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तितली/2.4

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद

पृष्ठ ५७ से – ६३ तक

 

6.

उजली धूप बनजरिया के चारों ओर, उसके छोटे-पौधों पर, फिसल रही थी। अभी सवेरा था, शरीर में उस कोमल धूप की तीव्र अनुभूति करती हुई तितली, अपने गोभी के छोटे-से खेत के पास, सिरिस के नीचे बैठी थी। झाड़ियों पर से ओस की बूंदें गिरने-गिरने को हो रही थीं। समीर में शीतलता थी।

उसकी आंखों में विश्वास कुतूहल बना हुआ संसार का सुंदर चित्र देख रहा था। किसी ने पुकारा—तितली! उसने घूमकर देखा; शैला अपनी रेशमी साड़ी का आंचल हाथ में लिये खड़ी है।

तितली की प्रसन्नता चंचल हो उठी। वहीं खड़ी होकर उसने कहा—आओ बहन! देखो न! मेरी गोभी में फूल बैठने लगे हैं।

शैला हंसती हुई पास आकर देखने लगी। श्याम-हरित पत्रों में नन्हें-नन्हें उजले-उजले फूल! उसने कहा—वाह! लो, तुम भी इसी तरह फूलो-फलो।

अश्घिर्वाद की कृतज्ञता में सिर झुकाकर तितली ने कहा—कितना प्यार करती हो मुझे!

तुमको जो देखेगा, वही प्यार करेगा।

अच्छा-उसने अप्रतिभ होकर कहा। 

चलो, आज पाठ कब होगा? अभी तो मधुबन भी नहीं दिखाई पड़ा।

मैं आज न पढूंगी।

क्यों?

यूं ही। और भी कई काम करने हैं।

शैला ने कहा—अच्छा, मैं भी आज न पढूंगी—बाबाजी से मिलकर चली जाऊंगी।

रामनाथ अभी उपासना करके अपने आसन पर बैठे थे। शैला उनके पास चटाई पर जाकर बैठ गई। रामनाथ ने पूछा—आज पाठ न होगा क्या? मधुबन भी नहीं दिखाई पड़ रहा है, तितली भी नहीं!

आज यूं ही मुझे कुछ बताइए।

पूछो।

हम लोगों के यहां जीवन को युद्ध मानते हैं, इसमें कितनी सच्चाई है। इसके विरुद्ध भारत में उदासीनता और त्याग का महत्त्व है?

यह ठीक है कि तुम्हारे देश के लोगों ने जीवन को नहीं, किंतु स्थल और आकाश को भी लड़ने का क्षेत्र बना दिया है। जीवन को युद्ध मान लेने का यह अनिवार्य फल है। जहां स्वार्थ के अस्तित्व के लिए युद्ध होगा वहां तो यह होना ही चाहिए।

किंतु युद्ध का जीवन में कुछ भाग तो अवश्य ही है। भारतीय जनता में भी उसका अभाव नहीं।

पर यह दूसरे प्रकार का है। उसमें अपनी आत्मा के शत्रु आसुर भावों से युद्ध की शिक्षा है। प्राचीन ऋषियों ने बतलाया है कि भीतर जो काम का और जीवन का युद्ध चलता है, उसमें जीवन को विजयी बनाओ।

किंतु, मैं तो ऐसा समझती हूं कि आपके वेदांत में जो जगत् को मिथ्या और भ्रम मान लेने का सिद्धांत है, वही यहां के मनुष्यों को उदासीन बनाता है? संसार को असत्य समझने वाला मनुष्य कैसे किसी काम को विश्वासपूर्वक कर सकता है।

मैं कहता हूं कि वह वेदांत पिछले काल का साम्प्रदायिक वेदांत है, जो तर्कों के आधार पर अन्य दार्शनिक को परास्त करने के लिए बना। सच्चा वेदांत व्यावहारिक है। वह जीवन-समुद्र आत्मा को उसकी सम्पूर्ण विभूतियों के साथ समझता है। भारतीय आत्मवाद के मूल में व्यक्तिवाद है; किंतु उसका रहस्य है समाजवाद की रूढ़ियों से व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना। और, व्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है व्यक्ति समता की प्रतिष्ठा, जिसमें समझौता अनिवार्य है। युद्ध का परिणाम मृत्यु है। जीवन से युद्ध का क्या सम्बंध, युद्ध तो विच्छेद है और जीवन में शुद्ध सहयोग है।

अच्छा, तो मैं मान लेती हूं परंतु...

