जायसी ग्रंथावली/भूमिका/पात्र द्वारा भावव्यंजना
पात्र द्वारा जिन स्थायी भावों की प्रधानतः व्यंजना जायसी ने कराई है वे रति, शोक और युद्धोत्साह हैं। दो एक स्थानों पर क्रोध की भी व्यंजना है। भय का केवल आलंबन मात्र हम समुद्रवर्णन के भीतर पाते हैं, किसी पात्र द्वारा भय का प्रदर्शन नहीं। बाभत्स का भी पालंबन ही प्रथानसार युद्धवर्णन में है। हास का तो अभाव हा समझना चाहिए। गौरण भावों की व्यंजना कुछ तो अन्य भाव के संचारिया के रूप में है, कूछ स्वतंत्र रूप में। जायसी की भाव-यंजना के संबंध में यह समझ रखना चाहिए कि उन्होंने जबरदस्ती विभाव, अनुभाव और संचारी ठसकर पूर्ण रस की रस्म अदा करने की कोशिश नहीं की है। भाव का उत्कर्ष जितने से सध गया है उतने ही से उन्होंने प्रयोजन रखा है। अनुभावों की योजना कम है। पदमावत म यद्यपि शृंगार ही प्रधान है पर उसके संभोग पक्ष में स्तभ, रोमांच नहीं मिलते। वियोग में अश्रुओं का बाहुल्य है। हावों का भी विधान नहीं है। विप्रलंभ में वैवर्ण्य आदि थोड़े से सात्विकों का कहीं कहीं आभास मिलता है। इस कमी से रतिभाव के स्वरूप के उत्कर्ष में तो कोई कमी नहीं हुई है पर संभोग पक्ष उतना अनुरंजनकारी नहीं हुआ है।
भावव्यंजना का विचार करते समय दो बातें देखनी चाहिए—
(१) कितने भावों और गूढ़ मानसिक विकारों तक कवि की दृष्टि पहुँची है।
(२) कोई भाव कितने उत्कर्ष तक पहुँचा है।
पहली बात में हम जायसी को बढ़ा चढ़ा नहीं पाते। इनमें गोस्वामी तुलसीदास जी की सी वह सूक्ष्म अंतर्दृष्टि नहीं है जो भिन्न भिन्न परिस्थितियों के बीच संघटित होनेवाली अनेक मानसिक अवस्थाओं का विश्लेषण करती है। कैकेयी और मंथरा के संवाद में मानव प्रकृति का जैसा सूक्ष्म अध्ययन पाया जाता है वैसा पद्मिनी और दूती के संवाद में नहीं। क्षोभ से उत्पन्न उदासीनता और आत्मनिंदा, आश्चर्य से भिन्न चकपकाहट ऐसे गूढ़ भावों तक जायसी की पहुँच नहीं पाई जाती। सारांश यह कि मनुष्य हृदय की अधिक अवस्थाओं का सन्निवेश जायसी में नहीं मिलता। जो भाव संचारियों में गिना दिए गए हैं उनका भी बहुत ही कम संचरण किसी स्थायी भाव के भीतर दिखाई पड़ता है। इन गिनाए हुए भावों के अतिरिक्त और न जाने कितने छोटे छोटे भाव और मानसिक दशाएँ हैं जो व्यवहार में देखी जाती हैं और अनुसंधान करने पर भावुक कवियों की रचना में बराबर पाई जायँगी। आश्चर्य ऐसे लोगों पर होता है जो 'देव' कवि के 'छल' नामक एक और संचारी ढूँढ़ निकालने पर वाह वाह का पुल बाँधते हैं और देव को एक आचार्य समझते हैं। गोस्वामी जी की आलोचना में मैं ऐसे भाव दिखा चुका हूँ जिनके नाम संचारियों की गिनती में नहीं हैं। संचारियों में गिनाए हुए भाव तो उपलक्षरण मात्र हैं। खैर, यहाँ केवल हमें इतना ही कहना है कि जायसी में भावों के भीतर संचारियों का सन्निवेश बहुत कम मिलता है। 'पद्मावत' में रतिभाव की प्रधानता है पर उसके अंतर्गत भी हम 'असूया', 'गर्व' आदि दो एक संचारियों को छोड़ 'ब्रीड़ा' 'अवहित्था' आदि अनेक भावों का कहीं पता नहीं पाते। इनके अवसर आए हैं, पर कवि ने इनका विधान नहीं किया है—जैसे पद्मिनी के मंडपगमन का अवसर; प्रथम समागम का अवसर।
