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दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/द्वितीय परिच्छेद

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दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ १० से – १३ तक

 

द्वितीय परिच्छेद ।

मोगल पठान ।

रातही में जगतासंह ने शैलेश्वर के मन्दिर से कूच किया। पाठक लोगों को यह संदेह होगा कि जगतसिंह राजपूत बङ्गदेश में क्या करने को आये और क्यों इस उजाड़ में अकेले फिरते थे अतएव तत्सामयिक बङ्गदेशीय राजकीय घटना का कुछ संक्षेप वर्णन इस स्थान पर उचित जान पड़ता है।

पहिले इस देश में बखतियार खिलजी ने यवन विजय पताका स्थापित किया और कई सौ बरस तक पठान लोग उसकी ओर से निष्कण्टक राज्य शासन करते रहे ९३२ के साल में प्रसिद्ध बाबर सुल्तान ने दिल्ली के महाराज इब्राहीम लोदी को पराजय करके सिंहासन छीन लिया और आप राजा बन बैठा। किन्तु उसी समय बङ्गदेश में तैमूर वंश वालों का अधिकार नहीं हुआ। जितने दिन तक मोगल कुल दीपक अकबर महाराज का उदय नहीं हुआ तब तक

इस देश में पठान लोग स्वाधीन राज करते थे। निर्बुद्धि दाऊदखां ने बुरे समय में सुप्तसिंह के ऊपर हाथ उठाया और अपने कर्म के फल से अकबर के सेनापति मनाइमखां से पराजित होकर ९८२ के साल में उडिस्सा को भाग गया और बंगाल का राज मोगलियों के हाथ में आगया, पठानों ने इस नये देश में ऐसी स्थित पकड़ी कि वहां से उनको उठाना मोगलियों को बहुत कठिन होगया। अन्त को ९८६ साल में अकबर के प्रतिनिधि खांजहांखां ने उनको दूसरी बार हरा कर इस देश को भी अपने हाथ में कर लिया। इसके अनन्तर एक और बड़ा उपद्रव हुआ अकबरशाह ने राज कर प्राप्ति की जो नई प्रणाली प्रचलित की थी उससे जागीरदार बड़े अप्रसन्न हुए और सब बिगड़ खड़े हुए। यह औसर पाय उडिस्सा के पठानों ने भी सिर उठाया और कतलूखां को अपना स्वामी बना देश को स्वाधीन कर लिया। वरन मेदिनीपुर और विष्णुपुर को भी लेलिया।

आजिमखां और शहबाज़खां आदि चतुर चतुर सेनाध्यक्ष आये पर किसीने शत्रुजित देश पुनःप्राप्ति न कर पाया। अन्त को इस दुस्तर कर्म्म के साधन हेतु एक हिन्दू योद्धा भेजा गया।

जब मुसलमान की नवधर्मानुरागी सेना हिमालय के शिखर से होकर भारतभूमि में उतरे उस समय पृथ्वीराज आदि बड़े बड़े राजपूत योद्धाओं ने बड़ी शूरता से उनको रोका परन्तु विधाता को तो यही इच्छित था कि इस देश की दुर्दशा हो। राजपूत राजाओं में फूट उत्पन्न हुई और परस्पर विवाद होने लगा और मुसलमानों ने एक एक करके संपूर्ण राजाओं को जीत लिया और कुल भरतखण्ड

उनके आधीन होगया परन्तु क्षत्रियों का तेज हीन नही हुआ बहुतेरे स्वाधीन भी रहे और आज तक ( यद्यपि मुसल्मानों का राज जाता रहा ) यवनों को समर में प्रचारते रहे और बहुतेरों को प्राजित भी किया। किन्तु बहुतेरे ऐसे टूट गये कि उनको कर देना पड़ा वरन दुष्ट यवन कुल के सन्तुष्टार्थ अपनी कन्या भी उनको देते थे। वे लोग भी इनसे मित्रता और बंधुता का बर्ताव करने लगे और फिर यही लोग उनके सेनाध्यक्ष आदि भी होने लगे। मोगलियों में सब से अकबर बड़ा बुद्धिमान था। उसने विचारा कि इस देश के राज काज के साधन हेतु इसी देश के मनुष्य बहुत उत्तम हैं। अन्य देशी से यह काम भली भांति नहीं हो सकता और युद्ध के काम में तो राजपूतों से बढ़कर कोई है ही नहींं। इसलिये वह सर्वदा इसी देश के आदमियों से काम लेता था और विशेष करके क्षत्रियों से।

जिस समय की चर्चा हम कर रहे हैं, उस समय दूसरे राजपूत अधिकारियों में महाराज मानसिंह सबसे प्रधान थे और वे अकबर के पुत्र सलीम के साले भी थे। जब आज़िमखां और शहबाज़खां से उड़ीसा पराजित नहीं हुआ तो महाराज अकबर ने इन्हीं को बङ्गाल और बिहार का अधिकार देकर भेजा।

९९७ साल में मानसिंह ने पटने में आकर पहिले पहिल तत्सामयिक उपद्रव को शान्त किया और दूसरे वर्ष उड़ीसा के जीतने की इच्छा करके उस ओर चले। मानसिंह ने पहिले पटने में पहुंचकर और वहां रहने की अभिलाषा से बङ्गाल के शासन निमित्त सैयद खां को अपना प्रतिनिधि नियत किया था सैयदखां यह अधिकार पाय उस समय की
राजधानी तण्डा नगर में अपना मुख्य स्थान किया। समर में जाकर मानसिंह ने इस अपने प्रतिनिधि को बुलवाया और लिख भेजा कि सेना लेकर बर्द्धमान में हमको आकर मिलो।

राजा बर्द्धमान में पहुंच गए और सैयद खां ने लिख भेजा कि हमारी सेना एकतृत करने में बिलंब होगा तब तक वर्षा काल आ जायगा यदि आप वहीं पर ठहरे रहें तो मैं शरद ऋतु के आरम्भ में आपसे आकर मिलूंगा।

राजा ने दारुकेश्वर के तीर पर जहानाबाद नाम ग्राम में अपना डेरा डाल दिया और सैयदखां की राह देखने लगे। वहां के रहने वालों से मालूम हुआ कि उनकी यह दशा देख कतलूखां का साहस और भी बढ़ गया और वह जहानाबाद के समीप लूट कर रहा है।

राजा ने घबराकर उसके बल और अभिप्राय आदि का पता लगाने के लिये अपने एक प्रधान सेनाध्यक्ष को भेजना उचित समझा। राजा के साथ उनका प्रिय पुत्र जगतसिंह भी युद्ध में आया था इस दु:साध्य कार्य के भार लेने का उसकी इच्छा देख राजा ने एक सत सवार साथ करके उसीको इसका पता लगाने के निमित्त भेजा राजकुमार बहुत शीघ्र काम करके लौट आये थे उसी समय मन्दिर में पाठक लोगों से उनसे भेट हुई।।