सुनो, तुम्हारे ईसा के जीवन में और उनकी मृत्यु में इसी भारतीय संदेश की क्षीण प्रतिध्वनि है।

आपने ईसा की जीवनी भी पड़ी है?

क्यों नहीं! किंतु तुम लोगों के इतिहास में तो उसका कोई सूक्ष्म निदर्शन नहीं मिलता, जिसके लिए ईसा ने प्राण दिये थे। आज सब लोग यही कहते हैं कि ईसाई-धर्म सेमेटिक है, किंतु तुम जानती हो कि यह सेमेटिक धर्म क्यों सेमेटिक जाति के द्वारा अस्वीकृत हुआ? नहीं। वास्तव में यह विदेशी था, उनके लिए, वह आर्य-संदेश था। और कभी इस पर भी विचार किया है तुमने कि वह क्यों आर्य-जाति की शाखा में फूला-फला? वह धर्म उसी जाति के आर्य-संस्कारों के साथ विकसित हुआ; क्योंकि तुम लोगों के जीवन में ग्रीस और रोम की आर्य-संत्कृति का प्रभाव सोलह आने था ही, उसी का यह परिवर्तित रूप संसार की आंखों में चकाचौंध उत्पन्न कर रहा है। किंतु व्यक्तिगत पवित्रता को अधिक महत्त्व देने वाला वेदांत, आत्मशुद्धि का प्रचारक है। इसीलिए इसमें संघबद्ध प्रार्थनाओं की प्रधानता नहीं।

तो जीवन की अतृप्ति पर विजय पाना ही भारतीय जीवन का उद्देश्य है न? फिर अपने लिए...

अपने लिए? अपने लिए क्यों नहीं। सब कुछ आत्मलाभ के लिए ही तो धर्म का आचरण है। उदास होकर इस भाव को ग्रहण करने से तो सारा जीवन भार हो जाएगा। इसके साथ प्रसन्नता और आनन्दपूर्ण उत्साह चाहिए। और तब जीवन युद्ध न होकर समझौता, संधि या मेल बन जाता है। जहां परस्पर सहायता और सेवा की कल्पना होती है झगड़ा-लड़ाई, नोच-खसोट नहीं।

शैला ने मन—ही-मन कहा—यही तो। उसका मुंह प्रसन्नता से चमकने लगा। फिर उसने कहा—आज मैं बहुत ही कृतज्ञ हुई; मेरी इच्छा है कि आप मुझे अपने धर्म के अनुसार दीक्षा दीजिए।

क्षण-भर सोच लेने के बाद रामनाथ ने पूछा—क्या अभी और विचार करने के लिए तुमको अवसर नहीं चाहिए? दीक्षा तो मैं...

नहीं, अब मुझे कुछ सोचना-विचारना नहीं। मकर-संक्रांति किस दिन है। उसी दिन से मेरा अस्पताल खुलेगा। मैं समझती हूं कि उसके पहले ही मुझे...

अब कितने दिन हैं? यही कोई एक सप्ताह तो और होगा। अच्छा उसी दिन प्रभात में तुम्हारी दीक्षा होगी। तब तक और इस पर विचार कर लो।

बाबा रामनाथ धार्मिक जनता के उस विभाग के प्रतिनिधि थे जो संसार के महत्त्वपूर्ण कर्मों पर अपनी ही सत्ता, अपना ही दायित्वपूर्ण अधिकार मानती है; और संसार को अपना आभारी समझती है। उनका दृढ़ विश्वास था कि विश्व के अंधकार में आर्यो ने अपनी ज्ञान-ज्वाला प्रज्वलित की थी। वह अपनी सफलता पर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न थे।

मेरा निश्चय हो चुका। अच्छा तो आज मुझे छुट्टी दीजिए। अभी नीलवलिा कोठी पर जाना होगा। मधुबन तो कई दिन से रात को भी वहीं रहता है। वह घर क्यों नहीं जाता। आप पूछिएगा।—शैला ने कहा।

आज पूछ लूंगा—कहकर आसन से उठते हुए रामनाथ ने पुकारा—तितली!

