जायसी ग्रंथावली/भूमिका/वियोग पक्ष

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वियोग पक्ष

जायसी का विरहवर्णन कहीं कहीं अत्यंत अत्युक्तिपूर्ण होने पर भी मजाक की हद तक नहीं पहुँचने पाया है, उसमें गांभीर्य बना हुआ है। इनकी अत्युक्तियाँ बात की करामात नहीं जान पड़तीं, हृदय की अत्यंत तीव्र वेदना के शब्दसंकेत प्रतीत होती हैं। उनके अंतर्गत जिन पदार्थों का उल्लेख होता है वे हृदयस्थ ताप की अनुभूति का आभास देनेवाले होते हैं; बाहर बाहर से ताप की मात्रा नापनेवाले

मानदंड मात्र नहीं। जाड़े के दिनों में भी पड़ोसियों तक पहुँच उन्हें बेचैन करनेवाले, शरीर पर रखे हुए कमल के पत्तों को भूनकर पापड़ बना डालनेवाले, बोतल का गुलाबजल सुखा डालनेवाले ताप से कम ताप जायसी का नहीं है पर उन्होंने उसके वेदनात्मक और दृश्य अंश पर जितनी दृष्टि रखी है उतनी उसकी बाहरी नापजोख पर नहीं जो प्रायः ऊहात्मक हुआ करती है। नाप जोखवाली ऊहात्मक पद्धति का जायसी ने कुछ ही स्थानों पर प्रयोग किया है। जैसे, राजा की प्रेमपत्रिका के इस वर्णन में— [ २८ ]

आखर जरहिं, न काहू छूआ। तब दुख देखि चला लेइ सूआ॥

अथवा नागमती के विरहताप की इस व्यंजना में—

जेहि पंखी के नियर होइ, कहै बिरह कै बात।
सोई पंखी जाइ जरि, तरिवर होहिं निपात॥

इस ऊहात्मक पद्धति का दो चार जगह व्यवहार चाहे जायसी ने किया हो पर अधिकतर विरहताप के वेदनात्मक स्वरूप की अत्यंत विशद व्यंजना ही जायसी की विशेषता है। इन्होंने अत्यक्ति की है और खूब की है पर वह अधिकांश संवेदना के स्वरूप में है, परिमाणनिर्देश के रूप में नहीं है।संवेदना का यह स्वरूप उत्प्रेक्षा अलंकार द्वारा व्यक्त किया गया है। अत्युक्ति या अतिशयोक्ति और उत्प्रेक्षा में सिद्ध और साध्य का भेद होता है। उत्प्रेक्षा में अध्यवसाय साध्य (संभावना या संवेदना के रूप में) होता है और अत्युक्ति या अतिशयोक्ति में सिद्ध। 'धूप ऐसी है कि रखते रखते पानी खौल जाता है' यह वाक्य मात्रा का आधिक्य मात्र सूचित करता है। मात्रा के आधिक्य का निरूपण ऊहा द्वारा कुछ चक्कर के साथ भी हो सकता है, जैसा की बिहारी ने प्रायः किया है। पर यह पद्धति काव्य के लिये सर्वत्र उपयुक्त नहीं। लाक्षणिक प्रयोगों को लेकर कुछ कवियों ने ऊहा का जो विस्तार किया है वह अस्वाभाविक, नीरस और भद्दा हो गया है। वह 'कुल का दीपक है' इस बात को लेकर कोई कहे कि 'उसके घर तेल के खर्च की बिल्कुल बचत होती है' तो इस उक्ति में कवित्व की कुछ भी सरसता न पाई जायगी। बिहारी का 'पत्रा ही तिथि पाइए' वाला दोहा इसी प्रकार का है। अस्तु, 'धूप ऐसी है कि रखते रखते पानी खौल जाता है' यह कथन ऊहा द्वारा मात्रानिरूपण के रूप में हुआ। यही बात यदि इस प्रकार कही जाय कि 'धूप क्या है, मानों चारों ओर आग बरस रही है'। तो यह संवेदना के रूप में कहा जाना होगा। पहले कथन में ताप की मात्रा का आधिक्य व्यंग्य है, दूसरे में उस ताप से उत्पन्न हृदय की वेदना। एक में वस्तु व्यंग्य है, दूसरे में संवेदना। पहला वाक्य बाह्य वृत्त का व्यंजक है और दूसरा आभ्यंतर अनुभूति का। मतलब यह कि जायसी ने यह कम कहा है कि विरहताप इतनी मात्रा का है, यह अधिक कहा है कि ताप हृदय में ऐसा जान पड़ता है; जैसे—

(क) जानहुँ अगिनि के उठहिं पहारा। औ सब लागहि अंग अँगारा॥
(ख) जरत वजागिनि करु, पिउ छाहाँ। आई बुझाउ अँगारन्ह महा॥

