ज्ञानयोग/१४. अमरत्व

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१४. अमरत्व

( अमेरिका में दिया हुआ भाषण )

जीवात्मा के अमरत्व के सम्बन्ध में मनुष्य ने जितनी बार प्रश्न किया है, इस तत्त्व के रहस्य का उद्घाटन करने के लिये उसने जगत् में जितनी खोज की है, यह प्रश्न मनुष्य के हृदय को जितना प्रिय और उसके जितना निकट है, यह प्रश्न हमारे अस्तित्व के साथ जितना अच्छेद्य भाव से सम्बन्धित है उतना और कौनसा प्रश्न है? यह कवियों की कल्पना का विषय रहा है, साधु, महात्मा, ज्ञानी―सभी की चिन्ता का यह विषय रहा है, सिंहासन पर बैठे हुये राजाओं ने इस पर विचार किया है, पथ के भिखारियों ने भी इसका स्वप्न देखा है। श्रेष्ठतम मानवों ने इसका उत्तर पाया है, और अतिनिकृष्ट मनुष्यो ने भी इसकी आशा की है। इस विषय में लोगो का आग्रह अभी नष्ट नहीं हुआ है, और जब तक मानव प्रकृति विद्यमान है तब तक होगा भी नहीं। विभिन्न विचारक मस्तिष्को ने इसके विभिन्न उत्तर दिये है। दूसरी ओर इतिहास के प्रत्येक युग में हजारो व्यक्तियों ने इस प्रश्न को बिलकुल अनावश्यक कहकर छोड़ दिया है, फिर भी यह प्रश्न ज्यों का त्यों नवीन ही बना हुआ है। जीवन-संग्राम के शोरगुल में हम प्राय इस प्रश्न को भूल से जाते हैं, परन्तु जब अचानक कोई मर जाता है, एक ऐसा व्यक्ति जिससे हम प्रेम करते है, जो हमारे हृदय के अति निकट और अत्यन्त प्रिय है अचानक हमसे छीन लिया जाता है तब हमारे चारों का संघर्ष और शोरगुल क्षण भर [ ३०८ ]के लिये मानो रुक जाता है, सब कुछ मानो निस्तब्ध हो जाता है और हमारी आत्मा के गंभीरतम प्रदेश से वही प्राचीन प्रश्न उठता है कि इसके बाद क्या है? "देहान्त के बाद आत्मा की क्या गति होती है?" समस्त मानवीय ज्ञान अनुभवजन्य है, बिना अनुभव के हम कुछ भी नहीं जान सकते। हमारा तर्क, हमारा ज्ञान सभी कुछ सामञ्जस्य-प्राप्त अनुभवो के ऊपर―उनके साधारण भाव ( Generalisation ) के ऊपर निर्भर है। हम अपने चारो ओर क्या देखते है? सतत परिवर्तन। बीज से वृक्ष बनता है और वह फिर बीजरूप में परिणत हो जाता है। एक जीव उत्पन्न हुआ, कुछ दिन जीवित रहा, फिर मर गया, इस प्रकार मानो एक वृत्त पूरा हुआ। मनुष्य के सम्बन्ध में भी यही बात है। और तो क्या, पर्वतसमूह तक धीरे धीरे परन्तु निश्चित रूप से घिसकर चूर्ण हो रहे है। नदियाँ धीरे धीरे पर निश्चित रूप से सूखती जाती हैं, समुद्र से बादल उठते है और वर्षा करके फिर समुद्र में ही मिल जाते है। सर्वत्र ही एक एक वृत्त पूरा हो रहा है; जन्म, वृद्धि और क्षय गणित के समान ठीक एक के बाद एक आ जा रहे है। यह हमारा प्रतिदिन का अनुभव है। इस सब के अन्दर, क्षुद्रतम परमाणु से आरम्भ करके उच्चतम सिद्ध पुरुष पर्यन्त लाखो प्रकार के विभिन्न नाम-रूपयुक्त वस्तुराशि के अन्दर एवं अन्तराल में हम एक अखण्ड भाव देखते है। हम प्रति दिन ही देखते है कि वह दुर्भेद्य दीवार जो एक वस्तु को दूसरी वस्तु से पृथक् करती प्रतीत होती थी, तोड़ी जा रही है और आधुनिक विज्ञान समस्त भूतो को एक ही ऐसा पदार्थ मानने लगा है जो विभिन्न प्रकार से विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है; वह एक प्राणशक्ति ही मानो नाना रूपों में नाना प्रकार से प्रकाशित हो रही है—मानो वह सब को जोड़ने वाली एक शृंखला के समान है― [ ३०९ ]और ये सब विभिन्न रूप मानो इस शृंखला के ही एक एक अंश है, अनन्त रूपों में विस्तृत किन्तु फिर भी उसी एक शृंखला के अंश है। इसी को क्रमोन्नतिवाद कहते हैं। यह एक अत्यन्त प्राचीन धारणा है, उतनी ही प्राचीन जितना कि मानव समाज। केवल मानवीय ज्ञान की वृद्धि और उन्नति के साथ साथ वह मानो हमारी आँखो के सम्मुख अधिकाधिक उज्ज्वल रूप से प्रतीत हो रही है। एक बात और है जो प्राचीन लोगो ने विशेष रूप से समझी थी, परन्तु जो आधुनिक विचारको ने अभी