आई...

तितली ने आकर देखा कि रामनाथ आसन से उठ गए हैं और शैला बनजरिया से बाहर जाने के लिए हरियाली की पगडंडी पर चली आई है। उसने कहा-बहन तुम जाती हो क्या?

हां, तुमसे तो कहा ही नहीं। शेरकोट को बेदखल कराने का विचार माताजी ने मेरे कहने से छोड़ दिया है। मेरा सामान आ गया, मैं नील कोठी में रहने लगी हूं। वहीं मेरा अस्पताल खुल जाएगा।...क्यों, इधर मधुबन से तुमसे भेंट नहीं हुई क्या?

तितली लज्जित-सी सिर नीचा किए बोली—नहीं, आज कई दिनों से भेंट नहीं हुई।—उसके हृदय में धड़कन होने लगी।

ठीक है, कोठी में काम की बड़ी जल्दी है। इसी से आजकल छुट्टी न मिलती होगी—अच्छा तो तितली, आज मैं मधुबन को तुम्हारे पास भेज दूंगी।—कहकर शैला मुस्कुराई।

नहीं-नहीं, आप क्या कर रही हैं। मैंने सुना है कि वह घर भी नहीं जाते। उन्हें...

क्यों? यह तो मैं भी जानती हूं।—फिर चिंतित होकर शैला ने कहा—क्या राजकुमारी का कोई संदेश आया था?

नहीं।—अभी तितली और कुछ कहना ही चाहती थी कि सामने से मधुबन आता दिखाई पड़ा। उसकी भवें तनी थीं। मुंह रूखा हो रहा था। शैला ने पूछा—क्यों मधुबन, आज-कल तुम घर क्यों नहीं जाते?

जाऊंगा!—विरक्त होकर उसने कहा।

कब?

कई दिन का पाठ पिछड़ गया है। रोटी खाने के समय से जाऊंगा।

अच्छी बात है! देखो, भूलना मत!—कहती हुई शैला चली गई; और अब सामने खड़ी रही तितली। उसके मन में कितनी बातें उठ रही थीं, किंतु जब से उसके ब्याह की बात चल पड़ी थी, वह लज्जा का अधिक अनुभव करने लगी थी। पहले तो वह मधुबन को झिड़क देती थी, रामनाथ से मधुबन के संबंध में कुछ उलटी-सीधी भी कहती पर न जाने अब वैसा साहस उसमें क्यों नहीं आता। वह जोर करके बिगडना चाहती थी, पर जैसे अधरों के कोनों में हंसी फूट उठती! बड़े धैर्य से उसने कहा—आजकल तुमको रूठना कब से आ गया है।

मधुबन की इच्छा हुई कि वह हंसकर कह दे कि—जब से तुमसे ब्याह होने की बात चल पड़ी है;—पर वैसा न कहकर उसने कहा—हम लोग भला रूठना क्या जानें, यह तो तुम्हीं लोगों की विद्या है।

तो क्या मैं तुमसे रूठ रही हूं?—चिढ़े हुए स्वर में तितली ने कहा।

आज न सही, दो दिन में रूठोगी। उस दिन रक्षा पाने के लिए आज से ही परिश्रम कर रहा हूं! नहीं तो सुख की रोटी किसे नहीं अच्छी लगती?

