देवांगना/मन्दिर में

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[ ६३ ]मन्दिर में



मन्दिर में पूजन की तैयारी हो रही थी। रुद्राभिषेक हो रहा था। विविध वाद्य बज रहे थे। काशिराज और सिद्धेश्वर यथास्थान खड़े थे। देवदासियाँ देवता का श्रृंगार कर रही थीं-मंजु आरती की माला सजाती हुई मन ही मन कह रही थीं—"देव! जीवन-भर जिस कार्य का अभ्यास किया, आज वह नीरस हो गया। तुम यदि सचमुच अन्तर्यामी हो तो तुमने मेरे मन की दशा समझ ली होगी, और तुम्हें मुझ पर दया आई होगी। मैंने जीवनभर तुम्हारी तन- मन-धन से सेवा की है, अब तुम मेरी इच्छा पूरी करो देव!"

उसने अश्रुपूर्ण नेत्रों से देवता की और देखा, और पूजा का थाल उठाया। वह दो कदम आगे बढ़ी। देखा, सम्मुख दिवोदास खड़ा है। मंजु के हृदय में आनन्द की लहर दौड़ गई। उसने एक बार घृणापूर्वक सिद्धेश्वर की ओर देखा, और वह उलटकर दिवोदास के सम्मुख जा पहुँची। उसने दिवोदास की आरती उतारकर देवता की माला भी उसके गले में डाल दी। यह देख सब लोग 'पूजा भ्रष्ट हो गई', 'पूजा भ्रष्ट हो गई', चिल्ला उठे। बाजे एकदम बन्द हो गए। सिद्धेश्वर आपे से बाहर होकर चीख उठे। काशीराज ने क्रुद्ध स्वर में कहा:

"मूर्खे! पूजा भ्रष्ट कर दी।"

किन्तु मंजु ने उधर देखा ही नहीं। उसने आनन्द विभोर होकर दिवोदास के निकट आकर कहा—"पतिदेव, पूजा सार्थक हुई न?"

"हाँ प्रिये।"

काशिराज ने क्रुद्ध होकर कहा—"दोनों को बाँध लो।"

राजाज्ञा का तुरन्त पालन हुआ।

मंजु को उसी के कमरे में बन्द कर दिया गया और दिवोदास को नदी के उस पार दुर्गम दुर्ग में बन्दी कर दिया गया।

मंजु की सखी लता उसके लिए भोजन लेकर आई तो मंजु ने कहा, 'सखी, क्या तू उनका कुछ समाचार जानती है?"

"जानती हूँ-पर सुनकर तुम्हें दु:ख होगा।"

"फिर भी कह दे सखी।"

"मंजु, इस प्रेम में अपने को नष्ट न कर।"

"आह सखी, मैं प्यार का घाव खा बैठी हूँ।"

"किन्तु वह अज्ञात कुलशील भिक्षु है।" [ ६४ ]"अज्ञात कुलशील नहीं वह धनंजय श्रेष्ठि का पुत्र है।"

"परन्तु उसे तो महाराज ने कान्तार दुर्ग में बन्दी कर दिया है।"

"हे भगवान्-कान्तार दुर्ग में?"

"वहाँ उसे प्राणान्त प्रायश्चित्त करने का आदेश दिया गया है। दोनों धूर्त आचार्य उसकी जान के ग्राहक बन बैठे हैं।"

मंजु ने कहा—"सखी, मेरी सहायता कर!"

"जो तू कहे।"

"मुझे वहाँ जाने दें।"

"कैसे?"

