तितली/1.1

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[  ]

प्रथम खंड

1.

क्यों बेटी! मधुवा आज कितने पैसे ले आया?

नौ आने, बापू!

कुल नौ आने! और कुछ नहीं?

पांच सेर आटा भी दे गया है। कहता था, एक रुपए का इतना ही मिला।

वाह रे समय—कहकर बुड्ढा एक बार चित होकर सांस लेने लगा।

कुतूहल से लड़की ने पूछा कैसा समय बापू?

बुड्ढा चुप रहा।

यौवन के व्यंजन दिखाई देने से क्या हुआ, अब भी उसका मन दूध का धोया है। उसे लड़की कहना ही अधिक संगत होगा।

उसने फिर पूछा—कैसा समय बापू?

चिथड़ों से लिपटा हुआ लंबा-चौड़ा, अस्थि-पंजर झनझना उठा खांसकर उसने कहा —जिस भयानक अकाल का स्मरण करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, जिस पिशाच की अग्नि-क्रीड़ा में खेलती हुई तुझको मैंने पाया था, वही संवत 55 का अकाल आज के सुकाल से भी सदय था—कोमल था। तब भी आठ सेर का अन्न बिकता था। आज पांच सेर की बिक्री में भी कहीं जूं नहीं रेंगती, जैसे—सब धीरे-धीरे दम तोड़ रहे हैं। कोई अकाल कहकर चिल्लाता नहीं। ओह! मैं भल रहा हं। कितने ही मनष्य तभी से एक बार भोजन करने के अभ्यासी हो गए हैं। जाने दे, होगा कुछ बंजो! जो सामने आवे, उसे झेलना चाहिए।

बंजो, मटकी में डेढ़ पाव दूध, चार कंडों पर गरम कर रही थी। उफनाते हुए दूध को उतारकर उसने कुतूहल से पूछा—बापू! उस अकाल में तुमने मुझे पाया था! लो, दूध पीकर मुझे वह पूरी कथा सुनाओ।

बुड्ढे ने करवट बदलकर, दूध लेते हुए, बंजो की आंखों में खेलते हुए आश्चर्य को देखा। वह कुछ सोचता हुआ दूध पीने लगा।

थोड़ा-सा पीकर उसने पूछा-अरे तूने दूध अपने लिए रख लिया है?

बंजो चुप रही। बुड्ढा खड़खड़ा उठा—तू बड़ी पाजी है, रोटी किससे खाएगी रे?

सिर झुकाए हुए, बंजो ने कहा—नमक और तेल से मुझे रोटी अच्छी लगती है बापू!

बचा हुआ दूध पीकर बुड्ढा फिर कहने लगा यही समय है, देखती है न! गाएं डेढ पाव दूध देती हैं! मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन सूखी ठठरियों में से इतना दूध भी कैसे निकलता है!

मधुवा दबे पांव आकर उसी झोपड़ी के एक कोने में खड़ा हो गया। बुड्ढे ने उसकी [  ]ओर देखकर पूछा–मधुवा, आज तू क्या-क्या ले गया था?

डेढ़ सेर घुमची, एक बोझा महुआ का पत्ता और एक खांचा कंडा बाबाजी!–मधुवा ने हाथ जोड़कर कहा।

इन सबका दाम एक रुपया नौ आना ही मिला?

चार पैसे बंधू को मजूरी में दिए थे।

अभी दो सेर घुमची और होगी बापू! बहुत-सी फलियां वनबेरी के झुरमुट में हैं, झड़ जाने पर उन्हें बटोर लूंगी। बंजो ने कहा। बुड्ढा मुस्कुराया। फिर उसने कहा मधुवा! तू गायों को अच्छी तरह चराता नहीं बेटा! देख तो, धवली कितनी दुबली हो गई है!

