दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/उन्नीसवां परिच्छेद

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उन्नीसवां परिच्छेद।

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खड़ग प्रहार।

विमला को देखकर जगतसिंह ने पूछा कौन कोलाहल करता है?'

बिमला ने कहा, 'पठानों ने दुर्ग ले लिया शीघ्र उपाय कीजिये, एक पल में शत्रु आप के सिर पर आ जायेंगे।

जगतसिंह ने कुछ चिन्ता कर के कहा 'बीरेन्द्रसिंह क्या करते हैं?'

बिमला बोली, 'वे तो पकड़ गए'

तिलोत्तमा चिल्लाने लगी और मुर्छित हो पलंग पर गिर पड़ी।

जगतसिंह ने मुंह सुखाकर कहा, देखो २ तिलोत्तमा को देखो।'

बिमला ने झट 'गुलाबपास' उठा लिया और तिलोतमा के मुख पर, कण्ठ पर और शिर पर भली भांति छिड़का और पंखा झलने लगी?

शत्रु और समीप आगये और बिमला रोने लगी और बोली 'देखो' यह आगये। राजपुत्र अब क्या होगा?'

जगतसिंह की आंखैं लाल होगई और आग बरसने लगी। हा! क्या हमको इस समय अन्तः पुर में स्त्रियों के साथही मरना था।

बिमला का भी मन मटक गया, राजपुत्र से कहने लगी [ ७७ ] 'अब क्या होगा युवराज? क्या यहां तिलोत्तमा के साथ मरना होगा?' और फिर रोने लगी।

राजपुत्र भी मनमें बहुत पिड़ित हुए और बोले 'मैं तिलोत्तमा को इस दशा में छोड़ कर कहां जाऊं? मैं भी तेरी सखी के संग प्राणत्याग करूंगा।

इसी समय एक भारी शब्द हुआ और अस्त्र की झनकार भी कान में पड़ी बिमला चिल्लाने लगी।

'हा तिलोत्तमा! हा! तेरी क्या दशा हुइ? अब तुझको कैसे बचाऊं?'

तिलोत्तमा ने आंखें खोली, बिमला कहने लगी 'तिलोत्तमा को चेत हुआ। राजकुमार! ए राजकुमार? इससमय तिलोत्तमा को बचाओ।

राजकुमार ने कहा 'इस घर में रहकर कौन रक्षा कर सकता है। यह सम्भव होता तो मैं तिलोत्तमा को बाहर निकाल ले जाता। परन्तु तिलोत्तमा तो चल भी नही सकती। देखो बिमला, पठान सीढ़ी पर चढ़े आते हैं। पहिले मैं बलि होता हूं किन्तु तब भी तुम्हारी रक्षा नहीं होती।'

बिमला ने तुरन्त तिलोत्तमा को गोद में ले लिया और बोली, 'चलिये मैं तिलोत्तमा को ले चलूंगी।'

दोनों कमरे के बाहर आए।

जगतसिंह ने कहा 'हमारे पीछे चली आओ

पठानों ने 'माल' देख वाह वाह पुकारा और यम के दूतों की भांति कूदने लगे। राजपुत्र ने तरवार म्यान से निकाल ली और हन के एक के सिर पर मारी कि पार होगई इतने में एक पठान ने राजपुत्र के गर्दन पर जड़ी, पर ओछी लगी। उसका हाथ पकड़ युवराज ने एक ऐसी दी कि वह [ ७८ ] लम्बा हो गया। शेष दो पठान जो थे उनने तीक कर जगतसिंह के मस्तक पर एक तरवार मारी परन्तु राजपूत ने जो लपक कर एक ऐसी कमर में हनी कि एक तो दो टुक हो गया दूसरे को तरवार कन्धे में लगी। रुधिर देख कर बीर को दूना रोष हुआ, जब तक पठान उबाता था जगतसिंह ने दोनों हाथों से कृपाण पकड़ ऐसे धड़ाके से मारा कि शरीर के आरपार होगई। पर लिखा है कि "मरतिहु बार कटक संहारा।' शक्ति के प्रभाव में राजकुमार भी गिर पड़े और मृतक के कमर की छुरी पेट में धंस गई, पर उसका कुछ ध्यान न कर राजकुमार ने एक और तलवार उसके सिर में मारी, इतने में बहुत से सिपाही अल्ला अल्ला करते आन पहुंचे राजपुत्र ने देखा कि अब लड़ना केवल प्राण देना है। शरीर से रुधिर बह रहा था और कुछ सुस्ती भी आगई थी।