लागिउँ जरै, जरै जस भारू। फिरि फिरि भूूँजेसि तजिउँ न बारू॥

'फिरि फिरि भूँजेसि तजिउँ न बारू। भाड़ की तपती बालू के बीच पड़ा हुआ अनाज का दाना जैसे बार बार भूने जाने पर उछल उछल पड़ता है पर उस बालू से बाहर नहीं जाता उसी प्रकार इस प्रेमजन्य संताप के अतिरेक से मेरा जी हट हटकर भी उस संताप के सहने की बुरी लत के कारण उसी की ओर प्रवृत्त रहता है। मतलब यह कि वियुक्त प्रिय का ध्यान आते ही चित्त ताप से विह्वल हो जाता है फिर भी वह बार बार उसी का ध्यान करता रहता है। प्रेमदशा चाहे घोर यंत्रणामय हो जाय पर हृदय उस दशा से अलग होना नहीं चाहता। यहाँ इसी विलक्षण स्थिति का चित्रण है। यहाँ हम कवि को वेदना के स्वरूपविश्लेषण [ २९ ] में प्रवृत्त पाते हैं, ताप की मात्रा नापने में नहीं। मात्रा की नाप तो बाहर बाहर से भी हो सकती है, पर प्रेमवेदना के आभ्यंतर स्वरूप की पहचान प्रेमवेदनापूर्ण हृदय में ही हो सकती है। जायसी का ऐसा ही हृदय था। विरहताप का वर्णन कवि ने अधिकतर सादृश्य-संबंध-मूलक गौणी लक्षणा द्वारा किया है।

आधिक्य या न्यूनता सूचित करने के लिये ऊहात्मक या वस्तुव्यंजनात्मक शैली का विधान कवियों में तीन प्रकार का देखा जाता है—

(१) ऊहा की आधारभूत वस्तु असत्य अर्थात् कवि-प्रौढ़ोक्ति-सिद्ध है।
(२) ऊहा की आधारभूत वस्तु का स्वरूप तो सत्य या स्वतःसंभवी है और किसी प्रकार की कल्पना नहीं की गई है।
(३) ऊहा की आधारभूत वस्तु का स्वरूप तो सत्य है पर उसके हेतु की कल्पना की गई है।

इनमें से प्रथम प्रकार के उदाहरण वे हैं जिन्हें बिहारी ने विरहताप के वर्णन में दिए हैं—जैसे, पड़ोसियों को जाड़े की रात में भी बेचैन करनेवाला, या बोतल में भरे गुलाबजल को सुखा डालनेवाला ताप। दूसरे प्रकार का उदाहरण एक स्थल पर जायसी ने बहुत अच्छा दिया है, पर वह विरहताप के वर्णन में नहीं है, काल की दीर्घता के वर्णन में है। आठ वर्ष तक अलाउद्दीन चित्तौरगढ़ घेरे रहा। इस बात को एक बार तो कवि ने साधारण इतिवृत्त के रूप में कहा, पर उससे वह गोचर प्रत्यक्षीकरण न हो सका जिसका प्रयत्न काव्य करता है। आठ वर्ष की दीर्घता के अनुमान के लिये फिर उसने यह दृश्य आधार सामने रखा—

आइ साह अमराव जो लाए। फरे, झरे पै गढ़ नहिं पाए॥

सच पूछिए तो वस्तुव्यंजनात्मक या ऊहात्मक पद्धति का इसी रूप में अवलंबन सबसे अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। इसमें अनुमान का आधार सत्य या स्वतःसंभवी है। जायसी अनुमान या ऊहा के आधार के लिये ऐसी वस्तु सामने लाए हैं जिसका स्वरूप प्राकृतिक है और जिससे सामान्यतः सब लोग परिचित होते हैं। इसी प्रकार एक गीत में एक वियोगिनी नायिका कहती है कि 'मेरा प्रिय दरवाजे पर जो नीम का पेड़ लगा गया था वह बढ़कर अब फूल रहा है, पर प्रिय न लौटा।' आधार के सत्य और प्राकृतिक स्वरूप के कारण इस उक्ति से कितना भोलापन बरस रहा है!

विरहताप की मात्रा का आधिक्य सूचित करने के लिये जहाँ कहीं जायसी ने ऊहात्मक या वस्तुव्यंजनात्मक शैली का अवलंबन किया है वहाँ अधिकतर तीसरे प्रकार का विधान ही देखने में आता है जिसमें ऊहा की आधारभूत वस्तुका स्वरूप तो सत्य और स्वतःसंभवी होता है पर उसके हेतु की कुछ और ही कल्पना की जाती है। इस प्रकार का विधान भी प्रथम प्रकार के विधान से अधिक उपयुक्त होता है। इसमें हेतूत्प्रेक्षा का सहारा लिया जाता है जिसमें 'अप्रस्तुत' वस्तुओं का गृहीत दृश्य वास्तविक होता है, केवल उसका हेतु कल्पित होता है। हेतु परोक्ष हुआ करता है इससे उसकी अतथ्यता सामने आकर प्रतीति में बाधा डालती नहीं जान पड़ती। इस युक्ति से कवि विरहताप के प्रभाव की व्यापकता को बढ़ाता बढ़ाता सृष्टि भर में दिखा देता है। एक उदाहरण काफी होगा— [ ३० ]