अब दूसरी बात भाव के उत्कर्ष पर आइए। इसमें जायसी बहुत बढ़े चढ़े हैं, पर जैसा दिखाया जा चुका है यह उत्कर्ष विप्रलंभ पक्ष में ही अधिक दिखाई पड़ता है।
शृंगार का बहुत विवेचन विप्रलंभ शृंगार और संयोग शृंगार के अंतर्गत हो चुका है। यहाँ पर केवल रतिभाव के अंतर्गत कुछ मानसिक दशाओं की व्यंजना के उदाहरण ही काफी समझता हूँ। रत्नसेन से विवाह हो जाने पर पद्मावती अपनी कामदशा का वर्णन कैसे सीधे सादे पर भावगर्भित वचनों द्वारा करती है—
कौन मोहनी दहुँ हुति तोही। जो तोहि बिथा सो उपनी मोही॥
बिनु जल मीन तलफ जस जीऊ। चातक भइउँ कहत 'पिउ पीऊ'॥
जरिउँ बिरह जस दीपक बाती। पथ जोहत भइँ सीप सेवाती॥
भइउँ बिरह दहि कोइल कारी। डारि डारि जिमि कूकि पुकारी॥
कौन सो दिन जब पिउ मिलै, यह मन राता जासु।
वह दुख देखै मोर सब, हौं दुख देखौं तासु॥
दोहे में 'अभिलाष' का कैसा सच्चा प्रकृत स्वरूप है। प्रेम प्रेम चाहता है। इसी अभिलाष के अंतर्गत अपना दुख प्रिय के सामने रखने और प्रिय भी मेरे विरह में दुखी है, इस बात का निश्चय प्राप्त करने की उत्कंठा प्रेमी को होती है। रतिभाव के संचारी के रूप में 'आशा' या 'विश्वास' की बड़ी सुंदर व्यंजना जायसी ने पद्मावती के मुँह से कराई है। देवपाल की दूती के यह कहने पर कि 'कस तुंइ, बारि, रहसि कुँभिलानी?' पद्मावती कहती है—
तौ लौं रहौं झुरानी जौ लहि आव सो कंत।
एहि फूल, एहि सेंदुर होइ सो उठै बसंत॥
इसी फूल (शरीर) से जिसे तुम इतना कुंभलाया हुआ कहती हो और इसी सिंदूर की फीकी रेखा से जो रूखे सिर में दिखाई पड़ती है फिर बसंत का विकास और उत्सव हो सकता है, यदि पति आ जाय। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि होली के उत्सव के लिये जायसी ने अबीर के स्थान पर बराबर सिंदूर का व्यवहार किया है। संभव है, उस समय सिंदूर से ही अबीर बनाया जाता रहा हो।
शृंगार के संचारी 'वितर्क' का एक उदाहरण, जो नया नहीं कहा जा सकता, लीजिए। बादल की नवागता वधू युद्ध के लिये जाने को तैयार पति की ओर देख रही है और खड़ी खड़ी सोचती है—
रहौं लजाइ तो पिउ चलै, कहौं तो कह मोहि ढीठ।
'वात्सल्य' के उद्गार दो स्थानों पर हैं। एक तो वहाँ जहाँ राजा रत्नसेन जोगी होकर घर से निकलने को तैयार होता है; फिर वहाँ जहाँ बादल रत्नसेन को छुड़ाने की प्रतिज्ञा करने के उपरांत युद्धयात्रा के लिये चलने को उद्यत होता है। दोनों स्थानों पर व्यंजना माता के मुख से है पर विस्तीर्ण और गंभीर नहीं है, साधारण है। परिस्थिति के अनुसार रत्नसेन की माता का वात्सल्य 'सुख के अनिश्चय' के द्वारा व्यक्त होता है और बादल की माता का 'शंका' संचारी द्वारा। रत्नसेन की माता कहती है—
