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नव-निधि/राजा हरदौल

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नव-निधि
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ३ से – १७ तक

 

 

नव-निधि
राजा हरदौल

बुन्देलखण्ड में ओरछा पुराना राज्य है। इसके राजा बुन्देले हैं। इन बुन्देलों ने पहाड़ों की घाटियों में अपना जीवन बिताया है। एक समय ओरछे के राजा जुझारसिंह थे। ये बड़े साहसी और बुद्धिमान् थे। शाहजहाँ उस समय दिल्ली के बादशाह थे। जब शाहजहाँ लोदी ने बलवा किया और वह शाही मुल्क को लूटता पाटता ओरछे की ओर आ निकला, तब राजा जुझारसिंह ने उससे मोरचा लिया। राजा के इस काम से गुणग्राही शाहजहाँ बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने तुरन्त ही राजा को दक्खिन का शासन-भार सौंपा। उस दिन ओरछे में बड़ा आनन्द मनाया गया। शाही दूत खिलअत और सनद लेकर राजा के पास आया। जुझारसिंह को बड़े-बड़े काम करने का अवसर मिला। सफ़र की तैयारियाँ होने लगी, तब राजा ने अपने छोटे भाई हरदौल सिंह को बुलाकर कहा-"भैया, मैं तो जाता हूँ। अब यह राज-पाट तुम्हारे सुपुर्द है। तुम भी इसे जी से प्यार करना। न्याय ही राजा का सबसे बड़ा सहायक है। न्याय की गढ़ी में कोई शत्रु नहीं घुस सकता, चाहे वह रावण की सेना या इन्द्र का बल लेकर आये। पर न्याय वही सच्चा है, जिसे प्रजा भी न्याय समझे। तुम्हारा काम केवल न्याय ही करना न होगा, बल्कि प्रजा को अपने न्याय का विश्वास भी दिलाना होगा। और मैं तुम्हें क्या समझाऊँ, तुम स्वयं समझदार हो।"

यह कहकर उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और हरदौल सिंह के सिर पर रख दी। हरदौल रोता हुआ उनके पैरों से लिपट गया। इसके बाद राजा अपनी रानी से विदा होने के लिए रनवास आये। रानी दरवाजे पर खड़ी रो रही थी। उन्हें देखते ही पैरों पर गिर पड़ी। जुझारसिंह ने उठाकर उसे छाती से लगाया और कहा, "प्यारी, यह रोने का समय नहीं है। बुन्देलों की स्त्रियाँ ऐसे अवसरों पर रोया नहीं करती। ईश्वर ने चाहा, तो हम तुम जल्द मिलेंगे। मुझपर ऐसी ही प्रीति रखना। मैंने राजपाट हरदौल को सौंपा है ;वह अभी लड़का है। उसने अभी दुनिया नहीं देखी है।अपनी सलाहों से उसकी मदद करती रहना।"

रानी की ज़बान बन्द हो गई। वह अपने मन में कहने लगी, "हाय, यह कहते हैं,बुन्देलों की स्त्रियाँ ऐसे अवसरों पर रोया नहीं करती। शायद उनके हृदय नहीं होता,या अगर होता है तो उसमें प्रेम नहीं होता !" रानी कलेजे पर पत्थर रखकर आँसू पी गई और हाथ जोड़कर राजा की ओर मुस्कराता हुइ देखने लगी। पर म्या वह मुस्कराहट थी। जिस तरह अँधेरे मैदान में मशाल की रोशनी अंधेरे को और भी अथाह कर देती है। उसी तरह रानी की मुस्कराहट उसके मन के अथाह दुःख को और भी प्रकट कर रही थी।

जुझारसिंह के चले जाने के बाद हरदौलसिंह राज करने लगा। थोड़े ही दिनों में उसके न्याय और प्रजा-वात्सल्य ने प्रजा का मन हर लिया। लोग जुझारसिंह को भूल गये। जुझारसिंह के शत्रु भी थे और मित्र भी। पर हरदौल-सिंह का कोई शत्रु न था, सब मित्र ही थे। वह ऐसा हंसमुख और मधुरभाषी था कि उससे जो बातें कर लेता, वही जीवन-भर उसका भक्त बना रहता। राज-भर में ऐशा कोई न या जो उसके पास तक न पहुँच सकता हो। रात-दिन उसके दर बार का फाटक सबके लिए खुला रहता था। ओरछे को कभी ऐसा सर्वप्रिय राजा नसीब न हुआ था। उदार था, न्यायी था, विद्या और गुण का ग्राहक था पर सबसे बड़ा गुण जो उसमें था वह उसकी वीरता थी। उसका वह गुण हर दर्जे को पहुँच गया था। जिस जाति के जीवन का अवलम्ब तलवार पर है, वा अपने राजा के किसी गुण पर इतना नहीं रीझती जितना उसकी वीरता पर हरदौल अपने गुणों से अपनी प्रजा के मन का भी गना हो गया, वो मुल्क और माल पर राज करने से भी कठिन है। इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। उधर दक्खिन में जुझारसिंह ने अपने प्रबन्ध से चारों ओर शाही दबदबा जमा दिया,इघर ओरछे में हरदौल ने प्रजा पर मोहन-मन्त्र फूँक दिया।

