कारण का चिंतन करते करते जिस तथ्य तक वे पहुँचते थे उसकी व्यंजना अनेक प्रकार से वे करते थे। जैसे आजकल किसी गंभीर विचारात्मक लेख के भीतर कोई मार्मिक स्थल आ जाने पर लेखक की मनोवृत्ति भावोन्मुख हो जाती है और वह काव्य की भावात्मक शैली का अवलंबन करता है, उसी प्रकार उन प्राचीन ऋषियों को भी विचार करते करते गंभीर मार्मिक तथ्य पर पहुँचने पर कभी कभी भावोन्मेष हो जाता था और वे अपनी उक्ति का प्रकाश रहस्यात्मक और अच्छे ढंग से कर देते थे।

गीता के दसवें अध्याय में सर्ववाद का भावात्मक प्रणाली पर निरूपण है। वहाँ भगवान् ने अपनी विभूतियों का जो वर्णन किया है वह अत्यंत रहस्यपूर्ण है। सर्ववाद को लेकर जब भक्त की मनोवृत्ति रहस्योन्मुख होगी तब वह अंपने को जगत् के नाना रूपों के सहारे उस परोक्ष सत्ता की ओर ले जाता हुआ जान पड़ेगा। वह खिले हुए फूलों में, शिशु के स्मित आनन में, सुंदर मेघमाला में, निखरे हुए चंद्रबिंब में उसके सौंदर्य का, गंभीर मेघगर्जन में, बिजली की कड़क में, वज्रपात में, भूकंप आादि प्राकृतिक विप्लवों में उसकी रौद्र मूर्ति का,; संसार के असामान्य थारों, परोपकारियों और त्यागियों में उसकी शक्ति, शील आदि का साक्षात्कार करता है। इस प्रकार अवतारवाद का मूल भी रहस्यभावना ही ठहरती है।

पर अवतारवाद के सिद्धांत रूप में गृहीत हो जाने पर राम कृष्ण के व्यक्त ईश्वर विष्णु के अवतार स्थिर हो जाने पर रहस्यदशा की एक प्रकार से समाप्ति हो गई। फिर राम और कृष्ण का ईश्वर के रूप में ग्रहण व्यक्तिगत रहस्यभावना के रूप में नहीं रह गया। वह समस्त जनसमाज के धामिक विश्वास का एक अंग हो गया। इसी व्यक्त जगत् के बीच प्रकाशित राम कृष्ण की नरलीला भक्तों के भावोद्रेक का विषय हुई। अतः रामकृष्णोपासकों की भक्ति रहस्यवाद की कोटि में नहीं जा सकती।

यद्यपि समष्टि रूप में वैष्णवों को सगुणोपासना रहस्यवाद के अंतर्गत नहीं कही जा सकती, पर श्रीमद्‌भागवत के उपरांत कृष्णभक्ति को जो रूप प्राप्त हुआ उसमें रहस्यभावना की गुंजाइश हुई। भक्तों की दृष्टि से जब धीरे धीरे श्रीकृष्ण का लोकसंग्रही रूप हटने लगा और वे प्रेममूर्ति मान रह गए तब उनकी भावना ऐकांतिक हो चली। भक्त लोग भगवान को अधिकतर अपने संबंध से देखने लगे, जगत् के संबंध से नहीं। गोपियों का प्रेम जिस प्रकार एकांत और रूपमाधुर्य मात्र पर आश्रित था उसी प्रकार भक्तों का भी हो चला। यहाँ तक कि कुछ स्त्री भक्तों में भगवान् के प्रति उसी रूप का प्रेमभाव स्थान पाने लगा जिस रूप का गोपियों का कहा गया था। उन्होंने भगवान् की भावना प्रियतम के रूप में की। बड़े बड़े मंदिरों में देवदासियों की जो प्रथा थी उससे इस ‘माधुर्यभाव' को और भी सहारा मिला। माता पिता कुमारी लड़कियों को मंदिर में दान कर आते थे, जहाँ उनका विवाह देवता के साथ हो जाता था। अतः उनके लिये उस देवता की भक्ति पतिरूप में ही विधेय थी। इन देवदासियों में से कुछ उच्च कोटि की भक्तिनें भी निकल आती थीं। दक्षिण में अंदाल इस प्रकार की भक्तिन थी जिसका जन्म विक्रम संवत ७७३ के आसपास हुआ था। यह बहुत छोटी अवस्था में किसी साधु को एक पेड़ के नीचे मिली थी। वह साधु भगवान् का स्वप्न पाकर, इसे विवाह के वस्त्र पहनाकर श्रीरंग जी के मंदिर में छोड़ आया था।