सब दिन रहेहु करत तुम भोगू। सो कैसे साधब तप जोगू॥
कैसे धूप सहब बिनु छाहाँ। कैसे नींद परिहि भुइँ माहाँ॥
कैसे ओढ़ काथरि कंथा? कैसे पाँव चलब तुम पंथा॥
कैसे सहब खनहि खन भूखा? कैसे खाब कुरकुटा रूखा॥
जितना दुःख औरों के दुःख को देख सुनकर होता है उतना दुःख प्रिय व्यक्ति के सुख के अनिश्चय मात्र से होता है। यह अनिश्चय प्रिय व्यक्ति के आँख से ओझल होते ही उत्पन्न होने लगता है। तुलसी और सूर ने कौशल्या और यशोदा के मुख से ऐसे अनिश्चय की बड़ी सुंदर व्यंजना कराई है। ऐसे स्थलों पर इस अनिश्चय का कारण रतिभाव ही होता है; अतः जिस प्रकार 'शंका' रतिभाव का संचारी होती है उसी प्रकार यह 'अनिश्चय' भी। परिस्थितिभेद से कहीं संचारी केवल 'अनिश्चय' तक रहता है और कहीं 'शंका' तक पहुँचता है। छोटी अवस्था का बादल जिस समय रणक्षेत्र में जाने को तैयार होता है, उस समय माता की यह 'शंका' बहुत ही स्वाभाविक है—
बादल राय मोर तुइ बारा। का जानसि कस होइ जुझारा॥
बादसाह पुहुमीपति राजा। सनमुख होइ न हमीरहि छाजा॥
बरसहि सेल बान घन घोरा। धीरज धीर न बाँधिहि तोरा॥
जहाँ दलपती दलमलहिं, तहाँ तोर का काज?
आजु गवन तोर आवै, बैटि मानु सुख राज॥
शंका तक पहुँचता हुआ यह 'अनिश्चय' प्रेमप्रसूत है, गूढ़ रति भाव का द्योतक है—
ह्वेयर लव इज ग्रेट, दि लिटिलेस्ट डाउट्स आर फियर्स।
ह्वेयर लिटिल फियर्स ग्रो ग्रेट, ग्रेट लव इज देअर।
—शेक्सपियर
मायके के स्वाभाविक प्रेम की कैसी गंभीर व्यंजना इन पंक्तियों में है—
गहबर नैन आए भरि आँसू। छाँड़ब यह सिंघल कैलासु॥
छाँड़िउँ नैहर, चलिउँ बिछोई। एहि रे दिवस कहँ हौं तब रोई॥
छाँड़िउँ आपनि सखी सहेली। दूरि गवन तजि चलिउँ अकेली॥
नैहर आइ काह सुख देखा। जनु होइगा सपने कर लेखा॥
मिलहु सखी हम तहँवाँ जाहीं। जहाँ जाइ पुनि आउब नाहीं॥
हम तुम मिलि एकै सँग खेला। अंत बिछोह आनि गिउ मेला॥
दूती और पद्मावती के संवाद में पद्मावती द्वारा पातिव्रत की बड़ी ही विशद व्यंजना हुई है। पातिव्रत कोई एक भाव नहीं है। वह धर्म और पूज्यबुद्धि मिश्रित दांपत्य प्रेम है। उसके अंतर्गत कभी रतिभाव की व्यंजना होती है, कभी प्रिय के महत्व को प्रकाशित करनेवाले पूज्य भाव की, कभी प्रिय के महत्व के गर्व की और कभी धर्मानुराग की। पहले पद्मावती उस दूती को अपने अनन्य प्रेम की सूचना इस प्रकार देती है—
अहा न राजा रतन अँजोरा। केहि क सिंघासन केहि क पटोरा॥
चहुँ दिसि यह घर भा अँधियारा। सब सिँगार लेइ साथ सिधारा॥
काया बेलि जानु तब जामी। सीँचनहार आव घर स्वामी॥
इसपर जब दूती दूसरे पुरुष की बात कहती है तब वह क्रोध से तमतमा उठती है और धर्म के तेज से भरे ये वचन कहती है—