फाल्गुन का महीना था,अबीर और गुलाल से जमीन लाल हो रही थी कामदेव का प्रभाव लोगों को भड़का रहा था। रबी ने खेतों में सुनहला फर्श, बिछा रखा था और खलिहानों में सुनहले महल उठा दिये थे। सन्तोष इस सुनहले फर्श पर इठलाता फिरता था और निश्चिन्तता इस सुनहले महल में ताने अलाप रही थी। इन्हीं दिनों दिल्ली का नामवर फेकैत कादिर खाँ ओरछे आया। बड़े-बड़े पहलवान् उसका लोहा मान गये थे। दिल्ली से ओरछे तक सैकड़ों मर्दानगी के मद से मतवाले उसके सामने आये, पर कोई उससे जीत न सका। उससे लड़ना भाग्य से नहीं, बल्कि मौत से लड़ना था। वह किसी इनाम का भूखा न था ; जैसा ही दिल का दिलेर था, वैसा ही मन का राजा था। ठीक होनी के दिन उसने धूमधाम से ओरछे में सूचना दी कि "खुदा का शेर दिल्ली का कादिर खाँ ओरछे आ पहुँचा है। जिसे अपनी जान भारी हो, आकर अपने भाग्य का निपटारा कर ले। ओरछे के बड़े-बड़े बुन्देले सूरमा यह घमण्ड-भरी वाणी सुनकर गरम हो उठे। फाग और डफ की तान के बदले ढोल की वीर ध्वनि सुनाई देने लगी। हरदौल का अखाड़ा ओरछे के पहलवानों और फेकैतों का सबसे बड़ा अड्डा था। सन्ध्या को यहाँ सारे शहर के सूरमा जमा हुए। कालदेव और भालदेव बुन्देलों की नाक थे, सैकड़ों मैदान मारे हुए। ये ही दोनों पहलवान क़ादिरखाँ का घमण्ड चूर करने के लिए गये।

दूसरे दिन किले के सामने तालाब के किनारे बड़े मैदान में ओरछे के छोटे-बड़े सभी जमा हुए। कैसे-कैसे सजीले अलबेले जवान थे,-- सिर पर खुशरंग बाँकी पगड़ी, माथे पर चन्दन का तिलक, आँखों में मर्दानगी का सरूर, कमरों में तलवार। और कैसे-कैसे बूढ़े थे, तनी हुई मूछे, सादी पर तिरछी पगड़ी, कानों में बँधी हुई दाढ़ियाँ, देखने में तो बूढ़े पर काम में जवान, किसी को कुछ न समझनेवाले। उनकी मर्दाना चाल-ढाल नौजवानों को लजाती थी। हर एक के मुँह से वीरता की बातें निकल रही थीं। नौजवान कहते थे-देखें, आज ओरछे की लाज रहती है या नहीं। पर बूढ़े कहते-ओरछे की हार कभी नहीं हुई और न होगी। वीरों का यह जोश देखकर राजा हरदौल ने बड़े जोर से कह दिया, “खबरदार, बुन्देलों की लाज रहे या न रहे, पर उनकी प्रतिष्ठा में बल न पड़ने पाये। यदि किसी ने औरों को यह कहने का अवसर दिया कि ओरछेवाले तलवार से न जीत सके तो धाँधली कर बैठे, वह अपने को जाति का शत्रु समझे।"

सूर्य निकल आया था। एकाएक नगाड़े पर चोब पड़ी और आशा तथा भय ने लोगों के मन को उछालकर मुँह तक पहुँचा दिया। कालदेव और कादिर खाँ दोनों लँगोटा कसे शेरों की तरह अखाड़े में उतरे और गले मिल गये। तब दोनों तरफ से तलवारें निकली और दोनों के बगलों में चली गई। फिर बादल के दो टुकड़ों से बिजलियाँ निकलने लगी। पूरे तीन घण्टे तक यही मालूम होता रहा कि दो अँगारे हैं। हजारों आदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदान में आधी रात का-सा सन्नाटा छाया था। हाँ,जब कभी कालदेव कोई गिरहदार हाथ चलाता या कोई पैचदार वार बचा जाता,तो लोगों की गर्दन आप ही आप उठ जाती,पर किसी के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलता था। अखाड़े के अन्दर तलवारों को खींच-तान थी;पर देखनेवालों के लिए अखाड़े से बाहर मैदान में इसमें भी बढ़कर तमाशा था। बार-बार जातीय प्रतिष्ठा के विचार से मन के भावों को रोकना और प्रसन्नता या दुःख का शब्द मुँह से बाहर न निकलने देना तलवारों के वार बचाने से अधिक कठिन काम था। एकाएक क़ादिरखाँ 'अल्लाहो-अकबर' चिल्लाया, मानों बादल गरज उठा और उसके गरजते ही कालदेव के सिर पर बिजली गिर पड़ी।