ठीक ठीक नहीं समझ पाई है, और वह है क्रमसकोच। बीज का ही वृक्ष होता है, बालू के कण का नहीं। पिता ही पुत्र में परिणत होता है, मिट्टी का ढेला नहीं। अब प्रश्न यह है कि यह क्रमविकास-प्रक्रिया आरम्भ होने से पूर्व क्या अवस्था थी? बीज पहले क्या था? वह वृक्षरूप में था। भविष्य में होने वाले वृक्ष की सभी सम्भावनायें बीज में निहित हैं। छोटे बच्चे में भावी मनुष्य की समस्त शक्ति अन्तर्निहित है। सब प्रकार का भावी जीवन ही अव्यक्त भाव से उसके बीज में विद्यमान है। इसका तात्पर्य क्या है? भारतवर्ष के प्राचीन दार्शनिक इसीको क्रमसकोच कहते थे। इस प्रकार हम देखते है कि प्रत्येक क्रमविकास के पहले क्रमसकोच का होना अनिवार्य है। किसी ऐसी वस्तु का क्रमविकास नहीं हो सकता जो पूर्व से ही वर्तमान नहीं है। यहाँ पर फिर आधुनिक विज्ञान हमे सहायता देता है। गणित-शास्त्र के तर्क से आप जानते हैं कि जगत् में दृश्यमाम शक्ति का समष्टि-योग (Sum total) सदा एकसा ही रहता है। आप एक बिन्दु जड़ अथवा एक बिन्दु शक्ति को घटा या बढ़ा नहीं सकते। अतएव शून्य से कभी क्रमविकास नहीं हो सकता। तब फिर वह कहाँ से आता है? अवश्य ही इससे पूर्व के [ ३१० ]क्रमसंकोच से। बालक क्रमसकुंचित मनुष्य है और मनुष्य क्रमविकसित बालक है। क्रमसंकुचित वृक्ष ही बीज है और क्रमविकसित बीज ही वृक्ष। सभी प्रकार के जीवन की उत्पत्ति की सम्भावना उन्हीं के बीज में है। अब यह समस्या कुछ सरल हो जाती है। अब इसी तत्त्व के साथ पूर्वोक्त समुदय जीवन की अखण्डता की आलोचना करो। क्षुद्रतम जीवाणु से लेकर पूर्णतम मानव पर्यंत वस्तुतः एक ही सत्ता है—एक ही जीवन वर्तमान है। जिस प्रकार एक ही जीवन में हम शैशव, यौवन, वार्धक्य आदि विविध अवस्थायें देखते हैं उसी प्रकार शैशव अवस्था के पीछे क्या है यह देखने के लिये विपरीत दिशा में अग्रसर होकर देखो, देखते जाओ जब तक कि तुम जीवाणु तक न पहुँच जाओ। इसी प्रकार इस जीवाणु से लेकर पूर्णतम मानव पर्यंत मानो एक ही जीवन-सूत्र विराजमान है। इसी को क्रमविकास कहते हैं और यह हम पहले ही देख चुके हैं कि प्रत्येक क्रमविकास से पूर्व ही एक क्रमसंकोच रहता है। जो जीवनी शक्ति क्षुद्रतम जीवाणु से लेकर धीरे धीरे पूर्णतम मानव अथवा पृथिवी पर आविर्भूत ईश्वरावतार रूप में क्रमविकसित होती है वह सम्पूर्ण शक्ति अवश्य ही सूक्ष्म रूप से जीवाणु में अवस्थित थी। यह समस्त श्रेणी उसी एक जीवन की ही अभिव्यक्ति मात्र है, और यह समुदय व्यक्त जगत् उसी एक जीवाणु में अव्यक्त भाव से निहित था। यह समस्त जीवनी शक्ति, और तो क्या, मर्त्य लोक में अवतीर्ण ईश्वर तक इसमें अन्तर्निहित थे। अवतार श्रेणी के मानव तक इसके अन्दर निहित थे; केवल धीरे धीरे—बहुत धीरे क्रमशः उन सब की अभिव्यक्ति हुई है। जो सर्वोच्च चरम अभिव्यक्ति है वह भी अवश्य ही बीज भाव से सूक्ष्माकार में उसके अन्दर मौजूद थी—फिर ऐसा होने पर यह जो एक शक्ति से सभी श्रेणियाँ [ ३११ ]या शृंखलायें आती हैं, वह किसका क्रमसंकोच है? यह उसी सर्वव्यापिनी जगन्मयी जीवनी शक्ति का क्रमसंकोच था, और यह जो क्षुद्रतम जीवाणु नाना प्रकार के जटिल यंत्रों से युक्त उच्चतम बुद्धिशक्ति के आधाररूप मनुष्य के आकार में अभिव्यक्त हो रहा है, कौन सी वस्तु क्रमसंकुचित होकर इस जीवाणु के आकार में स्थित थी? वह सर्वव्यापी जगन्मय चैतन्य ही है—वही उस जीवाणु में क्रमसंकुचित होकर वर्तमान था। वह सम्पूर्ण पहले से ही पूर्ण भाव से वर्तमान था। वह थोड़ा थोड़ा करके बढ़ रहा था यह बात नहीं है। बढ़ने की बात को मन से एकदम निकाल दीजिये। वृद्धि कहने से ही मालूम होता है कि कोई वस्तु बाहर से आ रही है। वृद्धि मानने पर पूर्वोक्त गणित के सिद्धान्त को अर्थात् जगत् की शक्तिसमष्टि सर्वदा सर्वत्र समान है, इसे अस्वीकार करना होगा। इस जागतिक सर्वव्यापी चैतन्य की कभी