ज्ञानयोग/१. संन्यासी का गीत

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ज्ञानयोग  (1950) 
द्वारा स्वामी विवेकानंद
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ज्ञानयोग

१. संन्यासी का गीत

छेड़ो संन्यासी, छेड़ो, छेड़ो वह तान मनोहर,
गाओ वह गान, जगा जो अत्युच्च हिमाद्रि-शिखर पर-
सुगंभीर अरण्य जहाँ है, पार्वत्य प्रदेश जहाँ है,
भव-पाप-ताप ज्वालामय करते न प्रदेश जहाँ है-
जो संगीत-ध्वनि-लहरी अतिशय प्रशान्त लहराती
जो भेद जगत् कोलाहल नभ-अवनी में छा जाती,
धन-लोभ, यशोलिप्सा या दुर्दान्त काम की माया
सब विधि असमर्थ हुई है छूने में जिसकी छाया,
सत्-चित्-आनन्द-त्रिवेणी करती है जिसको पावन,
जिसमें करके अवगाहन होते कृतकृत्य सुधीजन-
छेड़ो छेड़ो, हैँ छेड़ो वह तान दिव्य लोकोत्तर,
गाओ, गाओ संन्यासी, गाओ वह गायन सुन्दर-

ॐ तत् सत् ॐ


तोड़ो ज़ंजीरे जिनसे जकड़े हैं पैर तुम्हारे-
वे सोने की है तो क्या कसने में तुमको हार?

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अनुराग-घृणा-संघर्षण, उत्तम वा अधम विवेचन,
इस द्वन्द्व भाव को त्यागो, है त्याज्य उभय आलम्बन।
आदर गुलाम पाये या कोडो की मारे खाए,
वह सदा गुलाम रहेगा कालिख का तिलक लगाए;
स्वातंत्र्य किसे कहते है―वह जान नहीं है पाता
स्वाधीन सौख्य जीवन का―उसकी न समझ में आता
त्यागो संन्यासी, त्यागो तुम द्वन्द्व भाव को सत्वर,
तोड़ो श्रृंखल को तोड़ो, गाओ यह गान निरन्तर―

ॐ तत् सत् ॐ


घन अन्धकार हट जाए, मिट जाए घोर महातम,
जो मृगमरीचिका जैसा करता रहता बुद्धि-भ्रम;
मोहक भ्रामक आकर्षण अपनी है चमक दिखाता,
तम से घनतर तम में वह जीवात्मा को ले जाता।
जीवन की यह मृग-तृष्णा बढ़ती अनवरत निरन्तर,
मेटो तुम इसे सदा को पीयूष ज्ञान का पीकर।
यह तम अपनी डोरी में जीवात्मा-पशु को कसकर
खींचा करता बलपूर्वक दो जन्म-मरण-छोरों पर।
जिसने अपने को जीता, उसने जय पायी सब पर―
यह तथ्य जान फन्दे में पड़ना मत बुद्धि गवाँ कर।
बोलो सन्यासी, बोलो हे वीर्यवान बलशाली,
सानन्द गीत यह गाओ, छेड़ो यह तान निराली―

ॐ तत् सत् ॐ


"अपने अपने कर्मों का फल भोग जगत् में निश्चित"
कहते है सब, "कारण पर है सभी कार्य अवलम्बित;

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फल अशुभ अशुभ कर्मों के, शुभ कर्मों के हैं शुभ फल,
किसकी सामर्थ्य बदल दे, यह नियम अटल औ' अविचल?
इस मृत्युलोक में जो भी करता है तनु को धारण,
बन्धन उसके अंगों का होता नैसर्गिक भूषण।"
यह सच है, किन्तु परे जो गुण नाम-रूप से रहता
वह नित्य मुक्त आत्मा है, स्वच्छन्द सदैव विचरता।
'तत् त्वमसि'―वही तो तुम हो, यह ज्ञान करो हृदयांकित,
फिर क्या चिन्ता संन्यासी, सानन्द करो उद्धोषित―

ॐ तत् सत् ॐ


क्या मर्म सत्य का, इसको वे कुछ भी समझ न पाते,
सुत बन्धु पिता माता के स्वप्नो में जो मदमाते।
आत्मा अतीत नातो से, वह जन्म-मरण से विरहित,
वह लिंग-भेद से ऊपर, सुख-दुख-भावो से अविजित।
वह पिता कहाँ किसका है, किसका सुत किसकी माता?
वह शत्रु मित्र किसका है, उसका किससे क्या नाता?
जो एक, सर्वमय शाश्वत, जिसका जोड़ा न कहीं है,
जिसके अभाव में कोई सम्भव अस्तित्व नहीं है,
'तत् त्वमसि'―वही तो तुम हो, समझो हे संन्यासीवर,
अतएव उठो, गाओ तुम, गाओ यह गान निरन्तर―

ॐ तत् सत् ॐ


चिर मुक्त विज्ञ आत्मा है, वह अद्वितीय, वह अतुलित,
अक्लेद अशोष्य निरामय, वह नाम-रूप-गुण-विरहित,

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उसके आश्रय में बैठी संसार-मोहिनी माया
देखा करती है अपने मादक स्वप्नों की छाया;
साक्षी स्वरूप माया का आत्मा सदैव है सुविदित,
जीवात्मा और प्रकृति के रूपों में वही प्रकाशित;
'तत् त्वमसि' वही तो तुम हो, समझो हे संन्यासीवर,
उच्च स्वर में यह गाओ, यह तान अलापो सुन्दर―