कालदेव के गिरते ही बुन्देलों को सब न रहा। हर एक चेहरे पर निर्बल क्रोध और कुचले हुए घमण्ड की तसवीर खिंच गई। हजारों आदमी जोश में आकर अखाड़े पर दौड़े,पर हरदौल ने कहा-ख़बरदार! अब कोई आगे न बढे। इस आवाज ने पैरों के साथ जंजीर का काम किया। दर्शकों को रोककर जब वे अखाड़े में गये और कालदेव को देखा,तो आँखों में आँसू भर आये। जख्मी शेर जमीन पर पड़ा तड़प रहा था। उसके जीवन की तरह उसकी तलवार के दो टुकड़े हो गये थे।

आज का दिन बीता, रात आई। पर बुन्देलों की आँखों में नींद कहाँ। लोगों ने करवटें बदलकर रात काटी। जैसे दुःखित मनुष्य विकलता से सुबह की बाट जोहता है, उसी तरह बुन्देले रह-रहकर आकाश की तरफ़ देखते और उसकी धीमी चाल पर अमलाते थे। उनके नातीय घमण्ड पर गहरा घाव लगा था। दूसरे दिन ज्योंही सूर्य निकला, तीन लाख बुन्देले तालाब के किनारे पहुँचे। जिस समय भालदेव शेर की तरह अखाड़े की तरफ़ चला,दिलों में धड़ कन-सी होने लगी। कल जब कालदेव अखाड़े में उतरा था, बुन्देलों के हौसले बढ़े हुए थे, पर आज वह बात न थी। हृदय में आशा की जगह डर घुसा हुआ था। जब क़ादिरखाँ कोई चुटीला वार करता तो लोगों के दिल उछल कर होठों तक आ जाते। सूर्य सिर पर चढ़ा आता था और लोगों के दिल बैठ जाते थे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मालदेव अपने भाई से फुर्तीला और तेज़ था। उसने कई बार क़ादिरखाँ को नीचा दिखलाया, पर दिल्ली का निपुण पहलवान हर बार सँभल जाता था। पूरे तीन घण्टे तक दोनों बहादुरों में तलवारें चलती रहीं। एकाएक खट्टाके की आवाज़ हुई और भालदेव की तलवार के दो टुकड़े हो गये। राजा हरदौल अखाड़े के सामने खड़े थे। उन्होंने भालदेव की तरफ़ तेज़ी सेअपनी तलवार फेंकी। भालदेव तलवार लेने के लिए झुका ही था। कि क़ादिरखाँ की तलवार उसकी गर्दन पर आ पड़ी। घाव गहरान था, केवल एक 'चरका' था, पर उसने लड़ाई का फैसला कर दिया।

हताश बुन्देले अपने अपने घरों को लौटे। यद्यपि भालदेव अब भी लड़ने को तैयार था, पर हरदौल ने समझाकर कहा कि, "भाइयो, हमारी हार उसी समय हो गई, जब हमारी तलवार ने जवाब दे दिया। यदि हम क़ादिरखाँ की जगह होते तो निहत्थे आदमी पर वार न करते और जब तक हमारे शत्रु के हाथ में तलवार न आ जाती, हम उस पर हाथ न उठाते; पर क़ादिरखाँ में यह उदारता कहाँ? बलवान् शत्रु का सामना करने में उदारता को ताक पर रख देना पड़ता है। तो भी हमने दिखा दिया है कि तलवार की लड़ाई में हम उसके बराबर हैं और अब हमको यह दिखाना रहा है कि हमारी तलवार में भी वैसा ही ज़ौहर है।" इसी तरह लोगों को तसल्ली देकर राजा हरदौल रनवास को गये।

कुलीना ने पूछा––लाला, आज दंगल का क्या रंग रहा?

हरदौल ने सिर झुकाकर जवाब दिया––आज भी वही कल का-सा हाल रहा।

कुलीना––क्या भालदेव मारा गया?

हरदौल––नहीं, जान से तो नहीं, पर हार हो गई।

कुलीना––तो अब क्या करना होगा?

हरदौल––मैं स्वयं इसी सोच में हूँ। आज तक ओरछे को कभी नीचा न देखना पड़ा था। हमारे पास धन न था; पर अपनी वीरता के सामने हम राज और धन को कोई चीज़ नहीं समझते थे। अब हम किस मुँह से अपनी वीरता का घमण्ड करेंगे?––ओरछे की और बुन्देले की लाज अब जाती है।

कुलीना––क्या अब कोई आस नहीं है?

हरदौल––हमारे पहलवानों में वैसा कोई नहीं है जो उससे बाजी ले जाय।भालदेव की हार ने बुन्देलों की हिम्मत तोड़ दी है। आज सारे शहर में शोक छाया हुआ है। सैकड़ों घरों में भाग नहीं जली। चिराग़ रोशन नहीं हुआ। हमारे देश और जाति की वह चीज़ जिससे हमारा मान था,अब अन्तिम सांस ते रही है। भालदेव हमारा उस्ताद था। उसके हार चुकने के बाद मेरा मैदान में आना धृष्टता है,पर बुन्देलों की साख जाती है तो मेरा मिर भी उसके साथ जायगा। क़ादिरखाँ बेशक अपने हुनर में एक ही है,पर हमारा मालदेव कभी उससे कम नहीं। उसकी तलवार यदि भालदेव के हाथ में न होती तो मैदान जरूर उसके हाथ रहता। ओरछे में केवल एक तलवार है जो क़ादिरखाँ की तलवार का मुँह मोड़ सकती है। वह भैया की तलवार है अगर तुम ओरछे की नाक रखना चाहती हो,तो उसे मुझे दे दो। यह हमारी अन्तिम चेष्टा होगी। यदि इस बार भी हार हुई तो ओरछे का नाम सदैव के लिए डूब जायगा!