वृद्धि नहीं होती, यह तो सदा ही पूर्ण भाव से विद्यमान था, केवल अभिव्यक्ति यहाँ पर हुई। विनाश का अर्थ क्या है? यह एक गिलास है। मैंने इसको भूमि पर फेंक दिया और वह चूर चूर हो गया। अब प्रश्न है कि गिलास क्या हुआ? वह केवल सूक्ष्म रूप में परिणत हो गया, बस। तो विनाश का अर्थ हुआ स्थूल की सूक्ष्म भाव में परिणति। उसके उपादानभूत परमाणु एकत्र होकर गिलास नामक कार्य में परिणत हुए थे। वे अब अपने कारण में चले गये और इसीका नाम विनाश है अर्थात् कारण में लय हो जाना। कार्य क्या है? कारण का व्यक्त भाव। अन्यथा कार्य और कारण में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है। फिर इसी गिलास की बात लीजिये। यह अपने उपादानों और अपने निर्माता की इच्छा के महयोग से बना है। ये दोनों ही उसके कारण है और उसमें वर्तमान [ ३१२ ]हैं निर्माता की इच्छाशक्ति अब उसमें किस रूप में विद्यमान है? संहतिशक्ति (Adhesion) के रूप में।

यह शक्ति न रहने पर इसका परमाणु अलग अलग हो जाता। तो कार्य क्या हुआ? वह कारण के साथ अभेद है, केवल उसने एक दूसरा रूप धारण कर लिया है। जिस समय कारण निर्दिष्ट समय के लिये अथवा निर्दिष्ट स्थान के अन्दर परिणत, घनीभूत और सीमाबद्ध भाव से रहता है उस समय वही कारण कार्य कहलाता है। इस बात को हमें ध्यान में रखना चाहिये। इसी तत्त्व को हमारी जीवनसम्बन्धी जो धारणा है उसमें प्रयुक्त करने पर हम देखते हैं कि जीवाणु से लेकर पूर्णतम मानव पर्यन्त सभी श्रेणियाँ अवश्य ही उसी विश्वव्यापिनी प्राणशक्ति के साथ अभिन्न हैं। किन्तु अमृतत्व के सम्बन्ध में जो प्रश्न था वह अभी मिटा नहीं। हमने क्या देखा? पूर्वोक्त विचार द्वारा हमने इतना ही देखा कि जगत् का कोई पदार्थ ध्वस्त नहीं होता। नूतन कुछ भी नहीं है, होगा भी नहीं। वही एक ही प्रकार की वस्तुयें पहिये के समान बार बार उपस्थित हो रही हैं। जगत् में जितनी गति है वह सभी तरंग के आकार में एक बार उठती है, फिर गिरती है। कोटि कोटि ब्रह्माण्ड सूक्ष्मतर रूप से प्रसूत हो रहे हैं—स्थूल रूप धारण कर रहे हैं। फिर लय होकर सूक्ष्म भाव धारण कर रहे हैं। फिर इसी सूक्ष्मभाव से उनका स्थूल भाव में आना—कुछ दिनों तक उसी अवस्था में रहना और फिर धीरे धीरे उसी कारण में आना। जाता क्या है? केवल रूप, आकृति। वह रूप नष्ट हो जाता है किन्तु फिर आता है। एक हिसाब से समझा जाय तो यह शरीर तक अविनाशी है। एक हिसाब से सभी शरीर [ ३१३ ]और सभी रूप नित्य हैं। मान लो कि मैं पासा खेल रहा हूँ। मान लो कि ६–५–३–४ आये। मैं और खेलने लगा। खेलते खेलते एक समय ऐसा अवश्य आयेगा जब ये ६–५–३–४ इसी क्रम से आयेंगे। और खेलो, फिर ये आयेंगे किन्तु देर में। मैं जगत् के प्रत्येक परमाणु की एक एक पासे से तुलना करता हूँ। उन्हीं को बार बार फेंका जा रहा है, और वे बार बार नाना प्रकार से गिरते हैं। आपके सम्मुख जो समस्त पदार्थ हैं वे सब परमाणुओं के एक विशिष्ट प्रकार के सन्निवेश से उत्पन्न हैं। यह गिलास, यह मेज, यह जलघट, ये सभी वस्तुयें परमाणुओं का समवायविशेष है—क्षण भर के बाद शायद यह समुदायविशेष नष्ट हो जा सकता है। किन्तु एक समय ऐसा अवश्य आयेगा जब ठीक यही समवाय आकर उपस्थित होगा—जब आप सब इसी तरह बैठे होंगे और यह जलघट अथवा अन्य वस्तुयें जो कुछ भी हैं सभी यथास्थान रहेंगी और ठीक इसी विषय की आलोचना होगी। अनन्त बार इसी प्रकार हुआ है और अनन्त बार इसी प्रकार होगा। यहाँ तक हमने स्थूल जगत् की—बाह्य वस्तुओं की आलोचना की। हमने क्या देखा? यही कि इन भौतिक पदार्थसमूहों की विभिन्न समवाय में पुनरावृत्ति अनन्त काल तक होती रहती है।

