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दो बहनें/शशांक

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दो बहनें
रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक हजारी प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: विश्वभारती ग्रंथालय, पृष्ठ १०१ से – १२० तक

 
शशांक

कुछ दिन इसी प्रकार बीते। आँखों में खुमारी आई, मन आविल हो गया।

अपने को ठीक-ठीक समझने में ऊर्मि को थोड़ा समय लगा किन्तु एक दिन वह अचानक चौंक उठी। अपनेको उसने समझा।

न जाने क्यों मथुराभैया से यह डरा करती, बराबर उनकी नज़र बचाकर निकल जाने का प्रयत्न करती। उस दिन मथुरा प्रातःकाल दीदी के घर आया और दुपहरी तक रहकर चला गया। उसके बाद दीदी ने उर्मि को बुलवा भेजा। उसका मुंँह कठोर होकर भी शान्त था। बोली, "प्रतिदिन उनके कामकाज में विघ्न डालकर यह क्या अनर्थ कर रखा है तूने, पता है?"

ऊर्मि डर गई। बोली, "क्या हुआ है?" दीदी ने---"मथुराभैया बता गए हैं कि कुछ दिनों से तेरे बहनोई अपना काम बिल्कुल नहीं देख रहे हैं। जवाहरलाल पर भार दिया था, उसने खुले-हाथ माल-मसाले की चोरी की है, बड़े-बड़े गुदामों की छतें झँझरी हो गई हैं, उस दिन की वृष्टि से इसका पता लगा है। माल बरबाद हो रहा है। हमारी कंपनी का बड़ा नाम है, इसीलिये उन लोगों ने जाँच नहीं की थी। अब बड़ी भारी निन्दा और नुक़सानी गर्दन पर सवार हो गई है। मथुराभैया अलग होना चाहते हैं।"

ऊर्मि की छाती धक्-धक् करके धड़कने लगी। क्षणभर में बिजली की रोशनी में मानों उसने अपने मन के प्रच्छन्न रहस्य को देख लिया। स्पष्ट ही समझ गई कि न जाने कब अनजाने में उसके मन का भीतरी हिस्सा मतवाला हो उठा था,---भला-बुरा वह कुछ भी सोच नहीं सकी थी। शशांक का कार्य ही मानों उसका प्रतिद्वंदी था, उसीसे उसकी कुट्टी थी। उसे कामकाज से अपने पास खींच लाने के लिये ऊर्मि सदा छटपटाया करती। कितनी ही बार ऐसा हुआ था कि शशांक स्नानागार में था और काम से यदि कोई मिलने आया तो ऊर्मि ने कहला दिया, "कह दो अभी भेंट नहीं होगी।"

उसे डर बना रहता कि कहीं ऐसा नहा कि स्नान से निकलते ही शशांक को फुरसत न मिले; कहीं ऐसा न हो कि वह कामकाज में उलझ जाय और उर्मि का सारा दिन ही व्यर्थ हो जाय। आज अपने दुरन्त नशे की सांघातिक मूर्ति उसकी आँखों के सामने प्रत्यक्ष हो उठी। वह उसी समय दीदी के चरणों पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बारंबार रुधे गले से कहने लगी--"खदेड़ दो मुझे अपने घर से, अभी निकाल बाहर करो मुझे!"

आज दीदी ने निश्चित रूप से स्थिर कर लिया था कि ऊर्मि को किसी प्रकार भी क्षमा नहीं करेंगी। लेकिन मन पिघल गया।

धीरे-धीरे ऊर्मिमाला के सिर पर हाथ फेरती हुई बोली--"कुछ चिन्ता न कर। कोई-न-कोई उपाय होगा ही।"

ऊर्मि उठकर बैठ गई। बोली, "दीदी, तुम्हीं लोगों का क्यों नुक़सान होगा? मेरे भी तो रुपया है।"