कुलीना सोचने लगी, तलवार इनको दूँ या न दूँ। राजा रोक गये हैं; उनकी आज्ञा थी कि किसी दूसरे की परछाहीं भी उस पर न पड़ने पाये। क्या ऐसी दशा में मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन करूँ, तो वे नाराज़ होंगे ? कभी नहीं। जब वे सुनेंगे कि मैंने कैसे कठिन समय में तलवार निकाली है,तो उन्हें सच्ची प्रसन्नता होगी। बुन्देलों की प्रान किसको इतनी प्यारी है ? उनसे ज्यादा ओरछे की भलाई चाहनेवाला कौन होगा ? इस समय उनकी प्राशा का उल्लंघन करना ही आज्ञा मानना है। यह सोचकर कुलीना ने तलवार हरदौल को दे दी।

सबेरा होते ही यह ख़बर फैल गई कि राजा हरदौल कादिरखाँ से लड़ने के लिए जा रहे हैं। इतना सुनते ही लोगों में सनसनी-सी फैल गई और चौंक उठे। पागलों की तरह लोग अखाड़े की भोर दौड़े। हर एक आदमी कहता था कि जब तक हम जीते है, महाराज को लड़ने नहीं देंगे। पर जब लोग अखाड़े के पास पहुंचे तो देखा कि अखाड़े में बिजलियाँ सी चमक रही है। बुन्देलों के दिलों पर उस समय जैसी बीत रही थी, उसका अनुमान करना कठिन है। उस समय उस लम्बे चौड़े मैदान में जहाँ तक निगाह जाती थी,आदमी ही आदमी नज़र आते थे। पर चारों तरफ सन्नाटा था। हर एक आँख अखाड़े की तरफ लगी हुई थी और हर एक का दिल हरदौल की मंगलकामना के लिए ईश्वर का प्रार्थी था। क़ादिरखाँ का एक-एक वार हज़ारों दिलों के टुकड़े कर देता था और हरदौल की एक-एक काट से मनों में आनन्द की लहरें उठती थीं। अखाड़े आखिर घड़ियाल ने पहला पहर बजाया और दरदौल की तलवार बिजली बन-कर कादिर के सिर पर गिरी। यह देखते ही बुन्देले मारे आनन्द के उन्मत्त हो गये। किसी की किसी को सुधि न रही। कई किसी से गले मिलता,कोई उछ-गया। तलवार स्वयं म्यान से निकल पड़ी,भाले चमकने लगे। जीत की खुशी में सैकड़ों जानें भेंट हो गई। पर जब हरदौल अखाड़े से बाहर आये और उन्होंने बुन्देलों की श्रोर तेज़ निगाहों से देखा तो पान की प्रान में लोग सँभल गये। तलवार म्यान में जा छिपी। खयाल आ गया। यह खुशी क्यो, यह उमंग क्यों,और यह पागलपन किस लिए ? बुन्देलों के लिए यह कोई नई बात नहीं हुई। इस विचार ने लोगों का दिल ठंडा कर दिया। हरदौल की इस वीरता ने उसे हर एक बुन्देलेके दिल में मान प्रतिष्ठा की उस ऊँची जगह पर जा बिठाया जहाँ न्याय और उदारता भी उसे न पहुँचा सकती थी। वह पहले ही से सर्वप्रिय था ; और अब वह अपनी जाति का वीरवर और बुन्देला दिलावरी का सिरमौर बन गया।