कहां चरावें, कुछ ऊसर-परती कहीं चरने के लिए बची भी है?—मधुवा ने कहा।

बंजो अपनी भूरी लटों को हटाते हुए बोली—मधुवा गंगा में घंटों नहाता है बापू! गाएं अपने मन से चरा करती हैं! यह जब बुलाता है, तभी सब चली आती हैं।

बंजो की बात न सुनते हुए बाबाजी ने कहा-तू ठीक कहता है मधुवा! पशुओं को खाते-खाते मनुष्य, पशुओं के भोजन की जगह भी खाने लगे। ओह! कितना इनका पेट बढ़ गया है! वाह रे समय!!

मधुवा बीच ही में बोल उठा—बंजो, बनिया ने कहा है कि सरफोंका की पत्ती दे जाना, अब मैं जाता हूं।

कहकर वह झोपड़ी के बाहर चला गया।

संध्या गांव की सीमा में धीरे-धीरे आने लगी। अंधकार के साथ ही ठंड बढ़ चली। गंगा की कछार की झाड़ियों में सन्नाटा भरने लगा। नालों के करारों में चरवाहों के गति गूंज रहे थे।

बंजो दीप जलाने लगी। उस दरिद्र कुटीर के निर्मम अंधकार में दीपक की ज्योति तारा-सी चमकने लगी। बुड्ढे ने पुकारा-बंजो

आयी—कहती हुई वह बुड्ढे की खाट के पास आ बैठी और उसका सिर सहलाने लगी। कुछ ठहरकर बोली—बापू! उस अकाल का हाल न सुनाओगे?

तू सुनेगी बंजो क्या करेगी सुनकर बेटी? तू मेरी बेटी है और मैं तेरा बूढ़ा बाप! तेरे लिए इतना जान लेना बहुत है।

नहीं बापू! सुना दो मुझे वह अकाल की कहानी—बंजो ने मचलते हुए कहा।

धांय-धांय-धांय...!!!

गंगा-तट बंदूक के धड़ाके से मुखरित हो गया। बंजो कुतूहल से झोपड़ी के बाहर चली आई।

वहां एक घिरा हुआ मैदान था। कई बीघा की समतल भूमि—जिसके चारों ओर, दस लढे की चौड़ी, झाड़ियों की दीवार थी जिसमें कितने ही सिरिस, महुआ, नीम और जामुन के वृक्ष थे—जिन पर घुमची, सतावर और करंज, इत्यादि की लतरें झूल रही थीं। नीचे की भूमि में मटेस के चौड़े-चौड़े पत्तों की हरियाली थी। बीच-बीच में वनबेर ने भी अपनी कंटीली डालों को इन्हीं सबों से उलझा लिया था।

वह एक सघन झुरमुट था—जिसे बाहर से देखकर यह अनुमान करना कठिन था कि [  ]इसके भीतर इतना लंबा-चौड़ा मैदान हो सकता है।

देहात के मुक्त आकाश में अंधकार धीरे-धीरे फैल रहा था। अभी सूर्य की अस्तकालीन लालिमा आकाश के उच्च प्रदेश में स्थित पतले बादलों में गुलाबी आभा दे रही थी।

बंजो, बंदूक का शब्द सुनकर, बाहर तो आई; परंतु वह एकटक उसी गुलाबी आकाश को देखने लगी। काली रेखाओं-सी भयभीत कराकुल पक्षियों की पंक्तियां 'करररर-करी' करती हुई संध्या की उस शांत चित्रपटी के अनुराग पर कालिमा फेरने लगी थीं।

हाय राम! इन कांटों में-कहां आ फंसा!

बंजो कान लगाकर सुनने लगी।

फिर किसी ने कहा-नीचे करार की ओर उतरने में तो गिर जाने का डर है, इधर ये कांटेदार झाड़ियां! अब किधर जाऊं?

बंजो समझ गई कि शिकार खेलने वालों में से कोई इधर आ गया है। उसके हृदय में विरक्ति हुई— उंह, शिकारी पर दया दिखाने की क्या आवश्यकता? भटकने दो।

वह घूमकर उसी मैदान में बैठी हुई एक श्यामा गौ को देखने लगी। बड़ा मधुर शब्द सुन पड़ा-चौबेजी! आप कहां हैं?