शर्मिला ने कहा--"पागल हुई है! क्या मेरे पास कुछ भी नहीं है? मथुराभैया से मैंने कह दिया है, वे कुछ गोलमाल न करें, मैं रुपया भर दूँगी। और तुझे भी कहती हूँ, ऐसा न हो कि तेरे जीजाजी के कानों यह बात पहुँच जाय कि मेरे पास तक भी ख़बर पहुँची है, भला?" "माफ़ करो दीदी, मुझे माफ़ करो" कहकर ऊर्मि फिर दीदी के पैरों पर माथा रगड़ने लगी।

शर्मिला आँखों के आँसू पोंछकर क्लान्त स्वर में कहने लगी, "कौन किसे माफ़ करेगा बहन? संसार बड़ा जटिल है। जो सोचती हूँ वह होता नहीं, जिसके लिये प्राणों की बाज़ी लगा देती हूँ, वही खिसक पड़ता है।"

ऊर्मि दीदी को छोड़कर अब क्षण भर के लिये भी हिलना नहीं चाहती। दवा देना, नहलाना-खिलाना-सुलाना सब छोटी-मोटी बातें वह स्वयं करने लगी। फिर से पढ़ना शुरू किया। सो भी दीदी के पास बैठकर। ख़ुद पर अब उसका विश्वास नहीं रह गया था, शशांक पर भी नहीं।

नतीजा यह हुआ कि शशांक बार-बार रोगिणी के कमरे में आने लगा। पुरुष की अन्धतावश ही वह वह समझ नहीं सका कि उसकी छटपटाहट का तात्पर्य स्त्री को मालूम हो जाता है। ऊर्मि मारे शर्म के गड़ जाती। शशांक आता है मोहनबागान के फ़ुटबाल का प्रलोभन लेकर: व्यर्थ होता है। पेंसिल से चिहित अख़बार में चार्ली चैपलिन का विज्ञापन दिखाता है: कोई नतीजा नहीं निकलता। ऊर्मि जब दुर्लभ नहीं थी तब भी बाधा-विघ्न के भीतर से शशांक कामकाज किया ही करता था, किन्तु अब वह एकदम असम्भव हो उठा।

हतभाग्य के इस निरर्थक निपोड़न से शर्मिला पहले तो बड़े दुःख के भीतर भी सुख पाती। किन्तु बाद में उसने देखा कि उसकी पीड़ा प्रबल हो उठी है, मुँह सूख गया है, आँखों के नीचे झाँई पड़ गई है। ऊर्मि खाने के समय पास नहीं बैठती इसलिये शशांक के खाने का उत्साह और परिमाण दोनों कम होते जा रहे हैं, यह उसे देखने से ही प्रकट हो जाता। कुछ दिन पहले इस घर में आनन्द की जो बाढ़ आई थी वह बिल्कुल उतर गई है, और फिर भी पहले उनकी जो सहज दिनचर्या थी वह भी नहीं रह गई है।

कभी शशांक अपने चहरे को सँवारने के विषय में उदासीन था। नाई से बाल बनवाते समय प्रायः सिर मुँड़ा ही लेता था, कंघी की ज़रूरत तो चौथाई की चौथाई तक जा पहुँचती थी। शर्मिला इसके लिये पहले बहुत वाग्वितंडा करती, बाद में हारकर उसने पतवार छोड़ दी थी। परन्तु इन दिनों ऊर्मि की ऊँची हँसी से मिली हुई संक्षिप्त आपत्ति भी निष्फल नहीं होती। नये संस्करण के केशोद्गम के साथ सुगन्धित तेल का संयोग-साधन शशांक के सिर में यह पहली बार ही जुटा है। लेकिन आजकल केशोन्नति-विधान के प्रति अनादर से ही उसकी अन्तर्वेदना पकड़ी गई है। सो भी इतनी अधिक कि उसे उपलक्ष्य बनाकर प्रकट या अप्रकट तीव्र हँसी भी अब चल नहीं सकती। शर्मिला की उत्कंठा ने उसके क्षोभ को अभिभूत कर दिया। पति के प्रति करुणा और अपने प्रति धिक्कार से उसका हृदय फटने लगा, रोग की पीड़ा और भी बढ़ने लगी।

मैदान में क़िले के फ़ौजदारों की लड़ाई का खेल होनेवाला था। शशांक ने डरते-डरते पूछा--"चलोगी ऊर्मि, देखने? अच्छी-सी जगह रिज़र्व करा ली है मैंने।"

ऊर्मि के कोई उत्तर देने से पहले ही शर्मिला बोल उठी, "जायगी क्यों नहीं, ज़रूर जायगी। ज़रा बाहर घूम आने के लिये वह छटपटा रही है।"

बढ़ावा पाकर दो दिन बीतते-न-बीतते उसने फिर पूछा--"सर्कस?"