अंदाल के पद द्रविड़ भाषा में 'तिरुप्पावइ' नामक पुस्तक में अबतक मिलते हैं। अंदाल एक स्थान पर कहती है—‘मैं पूर्ण यौवन को प्राप्त हैं और स्वामी कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को अपना पति नहीं बना सकती।' पति या प्रियतम के रूप में भगवान् की भावना को वैष्णव भक्तिमार्ग में 'माधुर्य भाव' कहते हैं। इस भाव की उपासना में रहस्य का समावेश अनिवार्य और स्वाभाविक है। भारतीय भक्ति का सामान्य स्वरूप रहस्यात्मक न होने के कारण इस 'माधुर्य भाव' का अधिक प्रचार नहीं हुआ। आगे चलकर मुसलमानी जमाने में सूफियों की देखादेखी इस भाव की ओर कृष्णभक्ति शाखा के कुछ भक्त प्रवृत्त हुए। इनमें मुख्य मीराबाई हुईं जो लोकलाज खोकर अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के प्रेम में मतवाली रहा करती थीं। उन्होंने एक बार कहा था कि 'कृष्ण को छोड़ और पुरुष है कौन? सारे जीव स्त्रीरूप हैं।'

सूफियों का असर कुछ और कृष्णभक्तों पर भी पूरा पूरा पाया जाता है। चैतन्य महाप्रभु में सूफियों की प्रवृत्तियाँ साफ झलकती हैं। जैसे सूफी कव्वाल गाते गाते हाल की दशा में हो जाते हैं वैसे ही महाप्रभु जी की मंडली भी नाचते नाचते मूर्छित हो जाती थी। यह मूर्छा रहस्यवादी सूफियों की रूढ़ि है। इसी प्रकार मद, प्याला, उन्माद तथा प्रियतम ईश्वर के विरह की दूरारूढ़ व्यंजना भी सूफियों की बँधी हुई परंपरा है। इस परंपरा का अनुसरण भी कुछ पिछले कृष्ण भक्तों ने किया। नागरीदास जी इश्क का प्याला पीकर बराबर झूमा करते थे। कृष्ण की मधुर मूर्ति ने कुछ आजाद सूफी फकीरों को भी आकर्षित किया। नजीर अकबरावादी ने खड़ी बोली के अपने बहुत से पद्यों में श्रीकृष्ण का स्मरण प्रेमालंबन के रूप में किया है।

निर्गुण शाखा के कबीर, दादू आदि संतों की परंपरा में ज्ञान का जो थोड़ा बहुत अवयव है वह भारतीय वेदांत का है; पर प्रेम तत्व बिल्कुल सूफियों का है। इनमें से दादू, दरिया साहब आदि तो खालिस सूफी ही जान पड़ते हैं। कबीर में 'माधुर्य भाव' जगह जगह पाया जाता है। वे कहते हैं—

हरि मोर पिय, मैं राम की बहुरिया।

'राम की बहुरिया' कभी तो प्रिय से मिलने की उत्कंठा और मार्ग की कठिनता प्रकट करती है, जैसे—

मिलना कठिन है, कैसे मिलौंगी प्रिय जाय?
समुझि सोचि पग धरौं जतन से, बार बार डगि जाय।
ऊँची गैल, राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराय।