अस परजरा विरह कर गठा। मेघ साम भए धूम जो उठा॥
दाढ़ा राहु, केतु गा दाधा। सूरुज जरा, चाँद जरि आधा॥
औ सब नखत तराई जरहीं। टूटहिं लूक, धरति महँ परहीं॥
जरै सो धरती ठावहि ठाऊँ। दहकि पलास जरै तेहि दाऊँ॥

इन चौपाइयों में मेघों का श्याम होना, राहु केतु का काला (झुलसा सा) होना, सूर्य का तपना, चंद्रमा की कला का खंडित होना, पलाश के फूलों का लाल (दहकते अंगारे सा) होना आादि सत्य हैं। वे विरहताप के कारण ऐसे हैं, केवल यह बात कल्पित है।

ताप के अतिरिक्त विरह के और और अंगों का भी विन्यास जायसी ने इसी हृदयहारिणी और व्यापकत्व विधायिनी पद्धति पर बाह्य प्रकृति को मूल आभ्यंतर जगत् का प्रतिबिंब सा दिखाते हुए किया है। काम हेतूत्प्रेक्षा से लिया गया है। प्रेमयोगी रत्‍नसेन के विरहव्यथित हृदय का भाव हम सूर्य, चंद्र, वन के पेड़, पक्षी, पत्थर, चट्टान सबमें देखते चलते हैं—

रोवँ रोवँ वे बान जो फूटे। सूतहि सूत रुहिर मुख छूटे॥
नैनहिं चली रकत कै धारा। कंथा भीजि भएउ रतनारा॥
सूरज बूड़ि उठा होइ ताता। औ मजीठ टेसू बन राता॥
भा बसंत, राती बनसपती। औ राते सबजोगी जती॥
भूमि जो भीजि भएउ सब गेरू। औ रात तहँ पंखि पखेरू॥
राती, सती, अगिनि सब काया। गमन मेघ राते तेहि छाया॥
ईंगुर भा पहार जौ भीजा। पै तुम्हार नहिं रोवँ पसीजा॥

इसी प्रकार नागमती के आँसुओं से सारी सृष्टि भींगी हुई जान पड़ती है—

कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आँसू घुँघची बन बोई॥
जहँ जहँ ठाढ़ि होई वनवासी। तहूँ तहँ होइ घुँघचि कै रासी॥
बूँद बूँद महँ जानहुँ जीऊ। गुंजा गूँजि करै, 'पिउ पीऊ'॥
तेहि दुख भए परास निपाते। लोहू बूडि उठे होइ राते॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू। परवर पाक फाट हिय गोहूँ॥

विरहवर्णन में भक्तवर सूरदास जी ने भी गोपियों के हृदय के रंग में बाह्य प्रकृति को रँगा है। एक स्थान पर तो गोपियों ने उन उन पदार्थों को कोसा है जो उस रंग से कोरे दिखाई पड़े हैं—

मधुबन! तुम कत रहत हरे?
बिरह वियोग श्यामसुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे?
कौन काज ठाढ़े रहे बन में; काहे न उकठि परे?

नागमती का विरहवर्णन हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय वस्तु है। नागमती उपवनों के पेड़ों के नीचे रात भर रोती फिरती है। इस दशा में पशु, पक्षी, पेड़, पल्लव जो कुछ सामने जाता है उसे वह अपना दुखड़ा सुनाती है। वह पुण्यदशा धन्य है जिसमें ये सब अपने सगे लगते हैं और यह जान पड़ने लगता है कि इन्हें [ ३१ ] दुःख सुनाने से भी जी हल्का होगा। सब जीवों का शिरोमणि मनुष्य और मनुष्यों का अधीश्‍वर राजा! उसकी पटरानी, जो कभी बड़े बड़े राजाओं और सरदारों की बातों की ओर भी ध्यान न देती थी, वह पक्षियों से अपने हृदय की वेदना कह रही है, उनके सामने अपना हृदय खोल रही है। हृदय की इस उदार और व्यापक दशा का कवियों ने केवल प्रेमदशा के भीतर ही वर्णन किया है, यह बात ध्यान देने योग्य है। मारने के लिये शत्रु का पीछा करता हुआा क्रोधातुर मनुष्य पेड़ों और पक्षियों से यह पूछता हुआ कहीं नहीं कहा गया है कि 'भाई! किधर गया?' वाल्मीकि कालिदास आादि से लेकर जायसी, सूर, तुलसी आदि भाषाकवियों तक सब ने इस दशा का सन्निवेश विप्रलंभ (या कहीं कहीं करुण) में ही किया है। वाल्मीकि के राम सीताहरण होने पर वन वन पूछते फिरते हैं—

'हे कदब! तुम्हारे फूलों से अधिक प्रीति रखनेवाली मेरी प्रिया को यदि जानते हो तो बताओ। हे बिल्ववृक्ष! यदि तुमने उस पीतवस्त्रधारिणी को देखा हो तो बताओ। हे मृग! उस मृगनयनी को तुम जानते हो?'