तिलोत्तमा को अभीतक चेत नही हुआ था, विमला उसको गोदी में लिये इधर उधर कूदती थी और उसके भी वस्त्र में रुधिर लगाथा।

राजकुमार उसके उपर भार देकर स्वास लेरहे थे कि एक पठान ने कहा "अरे कायर! अस्त्र छोड़ेगा कि नहीं? तेरा प्राण लूंगा।"

अप्रतिष्ठित शब्द सुन कर युवराज को और रोष हुआ ओर कूद कर उसके ऊपर चढ़ बैठे और तरवार उठाय कर बोले, "दुष्ट? देख राजपूत ऐसे प्राण त्याग करते हैं।"

राजपूत्र ने जब देखा कि अकेला युद्ध करना उचित नहीं इस से तो मर जाना अच्छा है तो शत्रुदल में घुस कर दोनों हाथों से तरवार भांजने लगे. शरीर का ध्यान कुछ भी न रहा, एक दो तीन पठान हर हाथ में गिरते थे और कितने [ ७९ ] घायल भी हुए। वे भी चारों ओर अस्त्र की वर्षा करते थे, यहां तक कि राजकुमार की शक्ति हीन हो चली और घुमटा आने लगा, आंखों के सामने अंधेरा होने लगा और करणेन्द्रिय भी जवाब देने लगी। इतने में एक शब्द हुआ कि, 'राजकुमार को मारना मत घेर के पकड़ लो।'

रुधिर का प्रवाह होते २ युवराज मूर्छा खाकर भूमि पर गिर पड़े और तरवार भी हाथ से छूट गई। उनको पगड़ी में हीरा लगा था उसके लूटने के लिए बीसिओं पठान दौड़े किन्तु उसमान खां ने मना करके कहा "देखो राजपुत्र को छूना नहीं।" इसपर सब हट गए और उसमान खां और एक सैनिक दोनों ने मिलकर राजकुमार को उठा कर एक चारपाई पर डाल दिया। हा! जिस पलंग पर राजकुमार ने तिलोत्तमा के साथ सोने की आशा की थी वह पलंग मृतसय्या हुई। परमेश्वर की महिमा अपार है।

उनको पलंग पर सोलाय उसमान खां ने पूछा, स्त्री दोनों क्या हुई? उसने विमला और तिलोत्तमा को नहीं देख पाया वह दोनों तो चारपाई के नीचे छिपी थीं।

स्त्री दोनों क्या हुई, उनको ढूंढ़ो परिचारिका बड़ी चतुर है यदि निकल गई तो अच्छा न होगा। किन्तु बीरेन्द्र की कन्या को कुछ क्लेश न होने पावे। इस आज्ञा को पाय सिपाही चारों ओर ढूंढने लगे दो एक उस कोठरी में दीपक लेकर देखने लगे, जो चारपाई के नीचे दृष्टि पड़ी देखा तो दोनों पड़ी थीं, मारे आह्लाद के चिल्ला उठे, 'अरे ये तो यहां है।'

उसमान ने व्यग्र होकर कहा, 'कहां?' [ ८० ] उत्तर में फिर 'हे' शब्द सुनकर उसमान का चित्त प्रसन्न होगया और बोले, 'अच्छा तुम लोग बाहर निकल आओ कुछ चिन्ता नहीं।'

बिमला तिलोत्तमा को लेकर बाहर आकर बैठी इतने में उसको कुछ चेत हुआ और उठकर बैठी और धीरे २ विमला से पूछने लगी 'यहां कहां आए?’

बिमला में उसके कान में कहा 'कुछ चिंता नहीं तुम घुंंघट काढ़ कर बैठो।'

जो मनुष्य स्त्रियों को बाहर लाया था उसने सामने आकर कहा, जनाब! गुलाम इसको ढूंढ कर लाया है।'

उसमान ने कहा, 'तू पूरस्कार मांगता है? तेरा नाम क्या है?' उसने कहा, 'गुलाम का नाम करीमबख्श है परन्तु इस नाम से कोई चीन्हता नहीं। मैं पहिले मोग़ल की सेना में था और वहां लोग मुझको मोगल सेनापति कहते थे वही नाम अब भी है।'

बिमला चिहूंक उठी उसको अभिराम स्वामी का ध्यान आगया।

उसमान ने कहा,'अच्छा स्मर्ण रक्खूंगा'॥

॥ इति प्रथम खंड ॥