रँग ताकर हौं जारौं काँचा। आपन तजि जो पराएहि राँचा॥
दूसर करै जाइ दुइ बाटा। राजा दुइ न होंहि एक पाटा॥
साथ ही अपने पति का महत्व दिखाती हुई उसपर इस प्रकार गर्व प्रकट करती है—
कुल कर पुरुष सिंह जेहि केरा। तेहि थल कैस सियार बसेरा?॥
हिया फार कूकुर तेहि केरा। सिंघहि तजि सियार मुख हेरा॥
सोन नदी अस मोर पिउ गरुवा। पाहन होड़ परै जौ हरुवा॥
जेहि ऊपर अस गरुआ पीऊ। सो कस डोलाए डोलै जीऊ॥
पिछली चौपाई में 'गरुआ' और 'डोलै' शब्दों के प्रयोग द्वारा कवि ने जो एक अगोचर मानसिक विषय का गोचर भौतिक व्यापार के रूप में प्रत्यक्षीकरण किया है वह काव्यपद्धति का अत्यंत उत्कृष्ट उदाहरण है, पर उससे भी बढ़कर है व्यंजित गर्व की मार्मिकता। यह गर्व पातिव्रत की अचल धुरी है। जिसमें वह गर्व नहीं, पतिव्रता नहीं। एक बार एक लुच्चे ने रास्ते में एक स्त्री को छेड़ा। वह स्त्री छोटी जाति की थी पर उसके ये शब्द मुझे अबतक याद हैं कि 'क्या तू मेरे पति से बहुत सुंदर है?'
'संमान' और 'कृतज्ञता' ऐसे भावों की व्यंजना भी जायसी ने बड़ी ही मार्मिक भाषा में कराई है। बादल जब राजा रत्नसेन को दिल्ली से छुड़ाकर लाता है तब पद्मिनी बादल की आरती पूजा करके कहती है—
यह गजगवन गरव सौं मोरा। तुम राखा बादल औ गोरा॥
सेँदुर तिलक जो आँकुस अहा। तुम राखा माथे तौ रहा॥
काछ काछि तुम जिउ पर खेला। तुम जिउ आनि मँजूसा मेला॥
राखा छात, चँवर औधारा। राखा छुद्रघंट झनकारा॥
राजा रत्नसेन के बंदी होने पर नागमती जो विलाप करती है उसके बीच पद्मिनी के प्रति उसकी झुँझलाहट कितनी स्वाभाविक है, देखिए—
पदमिनि ठगिनी भई कित साथा। जेहि ते रतन परा पर हाथा॥
शोक के दो प्रसंग 'पद्मावत' में आए हैं—पहला रत्नसेन के जोगी होने पर, दूसरा रत्नसेन के मारे जाने पर। इनमें से पात्र द्वारा व्यंजना पहले ही प्रसंग में है, दूसरे में केवल करुण दृश्य का चित्रण है। रत्नसेन के जोगी होकर घर से निकलने पर रानियाँ जो विलाप करती हैं उसमें पहले सुख के आधार के हटने का उल्लेख है फिर उससे उत्पन्न विषाद की व्यंजना है—
रोवहिं रानी तजहिं पराना। नोंचहिं बार करहिं खरिहाना॥
चूरहिं गिउ अभरन उर हारा। अब कापर हम करब सिंगारा॥
जाकहूँ कहहिं रहसि कै पीऊ। सोइ चला, काकर यह जीऊ॥
मरै चहहि पै मरै न पावहिं। उठै आगि सब लोग बुझावहिं॥
रसज्ञों की दृष्टि में यहाँ करुण रस की पूरी व्यंजना है क्योंकि विभाव के अतिरिक्त रोना और बाल नोचना अनुभाव और विषाद संचारी भी है।
जैसा पहले कहा जा चुका है, राजा रत्नसेन के मरने पर कवि ने जिस करुण परिस्थिति का दृश्य दिखाया है वह अत्यंत प्रशांत और गंभीर है। रानियों के मुख से क्षुब्ध आवेग की व्यंजना नहीं कराई गई है, केवल पद्मिनी के उस समय के रूप की झलक दिखाकर परिस्थिति की गंभीरता का आभास दिया गया है—