इस प्रस्ताव में ऊर्मिमाला का ही उत्साह दिखाई दिया।

इसके बाद, "बोटैनिकल गार्डन?" इसमें ज़रा बाधा महसूस हुई। दीदी को छोड़कर देर तक बाहर रहने के पक्ष में ऊर्मि का मन राय नहीं देता।

दीदी ने स्वयं शशांक का पक्ष लिया। दुनिया भर के मजूरों के बीच काम करते-करते दुपहरी भर हैरान होते हैं, सारा दिन केवल धूल-बालू में ही कट जाता है, बाहर की हवा न खा आने से तो शरीर ही भुरकुस हो जायगा।

इसी युक्ति के बल पर स्टीमर में राजगंज तक धूम आना भी असंगत नहीं मालूम हुआ।

शर्मिला मन ही मन कहती, जिसके लिये उन्हें काम-काज के छूट जाने की चिन्ता नहीं है, उसका छूटना उन्हें बर्दाश्त नहीं होगा।

शशांक को किसीने स्पष्ट रूप से कहा नहीं था लेकिन चारों ओर से वह एक अव्यक्त समर्थन पाने लगा। शशांक ने एक प्रकार से ठीक ही कर लिया कि शर्मिला के मन में कोई विशेष पीड़ा नहीं है, उन दोनोंको एकत्र प्रसन्न देखकर ही यह प्रसन्न रहेगी। साधारण स्त्री के लिये यह संभव नहीं हो सकता था पर शर्मिला तो असाधारण है। शशांक जिन दिनों नौकरी करता था उन्हीं दिनों किसी कलाकार ने रंगीन पेन्सिल से शर्मिला का चित्र बनाया था। इतने दिन तक यह पोर्टफोलियो के भीतर था। उसे निकालकर उसने विलायती दूकान से बेशकीमती फ्रेम में मढ़वाया और अपने आफ़िसवाले कमरे में, जहाँ बैठता था, उसके ठीक सामने दीवाल पर टाँग दिया। सामने एक फूलदानी रखी गई जिसमें माली रोज़ फूल सजा जाया करता।

आख़िरकार एक दिन शशांक जब ऊर्मि को बाग़ीचे में यह दिखा रहा था कि सूर्यमुखी कैसी खिली हुई है, अचानक एक बार उसका हाथ पकड़कर बोला, "तुम ज़रूर जानती हो, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। और तुम्हारी दीदी? वे तो देवी हैं। मैं उनकी जितनी भक्ति करता हूँ उतनी जीवन में और किसीकी नहीं करता। वे पृथ्वी की मानवी नहीं, हम लोगों के धरातल से बहुत ऊँचे रहनेवाली हैं।"

दीदी ने ऊर्मि को बार-बार स्पष्ट रूप से समझा दिया है कि जब वे इस जगत् में नहीं रहेंगी, उस समय उनकी जो सबसे बड़ी सान्त्वना होगी, वह ऊर्मि को देखकर ही होगी। इस गिरस्ती में और किसी स्त्री का आविर्भाव होगा, यह कल्पना भी दीदी को कष्ट पहुँचाती। और फिर शशांक का ध्यान रखने के लिये कोई स्त्री रहेगी ही नहीं यह निगोड़ी अवस्था भी दीदी की सह्य नहीं हो सकती। दीदी ने उसे रोज़गार की बात भी समझा दी है, कहा है, यदि उनके प्रेम में बाधा पड़ी तो सारा कारबार चौपट हो जायगा। उनका मन अब तृप्त होगा तो कारबार में अपने आप तरतीबी आ जायगी।