इसी प्रकार तुलसी के राम भी वन के पशु पक्षियों से पूछते हैं—

हे खग, मृग, हे मधुकर स्रेनी। तुम देखी सीता मृगनैनी?

कालिदास का यक्ष भी चेतनाचेतन भेद इसी प्रेमदशा के ही भीतर भूला है। इससे यह सिद्ध है कि कविपरंपरा के बीच यह एक मान्य परिपाटी है कि इस प्रकार की दशा का वर्णन प्रेमदशा के भीतर ही हो।

इस संबंध में मामूली तौर पर तो इतना ही कहना काफी समझा जाता है कि 'उन्माद' की व्यंजना के लिये इस प्रकार का आाचरण दिखाया जाता है। 'उन्माद' ही सही, पर एक खास ढर्रे का है। इसका आविर्भाव प्रेमताप से पिघलकर फैले हुए हृदय में ही होता है। संबंध का मूल प्रेम है, अतः प्रेमदशा के भीतर हो मनुष्य का हृदय उस संबंध का आभास पाता है जो पशु, पक्षी, द्रुम, लता आादि के साथ अनादि काल से चला आ रहा है।

नागमती उपवनों में रोती फिरती है। उसके विलाप से घोसलों में बैठे हुए पक्षियों की नींद हराम हो गई है—

फिरि फिरि रोव, कोइ नहिं डोला। आधी रात विहंगम बोला॥
तू फिरि फिरि दाहै सब पाँखी। केहि दुख रैनि न लावसि आँखी॥

और कवियों ने पशुपक्षियों को संबोधन भर करने का उल्लेख करके बात और आगे नहीं बढ़ाई है जिससे ऊपर से देखनेवाली का ध्यान 'उन्माद' की दशा ही तक रह जाता है। पर जायसी ने जिस प्रकार मनुष्य के हृदय में पशुपक्षियों से सहानुभूति प्राप्त करने की संभावना की है, उसी प्रकार पक्षियों के हृदय में सहानुभूति के संचार की भी। उन्होंने सामान्य हृदय तत्व की सृष्टिव्यापिनी भावना द्वारा मनुष्य और पशुपक्षी सबको एक जीवनसूत्र में बद्ध देखा है। राम के प्रश्‍न का खग, मृग और मधुकर कुछ जवाब नहीं देते। राजा पुरुरवा कोकिल, हंस इत्यादि को पुकारता ही फिरता है, पर कोई सहानुभूति प्रकट करता नहीं दिखाई पड़ता (विक्रमोर्वंशीय [ ३२ ] अंक ४) पर नागमती की दशा पर एक पक्षी को दया आती है। वह उसके दुःख का कारण पूछता है। नागमती उस पक्षी से कहती है—

चारिउ चक्र उजार भए, कोई न सँदेसा टेक।
कहीं विरह दुख आपन, बैठि सुनए दँड एक॥

इसपर वह पक्षी संदेशी ले जाने को तैयार हो जाता है।

पद्मावती से कहने के लिये नागमती ने जो संदेशा कहा है वह अत्यंत मर्मस्पर्शी है। उसमें मानगर्व आादि से रहित, सुखभोग की लालसा से अलग, अत्यंत नम्र, शीतल औौर विशुद्ध प्रेम की झलक पाई जाती है—

पद्मावति सौ कहेहु, बिहंगम। कंत लोभाइ रही करि संगम॥
तोहि चैन सुख मिलै सरीरा। मो कहँ दिए दुंद दुख पूरा॥
कबहुँ बिआही सँग ओहि पीऊ। आपुहि पाइ, जानु पर जोऊ॥
मोहि भोग सौं काज न बारी। सौंह दिस्टि कै चाहनहारी॥

मनुष्य के आश्रित, मनुष्य के पाले हुए, पेड़ पौधे किस प्रकार मनुष्य के सुख से सुखी और दुःख से दुःखी दिखाई देते हैं, यह दृश्य बड़े कौशल और बड़ी सहृयदता से जायसी ने दिखाया है। नागमती की विरहदशा में उसके बाग बगीचों में उदासी बरस रही थी। पेड़ पौधे सब मुरझाए पड़े थे। उनकी सुध कौन लेता है? पर राजा रत्‍नसेन के चित्तौर लौटते ही—

पलुही नागमती कै बारी। सोने फूल फूलि फुलवारी॥
जावत पंखि रहे सब दहे। सवै पंखि बोले गहगहे॥

जब पेड़ पौधे सूख रहे थे तब पक्षी भी आश्रय न पाकर ताप से झुलस रहे थे। इस प्रकार नागमती की वियोगदशा का विस्तार केवल मनुष्य जाति तक ही नहीं, पशु पक्षियों और पेड़ पौधों तक दिखाई पड़ता था। कालिदास ने पाले हुए मृग और पौधों के प्रति शकुंतला का स्नेह दिखाकर इसी व्यापक और विशद भाव की व्यंजना की है।