राजा जुझारसिंह ने भी दक्षिण में अपनी योग्यता का परिचय दिया। वे केवल लड़ाई में ही वीर न थे, बल्कि राज्य-शासन में भी अद्वितीय थे। उन्होंने अपने सुप्रबन्ध से दक्षिण प्रान्तों को बलवान् राज्य बना दिय और वर्ष भर के बाद बादशाहत से प्राज्ञा लेकर वे ओरछे की तरफ चले। ओरछे की याद उन्हें सदैव बेचैन करती रही। आह ओरछा ! वह दिन कब आयेगा कि फिर तेरे दर्शन होंगे ! राजा मंजिलें मारते चले आते थे, न भूख थी, न प्यास, ओरछेवालों की मुहब्बत खींचे लिये आती थी। यहाँ तक कि ओरछे के जंगलों में आ पहुचे। साथ के आदमी पीछे छूट गये। दोपहर का समय था। धूप तेज़ थी। वे घोड़े से उतरे और एक पेड़ की छाँह में जा बैठे। भाग्यवश आज हरदौल भी जीत की खुशी में शिकार खेलने निकले थे। सैकड़ों बुन्देला सरदार उनके माय थे। सब अभिमान के नशे में चूर थे। उन्होंने राजा जुझारसिंह को अकेले बैठे देखा,पर वे अपने घमण्ड में इतने डूबे हर थे कि इनके पास तक न पाये। समझा कोई यात्री होगा। हरदौल की आँखों ने भी धोखा खाया। वे घड़े पर सवार अक्ड़ते हुए जुझारसिंह के सामने आये और पूछना चाहते थे कि तुम कौन हो कि भाई से आँख मिल गई। पहचानते ही घोड़े से कूद पड़े और उनको प्रणाम किया। राजा ने भी उठकर हरदौल को छाती से लगा लिया ! पर उस छाती में अन भाई की मुहब्बत न थी। मुहब्बत की जगह ईर्षा ने घेर ली थी, और वह केवल इसीलिए कि हरदौल दूर से नंगे पैर उनकी तरफ न दौड़ा, उसके सब रों ने दूर ही से उनकी अभ्यर्थना न की। सन्ध्या होते-होते दोनों भाई ओरछे पहुंचे ।राजा के लौटने कासमाचार पाते ही नगर में प्रसन्नता की दुंदुभी बनने लगी। हर जगह आनन्दोत्सव होने लगा और तुरताफुरती सारा शहर जगमगा उठा।

आज रानी कुलीना ने अपने हाथों भोजन बनाया। नौ बजे होंगे।लौंडी ने आकर कहा-महाराज, भोजन तैयार है। दोनों भाई भोजन करने गये। सोने के थाल में राजा के लिए भोजन परोसा गया और चाँदी के थाल में हरदौल के लिए। कुलीना ने स्वयं भोजन बनाया था, स्वयं थाल परोसे थे,और स्वयं ही सामने लाई थी,पर दिनों का चक्र कहो, या भाग्य के दुर्दिन,उसने भूल से सोने का थाल हरदौल के आगे रख दिया और चाँदी का राजा के सामने। हरदौल ने कुछ ध्यान न दिया, वह वर्ष-भर से सोने के थाल में खाते-खाते उसका आदी हो गया था, पर जुझारसिंह तलमला गये। जबान से कुछ न बोले, पर तीवर बदल गये और मुँह लाल हो गया। रानी की तरफ घूर-कर देखा और भोजन करने लगे। पर ग्रास विष मालूम होता था। दो-चार ग्रास खाकर उठ आये। रानी उनके तीवर देखकर डर गई। आज कैसे प्रेम से उसने भोजन बनाया था, कितनी प्रतीक्षा के बाद यह शुभ दिन आया था, उसके उल्लास का कोई पारावार न था, पर राजा के तीवर देखकर उसके प्राण सूख गये। जब राजा उठ गये और उसने थान को देखा तो कलेजा धक् से हो गया और पैरों तले से मिट्टी निकल गई। उसने सिर पीट लिया-ईश्वर! आज रात कुशलतापूर्वक कटे, मुझे शकुन अच्छे दिखाई नहीं देते।

राजा जुझारसिंह शीशमहल में लेटे। चतुर नाहन ने रानी का शृंगार किया और वह मुस्कुराकर बोली- कल महाराज से इसका इनाम लूँगी। यह कह-कर वह चली गई। परन्तु कुलीना वहाँ से न उठी। वह गहरे सोच में पड़ी हुई थी। उनके सामने कौन-सा मुंह लेकर जाऊँ ? नाहन ने नाहक मेरा शृंगार कर दिया। मेरा शृंगार देखकर वे खुश भी होंगे? मुझसे इस समय अपराध हुआ है, में अपराधिनी हूँ, मेरा उनके पास इस समय बनाव-शृंगार करके जाना उचित नहीं। नहीं, नहीं; आज मुझे उनके पास भिखारिनी के भेष में जाना चाहिए। मैं उनसे क्षमा मागूंगी। इस समय मेरे लिए यही उचित है। यह सोचकर रानी बड़े शीशे के सामने खड़ी हो गई। वह अप्सरा-सी मालूम होती थी। सुन्दरता की कितनी ही तसवीरें उसने देखी थीं; पर उसे इस समय शीशे की तसवीर सबसे ज्यादा खूबसूरत मालूम होती थीं।