पद्मावति पुनि पहिरि पटोरी। चली साथ पिय कै होइ जोरी॥
सूरुज छिपा रैनि होइ गई। पूनिउँ ससी अमावस भई॥
छूटे केस, मोति लर छूटीं। जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं॥
सेंदुर परा जो सीस उघारी। आगि लागि चह जग अँधियारी॥
सूर्यरूपी रत्नसेन अस्त हुआ। पद्मावती के पूर्णचंद्र मुख में एक कला भी नहीं रह गई। पहले एक स्थान पर कवि कह चुका है कि 'चाँदहि कहाँ जोति औ करा? सुरुज के जोति चाँद निरमरा'। जब सूर्य ही नहीं रहा, तब चंद्रमा में कला कहाँ से रह सकती है? काले केश छूट पड़े हैं, मोती बिखरकर गिर रहे हैं—अमावस्या की अँधेरी छा गई है जिसमें नक्षत्र इधर उधर टूटकर गिरते दिखाई पड़ते हैं। वह घने काले केशों के बीच सिंदूर की रेखा दिखाई पड़ी—अब घोर अंधकार के बीच आग भी लगा चाहती है—सती की ज्योति से सारा जगत् जगमगाया चाहता है।
देखिए, पद्मिनी के तात्कालिक रूप में ही कवि ने प्रस्तुत करुण परिस्थितियों की गंभीरता की पूर्ण छाया दिखा दी है। पद्मिनी सारे जगत् के शोक का स्वच्छ आदर्श हो गई जिसमें सारे जगत् के गंभीर शोक का प्रशांत स्वरूप दिखाई पड़ता है। कुछ काल के लिये पद्मिनी के सहित सारा जगत् शोकसागर में मग्न दिखाई पड़ता है। फिर पद्मिनी और नागमती दोनों इस दुःखमय जगत् से मुँह फेरती हैं और उस लोक की ओर दृष्टि करती हैं जहाँ दुःख का लेश नहीं—
दोउ सौति चढ़ि खाट बईठीं। औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी॥
इस जगत् से दृष्टि फेरते ही सारे दुःख द्वंद्व छूट गए हैं। अब न झगड़ा और कलह है, न क्लेश और न संताप? दोनों सपत्नी एक साथ मिलकर दूसरे लोक में पति से जा मिलने की आशा से परिपूर्ण और शांत दिखाई पड़ती हैं और सती होने जा रही हैं। आगे बाजा बजता चलता है। यह प्रेममार्ग के विषय का बाजा है—
एक जो बाजा भएउ बियाहू। अब दुसरे होइ ओर निबाहू॥
रत्नसेन की चिता तैयार है। दोनों रानियाँ चिता की सात प्रदक्षिणा करती हैं। एक बार जो भाँवरी (विवाह के समय) हुई थी उससे इस संसार यात्रा में रत्नसेन का साथ हुआ था; अब इस भाँवरी से परलोक के मार्ग में साथ हो रहा है—
एक जो भाँवरि भई बियाही। अब दुसरै होइ गोहन जाही॥
जियत कंत! तुम हम्ह घर लाई। मुए कंठ नहि छाँड़हि साँई॥
अही जो गाँठि कंत! तुम जोरी। आदि अंत लहि जाइ न छोरी॥
एहि जग काह जो अछहि न आथी। हम तुम नाह? दुवौ जग साथी॥
सतियों के मुख पर आनंद की शुभ्र ज्योति दिखाई पड़ती हैं। इस लोक से मुँह मोड़ अब वे दूसरे लोक के मार्ग के द्वार पर खड़ी हुई हैं। इस लोक की अग्नि में अब उन्हें क्लेश और ताप पहुँचाने की शक्ति नहीं रही है। उनके लिये वह सबसे शीतल करनेवाली वस्तु हो गई है क्योंकि वह पतिलोक का द्वार खोला चाहती है। हिंदू सती का यह कैसा गंभीर, शांत और मर्मभेदी उत्सव है!