और कभी विरह दुःख निवेदन करती है।

पहले कहा जा चुका है कि भारतवर्ष में साधनात्मक रहस्यवाद ही हठयोग, तंत्र और रसायन के रूप में प्रचलित था। जिस समय सूफी यहाँ आए उस समय उन्हें रहस्य की प्रवृत्ति हठयोगियों, रसायनियों और तांत्रिकों में ही दिखाई पड़ी। हठयोग की तो अधिकांश बातों का समावेश उन्होंने अपनी साधनापद्धति में कर लिया। पीछे कबीर ने भारतीय ब्रह्मवाद और सूफियों की प्रेमभावना को मिलकर जो 'निर्गुण संत मत' खड़ा किया उसमें भी 'इला', पिंगला सुषमन नारी' तथा भीतरी चक्रों की पूरी चर्चा रही। हठयोगियों वा नाथपंथियों की दो मुख्य बातें सूफियों और निर्गुण मतवाले संतों को अनुकूल दिखाई पड़ीं—(१) रहस्य की प्रवृत्ति, (२) ईश्वर को केवल मन के भीतर समझना और ढूँढ़ना।

कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों बातें भारतीय भक्तिमार्ग से पूरा मेल खानेवाली नहीं थीं। अवतारवाद के सिद्धांत रूप से प्रतिष्ठित हो जाने के कारण भारतीय परंपरा का भक्त अपने उपास्य को बाहर लोक के बीच प्रतिष्ठित करके देखता है, अपने हृदय के एकांत कोने में ही नहीं। पर फारस में भावात्मक अद्वैती रहस्यवाद खूब फैला। वहाँ की शायरी पर इसका रंग बहुत गहरा चढ़ा। लोगों के कठोर धर्मशासन के बीच भी सूफियों की प्रेममयी वाणी ने जनता को भावमग्न कर दिया।

इसलाम के प्रारंभिक काल में ही भारत का सिंध प्रदेश ऐसे सूफियों का अड्डा रहा जो यहाँ के वेदांतियों और साधकों के सत्संग से अपने मार्ग की पुष्टि करते रहे। अतः मुसलमानों का साम्राज्य स्थापित हो जाने पर हिंदुओं और मुसलमानों के समागम से दोनों के लिये जो एक सामान्य भक्ति मार्ग आविर्भूत हुआ वह अद्वैती रहस्यवाद को लेकर, जिसमें वेदांत और सूफी मत दोनों का मेल था। पहले पहल नामदेव फिर रामानंद के शिष्य कबीर ने जनता के बीच इस 'सामान्य भक्ति मार्ग' की अटपटी वाणी सुनाई। नानक, दादू आदि कई साधक इस नए मार्ग के अनुयायी हुए और ‘निर्गुण संत मत' चल पड़ा। पर इधर यह निर्गुण भक्तिमार्ग निकला उधर भारत के प्राचीन 'सगुण मार्ग' ने भी, जो पहले से चला आ रहा था, जोर पकड़ा और राम कृष्ण की भक्ति का स्रोत बड़े वेग से हिंदू जनता के बीच बहा। दोनों की प्रवृत्ति में बड़ा अंतर यह दिखाई पड़ा कि एक तो लोकपक्ष से उदासीन होकर केवल व्यक्तिगत साधना का उपदेश देता रहा पर दूसरा अपने प्राचीन स्वरूप के अनुसार लोकपक्ष को लिए रहा। 'निर्गुन बानी' वाले संतों के लोक-विरोधी स्वरूप को गोस्वामी तुलसीदास जी ने अच्छी तरह पहचाना था।