विप्रलंभ शृंगार ही 'पदमावत' में प्रधान है। विरहदशा के वर्णन में जहाँ कवि ने भारतीय पद्धति का अनुसरण किया है, वहाँ कोई अरुचिकारक वीभत्स दृश्य नहीं है। कृशता, ताप, वेदना आदि के वर्णन में भी उन्होंने शृंगार के उपमुक्त वस्तु सामने रखी है, केवल उसके स्वरूप में कुछ अंतर दिखा दिया है। जो पद्मिनी स्वभावतः पद्मिनी के समान विकसित रहा करती थी वह सूखकर मुरझाई हुई लगती है—

कँवल सूख, पखुरी बेहरानी। गलि गलि कै मिलि छार हेरानी॥

इस रूप में प्रदर्शित व्यक्ति के प्रति सहानुभूति और दया का पूरा अवसर रहता है। पाठक उसकी दशा व्यंजित करनेवाली वस्तु की ओर कुछ देर दृष्टि गड़ाकर देख सकते हैं। मुरझाया फूल भी फूल ही है। अतीत सौंदर्य के स्मरण से भाव और उद्दीप्त होता है। पर उसके स्थान पर यदि चीरकर हृदय का खून, नसें और हड्डियाँ आादि दिखाई जायँ तो दया होते हुए भी इन वस्तुओं की ओर दृष्टि जमाते न बनेगा। [ ३३ ]विरहदशा के भीतर 'निरवलंबता' की अनुभूति रह रहकर विरही को होती है। देखिए, कैसा परिचित और साधारण प्राकृतिक व्यापार सामने रखकर कवि ने इस 'निरवलंबता' का गोचर प्रत्यक्षीकरण किया है—

आवा पवन बिछोह कर पात परा बेकरार।
तरिवर तजा जो चूरि कै लागै केहि के डार॥

'लागै केहि के डार' मुहावरा भी बहुत अच्छा आया है।

'पद्मावत' में यद्यपि हिंदू जीवन के परिचायक भावों की ही प्रधानता है, पर बीच बीच में फारसी साहित्य द्वारा पोषित भावों के भी छींटे कहीं कहीं मिलते हैं। विदेशीय प्रभाव के कारण वियोगदशा के वर्णन में कहीं कहीं वीभत्स चित्न सामने आ जाते हैं; जैसे 'कबाबे सीख' वाला यह भाव—

विरह सरागन्हि भूंजै माँसू। गिरि गिरि परै रकत कै आँसू॥
कटि कटि माँसु सराग पिरोवा। रकत कै आँसू माँसु सब रोवा॥
खिन एक बार माँसु अस भूँजा। खिनहिं चबाइ सिंघ अस गूँजा॥

वियोग में इस प्रकार के वीभत्स दृश्य का समावेश जायसी ने जो किया है वह तो किया ही है, संयोग के प्रसंग में भी वे एक स्थान पर ऐसा ही वीभत्स चित्न सामने लाए हैं। बादल जब अपनी नवागत वधू की ओर से दृष्टि फेर लेता है, तब वह सोचती है कि क्या मेरे कटाक्ष तो उसके हृदय को बेधकर पीठ की ओर नहीं जा निकले हैं। यदि ऐसा है तो तूँबी लगाकर मैं उसे खींच लूँ और जब वह पीड़ा से चौंककर मुझे पकड़े तो गहरे रस से उसे धो डालूँ—

मकु पिउ दिष्टि समानेउ सालू। हुलसा पीठि कढ़ावौं सालू॥
कुच तूँबी अब पीठि गड़ोवौं। गहै जो कि, गाढ़ रस धोवौं॥

कटाक्ष या नेत्रों को 'अनियारे', 'नुकीले' तक कह देना तो ठीक है, पर ऊहात्मक या वस्तुव्यंजनात्मक पद्धति पर इस कल्पना को और आगे बढ़ाकर शरीर पर सचमुच घाव आादि दिखाने लगना काव्य की सीमा के बाहर जाना है, जैसा कि एक कवि जी ने किया है—

काजर दे नहि, एरी सुहागिनि! आँगुरी तेरी कटैगी कटाछन।

यदि कटाक्ष से उँगली कटने का डर है तब तो तरकारी चीरने या फल काटने के लिये, हँसिया आदि की कोई जरूरत न होनी चाहिए। कटाक्ष मन में चुभते हैं न कि प्रत्यक्ष शरीर पर घाव करते हैं।

विरहजन्य कृशता के वर्णन में भी जायसी ने कविप्रथानुसार पूरी अत्युक्ति की है, पर उस अत्युक्ति में भी गंभीरता बनी हुई है, वह खेलवाड़ या मजाक नहीं होने पाई है। बिहारी की नायिका इतनी क्षीण हो गई है कि जब साँस खींचती है तब उसके झोंके से चार कदम पीछे हट जाती है और जब साँस निकालती है तब उसके साथ चार कदम आगे बढ़ जाती है। घड़ी के पेंडुलम की सी दशा उसकी रहती है। इसी प्रकार उर्दू के एक शायर साहब ने आशिक को जूँ या खटमल का बच्चा बना डाला— [ ३४ ]