आज सूर दिन अथवा, आजु रैनि ससि बूड़॥
आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड़॥
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई। पौंढ़ी दुवौ कंत गर लाई॥
लागी कंठ आगि हिय होरी। छार भई जरि, अंग न मोरी॥
क्रोध का प्रसंग केवल वहाँ आया है जहाँ राजा रत्नसेन को अलाउद्दीन की चिट्ठी मिलती है। पर वहाँ भी रौद्ररस का विस्तृत संचार नहीं है। क्रोध का वह आवेश नहीं है जिसमें नीति और विचार का पता नहीं रह जाता। चिट्ठी पढ़ी जाने पर—
सुनि अस लिखा उठा जरि राजा। जानहु देव तड़पि घन गाजा॥
का मोहि सिंघ देखावसि आई। कहौं तौ सारदूल धरि खाई॥
तुरुक जाइ कहु मरै न धाई। होइहि इसकंदर कै नाई॥
पर इस उग्र वचन के उपरांत ही राजा अलाउद्दीन के संदेश के औचित्य अनौचित्य की मीमांसा करने लगता है—
भलेहि जौ साह भूमिपति भारी। माँग न कोउ पुरुष कै नारी॥
रस की रस्म के विचार से तो उपर्युक्त वर्णन पूरा ठहर जाता है क्योंकि इसके अनुभाव के रूप में डाँट डपट और उग्र वचन तथा संचारी के रूप में मौजूद है! यहीं तक साहित्य के आचार्यों ने आत्मावदान कथन अर्थात् अपने मुँह से अपनी बड़ाई को भी रौद्ररस का अनुभव कहा है। आगे वह भी मौजूद है—
हौं रनथँभउर नाथ हमीरू। कलपि माथ जेइ दोन्ह सरीरू॥
ह्रौं सो रतनसेन सकबंधी। राहु बेधि जीता सैरंधी॥
हुनुमत सरिस भार जेइ काँधा। राघव सरिस समुद जेइ बाँधा॥
विक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका। सिंहलद्वीप लीन्ह जौ ताका॥
जौ अस लिखा, भयहु नहि ओछा। जियत सिंघ कै गह को मोछा॥
पर यह सामग्री होते हुए भी यह कहना पड़ता है कि रौद्ररस का परिपाक जायसी में नहीं है। न तो अनुभावों और संचारियों की मात्रा ही यथेष्ट है, न स्वरूप ही पूर्ण स्फुट है। जायसी का कोमल भावपूर्ण हृदय उग्र वृत्तियों के वर्णन के उपयुक्त नहीं था।
वीररस का वर्णन अच्छा है। अलाउद्दीन के चित्तौरगढ़ घेरने पर तो केवल सेना की सजावट और तैयारी, चढ़ाई की हलचल तथा युद्ध की घमासान के वर्णन में ही कवि रह गया है, युद्धोत्साह की व्यंजना किसी व्यक्ति द्वारा नहीं कराई गई है। उत्साह की व्यंजना गोरा बादल के प्रसंग में हमें मिलती है। पद्मिनी के विलाप पर दोनों वीरों ने कैसी क्षात्रतेज से भरी प्रतिज्ञा की है—
जौ लगि जियहिं न भागहिं दोऊ। स्वामि जियत कित जोगिन होऊ॥
उए अगस्त हस्ति जब गाजा। नीर घटे घर आइहि राजा॥
बरषा गए अगस्त के दीठी। परै पलानि तुरंगन पीठी॥
बैधौं राहु छोड़ावहुँ सूरू। रहै न दुःख कर मूल अँकूरू॥
इसको कहते हैं उत्साह—आशा से भरी हुई साहस की उमंग। अगस्त के उदय होने पर, नदियों और तालों का जल जब घटने लगेगा तब बंदीगृह से छूटकर राजा अपने घर आ जायँगे। शरत्काल आते ही चढ़ाई हो जायगी।
बादल की माता जब हाथियों की रेलपेल और युद्ध की भीषणता दिखाकर उसे रोकना चाहती है, तब वह कहता है—
मातु न जानेसि बालक आदी। हौं बादला सिंघ रन बादी॥
सुनि गज जूह अधिक जिउ तपा। सिंघ जाति कहुँ रहहिं न छपा॥