जैसा कि अभी कहा जा चुका है, रहस्यवाद का स्फुरण सूफियों में पूरा पूरा हुआ। कबीरदास में जो रहस्यवाद पाया जाता है वह अधिकतर सूफियों के प्रभाव के कारण। पर कबीरदास पर इस्लाम के कट्टर एकेश्वरवाद और वेदांत के मायावाद का रूखा संस्कार भी पूरा पूरा था। उनमें वाक्चातुर्य था, प्रतिभा थी, पर प्रकृति के प्रसार में भगवान् की कला का दर्शन करनेवाली भावुकता न थी। इससे रहस्यमयी परोक्ष सत्ता की ओर संकेत करने के लिये जिन दृश्यों को वे सामने करते हैं वे अधिकतर वेदांत और हठयोग की बातों के खड़े किए हुए रूपक मात्र होते हैं। अतः कबीर में जो कुछ रहस्यवाद है वह सर्वत्र एक भावुक या कवि का रहस्यवाद नहीं है। हिंदी के कवियों में यदि कहीं रमणीय और सुंदर अद्वैती रहस्यवाद है तो जायसी में, जिनकी भावुकता बहुत ही ऊँची कोटि की है। वे सूफियों की भक्ति-भावना के अनुसार कहीं तो परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखकर जगत् के नाना रूपों में उस प्रियतम के रूपमाधुर्य की छाया देखते हैं और कहीं सारे प्राकृतिक रूपों और व्यापारों को 'पुरुष' के समागम के हेतु प्रकृति के शृंगार, उत्कंठा या विरहविकलता के रूप में अनुभव करते हैं। दूसरे प्रकार की भावना पदमावत में अधिक मिलती है।

आरंभ में कह आए हैं कि 'पदमावत' के ढंग के रहस्यवादपूर्ण प्रबंधों की परंपरा जायसी से पहले की है, मृगावती, मधुमालती आदि की रचना जायसी के पहले हो चुकी थी और उनके पीछे भी ऐसी रचनाओं की परंपरा चली। सबमें रहस्यवाद मौजूद है। अतः हिंदी के पुराने साहित्य में 'रहस्यवादी कविसंप्रदाय' यदि कोई कहा जा सकता है तो इन कहानी कहनेवाले मुसलमान कवियों का ही।

जायसी कवि थे और भारतवर्ष के कवि थे। भारतीय पद्धति के कवियों की दृष्टि फारसवालों की अपेक्षा प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों पर कहीं अधिक विस्तृत तथा उनके मर्मस्पर्शी स्वरूपों को कहीं अधिक परखनेवाली होती है। इससे उस रहस्यमयी सत्ता का आभास देने के लिये जायसी बहुत ही रमरणीय और मर्मस्पर्शी दृश्यसंकेत उपस्थित करने में समर्थ हुए हैं। कबीर के चित्रों (इमैजरी) की न वह अनेकरूपता है, न वह मधुरता। देखिए, उस परोक्ष ज्योति और सौंदर्य-सत्ता की ओर कैसी लौकिक दीप्ति और सौंदर्य के द्वारा जायसी संकेत करते हैं—

बहुतै जोति जोति ओहि भई।

रवि, ससि, नखत दिपहिं ओहि जोती। रतन पदारथ, मानिक मोती॥
जहँ जहँ बिहँसि सुभावहिं हँसी। तहँ तहँ छिटकि जोति परसी॥

नयन जो देखा कुँवल भा, निरमल नीर सरीर।
हँसत जो देखा हंस भा, दसनजोति नग हीर॥

प्रकृति के बीच दिखलाई देनेवाली सारी दीप्ति उसी से है, इस बात का आभास पद्मावती के प्रति रत्नसेन के ये वाक्य दे रहे हैं—

अनु धनि! तू निसिअर निसि माहाँ। हौं दिनिअर जेहि के तू छाहाँ॥
चाँदहि कहाँ जोति औ करा। सुरुज के जोति चाँद निरमरा॥

अँगरेज कवि शेली की पिछली रचनाओं में इस प्रकार के रहस्यवाद की झलक बड़ी सुन्दर दृश्यावली के बीच दिखाई देती है। स्त्रीत्व का आध्यात्मिक आदर्श उपस्थित करनेवालों (एपीसाइकीडिअन) में प्रिया की मधुर वाणी प्रकृति के क्षेत्र में कहाँ कहाँ सुनाई पड़ती है—