इसके साथ ही साथ और एक प्रश्न उठ खड़ा होता है—भविष्य को जानना सम्भव है या नहीं। आप लोगों ने शायद ऐसे आदमी को देखा है जो मनुष्य के अतीत व भविष्य की सारी बातें बतला देता है। यदि भविष्य किसी नियम के अधीन न हो तो किस प्रकार भविष्य के सम्बन्ध में हम कह सकते हैं? परन्तु हमने पहले ही देखा है कि भविष्य में बीती घटनाओं की ही पुनरावृत्ति होती है। जो भी हो [ ३१४ ]इससे आत्मा का कुछ बनता बिगड़ता नहीं। हिण्डोले की बात याद करो। वह लगातार घूमता रहता है। कई आदमी आते हैं और उसके एक एक पालने में बैठ जाते हैं। झूला घूमकर फिर पलट आता है। वे जब उतर गये तो दूसरा एक दल आ बैठा। क्षुद्रतम जन्तु से लेकर उच्चतम मानव तक प्रकृति का प्रत्येक रूप ही मानो ऐसे एक एक दल हैं, और प्रकृति एक बड़ा झूला है तथा प्रत्येक शरीर या रूप इस झूले के एक एक पालना जैसा है। नई आत्माओं का एक एक दल उन पर चढ़ रहा है और जब तक उनको पूर्णता प्राप्त नहीं होती तब तक अधिकाधिक उच्च पथ में उनकी गति है और अन्त में झूले से वे बाहर आती हैं किन्तु झूला निरन्तर चलता रहता है—हमेशा दूसरे लोगों को ग्रहण करने के लिए तैयार है। एवं जब तक शरीर इस चक्र के भीतर, इस झूले के भीतर अवस्थित है तब तक निश्चित रूप से तथा गणित के हिसाब से ये बातें बतला दी जा सकती हैं कि अब वह किस ओर जायगा। किन्तु आत्मा के बारे में ये सब बातें नहीं कही जासकती। अतएव प्रकृति के भूत तथा भविष्य निश्चित रूप से गणित की तरह ठीक ठीक बतलाना असम्भव नहीं है। अब हमने देखा है कि जड़ परमाणु इस समय जिस प्रकार एकीभूत (संहत) है, विशिष्ट समय पर वे फिर ठीक उसी रूप में संहत होते हैं। अनादि काल से ऐसे ही प्रवाह के रूप में जगत् की नित्यता चल रही है। किन्तु इससे तो आत्मा का अमरत्व प्रमाणित नहीं हुआ। हमने यह भी देखा है कि किसी भी शक्ति का नाश नहीं होता, किसी जड़ वस्तु को भी कभी शून्य में परिणत नहीं किया जा सकता। तब उनका क्या होता है? उनके विभिन्न परिणाम होते हैं, अन्त में जहाँ से उनकी उत्पत्ति हुई थी, वहीं वे पुनरावृत्त होते है। सरल रेखा में [ ३१५ ]कोई गति नहीं हो सकती। प्रत्येक वस्तु को ही घूम फिर कर अपने पूर्व स्थान पर लौट आना पड़ता है, क्योंकि सरल रेखा अनन्त भाव से बढ़ाने पर वृत्त में परिणत होती है। यदि ऐसा ही हुआ तो अनंत काल तक किसी आत्मा की अवनति हो ही नहीं सकती—यह किसी तरह हो ही नहीं सकता। इस जगत् में प्रत्येक वस्तु, शीघ्र हो या विलम्ब से ही हो, अपनी अपनी वर्तुलाकार गति को सम्पूर्ण कर फिर अपनी उत्पत्ति के स्थान पर पहुँचती है। तुम, मैं अथवा ये सब आत्माएँ क्या हैं? पहले क्रमसंकोच तथा क्रमविकास तत्व की आलोचना करते हुए हमने देखा है, तुम, हम, उसी विराट विश्वव्यापी चैतन्य या प्राण या मन के अंशविशेष हैं; हम उसी के संकोचस्वरूप हैं। अतएव घूमकर हम क्रमविकास की प्रक्रिया के अनुसार उस विश्वव्यापी चैतन्य में लौट जायेंगे—वह विश्वव्यापी चैतन्य ही ईश्वर है। लोग उसी विश्वव्यापी चैतन्य को प्रभु, भगवान, ईसा, बुद्ध या ब्रह्म कहते हैं—जड़वादी उसी की शक्ति के रूप में उपलब्धि करते हैं एवं अज्ञेयवादी उसी की उस अनंत अनिर्वचनीय सर्वातीत पदार्थ के रूप में धारणा करते हैं। वही वह विश्वव्यापी प्राण है, वही विश्वव्यापी चैतन्य है—वही विश्वव्यापिनी शक्ति है और हम सब उसी के अंश हैं।

किन्तु आत्मा के अमरत्व को प्रमाणित करने के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है। अभी भी अनेक संशय और आशंकायें रह गईं। किसी शक्ति का नाश नहीं है, यह बात सुनने में बड़ी अच्छी लगती है, किन्तु वास्तविक बात यह है कि हम जितनी भी शक्तियाँ देखते हैं सभी मिश्रणोत्पन्न हैं, जितने भी रूप देखते हैं सभी मिश्रण से उत्पन्न हैं। यदि आप शक्ति के सम्बन्ध में विज्ञान का मत ग्रहण कर [ ३१६ ]उसे कतिपय शक्तियों की समष्टि मात्र मानते हैं तो फिर आपका 'मैपन' कहाँ रहा? जो कुछ भी मिश्रण से उत्पन्न है वह शीघ्र अथवा विलम्ब से अपने कारणीभूत पदार्थ में लय हो जाता है। जो कुछ भी कतिपय कारणों के