अब बंजो को बाध्य होकर उधर जाना पड़ा। पहले कांटों में फंसने वाले व्यक्ति ने चिल्लाकर कहा—खड़ी रहिए; इधर नहीं ऊहूं- ऊं! उसी नीम के नीचे ठहरिए, मैं आता हूं! इधर बड़ा ऊंचा-नीचा है।

चौबेजी, यहां तो मिट्टी काटकर बड़ी अच्छी सीढ़ियां बनी हैं; मैं तो उन्हीं से ऊपर आई हूं।—रमणी के कोमल कंठ से यह सुन पड़ा।

बंजो को उसकी मिठास ने अपनी ओर आकृष्ट किया। जंगली हिरन के समान कान उठाकर वह सुनने लगी।

झाड़ियों के रौंदे जाने का शब्द हुआ फिर वही पहिला व्यक्ति बोल उठा लीजिए, मैं तो किसी तरह आ पहुंचा, अब गिरा तब गिरा, राम-राम! कैसी सांसत! सरकार से मैं कह रहा था कि मुझे न ले चलिए। मैं यहीं चूड़ा-मटर की खिचड़ी बनाऊंगा। पर आपने भी जब कहा, तब तो मुझे आना ही पड़ा। भला आप क्यों चली आईं?

इन्द्रदेव ने कहा कि सुर्खाब इधर बहुत हैं, मैं उनके मुलायम पैरों के लिए आई। सच चौबेजी, लालच में मैं चली आई। किंतु छरों से उनका मरना देखने में मुझे सुख तो न मिला। आह! कितना बेधड़क वे गंगा के किनारे टहलते थे! उन पर विनचेस्टर-रिपीटर के छरों की चोट! बिल्कुल ठीक नहीं। मैं आज ही इन्द्रदेव को शिकार खेलने से रोकूगी—आज ही।

अब किधर चला जाए?—उत्तर में किसी ने कहा।

चौबेजी ने डग बढ़ाकर कहा—मेरे पीछे-पीछे चली आइए।

किंतु मिट्टी बह जाने से मोटी जड़ नीम की उभर आई थी, उसने ऐसी करारी ठोकर लगाई कि चौबेजी मुंह के बल गिरे।

रमणी चिल्ला उठी। उस धमाके और चिल्लाहट ने बंजो को विचलित कर दिया।वह कंटीली झाड़ी को खींचकर अंधेरे में भी ठीक-ठीक उसी सीढ़ी के पास जाकर खड़ी हो गई, जिसके पास नीम का वृक्ष था।

उसने देखा कि चौबेजी बुरी तरह गिरे हैं। उनके घुटने में चोट आ गई है। वह स्वयं [ १० ] नहीं उठ सकते।

सुकुमारी सुंदरी के बूते के बाहर की यह बात थी। बंजो ने हाथ लगा दिया। चौबेजी किसी तरह कांखते हुए उठे।

अंधकार के साथ-साथ सर्दी बढ़ने लगी थी। बंजो की सहायता से सुंदरी, चौबेजी को लिवा ले चली; पर कहां? यह तो बंजो ही जानती थी।

झोपड़ी में बुड्ढा पुकार रहा था-बंजो! बंजो!! बड़ी पगली है। कहां घूम रही है? बंजो, चली आ! झुरमुट में घुसते हुए चौबेजी तो कराहते थे, पर सुंदरी उस वन-विहंगिनी की ओर आंखें गड़ाकर देख रही थी और अभ्यास के अनुसार धन्यवाद भी दे रही थी।

दूर से किसी की पुकार सुन पड़ी शैला! शैला!! . ये तीनों, झाड़ियों की दीवार पार करके, मैदान में आ गए थे।