तितली इस सहज हंसी से भी झल्ला उठी। उसने कहा—नहीं-नहीं, मेरे लिए किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं।

तब तो प्राण बचे। अच्छा, पहले बताओ कि शेरकोट से कोई आया था? रामदीन की नानी; वही आकर कह गई होगी। उसकी टांगें तोड़नी ही पड़ेगी।

अरे राम! उस बेचारी ने क्या किया है!

मधुबन और कुछ कहने जा रहा था कि रामनाथ ने उसे दूर से ही पुकारा—मधुबन!

दोनों ने घूमकर देखा कि बनजरिया के भीतर इंद्रदेव अपने घोड़े को पकड़े हुए धीरे-धीरे आ रहे हैं! तितली संकुचित होती हुई झोंपड़ी की ओर जाने लगी और मधुबन ने नमस्कार किया।

किंतु एक दृष्टि में इंद्रदेव ने उस सरल ग्रामीण सौंदर्य को देखा। उन्हें कुतूहल हुआ। उस दिन बनजरिया के साथ तितली का नाम उनकी कचहरी में प्रतिध्वनित हो गया था। वह यह है? उन्होंने मधुबन के नमस्कार का उत्तर देते हुए तितली से पूछा-मिस शैला अभी—अभी यहां आई थीं?

हां, अभी ही नील-कोठी की ओर गई हैं!—तितली ने घूमकर मधुर स्वर से कहा। वह खड़ी हो गई।

इंद्रदेव ने समीप आते हए रामनाथ को देखकर नमस्कार किया। रामनाथ इसके पहले से ही आशीर्वाद देने के लिए हाथ उठा चुके थे? इंद्रदेव ने हंसकर पूछा—आपकी पाठशाला तो चल रही है?

श्रीमानों की कृपा पर उसका जीवन है। मैं दरिद्र ब्राह्मण भला क्या कर सकता हूं। छोटे-छोटे लड़के संध्या में पढ़ने आते हैं।

अच्छा, मैं इस पर फिर कभी विचार करूंगा। अभी तो नील-कोठी जा रहा हूं। प्रणाम!

इंद्रदेव अपने घोड़े पर सवार होकर चले गए।

रामनाथ, मधुबन और तितली वहीं खड़े रहे।

रामनाथ ने पूछा—मधुबन, तुम आजकल कैसे हो रहे हो?

मधुबन ने सिर झुका लिया।

रामनाथ ने कहा—मधुबन! कुछ ही दिनों में एक नई घटना होने वाली है। वह अच्छी होगी या बुरी, नहीं कह सकता। किंतु उसके लिए हम सबको प्रस्तुत रहना चाहिए।

क्या?—मधुबन ने सशंक होकर पूछा।

शैला को मैं हिंदू-धर्म की दीक्षा दूंगा।—स्थिर भाव से रामनाथ ने कहा। मधुबन ने उद्विग्न होकर कहा—तो इसमें क्या कुछ अनिष्ट की संभावना है?

विधाता का जैसा विधान होगा, वही होगा। किंतु ब्राह्मण का जो कर्तव्य है, वह करूंगा।

तो मेरे लिए क्या आज्ञा है? मैं तो सब तरह प्रस्तुत हूं।

हूं और उसी दिन तुम्हारा ब्याह भी होगा!

उसी दिन!—वह लज्जित होकर कह उठा। तितली चली गई।

क्यों, इसमें तुम्हें आश्चर्य किस बात का है? राजकुमारी की स्वीकृति मुझे मिल ही जाएगी, इसकी मुझे पक्की आशा है।

जैसा आप कहिए।—उसने विनम्र होकर उत्तर दिया। किंतु मन-ही-मन बहुत-सी बातें सोचने लगा—तितली को लेकर घर-बार करना होगा। और भी क्या-क्या...

रामनाथ ने बाधा देकर कहा—आज पाठ न होगा। तुम कई दिन से घर नहीं गए हो, जाओ!