सुन्दरता और आत्मरुचि का साथ है। हल्दी बिना रंग के नहीं रह सकती। थोड़ी देर के लिए कुलीना सुन्दरता के मद से फूल उठी। वह तनकर खड़ी हो गई। लोग कहते हैं कि सुन्दरता में जादू है, और वह जादू जिसका कोई उतार नहीं। धर्म और कर्म, तन और मन सब सुंदरता पर न्योछावर है। मैं सुन्दर न सही, ऐसी कुरूपा भी नहीं हूँ। क्या मेरी सुंदरता में इतनी भी शक्ति नहीं है कि महाराज से मेरा अपराध क्षमा करा सके! ये बाहु-लताएँ जिस समय उनके गले का हार होंगी, ये आँखें जिस समय प्रेम के मद से लाल होकर देखेंगी, तब क्या मेरे सौन्दर्य की शीतलता उनकी क्रोधाग्नि को ठंडा न कर देगी। पर थोड़ी देर में रानी को ज्ञान हुआ। आह! यह मैं क्या स्वप्न देख रही हूँ! मेरे मन में ऐसी बातें क्यों श्राती है! मैं अच्छी हूँ या बुरी हूँ, उनकी चेरी हूँ। मुझसे अपराध हुआ है, मुझे उनसे क्षमा माँगनी चाहिए । यह श्रृंगार और बनाव इस समय उपयुक्त नहीं है! यह सोचकर रानी ने सब गहने उतार दिये। इतर में बसी हुई हरे रेशम की साड़ी अलग कर दी। मोतियों से भरी माँग खोल दी और वह खूब फूट फूटकर रोई। हाय। यह मिलाप की रात वियोग की रात से भी विशेष दुःखदायिनी है। भिखारिनी का भेष बनाकर रानी शीशमहल की ओर चली। पैर आगे बढ़ते थे, पर मन पीछे हठा जाता था। दरवाजे तक आई, पर भीतर पैर न रख सकी। दिल धड़कने लगा। ऐसा जान पड़ा मानों उसके पैर थर्रा रहे हैं। राना जुझारसिंह बोले'कौन है ? कुलीना ! भीर क्यों नहीं आ जाती ??

कुलीना ने जी कड़ा करके कहा––महाराज, कैसे आऊँ? मैं अपनी जगह क्रोध को बैठा पाती हूँ।

राजा––यह क्यों नहीं कहती कि मन दोषी है, इसलिए आँखें नहीं मिलाने देता?

कुलीना––निस्सन्देह मुझसे अपराध हुआ है, पर एक अबला आपसे क्षमा का दान माँगती है।

राजा––इसका प्रायश्चित्त करना होगा।

कुलीना––क्यों कर?

राजा––हरदौल के खून से।

कुलीना सिर से पैर तक काँप गई। बोली––क्या इसलिए कि शाम मेरी भूल से ज्योनार के थालों में उलट फेर हो गया?

राजा––नहीं, इसलिए कि तुम्हारे प्रेम में हरदौल ने उलट-फेर कर दिया ! जैसे नाग की आँच से लोहा लाल हो जाता है, वैसे ही रानी का मुँह लाल हो गया। क्रोध को अग्नि सद्भावों को भस्म कर देती है, प्रेम और प्रतिष्ठा दया और न्याय, सब जल के राख हो जाते हैं। एक मिनट तक रानी को ऐसा मालूम हुआ, मानों दिल और दिमाग़ दोनों खौल रहे हैं। पर उसने आत्मदमन की अन्तिम चेष्टा से अपने को सँभाला, केवल इतना बोली-हरदौल को मैं अपना लड़का और भाई समझती हूँ।

राजा उठ बैठे और कुछ नर्म स्वर से बोले––नहीं, हरदौल लड़का नहीं है, लड़का मैं हूँ। जिसने तुम्हारे ऊपर विश्वास किया। कुलीना मुझे तुमसे ऐसी प्राथा न थी। मुझे तुम्हारे ऊपर घमण्ड था। मैं समझता था, चाँद-सूर्य टल सकते हैं, पर तुम्हारा दिल नहीं टल सकता। पर आज मुझे मालूम हुआ कि वह मेरा लड़कपन था। बड़ों ने सच कहा है कि स्त्री का प्रेम पानी की धार है, जिस ओर ढाल पाता है, उधर ही बह जाता है। सोना ज्यादा गर्म होकर पिघल जाता है।

कुलीना रोने लगी। क्रोध की जग पानी बनकर आँखों से निकल पड़ी। जब आवाज़ बस में हुई, तो बोली––मैं आपके इस सन्देह को कैसे दूर करूँ?

राजा––हरदौल के खून से।

रानी––मेरे ख़ून से दाग न मिटेगा?

राजा––तुम्हारे खून से और पक्का हो जायगा।

रानी––और कोई उपाय नहीं है?

राजा––नहीं।

रानी–यह आपाका अन्तिम विचार है?

राजा––हाँ, यह मेरा अन्तिम विचार है। देखो, इस पानदान में पान का बीड़ा रखा है। तुम्हारे सतीत्व की परीक्षा यही है कि तुम हरदौल को इसे अपने हाथों खिला दो। मेरे मन का भ्रम उसी समय निकलेगा जब इस घर से हरदौल की लाश निकलेगी।

