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निर्मला/१९

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निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ २२१ से – २२६ तक

 
 

उन्नीसवाँ परिच्छेद

अब की सुधा के साथ निर्मला को भी आना पड़ा। वह तो मैके में कुछ दिन और रहना चाहती थी, लेकिन शोकातुरा सुधा अकेले कैसे रहती। उसकी खातिर आना ही पड़ा।

रुक्मिणी ने भुङ्गी से कहा-देखती है, बहू मैके से कैसी निखर कर आई है।

भुङ्गी ने कहा-दीदी, माँ के हाथ की रोटियाँ लड़कियों को बहुत अच्छी लगती हैं।

रुक्मिणी-ठीक कहती है भुङ्गी, खिलाना तो कुछ माँ ही जानती है।

निर्मला को ऐसा मालूम हुआ कि घर का कोई आदमी उसके आने से खुश नहीं। मुन्शी जी ने खुशी तो बहुत दिखाई; पर हृदयगत चिन्ता को न छिपा सके। बच्ची का नाम सुधा ने आशा रख दिया था। वह आशा की मूर्ति सी थी भी। देख कर सारी
चिन्ता भाग जाती थी। मुन्शी जी ने उसे गोद में लेना चाहा, तो रोने लगी, दौड़ कर माँ से लिपट गई; मानो पिता को पहचानती ही नहीं। मुन्शी जी ने मिठाइयों से उसे परचाना चाहा! घर में कोई नौकर तो था नहीं, जाकर सियाराम से दो आने की मिठाइयाॅ लाने को कहा। जियाराम भी बैठा हुआ था। बोल उठा -- हम लोगों के लिए तो कभी मिठाइयाँ नहीं आती।

मुन्शी जी ने झुँझलाकर कहा -- तुम लोग बच्चे नहीं हो।

जियाराम -- और क्या बूढ़े हैं। मिठाइयाँ मँगवा कर रख दीजिए, तो मालूम हो कि बच्चे हैं या बूढ़े। निकालिए चार आने और। आशा की बदौलत हमारे नसीब भी जागें।

मुन्शी जी -- मेरे पास इस वक्त़ पैसे नहीं हैं। जाओ सिया, जल्द आना।

जिया ०-- सिया नहीं जायगा। किसी का गुलाम नहीं है। आशा अपने बाप की बेटी है, तो वह भी अपने बाप का बेटा है।

मुन्शी जी -- क्या फ़ुज़ूल की बातें करते हो। नन्हीं सी बच्ची की बराबरी करते तुम्हें शर्म नहीं आती। जाओ सियाराम, ये पैसे लो।

जिया ०-- मत जाना सिया! तुम किसी के नौकर नहीं हो। सिया बड़ी दुविधा में पड़ गया। किसका कहना माने? अन्त में उसने जियाराम का कहना मानने का निश्चय किया। बाप ज्य़ादा से ज़्यादा घुड़क देंगे, जिया तो मारेगा, फिर वह किसके पास फ़रियाद लेकर जायगा। बोला -- मैं न जाऊँगा। मुन्शी जी ने धमका कर कहा-अच्छा, तो मेरे पास फिर कोई चीज़ माँगने मत आना।

मुन्शी जी खुद बाजार चले गए; और एक रुपए की मिठाई लेकर लौटे। दो आने को मिठाई मांगते हुए उन्हें शर्म आई। हलवाई उन्हें पहचानता था। दिल में क्या कहेगा ?

मिठाई लिए हुए मुन्शी जी अन्दर चले गए। सियाराम ने मिठाई का बड़ा सा दोना देखा, तो वाप का कहना न मानने का उसे दुःख हुआ। अब वह किस मुंह से मिठाई लेने अन्दर जायगा। वड़ी भूल हुई । वह मन ही मन जियाराम के चाँटों की चोट और मिठाई की मिठास में तुलना करने लगा।

सहसा भुङ्गी ने दो तश्तरियॉ दोनों के सामने लाकर रख दी। जियाराम ने बिगड़ कर कहा-इसे उठा ले जा।

मुझी काहे को विगड़ते हो वाबू, क्या मिठाई अच्छी नहीं लगती?

जियाo-मिठाई आशा के लिए आई है, हमारे लिए नहीं आई । ले जा, नहीं तो मैं सड़क पर फेंक दूंगा। हम तो पैसे-पैसे के लिए रटते रहते हैं, और यहाँ रुपयों की मिठाई आती है।

भुङ्गी-तुम ले लो सिया वाबू, यह न लेंगे न सही। सियाराम ने डरते-डरते हाथ बढ़ाया था कि जियाराम ने डाँट कर कहा-मत छूना मिठाई, नहीं तो हाथ तोड़ कर रख दूंगा। लालची कहीं का । सियाराम यह घुड़की सुन कर सहम उठा। मिठाई खाने की हिम्मत न पड़ी । निर्मला ने यह कथा सुनी तो दोनों लड़कों को मनाने चली। मुन्शी जी ने कड़ी कसम रखा दी।

निर्मला-आप समझते नहीं हैं । यह सारा गुस्सा मुझ पर है।

मुन्शी जी-गुस्ताख हो गया है । इस ख्याल से कोई सख्ती नहीं करता कि लोग कहेंगे बिना माँ के बच्चों को सताते हैं, नहीं तो सारी शरारत घड़ी भर में निकाल दूँ।