शशांक का मन मतवाला हो गया है। वह एक ऐसे चन्द्रलोक में रहने लगा है जहाँ संसार की सारी ज़िम्मेवारी सुख-तन्द्रा में लीन है। आजकल रविवार के पालन में उसकी निष्ठा विशुद्ध ईसाई के समान अविचल हो गई है। एक दिन शर्मिला से जाकर बोला, "देखो, जूटवाले अंग्रेज़ों से उनका स्टीमलञ्च मिल गया है, कल रविवार है, सोचा है सबेरे ऊर्मि को लेकर डायमण्ड हार्बर हो आऊँ। शाम होने से पहले ही लौट आऊँगा।"

शर्मिला के वक्ष:स्थल की शिराओं को जैसे किसीने भरोड़ दिया, मारे पीड़ा के उसके मस्तक का चमड़ा सिकुड़ गया। शशांक को यह बात दिखी ही नहीं। शर्मिला ने केवल एक बार प्रश्न किया--"खाने-पीने की क्या व्यवस्था की है?" शशांक ने कहा---"होटल में ठीक कर लिया है।" एक दिन जब यह सब ठीक करने का भार शर्मिला पर था तब शशांक उदासीन था। आज सब कुछ उलट गया है।

ज्यों ही शर्मिला ने कहा--"अच्छा, हो आना"---कि क्षण भर की प्रतीक्षा किए बिना ही शशांक बाहर निकल गया। शर्मिला को इच्छा हुई कि चिल्लाकर रोए। तकिए में मुँह छिपाकर बार-बार कहने लगी, "अब अधिक क्यों जी रही हू!"

फल रविवार को उनके ब्याह का वार्षिक दिन था। आज तक इस अनुष्ठान में कभी नागा नहीं हुआ। इस बार भी पति को बिना बताए ही, बिस्तर पर लेटे-लेटे उसने सारी तैयारी की थी। और कुछ नहीं, ब्याह के दिन शशांक ने जो लाल बनारसी धोती-चादर का जोड़ पहना था, वही उसे पहनाएगी, पति के गले में माला देकर सामने बैठाकर खिलाएगी, धूपबत्ती जला देगी और पास के कमरे में ग्रामोफ़ोन पर शहनाई बजेगी। और-और साल शशांक उसे कुछ बताए बिना चुपके से कोई न कोई शौकिया चीज़ खरीदकर दिया करता। शर्मिला ने सोचा था, इस बार भी ज़रूर देंगे, कल जान सकूँगा। आज वह कुछ भी बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। घर में जब कोई नहीं होता, उस समय केवल बार-बार यही चिल्ला उठती कि "सब मिथ्या है, मिथ्या है, मिथ्या है, क्या होगा इस ल से!"

रात को उसे नींद नहीं आई। सबेरे मोटर गाड़ी दरवाज़े पास से निकल गई, आवाज़ शर्मिला के कानों तक पहुँची। वह फफक-फफककर रो पड़ी, "ठाकुर तुम झूठ हो!"

यहाँ से रोग तेज़ी से बढ़ चला। दुर्लक्षण जिस दिन अत्यन्त प्रबल हो उठा उस दिन शर्मिला ने पति को बुलवाया। सायंकाल का समय था, घर में धुँधला प्रकाश। नर्स को हट जाने का संकेत किया। पति को पास बैठाकर हाथ पकड़कर बोली, "जीवन में मैंने भगवान् से जो घर पाया था वह तुम्ही हो। उस-योग्य शक्ति मुझे उन्होंने नहीं दी। जितना कर सकी, किया। दोष बहुत हुए हैं, क्षमा करना।"

शशांक जाने-क्या कहने जा ही रहा था कि शर्मिला बाधा देकर बोली, "ना, कुछ मत कहो। ऊर्मि को तुम्हारे हाथों दिए जा रही हूँ। वह मेरी अपनी बहन है। उसमें तुम मुझीको पाओगे,--और भी बहुत कुछ पाओगे जो मुझमें नहीं पा सके। नहीं, चुप रहो, कुछ बोलो मत, सिफ सुन लो। मरण-काल में हो मेरा सौभाग्य पूर्ण हुआ, तुम्हें सुखी कर सकी!"