तब दलगंजन गाजि सिंघेला। सौंह साह सौं जुरौं अकेला॥
को मोहिं सौंह होइ मैमंता। फारौं सूंड, उखारौं दंता॥
जुरौं स्वामि सँकरे जस ढारा। औ भिवँ जस दुरयोधन मारा॥
अंगद कोपि पाँव जस राखा। टेकौं कटक छतीसौ लाखा॥
हनुमत सरिस जंघ बल जोरौं। दहौं समुद्र, स्वामि बँदि छोरौं॥
इसी प्रकार के उत्साहपूर्ण वाक्य वृद्ध वीर गोरा के हैं जब वह केवल हजार कुँवर लेकर बादशाह की उमड़ती हुई सेना को रोकने खड़ा होता है। ऐसे वाक्यों में अपने बल का पूर्ण निश्चय और समुपस्थित कर्म की अल्पता का भाव प्रधान हुआ करता है। इस वीरदर्प को उत्साह का मुख्य अवयव समझना चाहिए। देखिए, इस उक्ति में कैसा अमर्षमिश्रित वीरदर्प है—
रतनसेन जो बाँधा, मसि गोरा के गात।
जौ लगि रुहिर न धोवौं, तब लगि होइ न रात॥
हास्य और बीभत्स—ये दो रस ऐसे हैं जिनमें आलंबन के स्वरूप से ही कवि-परंपरा काम चलाती है, आश्रय द्वारा व्यंजना की अपेक्षा नहीं रहती। वस्तुवर्णन के अंतर्गत युद्धवर्णन में डाकिनियों आदि का वीभत्स दृश्य दिया जा चुका है। जैसा कहा जा चुका है, भय के भी आलंबन का ही चित्रण कवि ने किया है। हास्यरस का तो 'पदमावत' में अभाव ही है।
अब एक विशेष बात पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करके इस भाव-व्यंजना के प्रकरण को समाप्त करता हूँ। एक स्थायी भाव दूसरे स्थायी भाव का संचारी होकर आ सकता है, यह बात तो ग्रंथों में प्रसिद्ध ही है। पर रीतिग्रंथों में जो संचारी कहे गए हैं उनमें से भी कुछ ऐसे हैं जो कभी कभी स्थायी बनकर आते हैं और दूसरे भावों को अपना संचारी बनाते हैं। जायसी का एक छोटा सा उदाहरण देते हैं। जब पद्मावती ने सुना कि उपत्नी नागमती के बगीचे में बड़ी चहल पहल है और राजा भी वहीं बैठा है तब—
सुनि पद्मावति रिस न सँभारी। सखिन्ह साथ आई फुलवारी॥
यह रिस या अमर्ष स्वतंत्र भाव नहीं है, क्योंकि पद्मावती का कोई अनिष्ट नागमती ने नहीं किया था। यह 'असूया' का संचारी होकर आया है; क्योंकि यह 'असूया' से उत्पन्न भी है और रस की दृष्टि से उससे विरुद्ध भी नही पड़ता। एक संचारी का दूसरे संचारी का स्थायी बनकर आना लक्षण ग्रंथों के अभ्यासियों को कुछ विलक्षण अवश्य लगेगा। किसी दूसरे स्थल पर हम कुछ संचारियों को विभाव, अनुभाव और संचारी तीनों से युक्त दिखाएँगे।
उक्त उदाहरण में यह नहीं कहा जा सकता कि जिस प्रकार 'असूया' रतिभाव का संचारी होकर आया है उसी प्रकार 'अमर्ष' भी। इस अमर्ष का सीधा लगाव 'असूया' से है, न कि रति से। यदि असूया न होती तो यह अमर्ष न होता। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि किसी स्थायी भाव का संचारी भी विभाव, अनुभाव और संचारी से युक्त हो तो क्या वह भी स्थायी कहा जायगा। स्थायी तो अवश्य होगा, पर ऐसा स्थायी नहीं जो रसावस्था तक पहुँचनेवाला हो। इन सब बातों का विवेचन मैं कभी अन्यत्र करूँगा, यहाँ इतना ही दिग्दर्शन बहुत है।