इन सालीचूड्स,
हर वायस केम टु मी थ्रू दि व्हिस्परिंग उड्स,
ऐंड फ्राम दि फाउन्टेंस, ऐंड दि ओडर्स डीप
आफ फ्लावर्स व्हिच, लाइक लिप्स मरमरिंग इन देयर स्लीप
आफ दि स्वीट किसेज व्हिच हैड लव्ड देम देयर,
ब्रीद्‌ड बट आफ हर टु दि इनैमर्ड एअर;
ऐंड फ्राम दि ब्रीजेज व्हेदर लो आर लाउड,
ऐंड फ्राम दि रेन आफ एव्री पासिंग क्लाउड,
ऐंड फ्राम दि सिंगिंग आफ् दि समर वर्ड्स,
ऐंड फ्राम आल साउंड्स, आल साइलैंस।

भावार्थ—निर्जन स्थानों के मर्मर करते हुए काननों में, झरनों में, उन पुष्पों की परागगंध में जो उस दिव्य चुंबन के सुखस्पर्श से सोए हुए कुछ बर्राते से मुग्ध पवन को उसका परिचय दे रहे हैं। इसी प्रकार मंद या तीव्र समीर में, प्रत्येक दौड़ते मेघखंड की झड़ी में, बसंत के विहंगमों के कलकूजन में तथा प्रत्येक ध्वनि में और निःस्तब्धता में भी मैं उसी की वाणी सुनता हूँ।

कबीरदास में यह बात नहीं है। उन्हें बाहर जगत् में भगवान् की रूपकला नहीं दिखाई देती। वे सिद्धों और योगियों के अनुकरण पर ईश्वर को केवल अंतस् में, बताते हैं—

मो को कहाँ ढूंढ़ै बंदे मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल, ना मैं मसजिद; ना काबे कैलास में॥

जायसी भी उसे भीतर बताते हैं—

पिउ हिरदय महँ भेंट न होई। को रे मिलाव, कहौं केहि रोई!

पर, जैसा कि पहले दिखा चुके हैं, वे उसके रूप की छटा प्रकृति के नाना रूपों में भी देखते हैं।

मानस के भीतर उस प्रियतम के सामीप्य से उत्पन्न कैसे अपरमित आनंद की, कैसे विश्वव्यापी आनंद की, व्यंजना जायसी की इन पंक्तियों में है—

देखि मानसर रूप सोहावा। हिय हुलास पुरइनि होइ छावा॥
गा अँधियार रैन मसि छूटी। भा भिनसार किरिन रवि फूटी॥
कँवल बिगस तस बिहँसी देही। भँवर दसन होइ कै रस लेहीं॥

देखि अर्थात् उस अखंड ज्योति का आभास पाकर वह मानस (मानसरोवर और हृदय) जगमगा उठा। देखिए न, खिले कमल के रूप में उल्लास मानसर में चारों ओर फैला है। उस ज्योति के साक्षात्कार से अज्ञान छूट गया—प्रभात हुआ, पृथ्वी पर से अंधकार हट गया। आनंद से चेहरा (देही = बदन = मुँह) खिल उंठा, बत्तीसी, निकल आई[]—कमल खिल उठे और उनपर भौंरे दिखाई दे रहे हैं। अंतर्जगत् और बाह्य जगत् का कैसा अपूर्व सामंजस्य है, कैसी बिंबप्रतिबिब स्थिति है!