इंतहाए लागरी से जब नजर आाया न मैं।
हँस के वो कहने लगे, बिस्तर को भाड़ा चाहिए॥

पर जायसी का यह वर्णन सुन हृदय द्रवीभूत होता है, हँसी नहीं आती—

दहि कोइला भइ कंत सनेहा। तोला माँसु रही नहिं देहा॥
रकत न रहा, बिरह तन जरा। रती रती होइ नैनन्ह ढरा॥

हाड़ भए सब किंगरी; न भई सब ताँति।
रोवँ रोवँ ते धुनि उठै, कहौं बिथा केहि भाँति॥

इसी नागमती के विरहवर्णन के अंतर्गत वह प्रसिद्ध बारहमासा है जिसमें वेदना का अत्यंत निर्मल और कोमल स्वरूप, हिंदू दांपत्य जीवन का अत्यंत मर्म-स्पर्शी माधुर्य, अपने चारों ओर की प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों के साथ विशुद्ध भारतीय हृदय की साहचर्य भावना तथा विषय के अनुसार भाषा का अत्यंत स्निग्ध, सरल, मृदुल और अकृत्रिम प्रवाह देखने योग्य है। पर इन कुछ विशेषताओं की ओर ध्यान जाने पर भी इसके सौंदर्य का बहुत कुछ हेतु अनिर्वचनीय रह जाता है। इस बारहमासे में वर्ष के बारह महीनों का वर्णन विप्रलंभ शृंगार के उद्दीपन की दृष्टि से है जिसमें आनंदप्रद वस्तुओं का दुःखप्रद होना दिखाया जाता है, जैसा कि मंडन कवि ने कहा है—

जेइ जेइ सुखद, दुखद अब तेइ तेइ कवि मंडन बिठुरत जदुपत्ती।

प्रेम में सुख और दुःख दोनों की अनुभूति की मात्रा जिस प्रकार बढ़ जाती है उसी प्रकार अनुभूति के विषयों का विस्तार भी। संयोग की अवस्था में जो प्रेम सृष्टि की सब वस्तुओं से आनंद का संग्रह करता है वही वियोग की दशा में सब वस्तुओं से दुःख का संग्रह करने लगता है। इसी दुःखद रूप में प्रत्येक मास की उन सामान्य प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों का वर्णन जायसी ने किया है जिनके साहचर्य का अनुभव मनुष्यमात्र—राजा से लेकर रंक तक—करते हैं। अतः इस बारहमासे में मुख्यतः दो बातें देखने की हैं—

(१) प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों का दिग्दर्शन।
(२) दुःख के नाना रूपों और कारणों की उद्भावना।

प्रथम के संबध में यह जान लेना चाहिए कि प्राचीन संस्कृत कवियों का सा संश्लिष्ट विशद् चित्रण उद्दीपन की दृष्टि से किए हुए ऋतुवर्णन में नहीं हुआ करता, केवल वस्तुओं और व्यापारों की अलग अलग झलक भर दिखाकर प्रेमी के हृदय की अवस्था की व्यंजना हुआ करती है। परिचित प्राकृतिक दृश्यों को साहचर्य द्वारा और कवियों की वाणी द्वारा जो मर्मस्पर्शी प्रभाव प्राप्त है उसका अनुभव उनकी ओर संकेत करने मात्र से भी सहृदयों को हो जाता है। इस प्रकार बहुत ही सुंदर संकेत—बहुत ही मनोहर झलक—इस बारहमासे में हम पाते हैं। कुछ उदाहरण लीजिए—

चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा। साजा बिरह, दुंद दल बाजा॥
धूम, साम घौरे घन धाए। सेत धजा बग पाँति देखाए॥
खड़ग बीजु चमकै चहूँ ओरा। बुंद बान बरिसहिं चहुँ ओरा॥

[ ३५ ]

बाट असूझ अथाह गँभीरी। जिउ बाउर भा फिरे भँभीरी॥
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी। मोरि नाव खेवक बिन थाकी॥
जेठ जरै जग चलै लुवारा। उठहिं बवंडर परहि अँगारा॥
उठै आगि औ आवै आँधी। नैन न सूझ, मरौ दुख बाँधी॥

अपनी भावुकता का बड़ा भारी परिचय जायसी ने इस बात में दिया है कि रानी नागमती विरहदशा में अपना रानीपन बिल्कुल भूल जाती है और अपने को केवल साधारण स्त्नी के रूप में देखती है। इसी सामान्य स्वाभाविक वृत्ति के बल पर उसके विरहवाक्य छोटे बड़े सबके हृदय को समान रूप में स्पर्श करते हैं। यदि कनकपर्यक, मखमली सेज, रत्‍नजटित अलंकार, संगमर्मर के महल, खसखाने इत्यादि की बातें होतीं तो वे जनता के एक बड़े भाग के अनुभव से कुछ दूर की होतीं। जायसी ने स्त्री जाति की या कम से कम हिंदू गृहिणी मात्र की सामान्य स्थिति के भीतर विप्रलंभ शृंगार के अत्यंत समुज्वल रूप का विकास दिखाया है। देखिए, चौमासे में स्वामी के न रहने से घर की जो दशा होती है वह किस प्रकार गृहिणी के विरह का उद्दीपन करती है—