"तू मेरे लिए त्याग कर।"

"तेरे लिए मेरे प्राण भी उपस्थित हैं।"

"तो तू यहाँ मेरे स्थान में रह, मैं तेरे वस्त्र पहनकर निकल जाऊँगी।"

"तो तू जा।"

"पर जानती है, तेरी क्या गत बनेगी।"

"वे मेरा वध करेंगे, मैं सह लूंगी।

"हाय सखी-कैसे कहूँ।"

"मेरी चिन्ता न कर।"

मंजु ने जल्दी-जल्दी सखी के वस्त्र पहने। अपने उसे पहनाए। भोजन की सामग्री हाथ में ली और बन्धन से बाहर हो गई। प्रहरी कुछ भी न जान सका।

मंजु चल दी। किसी ने उसे लक्ष्य नहीं किया। वह पागल की भाँति भागी चली जा रही थी। भूख, प्यास और थकान ने उसके कोमल गात्र को क्लान्त कर दिया। उसके पैरों में घाव हो गये और वह बारम्बार लड़खड़ाकर गिरने लगी। वह गिरती, उठती-और फिर भागती। घोर वन था। बड़ी तेज धूप थी। सामने भयानक विस्तार वाली नदी के उस पार, सूखी नंगी पहाड़ी पर ऊँचा सिर उठाए वह एकान्त दुर्ग था। वह साहस करके नदी में कूद पड़ी। लहरों के साथ डूबती-उतराती वह उस पार जा पहुँची।

उसकी शक्ति ने जवाब दे दिया। परन्तु वह चलती ही चली गई। दुर्गम पहाड़ पर चढ़ना-बड़ा दुस्साहस का कार्य था परन्तु प्रेम का बल उसे मिलता गया-वह दुर्ग द्वार पर पहुँच गई। दुर्ग का द्वार बन्द था। उसकी भारी लौह श्रृंखलाओं में मजबूत ताला पड़ा था। उसने व्याकुल दृष्टि से चारों ओर देखा-उस दुर्गम कान्तार दुर्ग में चिड़िया का पूत भी न था। उसने एक बार दुर्ग के चारों ओर चक्कर लगाया। अन्त में निराश हो थककर वह एक शिलाखण्ड पर पड़ गई। उसे नींद आ गई। न जाने वह कब तक सोती रही। जब उसकी आँखें खुलीं तो देखा-सूर्य अस्त हो रहा है, और एक वृद्ध चरवाहा उसके निकट खड़ा है।

वह हड़बड़ाकर उठ बैठी। वृद्ध चरवाहे ने कहा—"तुम कौन हो और यहाँ कैसे आईं?"

"मैं विपत्ति की मारी दुखित स्त्री हूँ बाबा, भाग्य-दोष से यहाँ आ फँसी हूँ।"

"परन्तु यहाँ सिंह रहता है, तुझे खा जायेगा। बस्ती दूर है, तू रात कहाँ व्यतीत करेगी?" [ ६५ ]"मैं चाहती हूँ सिंह मुझे खा जाय?"

"परन्तु तेरे यहाँ आने का कारण क्या है?"

"एक पुरुष इस दुर्ग में बन्द भूखा मर रहा है।"

"तुझे किसने कहा?”

"मैं जानती हूँ। उसी के लिए मैं यहाँ आई थी। किन्तु भीतर जाऊँ कैसे?"

"भीतर ही जाना है तो मैं पहुँचा सकता हूँ, परन्तु वहाँ कोई मनुष्य नहीं है।"

"क्या तुम जानते हो बाबा?”

"मैं तो वहाँ नित्य आता-जाता हूँ।"

"क्या भीतर जाने की कोई और भी राह है।"

"वह मैंने अपने लिए बनाई है।" बूढ़ा चरवाहा हँस दिया।

"तो बाबा, मुझे वहाँ पहुँचा दो।"

"परन्तु रात होने में देर नहीं है, फिर मेरा भी गाँव लौटना कैसे होगा।"

"वहाँ एक मनुष्य भूखा मर रहा है बाबा।"

"तब चल, मैं चलता हूँ।"

दोनों टेढ़े-मेढ़े रास्ते से चलने लगे। मंजु में चलने की शक्ति नहीं रही थी। परन्तु वह चलती ही गई। अन्त में एक खोह में घुसकर चरवाहे ने एक पत्थर खिसकाकर कहा—"इसी में चलना होगा।" वह प्रथम स्वयं ही भीतर गया। पीछे मंजु भी घुस गई। थोड़ा चलने पर एक विस्तृत मैदान दीख पड़ा। दूर किसी अट्टालिका के भग्न अवशेष थे।