बंजो के सहारे चौबेजी को छोड़कर शैला फिरहरी की तरह घूम पड़ी। वह नीम के नीचे खड़ी होकर कहने लगी—इसी सीढ़ी से इन्द्रदेव—बहुत ठीक सीढ़ी है। हां, संभालकर चले आओ। चौबेजी का तो घुटना ही टूट गया है! हां, ठीक है, चले आओ! कहीं-कहीं जड़ें बुरी तरह से निकल आई हैं उन्हें बचाकर आना।

नीचे से इन्द्रदेव ने कहा—सच कहना शैला क्या चौबे का घुटना टूट गया? ओहो, तो कैसे वह इतनी दूर चलेगा! नहीं-नहीं, तुम हंसी करती हो।

ऊपर आकर देख लो, नहीं भी टूट सकता है! नहीं भी टूट सकता है? वाह! यह एक ही रही। अच्छा, लो, मैं आ ही पहुंचा।

एक लंबा-सा युवक, कंधे पर बंदूक रखे, ऊपर चढ़ रहा था। शैला, नीम के नीचे खड़ी, गंगा के करारे की ओर झांक रही थी यह इन्द्रदेव को सावधान करती थी ठोकरों ठीक मार्ग से। ___ तब तक उस युवक ने हाथ बढ़ाया—दो हाथ मिले!

नीम के नीचे खड़े होकर, इन्द्रदेव ने शैला के कोमल हाथों को दबाकर कहा—करारे की मिट्टी काटकर देहातियों ने कामचलाऊ सीढ़ियां अच्छी बना ली हैं। शैला कितना सुंदर दश्य है! नीचे धीरे-धीरे गंगा बह रही है. अंधकार से मिली हई उस पार के वक्षों की श्रेणी शितिज की कोर में गाढ़ी कालिमा की बेल बना रही है, और ऊपर...

पहले चलकर चौबेजी को देख लो, फिर दृश्य देखना।—बीच ही में रोककर शैला ने कहा।

अरे हां, यह तो मैं भूल ही गया था? चलो किधर चलूं? यहां तो तुम ही पथ-प्रदर्शक हो।—कहकर इन्द्रदेव हंस पड़े।

दोनों, झोपड़ियों के भीतर घुसे। एक अपरिचित बालिका के सहारे चौबेजी को कराहते देखकर इन्द्रदेव ने कहा तो क्या सचमुच में यह मान लूं कि तुम्हारा घुटना टूट गया? मैं इस पर कभी विश्वास नहीं कर सकता। चौबे तुम्हारे घुटने 'टूटने वाली हड्डी' के बने ही नहीं!

सरकार यही तो मैं भी सोचता हुआ चलने का प्रयत्न कर रहा हूँ। परंत..आह! बड़ी पीड़ा है, मोच आ गई होगी। तो भी इस छोकरी के सहारे थोड़ी दूर चल सकूँगा। चलिए । [ ११ ] चौबेजी ने कहा।

अभी तक बंजो से किसी ने न पूछा था कि तू कौन है, कहां रहती है, या हम लोगों को कहां लिए जा रही है।

बंजो ने स्वयं ही कहा—पास ही झोपड़ी है। आप लोग वहीं तक चलिए; फिर जैसी इच्छा ।

सब बंजो के साथ मैदान के उस छोर पर जलने वाले दीपक के सम्मुख चले, जहां से "बंजो! बंजो!” कहकर कोई पुकार रहा था। बंजो ने कहा—आती हूं!