नर्स ने बाहर से आवाज़ दी---"डाक्टर साहब आए हैं।"

शर्मिला ने जवाब दिया---"लिवा लाओ।"

बात वहीं बंद हो गई।

शर्मिला के मामा सब प्रकार को अशास्त्रीय चिकित्सा में उत्साही थे। इन दिनों वे एक संन्यासी की सेवा में नियुक्त थे। जब डाकृरों ने कह दिया कि अब कुछ करने को नहीं रह गया तो उन्होंने ज़िद की कि हिमालय की गुहा से आए हुए बाबाजी की दवा भी आज़मा ली जानी चाहिए। न जाने कौन-सी तिब्बती जड़ी का चूर्ण और प्रचुर दूध---यही दवा के उपकरण थे।

शशांक किसी प्रकार नीम-हकीमी को बर्दाश्त नहीं कर सकता। उसने आपत्ति की। शर्मिला बोली, "और कोई फल तो होगा नहीं लेकिन मामाजी को सन्तोष हो जायगा" ।

११२
देखते-देखते फल मिला। साँस का कष्ट कम हुआ, खून का उठना बंद हो गया। सात दिन बीत गए, पंद्रह दिन निकल गए। शर्मिला उठकर बैठ गई। डाक्टर ने कहा---"मृत्यु के समय शरीर मौत की तरफ़ वेपरवाह हो जाता है आखिरी धक्के के समय बहुत बार अपने को आप हो सम्हाल लेता है।"

शर्मिला जी गई।

उस समय वह सोचने लगी, यह कैसी आफत आई! अब क्या करूँ? आख़िरकार क्या जी जाना ही मरने से भी कठिन हो उठेगा? उधर ऊर्मि अपना सामान सम्हाल रही थी। यहाँ उसका अभिनय समाप्त हो गया।

दीदी ने आकर कहा--"तू जा नहीं सकेगी।"

"यह कैसी बात?"

"हिंदू समाज में क्या कभी किसी लड़की ने बहन की सौत होकर गृहस्थी नहीं चलाई ?"

" छि: !"

"लोक-निन्दा! तो विधाता के विधान से भी क्या लोगों के मुँह की बात ही बड़ी होगी?"

शशांक को बुलाकर कहा, "चलो हम लोग नेपाल चले। यहाँ दरबार में तुम्हें नौकरी मिलनेवाली थी----

ज़रा-सी कोशिश करने से ही पा जाओगे। उस देश में कोई बात नहीं उठेगी।"

शर्मिला ने किसीको दुविधा में पड़ने का अवकाश ही नहीं दिया। जाने की तैयारी होने लगी। ऊर्मि तब भी उदास होकर कोने-कोने छिपती फिरती।

शशांक ने उससे कहा, "आज यदि तुम मुझे छोड़ जाओ तो क्या दशा होगी, सोचकर देखो।" ऊर्मि ने जवाब दिया, "मैं कुछ सोच ही नहीं पा रही। तुम दोनों जो करोगे वही होगा।"

सब कुछ सम्हाल लेने में थोड़ा समय लगा। इसके बाद जब समय नज़दीक आया तो ऊर्मि ने कहा--"और सात दिन रुक जाओ, काकाजी से कुछ ज़रूरी बातें कर लू।"

ऊर्मि चली गई।

इसी समय मथुरा मुँह भारी किए शर्मिला के पास आया। बोला, "तुम लोग ठीक समय पर ही जा रहे हो। तुम्हारे साथ बातचीत पक्की हो जाने के बाद ही मैंने आपस में शशांक के साथ काम बाँट लिया था। अपने साथ उसके नफ़े-नुकसान की ज़िम्मेवारी नहीं रखी। इधर काम से हाथ खींचने के लिये शशांक कई दिन से हिसाब मिला रहा है। देखा गया कि तुम्हारा सारा रुपया डूब गया है। उसके ऊपर भी जो देना ठहरा है उसके लिये शायद मकान बेंचना पड़ेगा।"

शर्मिला ने पूछा--"सत्यानाश इतनी दूर तक बढ़ गया! वे जान ही नहीं सके?"