रानी ने घृणा की दृष्टि से पान के बीड़े को देखा और वह उलटे पैर लौट आई।

रानी सोचने लगी––क्या हरदौल के प्राण लूँ? निर्दोष सच्चरित्र वीर हरदौल की जान से अपने सतीत्व की परीक्षा दूँ? उस हरदौल के खून से अपना हाथ काला करूँ जो मुझे बहन समझता है? यह पाप किसके सिर पड़ेगा? क्या एक निर्दोष का खून रंग न लायेगा? आह! अभागी कुलीना! तुझे आज अपने सतीत्व की परीक्षा देने की आवश्यकता पड़ी है और वह ऐसी कठिन? नहीं, यह पाप मुझसे न होगा। यदि राजा मुझे कुलटा समझते हैं तो समझे, उन्हें मुझपर सन्देह है तो हो। मुझसे यह पाप न होगा। राजा को ऐसा सन्देह क्यों हुआ? क्या केवल थालों के बदल जाने से? नहीं, अवश्य कोई और बात है। आज हरदौल उन्हें जंगल में मिल गया था। राना ने उसकी कमर में तलवार देखी होगी। क्या आश्चर्य है, हरदौल से कोई अपमान भी हो गया हो। मेरा अपराध क्या है? मुझपर इतना बड़ा दोष क्यों लगाया जाता है? केवल थालों के बदले जाने से? हे ईश्वर! मैं किससे अपना दुःख कहूँ? तू ही मेरा साक्षी है। जो चाहे सो हो, पर मुझसे यह पाप न होगा।

रानी ने फिर सोचा––राजा, क्या तुम्हारा हृदय ऐसा ओछा और नीच है? तुम मुझसे हरदौल की जान लेने को कहते हो? यदि तुमसे उसका अधिकार और मान नहीं देखा जाता, तो क्यों साफ़-साफ़ ऐसा नहीं कहते? क्यों मरदों की लड़ाई नहीं लड़ते? क्यों स्वयं अपने हाथ से उसका सिर नहीं काटते और मुझसे वह काम करने को कहते हो? तुम खूब जानते हो, मैं नहीं कर सकती। यदि मुझसे तुम्हारा जी उकता गया है, यदि मैं तुम्हारी जान की जंजाल हो गई हूँ, तो मुझे काशी या मथुरा भेज दो। मैं बेखटके चली जाऊँगी। पर ईश्वर के लिए मेरे सिर इतना बड़ा कलंक न लगने दो। पर मैं जीवित ही क्यों रहूँ? मेरे लिए ऋत्र जीवन में कोई सुख नहीं है। अब मेरा मरना ही अच्छा है। मैं स्वयं प्राण दे दूंगी, पर यह महापाप मुझसे न होगा। विचारों ने फिर पलटा खाया। तुमको पाप करना ही होगा। इससे बड़ा पाप शायद आज तक संसार में न हुआ हो; पर यह पाप तुमको करना होगा। तुम्हारे पतिव्रत पर सन्देह किया।मा रहा है और तुम्हें इस सन्देह।को मिटाना होगा। यदि तुम्हारी जान जोखि में होती, तो कुछ हर्ज न था अपनी जान देकर हरदौल को बचा लेती। पर इस समय तुम्हारे पतिव्रत पर आँ व पा रही है। इसलिए तुम्हें यह पाप करना ही होगा और पाप करने के बाद हँसना और प्रसन्न रहना होगा। यदि तुम्हारा चित्त तनिक भी विचलित हुआ, यदि तुम्हारा मुखड़ा ज़रा भी मद्धिम हुआ, तो इतना बड़ा पाप करने पर भी तुम सन्देह भिटाने में सफल न होगी। तुम्हारे जी पर चाहे जो बीते, पर तुम्हें यह पाप करना ही पड़ेगा। परंतु कैसे होगा? क्या मैं हरदौल का सिर उतारूँगी? यह सोचकर रानी के शरीर में कँपकँपी आ गई। नहीं मेरा हाथ उसपर कभी नहीं उठ सकता। प्यारे हरदौल, मैं तुम्हें विष नहीं खिला सकती मैं मानती हूँ, तुम मेरे लिए श्रानन्द से विष का बीड़ा खा लोगे। हाँ, मैं जानती हूँ, तुम 'नहीं' न करोगे। पर मुझसे यह महापाप नहीं हो सकता; एक बार नहीं, हजार बार नहीं हो सकता।

हरदौल को इन बातों की कुछ भी ख़बर न थी। आधी रात को एक दासी रोती हुई उसके पास गई और उसने उससे सब समाचार अक्षर-अक्षर कह सुनाया। वह दासी पान दान लेकर रानी के पीछे-पीछे राजमहल से दरवाज़े तक गई थी और सब बातें सुनकर आई थी। हरदौल राजा का ढंग देखकर पहले ही ताड़ गया था कि राजा के मन में कोई न कोई काँटा अवश्य खटक रहा है। दासी की बातों ने उसके सन्देह को और भी पक्का कर दिया। उसने दासी से कड़ी मनाही कर दी कि सावधान ! किसी दूसरे के कानों में इन बातों की भनक न पढ़े और वह स्वयं मरने को तैयार हो गया।