झोपड़ी के दूसरे भाग के पास पहुंचकर बंजो क्षण-भर के लिए रुकी। चौबेजी को छप्पर के नीचे पड़ी हुई एक खाट पर बैठने का संकेत करके वह घूमी ही थी कि बुड्ढे ने कहा—बंजो! कहां है रे? अकाल की कहानी और अपनी कथा न सुनेगी? मुझे नींद आ रही आ गई—कहती हुई बंजो भीतर चली गई। बगल के छप्पर के नीचे इन्द्रदेव और शैला खड़े रहे! चौबेजी खाट पर बैठे थे, किंतु कराहने की व्याकुलता दबाकर। एक लड़की के । आश्रय में आकर इन्द्रदेव भी चकित सोच रहे थे—कहीं यह बुड्ढा हम लोगों के यहां आने से चिढेगा तो नहीं।

सब चुपचाप थे। बुड्ढे ने कहा—कहां रही तू बंजो! एक आदमी को चोट लगी थी, उसी...। तो-तू क्या कर रही थी? वह चल नहीं सकता था, उसी को सहारा देकर

मरा नहीं, बच गया। गोली चलने का शिकार खेलने का आनंद नहीं मिला! अच्छा, तो तू उनका उपकार करने गई थी। पगली! यह मैं मानता हूं कि मनुष्य को कभीकभी अनिच्छा से भी कोई काम कर लेना पड़ता है; पर...नहीं...जान-बूझकर किसी उपकार-अपकार के चक्र में न पड़ना ही अच्छा है। बंजो पल-भर की भावुकता मनुष्य के जीवन को कहां-से-कहां खींच ले जाती है, तू अभी नहीं जानती। बैठ, ऐसी ही भावुकता को लेकर मुझे जो कुछ भोगना पड़ा है, वही सुनाने के लिए तो मैं तुझे खोज रहा था।

बापू... क्या है रे! बैठती क्यों नहीं? वे लोग यहां आ गए हैं...

ओहो तू बड़ी पुण्यात्मा है...तो फिर लिवा ही आई है, तो उन्हें बिठा दे छप्पर में— और दसरी जगह ही कौन है? और बंजो! अतिथि को बिठा देने से ही नहीं काम चल जाता। दो-चार टिक्कर सेंकने की भी...समझी? _नहीं-नहीं, इसकी आवश्यकता नहीं कहते हुए इन्द्रदेव बुड्ढे के सामने आ गए। बुड्ढे ने धुंधले प्रकाश में देखा-पूरा साहबी ठाट! उसने कहा—आप साहब यहां...

तुम घबराओ मत, हम लोगों को छावनी तक पहुंच जाने पर किसी बात की असुविधा न रहेगी। चौबेजी को चोट आ गई है. वह सवारी न मिलने पर रात-भर यहां पड़े रहेंगे। सवेरे देखा जाएगा। छावनी की पगडंडी पा जाने पर हम लोग स्वयं चले जाएंगे। कोई... [ १२ ]इन्द्रदेव को रोककर बूड्ढे ने कहा—आप धामपुर की छावनी पर जाना चाहते हैं? जमींदार के मेहमान हैं न? बंजो! मधुवा को बुला दे, नहीं तू ही इन लोगों को बनजरिया के बाहर उत्तर वाली पगडंडी पर पहुंचा दे। मधुवा!! ओ रे मधुवा!–चौबेजी को रहने दीजिए, कोई चिंता नहीं।

बंजो ने कहा-रहने दो बापू। मैं ही जाती हूं।

शैला ने चौबेजी से कहा-तो आप यहीं रहिए, मैं जाकर सवारी भेजती हूं।

रात को झंझट बढ़ाने की आवश्यकता नहीं, बटुए में जलपान का सामान है। कंबल भी है। मैं इसी जगह रात-भर में इसे सेंक-सांक कर ठीक कर लूगा। आप लोग जाइए।—चौबे ने कहा।

इन्द्रदेव ने पुकारा-शैला! आओ, हम लोग चलें।

शैला उसी झोपड़ी में आई। वहीं से बाहर निकलने का पथ। बंजो के पीछे दोनों झोपड़ी से निकले।