वह भी छुट्टी चाहता ही था। मन में नई-नई आशाएं, उमंग और लड़कपन के-से प्रसन्न विचार खेलने लगे। वह शेरकोट की ओर चल पड़ा।

रामनाथ स्थिर दृष्टि से आकाश की ओर देखने लगा। उसके मुंह पर स्फूर्ति थी; पर साथ में चिंता भी थी अपने शुभ संकल्पों की—और उसमें बाधा पड़ने की संभावना थी। फिर वह क्षण-भर के लिए अपनी विजय निश्चित समझते हुए मुस्कुरा उठे। बनजरिया की हरियाली में वह टहलने लगे।

उनके मन में इस समय हलचल हो रही थी कि ब्याह किस रीति से किया जाए। बारात तो आवेगी नहीं। मधुबन यह चाहेगा तो? पर मैं व्यर्थ का उपद्रव बढ़ाना नहीं चाहता। तो भी उसके और तितली के लिए कपड़े तो चाहिए ही; और मंगल-सूचक कोई आभरण तितली के लिए! अरे, मैंने अभी तक किया क्या?

वह अपनी असावधानी पर झल्लाते हुए झोंपड़ी के भीतर कुछ ढूंढने चले। किंतु पीछे फिरकर देखते हैं, तो राजकुमारी रामदीन की नानी के साथ खड़ी है। उन्होंने कहा—आओ, तुम्हारी प्रतीक्षा में था। बैठो।

राजकुमारी ने बैठते हुए कहा—मैं आज एक काम से आई हूं।

मैं अभी-अभी तुम्हारे आने की बात सोच रहा था; क्योंकि अब कितने दिन रह गए हैं?

नहीं बाबाजी! ब्याह तो नहीं होगा।—उसने साहस से कह दिया।

क्यों? नहीं क्यों होगा?—रामनाथ ने आश्चर्य से पूछा।

ऐसे निठल्ले से तितली का ब्याह करके उस लड़की को क्या भाड़ में झोंकना है। आज कई दिनों से वह घर भी नहीं आता। मैं मर-कुट कर गृहस्थी का काम चलाती हूं। बाबाजी, इतने दिनों से आपने भी मुझे इसी गांव में देखा-सुना है। मैं अपने दुःख के दिन किस तरह काट रही हूं।—कहते-कहते राजकुमारी की आंखों में औसू भर आए।

रामनाथ हतबुद्धि-से उस स्त्री का अभिनय देखने लगे, जो आज तक अपनी चरित्र-दृढ़ता की यश-पताका गांव-भर में ऊंची किए हुए थी!

राजकुमारी का, दारिद्र में रहते हुए भी, कुलीनता का अनुशासन सब लोग जानते थे। किंतु सहसा आज यह कैसा परिवर्तन!

रामनाथ ने पूरे बल से इस लीला का प्रत्याख्यान करने का मन में संकल्प कर लिया। बोले—सुनो राजो, ब्याह तो होगा ही। जब बात चल चुकी है, तो उसे करना ही होगा। इसमें मैं किसी की बात नहीं सुनूंगा, तम्हारी भी नहीं। क्या तम्हारे ऊपर मेरा कुछ अधिकार नहीं है? बेटी, आज ऐसी बात! ना, सो नहीं, ब्याह तो होगा ही।

राजकुमारी तिलमिला उठी थी। उसने क्रोध से जलकर कहा—कैसे होगा? आप नहीं जानते हैं कि जमींदार के घर के लोगों की आख उस पर है।

इसका क्या अर्थ है राजकुमारी? समझाकर कहो; यह पहेली कैसी?

पहेली नहीं बाबाजी, कुंवर इंद्रदेव से तितली का ब्याह होगा। और मैं कहती हूं कि मैं करा दूंगी।

रामनाथ के सिर के बाल खड़े हो गए। यह क्या कह रही हो तुम? तितली से इंद्रदेव का ब्याह? असंभव है!

असंभव नहीं, मैं कहती हूं न! आप ही सोच लीजिए। तितली कितनी सुखी होगी!