"वहाँ चले बाबा" मंजु ने उधर संकेत करके कहा। चरवाहे ने आपत्ति नहीं की। खंडहर के पास पहुँचकर मंजु जोर से दिवोदास को पुकारने लगी। उसकी ध्वनि गूँजकर उसके निकट आने लगी। परन्तु वहाँ कहीं किसी जीवित मनुष्य का चिह्न भी न था।

बूढ़े ने कहा—"मैंने तो तुमसे कहा था-यहाँ कोई मनुष्य नहीं है, अब रात को गाँव पहुँचना भी दूभर है, राह में सिंह के मिलने का भय है, पर मैं जा सकता हूँ। क्या तू यहाँ अकेली रहेगी? या गाँव तक चल सकती है?"

"बाबा, मैं यहीं प्राण दूँगी। आपका उपकार नहीं भूलूँगी। आप जाइए।"

"यहाँ तुझे अकेला छोड़ जाऊँ?"

"मेरी चिन्ता न करें-मेरा जीवन अब निरर्थक ही है।"

इसी समय उसे ऐसा भान हुआ, जैसे किसी ने जोर से साँस ली हो।

मंजु ने चौंककर कहा—"आपने कुछ सुना; यहाँ किसी ने साँस ली है।"

वह लपककर खोह में घुस गई। उसने देखा-एक शिलाखण्ड पर दिवोदास मूर्च्छित पड़ा है। चरवाहा भी पहुँच गया। उसने दूर ही से पूछा—"मर गया या जीवित है?"

मंजु ने रोते हुए कहा—"बाबा, यहाँ कहीं पानी है?"

"उधर है," और वह निकट पहुँच गया।

उसने दिवोदास को ध्यान से देखा और कहा—"आओ, इसे उधर ही ले चलें। बच जायगा।"

दोनों ने दिवोदास की मूर्च्छित देह को उठा लिया, और जहाँ जल की पुष्करिणी थी वहाँ ले गए। यहाँ बाँधकर वर्षा का जल रोका गया था। थोड़ा जल पीने तथा मुँह और
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आँखों पर छिड़कने से थोड़ी देर में दिवोदास को होश आ गया। उसने आँखें खोलकर मंजु को देखा-उसके होंठ से निकला—"मंजु प्रिये।"

मंजु उसके वक्ष पर गिरकर फफक-फफक कर रोने लगी।

दिवोदास ने धीमे स्वर से कहा—"मैं जानता था कि तुम आओगी, सो तुम आ गईं।"

उसने मंजु को हृदय से लगा लिया। कुछ देर बाद कहा—

"अब मैं सुख से मर सकूँगा।"

"मरेंगे तुम्हारे शत्रु।" उसने दृढ़ता से उठकर दिवोदास का सिर अपनी गोद में रख लिया।

"प्यारी, तुमने मुझे जिला दिया।" दिवोदास ने कहा।

"मैंने नहीं प्रिय, इस देव पुरुष ने", मंजु ने उस चरवाहे की ओर संकेत किया।

दिवोदास ने अब तक उसे नहीं देखा था। अब उसकी ओर देखकर कहा :

"तुम कौन हो भाई।"

"मैं चरवाहा हूँ, पास ही गाँव में रहता हूँ, यहाँ नित्य बकरी चराता हूँ। भीतर आने-जाने की राह यह मैंने अपने लिए बना ली थी। संध्या को जब मैं घर लोट रहा था इन्हें मूर्च्छित पड़ा देखा। इसी से रुक गया। लड़के को बकरी लेकर घर भेज दिया। सो अच्छा ही हुआ-दो-दो प्राणी बच गए।" बूढ़ा बहुत खुश था।

दिवोदास ने कहा—"बचा लिया तुमने बाबा, तुम उस जन्म के मेरे पिता हो। अब यहाँ मेरे पास आकर बैठो।" बूढ़ा भी वहीं बैठ गया। उसने कहा—"अब तो रात यहीं काटनी होगी। परन्तु खाने को तो कुछ भी नहीं मिल सकता। देखता हूँ, तुम दोनों भूखे हो।"