पुष्य नक्षत सिर उपर आवा। हौं बिनु नाह; मंदिर को छावा॥

इसी प्रकार शरीर का रूपक देकर बरसात आने पर साधारण गृहस्थों की चिंता और आायोजना की झलक दिखाई गई है—

तपै लागि अब जेठ असाढ़ी। मोहि पिउ बिनु छाजनि भइ गाढ़ी॥
तन तिनउर भा, झूरौं खरी। भइ बरखा, दुख आागरि जरी॥
बंध नाहिं औ कंध न कोई। बात न आव, कहौं का रोई॥
साँठि नाँठि, जग बात को पूछा। बिनु जिउ फिरै मूँज तनु छूछा॥
भई दुहेली टेक विहूनी। थाँभ नाहिं, उठि सकै न थूनी॥
बरसै मेह चुवहिं नैनाहा। छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा॥
कोरौ कहाँ, टाट नव साजा। तुम बिनु कंत न छाजनि छाजा॥

यह आशिक माशूकों का निर्लज्ज प्रलाप नहीं है; यह हिंदू गृहिणी की विरहवाणी है। इसका सात्विक मर्यादापूर्ण माधुर्य परम मनोहर है। यद्यपि इस बारहमासे में प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की रूढ़ि के अनुसार अलग अलग झलक भर दिखाई गई है, उनका सश्लिष्ट चित्रण नहीं है; पर एक आध जगह कवि का अपना निरीक्षण भी बहुत सूक्ष्म और सुंदर है जिसका उल्लेख वस्तुवर्णन के अंतर्गत किया जायगा।

अब दुःख के नाना रूपों और कारणों की उद्भावना लीजिए। जायसी के विरहोद्‍गार अत्यंत मर्मस्पर्शी हैं। जायसी को हम विप्रलंभ शृंगार का प्रधान कवि कह सकते हैं। जो वेदना, जो कोमलता, जो सरलता और जो गंभीरता इनके वचनों में है, वह अन्यत्न दुर्लभ है। नागमती सब जीव जंतुओं, पशु पक्षियों में सहानुभूति की भावना करती हुई कहती है—

पिउ सौं कहेहु सँदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग।
सो धनि विरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग॥

[ ३६ ]इस सहानुभूति की संभावना रानी के हृदय में होती कैसे है? यह समझकर होती है कि भौंरा और कौवा दोनों उसी विरहाग्‍नि के धुएँ से काले हो गए हैं जिसमें मैं जल रही हूँ। सब दुःखभोगियों में परस्पर सहानुभूति का उदय अत्यंत स्वाभाविक है। 'संदेसड़ा' शब्द में स्वार्थ 'ड़ा' का प्रयोग भी बहुत ही उपयुक्त है। ऐसा शब्द उस दशा में मुँह से निकलता है जब हृदय प्रेम, माधुर्य, अल्पता, तुच्छता, आदि कोई भाव लिए हुए होता है। 'हे भौंरा!' 'हे काग!' से एक एक को अलग अलग संबोधन करना सूचित होता है। आवेग की दशा में यही उचित है। 'हे भौंरा औ काग' कहने में यह बात न होती।

दुःख और आह्लाद की दशा में एक बड़ा भारी भेद है। जब हृदय दुःख में मग्न रहता है तब सुखद और दुःखद दोनों प्रकार की वस्तुओं से दुःख का संग्रह करता है। पर आनंद की दशा का पोषण केवल सामान्य या आानंददायक वस्तुओं से ही होता है, दुःखप्रद वस्तुओं से नहीं। विरहदशा दुःखदशा है। इसमें कष्टदायक वस्तुएँ तो और भी कष्टदायक हो ही जाती हैं, जैसे—

(क) काँपै हिया जनावैं सीऊ। तो पै जाइ होइ सँग पीऊ॥
पहल पहल तन रूई झाँपै। हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
(ख) चाहिहु पवन झकोरै आगी। लंका दाहि लागी पलंका॥
उठै औगि औ आवे आँधी। नैन न सूझ, मरौं दुख बाँधी॥

सुखदायक वस्तुएँ भी दुःख को बढ़ाती हैं, जैसे—

कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल हौं बिरहै जारी॥
चौदह करा चाँद परगासा। जनहूँ जरै सब धरति अकासा॥
तन, मन, सेज करे अगिदाहू। सब कहें चंद भयहु मोहि राहू॥

कहीं संयोगसुख या आानंदोत्सव देखकर अपने पक्ष में उसके प्रभाव की भावना से विरह की आग और भी भड़कती है—

