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तुलसी चौरा

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तुलसी चौरा  (1988) 
ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

कानपुर: साहित्य सदन, पृष्ठ आवरण से – दो-शब्द तक

 

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पहचान में अखिल सार्वभौमिक मानवता से
जुड़ती है।

इस उपन्यास की कथाभूमि शंकर
मंगलम् जैसे तमिलनाडु के छोटे से गाँव
की है पर इसके पात्र ऐसे हैं जो गांव को
ही नहीं विश्व को प्रभावित करते हैं।
दुनिया के लिए केवल इस बात का
महत्व है कि इस सुन्दर दक्षिण भारतीय
गांव में विश्वेश्वर शर्मा के घर तुलसी चौरे
पर दीया लगातार प्रज्ज्वलित होता रहेगा
पर गांव के लिए केवल यह महत्वपूर्ण है
कि दीये को प्रज्ज्वलित करने वाले हाथ
किसके हैं। पूर्ण ज्ञानी और इच्छा द्वेष से
रहित बुद्धिजीवी विश्व को रंग, वर्ग, जाति,
भाषा खेमों में नहीं बांटते। उनकी सम
दृष्टि यदि सभी को मिल जाए तो विश्व
में शांति की प्रतिष्ठा में देर नहीं। यदि
इस उपन्यास के माध्यम से लोगों में यह
समदृष्टि पैदा हो सके तो यह उपन्यास की
सफलता होगी।

ना० पार्थ सारथी
 


मूल्य : पचास रुपया
 
तुलसी चौरा













साहित्य सदन
 
कानपुर―208001
 

राजा सर अण्णामलै चेट्टियार साहित्य पुरस्कार से पुरस्कृत

 

तुलसी चौरा
तमिल के बहुचर्चित उपन्यास 'तुलसी माडम' का हिन्दी रूपान्तर


मूल लेखक : ना॰ पार्थसारथी
हिन्दी रूपान्तरकार : डॉ॰ सुमित अय्यर
 
पुस्तक का नाम : तुलसी चौरा (अनूदित उपन्यास)
मूल लेखक : ना॰ पार्थसारथी
रूपान्तरकार : डा॰ सुमति अय्यर
प्रकाशक : साहित्य सदन
54/27, नया गंज, कानपुर-208001
मुद्रक : भार्गव प्रेस, 1-ए, बाई का बाग,
इलाहाबाद।
प्रकाशन वर्ष : 1988
मूल्य : 50/- (पचास रुपये)

TULSI CHAURA (Novel): N. Parthasarthi : Sahitya Sadan, Kanpur-1

Price : 50/-






दो शब्द
 

समय मेरे लिए शाश्वत न सही पर उसके प्रति आस्थावान मैं हमेशा रही हूँ। अपने काम और समय के विस्तार के बीच संगति बरकरार रखने की कोशिश करती रही हूँ। इसी विश्वास और आस्था के बल पर कभी-कभी काम समय की प्रतीक्षा के लिए सरकाली भी रहती हूँ! ‘तुलसी माडम’ के अनुवाद की योजना पिछले वर्ष से दिमाग में रही, और इसी प्रतीक्षा के लिए स्थगित होती रही। पर ना॰ पार्थसारथी को इस वर्ष के प्रारम्भ में हुई असामयिक एवं आकस्मिक निधन से मेरे इस विश्वास को गहरा आघात पहुँचा है। एक मोह भंग, एवं एक नयी समझ भी पैदा हुई, वह यह कि समय नश्वर है। मनुष्य का कार्य असीमित हैं। मेरे मित्र सतीश जायसवाल ने एक जगह लिखा है, “मनुष्य के संदर्भ में समय की अनश्वरता अमुक मनुष्य के जीवन काल तक ही सीमित होती है।”

सच है, अगर यह बोध पहले ही होता तो यह पुस्तक उनके जीवन काल में प्रकाशित हो चुकी होती। इस महोभंग से उपजे बोध का ही परिणाम है, यह पुस्तक। इसे मैं उनकी पुत्री के विवाह पर भेंट के रूप में उसके मेंहदी लगें हाथों में सौंप रही हूँ। ना॰ पा॰ तमिल साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। साहित्य अकादमी, राजा सर अण्णामलै चेट्टियार साहिंत्य पुरस्कार से पुरस्कृत, तथा ‘पोन विलंगु’ ‘समुदाय वीथि’ ‘नील नयनंगल’ जैसे सशक्त उपन्यासों के रचयिता का व्यक्तित्व इतना सहज और सरल था कि पहली ही भेंट में उनकी निश्छल आत्मीयता मुझे गहरे छू गयी। पहली ही भेंट में अपनी कई किताबें मुझे भेंट कर ढाली थीं, इस छूट के साथ कि मैं उनकी किसी भी कृति का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र हूँ।

‘तुलसी माडम’ उनकी पसंद थी राजा सर अण्णामलै चेट्टियार पुरस्कार से पुरस्कृत इस उपन्यास की कथा भूमि ने मुझे भी प्रभावित किया था। सांस्कृतिक आदान-प्रदान की यह प्रक्रिया विपरीत देश/ काल/भाषा। संस्कृति के लोगों को कितना समीप ला सकती है, इस उपन्यास के पात्रों के माध्यम से बखूबी ना॰ पा॰ ने कहा है। धर्म का आधार बाह्याडेबर ही नहीं होता। होता है, तो इसके भीतर निहित मानवीय संबेदन शीलता। इसे महसूस करने के लिए भाषा, धर्म, प्रांत का सहारा नहीं लेना पड़ता। ‘तुलसी चौरा’ इसी सोच की परिणति है।

ना॰ पा॰ का वह दबंग ब्यक्तित्व, समझौता न करने की जिद्द, स्वतंत्र पत्रकारिता करते हुए भी सैद्धांतिक मूल्यों को बरकरार रखने की ताकत, ‘दीपम’ के माध्यम से नयी प्रतिमाओं को मंच देने का महत्वपूर्ण दायित्व―कितनी बातें इस वक्त याद आ रही हैं। अच्छा लेखन उन्हें प्रभावित करता था। नये से नये लेखक को वे पढ़ते, और मुझे लिखते। कई बार पुस्तकें भी भिजवाते। तमिल साहित्य का अच्छे से अच्छा लेखन मैं पढ़ूँ हिन्दी में उसका अनुवाद कर हिन्दी पाठकों के सामने उन्हें रखूँ―यह उनकी कोशिश रही। उनकी यह विशेषता थी कि―पारस्परिक वैचारिक मतभेदों को वे लेखन के मूल्यांकन के बीच नहीं लाते थे। अपने कटु से कटु आलोचकों की रचनाओं को भी वे पढ़ते, और उनकी उन्मुक्त कंठ से तारीफ भी करते। कई बार
अपने साहित्यिक अमित्रों की रचनाओं का अनुवाद मुझसे करवाते। आज के महत्वाकांक्षी आत्म केंद्रित लेखकों में यह गुण शेष होता जा रहा है। आज ‘आरम उन्नयन’ का दौर है, पर ना॰ पा॰ उस दौर के थे, जब हमारी सुबह ‘सर्वे भवन्तु सुखिःन’ से शुरू होती थी और रात ‘मा कश्चिद् दुख भाग भवेत्’ से खत्म होती थी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता, निष्ठा, पर उनकी आस्था रही। उनकी कलम की निष्ठा भी इसलिए बरकरार रही। उस निष्ठावान कलम को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई, कामना करती हूँ कि सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति उनकी आस्था के एक अंश को ही सही मैं ग्रहण कर सकूँ।

जून, 1988
—सुमति अय्यर
 

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।