लेटे हुए बुड्ढे ने देखा—इतनी गोरी, इतनी सुंदर, लक्ष्मी-सी स्त्री इस जंगल-उजाड़ में कहां! फिर सोचने लगा—चलो, दो तो गए। यदि वे भी यहीं रहते, तो खाट-कंबल और सब सामान कहां से जुटता। अच्छा चौबेजी हैं तो ब्राह्मण उनको कुछ अड़चन न होगी; पर इन साहबी ठाट के लोगों के लिए मेरी झोपड़ी में कहां...ऊंह! गए, चलो, अच्छा हुआ। बंजो आ जाए, तो उसकी चोट तेल लगाकर सेंक दे।

बुड्ढे को फिर खांसी आने लगी। वह खांसता हुआ इधर के विचारों से छुट्टी पाने की चेष्टा करने लगा।

उधर चौबेजी गोरसी में सुलगते हुए कंडों पर हाथ गरम करके घुटना सेंक रहे थे। इतने में बंजो मधुवा के साथ लौट आई।

बापू! जो आए थे, जिन्हें मैं पहुंचाने गई थी, वही तो धामपुर के जमींदार हैं। लालटेन लेकर कई नौकर-चाकर उन्हें खोज रहे थे। पगडंडी पर ही उन लोगों से भेंट हुई। मधुवा के साथ मैं लौट आई।

एक सांस में बंजो कहने को तो कह गई, पर बुड्ढे की समझ में कुछ न आया। उसने कहा—मधुवा! उस शीशी में जो जड़ी का तेल है, उसे लगाकर ब्राह्मण का घुटना सेंक दे, उसे चोट आ गई है।

मधुवा तेल लेकर घुटना सेंकने चला।

बंजो पुआल में कंबल लेकर घुसी। कुछ पुआल और कुछ कंबल से गले तक शरीर ढक कर वह सोने का अभिनय करने लगी। पलकों पर ठंड लगने से बीच-बीच में वह आंख खोलने-मुंदने का खिलवाड़ कर रही थी। जब आंखें बंद रहतीं, तब एक गोरा-गोरा मुंहकरुणा की मिठास से भरा हुआ गोल-मटोल नन्हा-सा मुंह-उसके सामने हंसने लगता। उसमें ममता का आकर्षण था। आख खुलने पर वही पुरानी झोपड़ी की छाजन! अत्यंत विरोधी दृश्य!! दोनों ने उसके कुतूहल-पूर्ण हृदय के साथ छेड़छाड़ की, किंतु विजय हुई आंख बंद करने की। शैला के संगीत के समान सुंदर शब्द उसकी हत्तंत्री में झनझना उठे! शैला के समीप होने की—उसके हृदय में स्थान पाने की—बलवती वासना बंजो के मन में जगी। वह सोते-सोते स्वप्न देखने लगी। स्वप्न देखते-देखते शैला के साथ खेलने लगी। [ १३ ]मधुवा से तेल मलवाते हुए चौबेजी ने पूछा-क्यों जी! तुम यहां कहां रहते हो? क्या काम करते हो? क्या तुम इस बुड्ढे के यहां नौकर हो? उसके लड़के तो नहीं मालूम पड़ते?

परंतु मधुवा चुप था।

चौबेजी ने घबराकर कहा—बस करो, अब दर्द नहीं रहा। वाह-वाह!

यह तेल है या जादू! जाओ भाई, तुम भी सो रहो। नहीं-नहीं ठहरो तो, मुझे थोड़ा पानी पिला दो।

मधुवा चुपचाप उठा और पानी के लिए चला। तब चौबेजी ने धीरे-से बटुआ खोलकर मिठाई निकाली, और खाने लगे। मधुवा इतने में न जाने कब लोटे में जल रखकर चला गया था।

और बंजो सो गई थी। आज उसने नमक और तेल से अपनी रोटी भी नहीं खाई। आज पेट के बदले उसके हृदय में भूख लगी थी। शैला से मित्रता शैला से मधुर परिचय के लिए न-जाने कहां की साध उमड़ पड़ी थी। सपने-पर-सपने देख रही थी। उस स्वप्न की मिठास में उसके मुख पर प्रसन्नता की रेखा उस दरिद्र-कुटीर में नाच रही थी।