ॐ तत् सत् ॐ


हे बन्धु, मुक्ति पाने को तुम फिरते कहाँ भटकते?
इस जग या लोकान्तर में तुम मुक्ति नहीं पा सकते;
अन्वेषण व्यर्थ तुम्हारा शास्त्रो, मन्दिर मन्दर में;
जो तुमको खींचा करती वह रज्जु तुम्हारे कर में।
दुख शोक त्याग दो सारा, तुम वीतशोक बस हो लो,
वह रज्जु हाथ से छोड़ो, बोलो संन्यासी, बोलो―

ॐ तत् सत् ॐ


दो अभय-दान सबको तुम―'हों सभी शान्तिमय सुखमय,
है प्राणिमात्र को मुझसे कुछ भी न कहीं कोई भय,
पृथ्वी पाताल गगन में मैं ही आत्मा चिर-सस्थित,
आशा भय स्वर्ग नरक को मैंने तज दिया अशंकित।'
काटो काटो काटो तुम इस विधि माया के बन्धन,
निःशंक प्राणपण से तुम गाओ गाओ यह गायन,―

ॐ तत् सत् ॐ


चिन्ता मत करो तनिक भी नश्वर शरीर की गति पर,
यह देह रहे या जाए, छोड़ो तुम इसे नियति पर;

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जब कार्य शेष है इसका है, तब जाता है तो जाए;
प्रारब्ध कर्म फिर इसको अब चाहे जहाँ बहाए;
कोई आदर से इसको मालाएँ पहनाएगा,
कोई निज घृणा जताकर पैरों से ठुकराएगा;
तुम चित्त शान्ति मत तजना, आनन्द-निरत नित रहना;
यश कहाँ, कहाँ अपयश है―इस धारा में मत बहना।
जब निन्दक और प्रशंसक, जब निन्दित और प्रशंसित,
एकात्म एक ही हैं सब, तब कौन प्रशंसित निन्दित?
यह ऐक्य-ज्ञान हृदयंगम करके हे संन्यासीवर,
निर्भय आनन्दित उर से गाओ यह गान मनोहर―

ॐ तत् सत् ॐ


करते निवास जिस उर में मद काम लोभ औ' मत्सर,
उसमे न कभी हो सकता आलोकित सत्य-प्रभाकर;
भार्यत्व कामिनी में जो देखा करता कामुक बन,
वह पूर्ण नहीं हो सकता, उसका न छूटता बन्धन;
लोलुपता है जिस नर की स्वल्पातिस्त्रल्प भी धन में,
वह मुक्त नहीं हो सकता रहता अपार बन्धन में; .
जंजीर क्रोध की जिसको रखती है सदा जकड़ कर,
वह पार नहीं कर सकता दुस्तर माया का सागर।
इन सभी वासनाओं का अतएव त्याग तुम कर दो,,
सानन्द वायुमण्डल को बस एक गूँज से भर दो―

ॐ तत् सत् ॐ


सुख हेतु न गेह बनाओ, किस घर में अमा सकोगे?
तुम हो महान्, फिर कैसे पिजँड़े के विहग बनोगे?

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आकाश अनन्त चँदोया, शय्या धरती तृण-शोभित,
रहने के लिए तुम्हारे यह विश्वगेह है निर्मित;
जैसा भोजन मिल जाए, सन्तोष उसी पर करना;
सुस्वादु स्वाद-विरहित में कुछ भी मत भेद समझना;
शुद्धात्मरूप का जिसमे सद् ज्ञानालोक चमकता,
कुछ खाद्य पेय क्या उसको अपवित्र कहीं कर सकता?
उन्मुक्त स्वतंत्र प्रवाहित तुम नदी तुल्य बन जाओ,
छेड़ो यह तान अनूठी, सानन्द गीत यह गाओ―

ॐ तत् सत् ॐ


ज्ञानी विरले, अज्ञानी कर घृणा हँसेगे तुम पर;
हे हे महान्, तुम उनको मत लखना आँख उठा कर।
स्वाधीन मुक्त तुम, जाओ, पर्यटन करो पृथ्वी पर,
अज्ञान-गर्त-पतितों का उद्धार करो तुम सन्वर;
माया-आवरण-तिमिर में जो पड़ें वेदना सहते,
तुम उन्हें उबारो जाकर, जो मोह-नदी में बहते।
विचरो जन-हित-साधन को स्वच्छन्द मुक्त तुम अविजित
दुख की पीड़ा से निर्भय, सुख-अन्चेपण से विरहित;
सुख दुख के द्वन्द्व-स्थल के तुम परे महात्मन्, जाओ;
गाओ गाओ सन्यासी, उच्चस्वर से तुम गाओ―

ॐ तत् सत् ॐ


इस विधि से छीजू दिनोंदिन, है कर्म स्वीय बल खोता;
बन्धन छुटता आत्मा का, फिर उसका जन्म न होता;

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फिर कहाँ रह गया―मैं तू, मेरा तेरा, नर ईश्वर?
मैं हूँ सब में मुझमे सब आनन्द परम लोकोत्तर।
आनन्द परम वह हो तुम आनन्द सहित अब गाओ,
हे बन्धुवर्य संन्यासी, यह तान पुनीत उठाओ―

ॐ तत् सत् ॐ