समवाय से उत्पन्न है उसी की मृत्यु, उसी का विनाश अवश्यम्भावी है। शीघ्र या विलम्ब से वह विश्लिष्ट हो जायगा, भग्न हो जायगा और अपने कारणीभूत पदार्थ में परिणत हो जायगा। आत्मा कोई भौतिक शक्ति अथवा चिन्ता-शक्ति नहीं है। वह चिन्ता-शक्ति का स्रष्टा है, स्वयं चिन्ता-शक्ति नहीं। वह शरीर का गठनकर्ता है किन्तु वह स्वयं शरीर नहीं है। क्यों? शरीर कभी आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि वह चैतन्यवान् नहीं है। मृत व्यक्ति अथवा कसाई की दूकान का मांसखण्ड कभी चैतन्यवान् नहीं होता। हम चैतन्य शब्द से क्या समझते हैं? प्रतिक्रिया शक्ति।

और गम्भीर भाव से इस तत्व की आलोचना कीजिये। हमारे सम्मुख यह एक जलघट है, मैं उसे देख रहा हूँ। होता क्या है? इस घट से कुछ प्रकाश-किरणें निकल कर मेरी आँख में प्रवेश करती है। वे मेरे अक्षिजाल (Retina) के ऊपर एक चित्र अंकित करती है। और यह चित्र जाकर मेरे मस्तिष्क में पहुँचता है। शरीरविज्ञानवेत्तागण जिसको अनुभवात्मक स्नायु (Sensory nerves) कहते हैं उन्हीं के द्वारा यह चित्र भीतर मस्तिष्क में ले जाया जाता है। किन्तु अभी देखने की क्रिया पूरी नहीं हुई, क्योंकि अभी तक भीतर की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। मस्तिष्क के अन्दर स्थित जो स्नायु-केंद्र है वह इसे मन के पास ले जायगा, और मन उसके ऊपर प्रतिक्रिया करेगा। इस प्रतिक्रिया के होते ही घट मेरे सम्मुख [ ३१७ ]प्रकाशित हो जायगा। एक सरल उदाहरण से यह बात भली प्रकार समझ में आ जायगी। मान लीजिये आप खूब एकाग्र होकर मेरी बात सुन रहे है और इसी समय एक मच्छर आपकी नाक पर काट रहा है, किन्तु आप मेरी बात सुनने में इतने तन्मय है कि उसका काटना आपको अनुभव नहीं होता। ऐसा क्यों? मच्छर आपके चमडे को काट रहा है; उस स्थान पर कितने ही स्नायु है, और ये स्नायु इस संवाद को मस्तिष्क के पास पहुँचा भी रही है; इसका चित्र भी मस्तिष्क में मौजूद है; किन्तु मन दूसरी ओर लगा है इसलिये वह प्रतिक्रिया नहीं करता, अतएव आप उसके काटने का अनुभव नहीं करते। हमारे सामने एक नया चित्र आया किन्तु मन ने प्रतिक्रिया नहीं की-ऐसा होने पर हम उसे अनुभव नहीं कर सकते, किन्तु प्रतिक्रिया होते ही उसका ज्ञान होगा और तभी हम देखेंगे, सुनेगे और अनुभव आदि करने में समर्थ होगे। इस प्रतिक्रिया के साथ साथ ज्ञान का प्रकाश होता है। अत- एव हमने समझ लिया कि शरीर कभी ज्ञान का प्रकाश नहीं कर सकता, कारण, हम देखते हैं कि जिस समय मनोयोग नहीं रहता उस समय हम अनुभव नहीं करते। ऐसी घटनाये सुनी गई है कि किसी किसी विशेष अवस्या में कोई कोई व्यक्ति जो भाषा उसने कभी नहीं सीखी है वह बोलने में समर्थ हुआ है। बाद में खोजने पर पता लगा है कि वह व्यक्ति कमी वचपन में ऐसी जाति में रहा है जो उस भाषा को बोलती थी, और वही संस्कार उसके मस्तिष्क में वर्तमान था। वह सब वहाँ पर सञ्चित था, बाद में किसी कारण से उसके मन में प्रतिक्रिया हुई और तभी ज्ञान आ गया और वह व्यक्ति उस भाषा को बोलने में समर्थ हुआ। इसीसे फिर सिद्ध होता है कि केवल [ ३१८ ]मन ही पर्याप्त नहीं है, मन भी किसी के हाथ में यंत्र मात्र है; उस व्यक्ति की बाल्यावस्था में उसके मन के अन्दर वह भाषा गूढ़ भाव से सञ्चित थी—किन्तु वह उसे नहीं जानता था, किन्तु बाद में एक ऐसा समय आया जब वह उसे जान सका। इससे यही प्रमाणित होता है कि मन के अतिरिक्त और भी कोई है—उस व्यक्ति के बाल्यकाल में इसी 'और कोई' ने उस शक्ति का व्यवहार नहीं किया, किन्तु जब वह बड़ा हुआ तब उसने उस शक्ति का व्यवहार किया। पहले यह शरीर, उसके मन, अर्थात् विचार का यंत्र, उसके बाद इस मन के पीछे रहने वाला वही आत्मा। आधुनिक दार्शनिक लोग चिन्ता को मस्तिष्क में स्थित परमाणुओं के विभिन्न प्रकार के परिवर्तन के साथ अभेद मानते हैं, अतएव वे ऊपर कही हुई घटनावली की व्याख्या नहीं कर पाते, इसीलिये वे साधारणतः इन सब बातों को बिल्कुल अस्वीकार कर देते हैं।