पल-भर के लिए रामनाथ ने भूल की थी। वह एक सुख-स्वप्न था। उन्होंने संभलकर कहा—मैं तो मधुबन से ही उसका ब्याह निश्चित कर चुका हूं।

तब दोनों को ही गांव छोड़ना पड़ेगा। और आप तो दो दिन के लिए अपने बल पर जो चाहे कर लेंगे; फिर तो आप जानते हैं कि बनजरिया और शेरकोट दोनों ही निकल जाएंगे और.....

रामनाथ चुप होकर विचारने लगे। फिर सहसा उत्तेजित-से बड़बड़ा उठे—तुम भूल करती हो राजो! तितली को मधुबन के साथ परदेश जाना पड़े, यह भी मैं सह लूंगा; पर उसका ब्याह दूसरे से होने पर वह बचेगी नहीं।

राजकुमारी ने अब रूप बदला। बहुत तीखे स्वर से बोली-तो आप मधुबन का सर्वनाश करना चाहते हैं! कीजिए; मैं स्त्री हूं क्या कर सकूंगी। वह आंखों में औसू भरे उठ गई।

रामनाथ भी काठ की तरह चुपचाप बैठे नहीं रहे। वह अपनी पोटली टटोलने के लिए झोंपड़ी में चले गए।

जब रामनाथ झोंपड़ी में से कुछ हाथ में लिये बाहर निकले तो मधुबन दिखाई पड़ा। उसका मुंह क्रोध से तमतमा रहा था। कुछ कहना चाहता था; पर जैसे कहने की शक्ति छिन गई हो! रामनाथ ने पूछा—क्या घर नहीं गए?

गया था।

फिर तुरंत ही चले क्यों आए?

वहां क्या करता? देखिए, इधर मैं घर की कोई बात आपसे कहना चाहता था, परंतु डर से कह नहीं सका। राजो..वह कहते-कहते रुक गया।

कहो, कहो। चुप क्यों हो गए?

मैं जब घर पहुंचा, तो मुझे मालूम हुआ कि वह चौबे आज मेरे घर आया था। उससे बातें करके राजो कहीं चली गई है। बाबाजी...

ओह, तो तुम नहीं जानते। वह तो यहीं आई थी। अभी घर भी तो न पहुंची होगी। यहां आई थी!

हां, कहने आई थी कि तितली का ब्याह मधुबन से न होकर जमींदार इंद्रदेव से होना अच्छा होगा।

यहां तक। मैंने तो समझा था कि...

पर तुम क्यों इस पर इतना क्रोध और आश्चर्य प्रकट करो! ब्याह तो होगा ही!

मैं वह बात नहीं कह रहा था। मुझे तो तहसीलदार ही की नस ठीक करने की इच्छा थी। अब देखता हूं कि इस चौबे को भी किसी दिन पाठ पढ़ाना होगा। वह लफंगा किस साहस पर मेरे घर पर आया था! आप कहते हैं क्या! मैं तो उसका खून भी पी जाऊंगा।

रामनाथ ने उसके बढ़ते हुए क्रोध को शांत करने की इच्छा से कहा—सुनो मधुबन! राजो फिर भी तो स्त्री है। उसे तुम्हारी भलाई का लोभ किसी ने दिया होगा। वह बेचारी उसी विचार से....

नहीं बाबाजी। इसमें कुछ और भी रहस्य है। वह चाहे मैं अभी नहीं समझ सका हूं..।—कहते-कहते मधुबन सिर नीचा करके गंभीर चिंता में निमग्न हो गया।

अंत में रामनाथ ने दृढ़ स्वर से कहा—पर तुमको तो आज ही शहर जाना होगा। यह लो रुपये सब वस्तुएं इसी सूची के अनुसार आ जानी चाहिए।

मधुबन ने हताश होकर रामनाथ की ओर देखा; फिर वह वृद्ध अविचल था।

मधुबन को शहर जाना पड़ा।

दूर से तितली सब सुनकर भी जैसे कुछ नहीं सुनना चाहती थी। उसे अपने ऊपर क्रोध आ रहा था। वह क्यों ऐसी विडंबना में पड़ गई! उसको लेकर इतनी हलचल! वह लाज में गड़ी जा रही थी।