मथुरा ने कहा--"सत्यानाश प्रायः गाज गिरने के समान आता है। जिस क्षण मारता है उससे पहले उसका पता भी नहीं चलता। शशांक ने समझा था कि नुक़सान हो रहा है। उस समय थोड़े में ही सम्हाल लिया जा सकता था, लेकिन दुर्बुद्धि हुई। कारबार की ग़लती को जल्दी-जल्दी सुधार लेने के लिये कोयले के बाज़ार में तेज़ी-मंदी का खेल खेलने लगा। तेज़ी के बाज़ार में जो ख़रीदा था उसे मंदी के बाज़ार में बेंच देना पड़ा। अचानक आज मालूम हुआ कि अतिशबाज़ी की तरह सब उड़ गया है, बच रही है केवल राख। इस समय यदि भगवान की कृपा से नेपाल में काम मिल जाय तो तुम लोगों को भटकना नहीं पड़ेगा।"

शर्मिला ग़रीबी से नहीं डरती। बल्कि वह जानती है कि अभाव के समय पति की गृहस्थी में उसका स्थान और भी बड़ा हो जायगा। दरिद्रता की कठोरता को यथासंभव मुलायम बनाकर वह दिन काट ले जा सकेगी, यह विश्वास उसे है। विशेष करके हाथ में अब भी जो कुछ गहने हैं, उनसे उसे ज़्यादा कष्ट नहीं होगा। यह बात भी संकोच के मन में रह रहकर उठ खड़ी होती है कि उर्मि के साथ विवाह हो जाने के बाद उसको सम्पत्ति भी तो पति की ही होगी। लेकिन केवल ज़िंदगी के दिन किसी प्रकार काट लेना हो तो काफ़ी नहीं है। इतने दिनों तक अपनी शक्ति से अपने ही हाथों पति ने जो संपत्ति जोड़ी थी, जिसके लिये शर्मिला ने अपने हृदय की अनेक प्रबल माँगों को जानबूझकर दबा रखा था, वही-- उनके सम्मिलित जीवन की मूर्तिमती आशा---मरीचिका के समान बिला गई। इसीकी गौरवहानि ने उसे मिट्टी के साथ मिला दिया। मन ही मन कहने लगी, उसी समय अगर मर जाती तो इस धिक्कार से तो बच जाती। मेरे भाग्य में जो था सो तो हुआ, लेकिन दैन्य और अपमान की यह निदारुण शून्यता एक दिन उनके मन में न जाने कैसा परिताप ला देगी। जिसके मोह में अभिभूत हो जाने से यह सब सम्भव हुआ उसे, ख़ूब सम्भव, एक दिन ऐसा भी आएगा जब वे माफ़ नहीं कर सकेंगे, उसका दिया हुआ अन्न ज़हर के समान लगेगा। अपनी मत्तता का परिणाम देखकर उन्हें लाज आएगी, दोष देंगे मदिरा को। यदि अन्त तक ऊर्मि की सम्पत्ति पर अवलम्बित होना आवश्यक ही हो जाय तो इस आत्मावमान के क्षोभ से वे ऊर्मि को प्रति मुहूर्त जला मारेंगे।

इधर मथुरा के साथ हिसाब करने से शशांक को अचानक मालूम हुआ कि शर्मिला का सारा रुपया उसके रोज़गार में डूब गया है। अब तक शर्मिला ने उसे यह बात बताई नहीं थी, मथुरा के साथ तै कर लिया था।