जो हो, मन के साथ मस्तिष्क का विशेष सम्बन्ध है और शरीर का विनाश होने पर वह कार्य नहीं कर सकता। आत्मा ही एक मात्र प्रकाशक है—मन उसके हाथ में यंत्र के समान है। बाहर के चक्षु आदि यंत्रों में विषय का चित्र गिरता है, और वे उसको भीतर मस्तिष्क केंद्र में ले जाते हैं—कारण, आपको यह याद रखना चाहिये कि चक्षु आदि केवल इन चित्रों को ग्रहण करनेवाले हैं; भीतर का यंत्र अर्थात् मस्तिष्क का केन्द्रसमूह ही कार्य करता है। संस्कृत भाषा में मस्तिष्क के इन सब केन्द्रों को इन्द्रिय कहते हैं—ये इन्द्रियाँ इन चित्रों को लेकर मन के पास अर्पित कर देती हैं, फिर मन इनको बुद्धि के निकट और बुद्धि उन्हें अपने सिंहासन पर बैठे हुये महा [ ३१९ ]महिमाशाली राजाओं के राजा आत्मा को प्रदान करती है। आत्मा उन्हें देख कर जो आवश्यक है वह आदेश करता है। उसके बाद मन इन्हीं मस्तिष्क केन्द्रों अर्थात् इन्द्रियों के ऊपर कार्य करता है और फिर वे स्थूल शरीर के ऊपर कार्य करती हैं। मनुष्य का आत्मा ही इन सब का वास्तविक अनुभवकर्ता, शास्ता, स्रष्टा, सब कुछ है। हमने देखा कि आत्मा शरीर भी नहीं है, मन भी नहीं। आत्मा कोई यौगिक पदार्थ (Compound) भी नहीं हो सकता। क्यों? कारण, जो कुछ भी यौगिक पदार्थ है वही हमारे दर्शन या कल्पना का विषय होता है। जिस विषय का हम दर्शन या कल्पना कुछ भी नहीं कर सकते, जिसे हम पकड़ नहीं सकते, जो न भूत है, न शक्ति, जो कार्य, कारण अथवा कार्य-कारण-सम्बन्ध कुछ भी नहीं है, वह यौगिक अथवा मिश्र नहीं हो सकता। अन्तर्जगत् पर्यन्त ही मिश्रित पदार्थ का अधिकार है—उसके बाहर और नहीं। सभी मिश्रित पदार्थ नियम के राज्य के अन्दर हैं—नियम के राज्य के बाहर वे रह ही नहीं सकते। इसको और भी स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है। यह गिलास एक योग से उत्पन्न पदार्थ है—अपने कारणों के मिलन से ही यह कार्यरूप में परिणत हुआ है। अतः इन कारणों की समष्टि रूप गिलास नामक यौगिक पदार्थ कार्य-कारण के नियम के अन्तर्गत है। इसी प्रकार जहाँ जहाँ कार्य-कारण-सम्बन्ध देखा जायगा वहाँ वहाँ यौगिक पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ेगा। इसके बाहर उसके अस्तित्व की बात कहना कोरा पागलपन है।—इनके बाहर कार्य-कारण-सम्बन्ध रह ही नहीं सकता। हम जिस जगत् के सम्बन्ध में चिन्ता अथवा कल्पना कर सकते हैं अथवा जो देख या सुन सकते हैं उसी के भीतर नियम कार्य कर सकता है। हम यह भी देखते हैं कि अपनी इन्द्रियों के द्वारा जो [ ३२० ]कुछ अनुभव या कल्पना कर पाते हैं वही हमारा जगत् है—बाह्य वस्तुओं को हम इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष कर सकते हैं और भीतर की वस्तु को हम मानस-प्रत्यक्ष अथवा कल्पना कर सकते हैं। अतएव जो कुछ हमारे शरीर के बाहर है वह इन्द्रियों के भी बाहर है और जो हमारी कल्पना के बाहर है वह हमारे मन के बाहर है और इसीलिये हमारे जगत् के बाहर है। अतएव कार्य-कारण-सम्बन्ध के बहिर्देश में स्वाधीन शास्ता आत्मा रहता है। ऐसा होने से ही वह नियमों के अन्तर्गत सभी वस्तुओं का नियमन करता है। आत्मा नियम से अतीत है, इसीलिये निश्चय ही मुक्तस्वभाव है; वह किसी प्रकार भी मिश्रणोत्पन्न पदार्थ नहीं हो सकता—अथवा किसी कारण का कार्य नहीं हो सकता। उसका कभी विनाश नहीं हो सकता, कारण विनाश का अर्थ है किसी यौगिक पदार्थ का अपने उपादानों में परिणत हो जाना। अतएव जो कभी संयोग से उत्पन्न नहीं हुआ उसका विनाश किस प्रकार होगा? उसकी मृत्यु होती है या विनाश होता है ऐसा कहना केवल एक असम्बद्ध प्रलाप है।

