सामग्री पर जाएँ

दीवान-ए-ग़ालिब/३ जुज़ क़ैस और कोई न आया, ब रू-ए-कार

विकिस्रोत से
दीवान-ए-ग़ालिब
द्वारा मिर्जा ग़ालिब, अनुवादक अली सरदार जाफ़री

जुज़ क़ैस और कोई न आया, ब रू-ए-कार
सह‍्‍रा, मगर, ब तँगि-ए-चश्म-ए-हुसूद था
आशुफ़्तगी ने नक़्श-ए-सुवैदा किया दुरुस्त
ज़ाहिर हुआ, कि दाग़ का सरमायः दूद था
था ख़्वाब में, ख़याल को तुझसे मु'आमलः
जब आँख खुल गई, न ज़ियाँ था न सूद था
लेता हूँ मक्तब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हनोज़
लेकिन यही कि, रफ़्त गया, और बूंद था

ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-'अुयूब-ए-बरह्‍नगी
मैं, वर्नः हर लिबास में नँग-ए-वुजूद था
तेशे बिग़ैर मर न सका कोहकन, असद
सर‍्गश्तः-ए-ख़ुमार-ए-रुसूम-ओ-क़ुयूद था