निर्मला-इसी बदनामी का मुझे भी तो डर है।

मुन्शी जी-अव न डरूँगा, जिसके जी में जो आए कहे।

निर्मला-पहले तो यह ऐसे न थे।

मुन्शी जी-अजी कहता है कि आपके लड़के मौजूद थे, आपने शादी क्यों की? यह कहते भी इसे सङ्कोच नहीं होता कि आप लोगों ने मन्साराम को विष दे दिया। लड़का नहीं है, शत्रु है।

जियाराम द्वार पर छिप कर खड़ा था। स्त्री-पुरुष में मिठाई के विषय में क्या बातें होती हैं, यही सुनने वह आया था। मुन्शी जी का अन्तिम वाक्य सुन कर उससे न रहा गया । बोल उठा-शत्रु न होता तो आप उसके पीछे क्यों पड़ते । आप जो इस वक्त कह रहे हैं, वह मैं बहुत पहले से समझे बैठा हूँ । भैया न समझे थे, धोखा खा गए। हमारे साथ आप की दाल न गलेगी। सारा जमाना कह रहा है कि भाई साहव को जहर दिया गया। मैं कहता हूँ तो क्यों आपको गुस्सा आता है ?

निर्मला तो सन्नाटे में आ गई । मालूम हुआ किसी ने उसकी देह पर अङ्गारे डाल दिए । मुन्शी जी ने डाँट कर जियाराम को चुप करना चाहा; पर जियाराम निःशङ्क खड़ा ईटों का जवाब पत्थर से देता रहा। यहाँ तक कि निर्मला को भी उस पर क्रोध आ गया। यह कल का छोकरा न किसी काम का न काज का, यों खड़ा टर्रा रहा है; जैसे घर भर का पालन-पोषण यही करता हो। त्योरियाँ चढ़ा कर बोली-बस, अब बहुत हुआ जियाराम, मालूम हो गया कि तुम बड़े लायक हो, वाहर जाकर वैठो।

मुन्शी जी अव तक तो जरा दब-दब कर बोलते रहे, निर्मला की शह पाई तो दिल बढ़ गया। दाँत पीस कर लपके और इसके पहले कि निर्मला उनके हाथ पकड़ सके, एक थप्पड़ चलाही दिया। थप्पड़ निर्मला के मुँह पर पड़ा, वही सामने पड़ी। माथा चकरा गया। मुन्शी जी के सूखे हुए हाथों में भी इतनी शक्ति है, इसका वह अनुमान न कर सकती थी। सिर पकड़ कर बैठ गई। मुन्शी जी का क्रोध और भी भड़क उठा, फिर घूंसा चलाया;पर अब की जियाराम ने उनका हाथ पकड़ लिया; और पीछे ढकेल कर बोला-दूर से बातें कीजिए; क्यों नाहक अपनी बेइज्जती करवाते हैं। अम्माँ जी का लिहाज़ कर रहा हूँ, नहीं तो दिखा देता।

यह कहता हुआ वह बाहर चला गया। मुन्शी जी संज्ञा-शून्य •से खड़े रहे। इस वक्त अगर जियाराम पर दैवी वज्र गिर पड़ता, तो शायद उन्हें हार्दिक आनन्द होता। जिस पुत्र को कभी गोद में लेकर निहाल हो जाते थे, उसी के प्रति आज भाँति-भाँति की दुष्कल्पनाएँ मन में आ रही थीं।

रुक्मिणी अब तक तो अपनी कोठरी में थी। अब आकर बोली-बेटा अपने बराबर का हो गया, तो उस पर हाथ न छोड़ना चाहिए।

मुन्शी जी ने ओंठ चबा कर कहा-मैं इसे घर से निकाल कर छोडूंगा। भीख माँगे या चोरी करे, मुझसे कोई मतलब नहीं।

रुक्मिणी-नाक किसकी कटेगी?

मुन्शी-इसकी चिन्ता नहीं।

निर्मला-मैं जानती कि मेरे आने से यह तूफान खड़ा हो जायगा, तो भूल कर भी न आती। अब भी भला है, मुझे भेज दीजिए। इस घर में मुझसे रहा न जायगा।

रुक्मिणी-तुम्हारा बहुत लिहाज़ करता है बहू! नहीं, तो आज अनर्थ ही हो जाता।

निर्मला-अब और क्या अनर्थ होगा दीदी जी? मैं तो फूंक-फूंक कर पाँव रखती हूँ; फिर भी अपयश लग ही जाता है। अभी घर में पाँव रखते देर नहीं हुई; और यह हाल हो गया। ईश्वर ही कुशल करें।

रात को भोजन करने कोई न उठा। अकेले मुन्शी जी ने खाया। निर्मला को आज एक नई चिन्ता हो गई थी-जीवन कैसे पार लगेगा? अपना ही पेट होता, तो विशेष चिन्ता न थी। अब तो एक नई विपत्ति गले पड़ गई थी। वह सोच रही थी-मेरी बच्ची के भाग्य में क्या लिखा है राम?