किन्तु यही पर इस प्रश्न का निश्चित सिद्धान्त नहीं मिला। अब हम और भी सूक्ष्मता की ओर बढ़ रहे है और आप में से कुछ लोग शायद भयभीत भी हो रहे होंगे। हमने देखा कि यह आत्मा भूत, शक्ति एव चिन्ता रूप क्षुद्र जगत् के अतीत एक मौलिक (Simple) पदार्थ है, अतः इसका विनाश असम्भव है। इसी प्रकार उसका जीवन भी असम्भव है। कारण, जिसका विनाश नहीं उसका जीवन भी कैसे हो सकता है? मृत्यु क्या है? मृत्यु एक पृष्ठ या पहलू है, और जीवन उसी का एक दूसरा पृष्ठ या पहलू है। मृत्यु का और एक नाम है [ ३२१ ]जीवन, और जीवन का और एक नाम है मृत्यु। अभिव्यक्ति के विशिष्ट रूप को हम जीवन कहते है, और उसीके अन्य रूपविशेष को मृत्यु कहते है। जब तरंग ऊपर की ओर उठती है तो मानो जीवन है और फिर जब वह गिर जाती है तो मृत्यु है। जो वस्तु मृत्यु के अतीत है वह निश्चय ही जन्म के भी अतीत है। मैं आपको फिर उसी सिद्धान्त की याद दिलाता हूँ कि मानवात्मा उसी सर्वव्यापी जगन्मयी शक्ति अथवा ईश्वर का प्रकाश मात्र है। तो हम देखते है कि वह जीवन और मृत्यु दोनों के परे है। आप न कभी उत्पन्न हुये थे, न कभी मरेगे। हमारे चारो ओर जो जन्म और मृत्यु दीखती है वह क्या है? यह तो केवल शरीर की है, कारण आत्मा तो सदा सर्वदा वर्तमान है। आप कहेगे, "यह कैसे? हम इतने लोग यहाँ पर बैठे हुए है और आप कहते है, आत्मा सर्वव्यापी है!" मैं पूछता हूँ, जो पदार्थ नियम के, कार्य-कारण-सम्बन्ध के बाहर है उसे सीमित करने की शक्ति किसमे है? यह गिलास एक सीमित पदार्थ है; यह सर्वव्यापक नहीं है, क्योकि इसके चारो ओर की जड़राशि इसको इसी रूप में रहने को बाध्य करती है, इसे सर्वव्यापी होने नहीं देती। यह अपने आस पास के प्रत्येक पदार्थ के द्वारा नियन्त्रित है, अतएव यह सीमित है। किन्तु जो वस्तु, नियम के बाहर है, जिसके ऊपर कोई पदार्थ क्रिया नहीं करता वह कैसे सीमित हो सकती है? वह सर्वव्यापक होगी ही। आप सर्वत्र विद्यमान है। फिर यह कैसे हो रहा है कि मैं जन्म लेता हूँ, मरने वाला हूँ आदि आदि। यही अज्ञान है, मन का भ्रम है। आपका न कमी जन्म हुआ था, न आप कभी मरेगे। आपका जन्म भी नहीं हुआ, न पुनर्जन्म होगा। आवागमन का क्या अर्थ है? कुछ नहीं। यह सब मूर्खता है। आप सब जगह मौजूद है। आवागमन जिसे कहते है [ ३२२ ]वह इस सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन के परिवर्तन के कारण उत्पन्न हुई एक मृगमरीचिका मात्र है। यह, बराबर चल रहा है। यह आकाश पर तैरते हुये बादल के एक टुकड़े के समान है। जैस जैसे यह चलता जाता है वैसे ही एक भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि आकाश चल रहा है। कभी कभी जब चन्द्रमा ही के ऊपर से बादल निकलते हैं तो भ्रम होता है कि चन्द्रमा ही चल रहा है। जब आप गाड़ी में बैठे रहते हैं तो मालूम होता है कि पृथ्वी चल रही है और नाव पर बैठने वाले को पानी चलता हुआ सा मालूम होता है। वास्तव में न आप जा रहे हैं, न आ रहे हैं, न आप ने जन्म लिया है, न फिर जन्म लेंगे। आप अनन्त हैं, सर्वव्यापी हैं, सभी कार्य-कारण-सम्बन्ध से अतीत, नित्य मुक्त, अज और अविनाशी। जन्म और मृत्यु का प्रश्न ही गलत है, महामूर्खतापूर्ण है। मृत्यु हो ही कैसे सकती है जब जन्म ही नहीं हुआ।

किन्तु तर्कसंगत सिद्धान्त लाभ करने के लिए हमें अभी एक पग और बढ़ाना पड़ेगा। मार्ग के बीच में रुकना नहीं है। आप दार्शनिक हैं, आपके लिये बीच में रुकना शोभा नहीं देता। तो यदि हम नियम के बाहर हैं तो निश्चय ही सर्वज्ञ भी हैं और नित्यानन्द स्वरूप भी। सभी ज्ञान हमारे अन्दर और सभी शक्ति तथा आनन्द भी हमारे अन्दर ही है। हाँ, अवश्य ही है। आप ही जगत् के सर्वव्यापक सर्वज्ञ आत्मा हैं। परन्तु इस प्रकार की सत्ता या पुरुष क्या एक से अधिक हो सकते हैं? क्या लाखों करोड़ों पुरुष सर्वव्यापक हो सकते हैं? कभी नहीं। तब फिर हम सबका क्या होगा? हम सब एक ही हैं; इस प्रकार की आत्मा एक ही है और वह एक आत्मा ही आप सब [ ३२३ ]हैं। इस तुच्छ प्रकृति के पीछे वही है, जिसे हम आत्मा कहते हैं। एक ही पुरुष है जो एकमात्र सत्ता है, सदानंद स्वरूप, सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान, जन्मरहित, मृत्युहीन। उसी की आज्ञा से आकाश विस्तृत हुआ है, उसी की आज्ञा से वायु बहती है, सूर्य चमकता है, सब जीवित रहते हैं। प्रकृति का वास्तविक रूप वही है; प्रकृति उसी सत्य स्वरूप के ऊपर प्रतिष्ठित है, इसीलिए सत्य प्रतीत होती है। वही आप की आत्मा की आत्मा है, नहीं, और भी अधिक, आप ही वह हैं, आप और वह एक ही हैं, जहाँ कहीं भी दो हैं वही भय है, वहीं ख़तरा है, वहीं द्वन्द्व है, वहीं संघर्ष है। जब सब एक ही है तो किससे घृणा, किससे संघर्ष; जब सब कुछ वही है, तो आप किससे लड़ेंगे? जीवनसमस्या की वास्तविक मीमांसा यही है। इसीसे वस्तु के स्वरूप की व्याख्या हो जाती है, यही सिद्धि या पूर्णत्व है, यही ईश्वर है। जब तक आप अनेक देखते हैं तभी तक आप अज्ञान में हैं। "इस बहुत्वपूर्ण जगत् में जो एक को देखता है, इस परिवर्तनशील जगत् में जो उस अपरिवर्तनशील को देखता है और जो उसे, अपने आत्मा के आत्मा के रूप में देखता है, अपना स्वरूप जानता है, वही मुक्त है, वही आनन्दमय है, वही लक्ष्य पर पहुँच गया है।" इसलिये समझ लो कि तुम ही वही हो, तुम ही जगत् के ईश्वर हो, 'तत्त्वमसि'। ये धारणायें कि मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ, मैं रोगी हूँ, मैं स्वस्थ हूँ, मैं बलवान् हूँ, मैं निर्बल हूँ, अथवा यह कि मैं घृणा करता हूँ, मैं प्रेम करता हूँ अथवा मेरे पास इतनी शक्ति है, यह सब भ्रम मात्र है। इसको छोड़ो। तुम्हें दुर्बल कौन बना सकता है? तुम्हें कौन भयभीत कर सकता है? जगत् में तुम्हीं तो एक मात्र सत्ता हो। तुम्हें किसका भय है? खड़े हो जाओ, मुक्त हो जाओ। समझ लो कि जो कोई विचार या शब्द तुम्हें दुर्बल [ ३२४ ]बनाता है वही एक मात्र अशुभ है। मनुष्य को दुर्बल और भयभीत बनाने वाला संसार में जो कुछ भी है वही पाप है और उसीसे बचना चाहिये। तुम्हें कौन भयभीत कर सकता है? यदि सैकड़ों सूर्य पृथ्वी पर गिर पड़ें, सैकड़ों चन्द्र चूर हो जायँ, एक के बाद एक ब्रह्माण्ड विनष्ट होते चले जायँ तो भी तुम्हारे लिये क्या है? शिला की भाँति अटल रहो; तुम अविनाशी हो। तुम आत्मा हो, तुम्हीं जगत् के ईश्वर हो। कहो "शिवोऽहं, शिवोऽहं; मैं पूर्ण सच्चिदानन्द हूँ।" और एक सिंह की भाँति पिंजड़ा तोड़ दो, अपनी शृंखालायें तोड़कर सदा के लिये मुक्त हो जाओ। तुम्हें किसका भय है, तुम्हें कौन रोक सकता है?—केवल अज्ञान और भ्रम; और कोई तुम्हें पकड़ नहीं सकता। तुम शुद्धस्वरूप हो, तुम नित्यानन्दमय हो।

यह मूर्खों का उपदेश है कि 'तुम पापी हो, अतएव एक कोने में बैठकर हाय हाय करते रहो।' यह उपदेश देना मूर्खता ही नहीं, दुष्टता भी है। तुम सभी ईश्वर हो। ईश्वर को न देखकर मनुष्य को देखते हो? अतएव यदि तुममें साहस है तो इसी विश्वास पर खड़े होकर उसी के अनुसार अपने जीवन को बनाओ। यदि कोई व्यक्ति तुम्हारा गला काटे तो उसको मना मत करना, क्योंकि तुम तो स्वयं ही अपना गला काट रहे हो। किसी गरीब का यदि कुछ उपकार करो तो उसके लिये तनिक भी अहङ्कार मत करना। कारण, वह तो तुम्हारे लिये उपासना मात्र है, उसमें अहंकार की कोई बात नहीं है। क्या तुम्हीं समस्त जगत् नहीं हो? ऐसी कौन सी वस्तु है और कहाँ है कि जो तुम नहीं हो? तुम जगत् की आत्मा हो। तुम्हीं सूर्य, चन्द्र, तारा हो। समस्त जगत् तुम्ही हो! किससे घृणा करोगे और किससे [ ३२५ ]झगडा करोगे? अतएव यह समझ लो कि तुम्हीं वह हो और इसी के अनुसार समस्त जीवन को बनाओ। जो व्यक्ति इस तत्व को जान- कर समस्त जीवन का उसी के अनुसार गठन करता है वह फिर कभी अन्धकार में मारा मारा नहीं फिरेगा।




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