शशांक को याद आया नौकरी छोड़ने के बाद उसने कभी शर्मिला से ही रुपया लेकर कारबार जमाया आज कारवार नष्ट करके शर्मिला का ऋण सिर पर लादकर ही वह फिर नौकरी करने चला है। यह ऋण तो अब उतारा जा नहीं सकता; नौकरी की बँधी आमदनी से यह ऋण कभी चुकनेवाला नहीं है। नेपाल जाने में दस दिन को और देर है। वह रात भर सो नहीं सका। सबेरे छटपटाकर उठते ही आईने के सामने खड़ा हो गया और अचानक मेज़ पर मुक्का मारकर बोल उठा--"नहीं जाता नेपाल!" दृढ़ प्रतिज्ञा को, "हम दोनों ऊर्मि को लेकर कलकत्ते में ही रहेंगे--भृकुटि-कुटिल समाज को क्रूर दृष्टि के सामने ही! और इसी कलकत्ते में रहकर फिर से टूटे रोज़गार को नये सिरे से गढ़कर खड़ा कर दूँगा।"

कौन-से सामान ले जाने होंगे और कोन-से छोड़ जाने होंगे, शर्मिला इसीका एक तख़मीना बना रही थी कि आवाज़ सुनाई पड़ी--"शर्मिला, शर्मिला!" जल्दी-जल्दी खाता फेंककर पति के कमरे में दौड़ी। अकस्मात् अनिष्ट की आशंका करके कांपते हृदय से पूछा--"क्या हुआ?"

शशांक बोला--"नहीं जाता नेपाल। परवा नहीं मुझे समाज की। यहीं रहूँगा!"

शर्मिला ने पूछा--"क्यों, क्या हुआ?"

शशांक ने कहा--"काम है।"

वही पुरानी बात! काम है! शर्मिला का वक्षःस्थल थरथर काँप उठा। "शर्मि, यह न समझना कि मैं कापुरुष हूँ। जिम्मेवारी छोड़कर मैं भागूँगा! इतने अधःपतन की भी तुम कल्पना कर सकती हो?"

शर्मिला ने पास जाकर उसका हाथ पकड़ा, बोली, "क्या हुआ, मुझसे समझाकर कहो।" शशांक ने कहा---"मैंने फिर तुमसे रुपया कर्ज़ लिया है, यह बात छिपाओ मत।"

शर्मिला बोलो,---"अच्छा, बहुत अच्छा।"

शशांक ने कहा--"उसी दिन की तरह आज से कर्ज़ चुकाने जाता हूँ। जो डुबाया है उसे अवश्य निकाल लाऊँगा, यही मेरी प्रतिज्ञा है, सुन रखो। तुमने जिस प्रकार मेरे ऊपर विश्वास किया था उसी प्रकार फिर करना।"

शर्मिला ने स्वामी की छाता पर सिर रखकर कहा....."तुम भी मेरे ऊपर विश्वास रखना। मुझे काम-काज समझा देना, तैयार कर लेना, ऐसी शिक्षा आज से देना कि मैं तुम्हारे के योग्य हो सकूँ"

बाहर से आवाज़ आई, "चिट्टी।"

ऊर्मि के हाथ की दो चिट्ठियाँ थीं। एक शशांक के नाम---

"मैं इस समय बंबई के रास्ते में हूँ। विलायत जा रही हूँ। पिताजी के आदेश के अनुसार डाक्टरी सोखकर आऊँगी। छः-सात वर्ष लग सकते हैं। तुम लोगों की गृहस्थी में आकर जो तोड़-फोड़ कर गई हूँ वह सब इतने दिनों में ठीक हो जायगा। मेरे लिये कुछ चिन्ता न करना, तुम्हारे हो लिये मेरे मन में बराबर चिन्ता बनी हुई है ।"

शर्मिला की चिट्ठी---

"दादी, तुम्हार चरणों में मेरे सहल सहस्त्र प्रणाम। अज्ञान-वश अपराध किया है, क्षमा करना। यदि यह अपराध न हो तो कम-से-कम यही जानकर सुखी हूँगी। इससे अधिक सुखी होने की आशा मन में नहीं रखूँगी। किसमें सुख है, यही बात क्या निश्चित रूप से जानती हूँ! और मुख यदि न मिले तो नहीं ही सही। भूल करते हुए अब डर लगता है।"