हरदोल बुन्देलों की वीरता का सूरज था। उसके भौहों के तनिक इशारे से तीन लाख बुन्देले मरने और मारने के लिए इकट्ठे हो सकते थे। ओरछा उस पर न्यौछावर था। यदि जुझारसिंह खुले मैदान उसका सामना करते, तो अवश्य मुंह की खाते। क्योंकि हरदौल भी बुन्देला था और बुन्देले अपने शत्रु के साथ किसी प्रकार की मुँहदेखी नहीं करते, मरना-मारना उनके जीवन का एक अच्छा दिल बहलाव है। उन्हें सदा इसकी लालसा रहती है कि कोई हमें चुनौती दे, कोई हमें छेड़े। उन्हें सदा खून की प्यास रहती है और वह प्यास कभी नहीं बुझती। परन्तु उस समय एक स्त्री को उसके खून की ज़रूरत थी और उसका साहस उसके कानों में कहता था कि एक निर्दोष और सती अमला के लिए अपने शरीर का खून देने में मुँह न मोड़ो। यदि भैया को यह सन्देह होता कि मैं उनके खून का प्यासा हूँ और उन्हें मारकर राज पर अधिकार करना चाहता हूँ, तो कुछ हर्ज न था। राज्य के लिए कत्ल और खून, दगा और फरेब सत्र उचित समझा गया है। परन्तु उनके इस सन्देह का निपटारा मेरे मरने के सिवा और किसी तरह नहीं हो सकता। इस समय मेग धर्म है कि अपना प्राण देकर उनके इस सन्देह को दूर कर दें। उनके मन में यह दुखानेवाला सन्देह उत्पन्न करके भी यदि मैं नीता ही रहूँ और अपने मन की पवित्रता बनाऊँ तो मेरी ढिठाई है। नहीं, इस भले काम में अधिक आगा-पीछा करना अच्छा नहीं। मैं खुशी से विष का बीड़ा खाउँगा। इससे बढ़कर शूरवीर की मृत्यु और क्या हो सकती है। क्रोध में आकर मारू के भय बढ़ानेवाले शब्द सुनकर रणक्षेत्र में अपनी पान को तुच्छ समझना इतना कठिन नहीं है। आज सच्चा वीर हरदौल अपने हृदय के बड़प्पन पर अपनी सारी वीरता और साहस न्योछावर करने को उद्यत है।

दूसरे दिन हरदौल ने खूब तड़के स्नान किया। बदन पर अस्त्र-शस्त्र सजा मुसकुराता हुआ राजा के पास गया। राजा भी सोकर तुरन्त ही उठे थे, उनकी अलसाई हुई आँखें हरदौल की मूर्ति की ओर लगी हुई थीं। सामने संगमर्मर की चौकी पर विष मिला पान सोने की तश्तरी में रखा हुआ था। राजा कभी पान की ओर ताकते और कभी मूर्ति की ओर, शायद उनके विचार ने इस विष की गाँठ और उस मूर्ति में एक सम्बन्ध पैदा कर दिया था। उस समय जो हर दौल एकाएक घर में पहुंचे तो गजा चौंक पड़े। उन्होंने सँभलकर पूछा, "इस समय कहाँ चले ?"

हरदौल का मुखड़ा प्रफुल्लित था। वह हँसकर बोला, "कल आप यहाँ पधारे हैं, इसी खुशी में मैं आज शिकार खेलने जाता हूँ। आपको ईश्वर ने अमित बनाया है, मुझे अपने हाथ से विजय का बीड़ा दीजिए।"

यह कहकर हरदौल ने चौकी पर से पान-दान उठा लिया और उसे राजा के।सामने रखकर चौड़ा लेने के लिए हाथ बढ़ाया। हरदौल का खिला हुआ मुखड़ा देखकर राजा की ईर्ष्या की आग और भी भड़क उठी।-दुष्ट, मेरे वाव पर नमक छिड़कने आया है ! मेरे मान और विश्वास को मिट्टी में मिलाने पर भी तेरा जी न भरा ! मुझसे विजय का बीड़ा माँगता है ! हाँ, यह विजय का बीड़ा है। पर तेरी विजय का नहीं, मेरी विजय का।

इतना मन में कहकर जुझारसिंह ने बीड़े को हाथ में उठाया। वे एक क्षण तक कुछ सोचते रहे, फिर मुगकुराकर हरदौल को बीड़ा दे दिया। हरदौल ने सिर झुकाकर बीड़ा लिया, उसे माथे पर चढ़ाया, एक बार बड़ी ही करुणा के साथ चारों ओर देखा और फिर बड़े को मुँह में रख लिया। एक सच्चे राजपूत ने अपना पुरुषत्व दिखा दिया। विष हलाहल था, कण्ठ के नीचे उतरते ही हन्दौल के मुखड़े पर मुर्दनी छा गई और आँखें बुझ गई। उसने एक ठण्डी साँस ली,दोनों हाथ जोड़कर जुझारसिंह को प्रणाम किया और ज़मीन पर बैठ गया। उसके ललाट पर पसीने की ठण्डी-ठण्डी बूँदें दिखाई दे रही थीं और साँस तेजी से चलने लगी थी; पर चेहरे पर प्रसन्नता और सन्तोष की झलक दिखाई देती थी।

जुझारसिंह अपनी जगह से ज़रा भी न हिले । उनके चेहरे पर ईष्या भरी हुई मुसकुराहट छाई हुई थी, पर आँखों में आँसू भर आये थे। उजेले और अँधेरे का मिलाप हो गया था ।