मंजु ने कहा—"मेरे साथ थोड़ा भोजन है, उससे हम तीनों का आधार हो जायगा।"

उसने पोटली खोली। तीनों ने थोड़ा-थोड़ा खाकर पानी पिया। भोजन करने से दिवोदास में कुछ शक्ति आई। वह एक पत्थर के सहारे बैठ गया। चरवाहे ने कहा—"थोड़ी आग जलानी होगी, नहीं तो वन पशु का भय है। मैं ईंधन लाता हूँ।" और वह उठकर चला गया।

मंजु ने उसके गले में बाँहे डालकर कहा—"अब तुम तनिक हँस दो।"

"क्या मैं फिर कभी हँस भी सकूँगा?"

"हम सदैव हँसेंगे, गाएँगे, मौज करेंगे।" और वह दिवोदास से लिपट गई।

दिवोदास ने कहा—"प्यारी, तुम्हारी इस स्नेह दान ने मेरे बुझते हुए जीवन-दीपक को बुझने से बचा लिया। और तुम्हारी मधुर वाणी ने मेरे सूखे हुए जीवन को हरा-भरा कर दिया।" उसने उसे अपने बाहुपाश में कसकर अगणित चुम्बन ले डाले।

चरवाहे ने एक गट्ठर लकड़ी लाकर उसमें आग लगा दी। और तीनों आदमी वहीं पृथ्वी पर लेट गए। मंजु पड़ते ही गहरी नींद में सो गई। वह बहुत थकी थी। दिवोदास भी दुर्बल था। वह भी सो गया। परन्तु चरवाहा बड़ी देर तक जागता रहा।

प्रात:काल होते ही नित्यकर्म से निवृत्त होकर तीनों ने सलाह की। दिवोदास ने वृद्ध का हाथ पकड़कर कहा—"मित्र, तुम मेरे आज से पितृव्य हुए। अब हम-तुम कभी पृथक् न होंगे। मेरे दुख-सुख में तुम्हारा साझा रहेगा।"

बूढ़े ने हँसकर कहा—"तुम चिन्ता न करो भाई। तुम्हारे बराबर ही मेरा लड़का है, और ऐसी ही लड़की भी है। तुम भी मेरे लड़के-लड़की रहे। गाँव चलो, बहुत जमीन है,
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धान्य है, दूध है। खाओ-पिओ मौज करो। तुम्हें क्या चिन्ता!"

"किन्तु पितृव्य, हमारा कुछ कर्तव्य भी है। तुम्हें उसमें सहायता देनी होगी।"

"कहो, क्या करना होगा?"

"हमारे शत्रु हैं।"

"तो मेरे लड़के को बता दो, वह उनकी खोपड़ी तोड़ देगा।"

"परन्तु वे बड़े बलवान् हैं, काम युक्ति से लेना होगा।"

"फिर जैसे तुम कहो।"

"हमें छिपकर रहना होगा।"

"तो हमारे गाँव में रहो।"

"वहाँ नहीं छिप सकेंगे, राजसैनिकों को पता चल जायगा।"

"तब क्या किया जाय?" मंजु ने प्रश्न किया।

"राजमाता ने जो आदेश दिया है वही।"

"ठीक है, तो मुझे एक बार मन्दिर में जाना होगा।"

"किसलिए?"

"ताली और बीजक लेने, परन्तु एक बात है।"

"क्या?"

"मेरे पास आधा ही बीजक है। शेष आधा सिद्धेश्वर के पास है। वह भी लेना होगा। बिना उसके हम उस कोषागार में नहीं पहुँच सकेंगे।"

"तब हमें एक बार काशी चलना होगा। तुम अपनी वस्तु लेना और मैं सिद्धेश्वर से वह बीजक लूँगा।"

बूढ़े ने कहा—"मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।"

"तुम्हें अब हम नहीं छोड़ेंगे पितृव्य।'

"तो पहिले गाँव चलो। खा पीकर, टंच होकर रात को काशी चलेंगे।"

"यही सलाह ठीक है।"

तीनों व्यक्ति उसी खोह की राह निकलकर गाँव की ओर चल दिए।