(क) अबहूँ निद्र नाउ एहि बारा। परब देवारी होइ संसारा॥
सखि झूमुक गावैं अँग मोरी। हौं झुरावँ, बिछुरी मोरी जोरी॥
(ख) करहिं बनसपति हिये हिलासू। मो कहँ भा जग दून उदासू॥
फागु करहि सब चाँचरि जोरी। मोहिं तन लाइ दीन्हि जस होरी॥

नागमती देखती है कि बहुतों के बिछुड़े हए प्रिय मित्र आ रहे हैं पर मेरे प्रिय नहीं आ रहे हैं। इस वैषम्य की भावना उसे और भी व्याकुल करती है। किसी वस्तु के अभाव से दुखी मनुष्य के हृदय की यह एक अत्यंत स्वाभाविक वृत्ति है। पपीहे का प्रिय पयोधर आा गया, सीप के मुँह में स्वाति की बूँद पड़ गई, पर नागमती का प्रिय न आया—

चित्रा मित्र मीन कर नावा। पपिहा पीउ पुकारत पावा॥
स्वाति बूँद चातक मुख परे। समुद सीप मोती सब भरे॥
सरवर सँवरि हंस चलि आए। सारस कुरलहि खँजन दखाए॥

[ ३७ ]

विरह का दुःख ऐसा नहीं कि चारों ओर जो वस्तुएँ दिखाई पड़ती हैं उनसे कुछ जी बहले। उनसे तो और भी अपनी दशा की ओर विरही का ध्यान जाता है, और भी उस दशा का दुःसह स्वरूप स्पष्ट होता है—चाहे वे उनकी दुःखदशा से भिन्न दशा में दिखाई पड़ें, चाहे कुछ सादृश्य लिए हुए। भिन्न भाव में दिखाई पड़नेवाली वस्तुओं के नमूने तो ऊपर के उदाहरणों में आ गए हैं। अब भिन्न भिन्न ऋतुओं की नाना वस्तुओं और व्यापारों को विरही लोग किस प्रकार सादृश्य भावना द्वारा अपनी दशा की व्यंजना का सुलभ साधन बनाया करते हैं, यह भी देखिए—

बरसे मघा झकोरि झकोरी। मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी॥
पुरवा लाग, भूमि जल पूरी। आक जवास भई तस झूरी॥



सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला। हरियर भूमि, कुसुंभी चोला॥
हिय हिंडोल अल डोलै मोरा। विरह झुलाई देइ झकझोरा॥



तन जस पियर पात भा मोरा। तेहि पर विरह देह झकझोरा॥

विरहिणी की इस सादृश्य भावना का वर्णन कविपरंपरासिद्ध है। सूरदास का 'निसि दिन बरसत नैन हमारे' यह पद प्रसिद्ध है। और कवियों ने भी ऋतु-सुलभ वस्तुओं और व्यापारों के साथ विरहिणी के तन और मन की दशा का सादृश्यवर्णन किया है। यह सादृश्यकथन अत्यंत स्वाभाविक होता है, क्योंकि इसमें उपमान ऊहा द्वारा सोचकर निकाला हुआ नहीं होता बल्कि सामने प्रस्तुत रहता है, और प्रस्तुत रहकर उपमेय की ओर ध्यान ले जाता है। वैशाख में विरहिणी एक ओर सूखते तालों की दरारों को देखती है, दूसरी ओर विदीर्ण होते हुए अपने हृदय को। बरसात में वह एक ओर तो टपकती हुई ओलती देखती है, दूसरी ओर अपने आँसुओं की धारा। एक ओर सूखे हुए 'आक जवास' को देखती है, दूसरी ओर अपने शरीर को। शिशिर में एक ओर सूखकर झड़े हुए पीले पत्तों को देखती है, दूसरी ओर अपनी पीली पड़ी देह को। अतः उक्त उपमाएँ 'दूर की सूझ' नहीं हैं। उनमें सादृश्य बहुत सोचा विचारा हुआ नहीं है, उसका उदय विरह-विह्वल अंतःकरण में बिना प्रयास हुआ है। दो उपस्थित वस्तुओं में सादृश्य की ऐसी स्वाभाविक भावना संस्कृत कवियों ने बहुत अच्छी की है। कालिदास का यह श्लोक ही लीजिए—

स पाटलायां गवि तस्थिवांसं धनुर्धरः केसरिणं ददर्श।
अधित्यकायामिव धातुमय्यां लोध्रद्रुमं सानुमतः प्रफुल्लम्॥
(रघु° २-२९)

इस बारहमासे में हृदय के वेग की व्यंजना अत्यंत स्वाभाविक रीति से होने पर भी भाव अत्यंत उत्कर्ष दशा को पहुँचे हुए दिखाए गए हैं। देखिए, अभिलाष

का यहाँ कैसा उत्कर्ष है— [ ३८ ]

रात दिवस बस यह जिउ भोरे। लगौं निहोर कंत अब तोरे॥

यह तन जारौं छार कै कहौं कि पवन उड़ाव।
मकु तेहि मारग उड़ि परै कंत धरै जहँ पाव॥