उस प्रियतम पुरुष के प्रेम से प्रकृति कैसी विद्ध दिखाई देती है—

उन्ह बानन्ह अस को जोन मारा? बेधि रहा सगरौ संसारा॥
गगन नखत जो जाहिं न गने। वै सब बान ओहि के हने॥
धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी॥
रोवँ रोवँ मानुस तन ठाढ़े। सूर्ताह सूत बेध अस गाढ़े॥

बरुनि चाप अस ओपहँ, बेधे रन वन ढाँख।
सौजहि तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥

पृथ्वी और स्वर्ग, जीव और ईश्वर, दोनों एक थे, बीच में न जाने किसने इतना भेद डाल दिया है—

धरती सरग मिले हुत दोऊ। केइ निनार कै दीन्ह बिछोऊ॥

जो इस पृथ्वी और स्वर्ग के वियोगतत्व को समझेगा और उस वियोग में पूर्ण रूप से सम्मिलित होगा उसी का वियोग सारी सृष्टि में इस प्रकार फैला दिखाई देगा—

सूरुज बूड़ि उठा होइ ताता। औ मजीठ टेसू बन राता॥
भा बसंत, रातों वनसपती। औ राते सब जोगी जती॥
भूमि जो भीजि भएउ सब गेरू। औ राते सब पंखि पखेरू॥
राती सती, अगिनि सब काया। गगन मेघ राते तेहि छाया॥

सायं प्रभात न जाने कितने लोग मेघखंडों को रक्तवर्ण होते देखते हैं पर किस अनुराग से वे लाल हैं इसे जायसी ऐसे रहस्यदर्शी भावुक ही समझते हैं।

प्रकृति के सारे महाभूत उस 'अमरधाम' तक पहुँचने का बराबर प्रयत्न करते रहते हैं पर साधना पूरी हुए बिना पहुँचना असंभव है—

धाइ जो बाजा कै मन साधा। मारा चक्र, भएउ दुइ आधा॥
चाँद सुरुज औ नखत तराईं। तेहि डर अँतरिख फिरिहिँ सवाईं॥
पवन जाइ तहँ पहुँचै चहा। मारा तैस लोटि भुइँ रहा॥
अगिनि उठी, जरि बुझी निआना। धुँआ उठा, उठि बीच बिलाना॥
पानि उठा, उठि जाइ न छूआ।[] बहुरा रोइ आइ भुइँ चूआ॥

इस अद्वैती रहस्यवाद के अतिरिक्त जायसी कहीं कहीं उस रहस्यवाद में आ फँसे हैं जो पाश्चात्यों की दृष्टि में 'झूठा रहस्यवाद' है। उन्होंने स्थान स्थान पर हठयोग, रसायन आदि का भी आश्रय लिया है।

  1. दि पैशन फार इनटेलेक्चुअल ऐक्सट्रैक्शंस व्हैन ट्रान्सफर्ड टु दि लिटरेचर आफ इमैजिनेशन बिकम्स ए पैशन फार व्हाट इज़ ग्रैंडियोर्स ऐण्ड वेज इन सेंटिमेंट ऐंड इन इमैजरी। दि ग्रेट लारिएट आफ यूरोपियन डिमाक्रेसी विक्टर ह्यूगो, एग्जिबिट्स ऐटवन्स द डिमाक्रिटिक लव ग्राफ ऐब्स्ट्रेक्ट आइडियाज, दि डिमाक्रेटिक डिलाइट इन व्हट इज ग्रैंडियोर्स (ऐज वेल ऐज व्हट इज ग्रैंड) इन सेंटिमेंट, ऐंड दि डिमाक्रेटिक टेंडेंसी टुवर्ड्स ए पोइटिकल पैनथेइज्म।

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    —डाउडेंस 'न्यू स्टडीज इन लिटरेचर' (इंट्रोडक्शन)
  2. एक स्थान पर जायसी ने कहा है—'मसि बिनु दसन सोह नहि देहीं।' लखनऊ में मर्द लोग भी मिस्सी से दाँत काले करते हैं। पान के रंग से भी दाँतों पर स्याही चढ़ जाती है।
  3. ‘उठि जाइ न छूआ' के स्थान पर यदि 'उठि होइ गा धूआ' पाठ होता तो और भी अच्छा होता।